संपादकीय
देश का नेता कैसा हो…
अक्टूबर की दो घटनाएं, यद्यपि ये पृथ्वी के दो छोरों की हैं, किसी भी बहुनस्लीय, बहुधार्मिक, बहुजातीय और बहुभाषीय समाज के लिए ऐसे उदाहरण हैं […]
लिबास में ढकी मंशाएं
प्रतिकात्मकता वैसे तो संवाद और संचार का अंग है, इसलिए सर्वव्याप्त है पर जहां तक राजनीति का सवाल है वह इसे किस तरह इस्तेमाल करती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसका चरित्र क्या है। वैसे भी राज्य की परिकल्पना प्रतीकों से अटी पड़ी है। लोकतंत्रों में जहां मतदाता को रिझाना महत्त्वपूर्ण होता है, स्वप्नों और अपेक्षाओं के रसायन से भरी प्रतिकात्मकता का बोलबाला समझ में आने वाला है। यह प्रतिकात्मकता स्वर्णिम विगत और अपेक्षित भविष्य के सपनों का ऐसा रसायन होती हैं जिसका अक्सर तर्क और यथार्थ से कोई लेना देना नहीं होता। पर जो शासितों से होनेवाली प्रतिबद्धता की अपरिहार्य मांग को आसान और सह्य बनाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
आखिर हिंदी की उपयोगिता क्या है?
भाषा अपने बोलने वालों की बौद्धिक सक्रियता और गतिविधि का तो प्रमाण होती ही है, सत्ता से अपने जीवंत संवाद के सामथ्र्य की, और ज्ञान के संचयन की क्षमता के, अनुपातिक संबंध का भी मानदंड होती है। इसलिए उसके स्तर में समानता नहीं होती। दूसरे शब्दों में भाषा की शक्ति काफी हद तक उसके बोलने वालों की क्षमता पर निर्भर करती है। और यह क्षमता भाषा के स्वाभाविक गुणों से इतर कारणों से भी अर्जित की जाती है।
‘राम राज्य’ के मुहाने पर
ऐसा लगता है हम ‘राम राज्य’ के मुहाने पर पहुंच चुके हैं। चूंकि इधर राम का कोई नया अवतार नहीं हुआ है इसलिए हम मान […]
लद्दाख में शुतुरमुर्ग
भारतीय जनता पार्टी की केंद्रीय सरकार की सीमाएं नेतृत्व की क्षमता के कारण धीरे-धीरे देश को गंभीर अनिश्चितता के दलदल की ओर धकेलती नजर आ रही हैं। पिछले तीन महीनों में कोरोना वायरस ने भारतीय जनजीवन और अर्थव्यवस्था को लगभग तहस नहस कर दिया है। भारत इस मायने में अपवाद नहीं है। लगभग पूरी दुनिया इसके चपेट में है पर जिस रूप में इसने भारतीय जीवन को प्रभावित किया है वैसा शायद ही किसी देश में हुआ हो।
‘मत चूके चौहान’
मुजफ्फरपुर, बिहार से यह समाचार मुख्यधारा के मीडिया में दो दिन बाद 27 मई को पहुंच पाया था। घटना 25 मई अपरान्ह के बाद की है। अपने प्राइम टाइम बुलेटिन में एनडीटीवी ने एक क्लिपिंग दिखलाई जिसमें मुश्किल से दो साल का एक बच्चा प्लेटफार्म पर लेटी अपनी मां के ऊपर पड़ी चादर से खेल रहा है। बच्चा इस बात से अनभिज्ञ है कि मां नहीं रही है। वैसे भी इतने छोटे बच्चे से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह जाने कि मौत जिंदगी के कितने समानांतर चलती है? विशेष कर गरीबों के लिए।