डूबती दिल्ली

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कहने की जरूरत नहीं है कि देश की स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह पूंजीपतियों के हाथों सौंपी जा चुकी है और इलाज यानी मानवीय पीड़ा, बड़े व्यापार में बदल चुकी है।

यह समाचार उसी दिन का है जिस दिन प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने पुराने प्रगति मैदान के ‘हाल ऑफ नेशंस’ को, जो अपनी अनाक्रामक भव्यता यानी शालीनता, पर्यावरणीय एकात्मता व संवेदनशीलता के लिए जाना जाता था, ध्वस्त कर उसकी, जगह जिस हाइटैक ‘भारत मंडपम’ का उद्घाटन किया, वह दरवाजा खोलने से लेकर बंद करने तक, पूरी तरह बिजली पर निर्भर है। इस अवसर पर उन्होंने अपनी लाखों जन सभाओं के संबोधन से ‘पगी’ आवाज में, उपलब्धियों और आश्वासनों से छलकती जानी पहचानी ‘प्रेरक शैली’ में श्रोताओं को बताया कि देश किस तरह से अगली छलांग में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनने जा रहा है। उन्होंने कहा कि देश का बुनियादी ढांचा बदल रहा है और बदलता जाएगा।

यह भी उसी दिन की बात है। प्रगति मैदान से कुछ किमी दूर, पश्चिम की ओर दिल्ली के उस मशहूर अस्पताल में, जो नेताओं से लेकर पहुंचे हुए उद्योगपतियों, पूंजीपतियों और नौकरशाहों में लोकप्रिय व सम्मानित है, एक बीमार ने अपने डॉक्टर पर छोटे से चाकू से हमला कर दिया। चाकू इतना छोटा था कि डॉक्टर की अंगुली में इतना भर घाव कर पाया कि खून की कुछ बूंद अवश्य टपकीं। डॉक्टर और गार्ड ने ‘आक्रमणकारी’ को दबोचने में देर नहीं लगाई। आक्रामक बीमार था। डॉक्टर का पिछले कुछ वर्षों से मरीज वह व्यक्ति सिर्फ 21 वर्ष का था। किसी ऐसे असाध्य रोग से पीडि़त जिसके लिए उसका इस निजी अस्पताल के न्यूरोसर्जरी विभाग में तीन वर्ष पहले आपरेशन हुआ था। आपरेशन उसी सर्जन ने किया था, जिस पर उसने हमला किया। इत्तफाकन डॉक्टर न्यूरो सर्जरी विभाग के प्रमुख हैं।

सवाल है आखिर उसने ऐसा क्यों किया होगा? डॉक्टर के अनुसार जब उसे बताया गया कि उसका और ऑपरेशन होगा तो उसने कहा कि अब इलाज के लिए हमारे पास पैसा नहीं है। इस पर डाक्टर ने मरीज को सुझाया कि ‘’वह मुफ्त इलाजवाली ओपीडी का कार्ड बनवा ले’’। वह वहां गया और जब लौटा तो इतना नाराज था कि उसने डॉक्टर पर हमला कर दिया। यह बात तो समझ में आती ही है कि बीमार का संबंध इलाज न हो पाने की हताशा से ही रहा होगा जिसमें ‘मुफ्त इलाज’ की लाइन की धक्कमपेल ने उसे बौखला दिया होगा। कहा नहीं जा सकता कि उसका पहला अपरेशन कितने लाख में हुआ होगा और कितना उसके अगले ऑपरेशन या इलाज के लिए मांगा गया होगा? इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि उसकी असाध्य बीमारी ने उसे तो हताश किया ही हुआ होगा, पूरे परिवार को अस्थिर कर रखा होगा।  इसलिए भी भुलाया नहीं जा सकता कि यह अस्पताल देश के चुनींदा महंगे अस्पतालों में से तो है पर अपनी दक्षता के लिए भी जाना जाता है। पर इस संदर्भ में चिंताजनक यह है कि देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह लडख़ड़ा चुकी है और सामान्य आदमी के लिए बीमार होना गहरे सामाजिक तथा आर्थिक संकट का कारण बन चुका है। दुर्भाग्य से हमारे शासकों ने चिकित्सा व्यवस्था देखते ही देखते पूरी तरह पूंजी- पतियों के हाथों सौंप दी है और इलाज यानी मानवीय पीड़ा, बड़े  व्यापार में बदली जा चुकी है। यह सब अचानक नहीं हो रहा है। जो सरकारी अस्पताल हैं उनमें तिल धरने की जगह नहीं है। नियोजित तरीके से सरकार सार्वजनिक स्वास्थ्य से हाथ खेंचने में लगी है।

यद्यपि सरकारी अस्पताल भी अब पूरी तरह नि:शुल्क नहीं रहे हैं, इस पर भी उन में भर्ती होना असंभव न कहें तो भी दुष्कर तो हो ही गया है। इसका एक उदाहरण, जो पिछले माह ही सामने आया है, कम से कम यह समझने के लिए काफी है कि सरकारी अस्पतालों में भर्ती होना और इलाज करवाना आसान काम नहीं रहा है। राजधानी के ही केंद्रीय सरकार के एक बड़े अस्पताल की एक घटना इस संकट की गंभीरता का आभास दे देती है। इस अस्पताल के एक वरिष्ठ डाक्टर को इसलिए गिरफ्तार किया गया है कि उसने मरीजों को दाखिला दिलवाने और नंबर से पहले आपरेशन करवाने की एवज में करोड़ों कमा लिए हैं। वैसे यहां यह याद करना अनुचित नहीं होगा कि दिल्ली में केंद्रीय सरकार के सिर्फ चार अस्पताल हैं और इन में से दो पिछली सदी में जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने बनवाए थे, वे हैं एम्स (अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान)1956 में और सफदरजंग 1962 में बना। यानी छह दशक पहले। दिल्ली की जनसंख्या आज कहां की कहां पहुंच चुकी है! विगत 60 सालों में केंद्र की ओर से स्वास्थ्य व्यवस्था के नाम पर इस महानगर में कुछ नहीं जोड़ा गया।

मरीज द्वारा चाकू से डाक्टर पर हमले की घटना प्रगति मैदान के परिदृश्य के समानांतर हो रही थी।

पर इससे क्या होता है! खबरें बता रही हैं, भारत नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में, दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है। उसके स्वागत के लिए मोदी जी जो संभव है, कर रहे हैं। दिल्ली में तोड़ फोड़ जारी है। इस शहर का इतिहास हजार वर्ष से भी ज्यादा का तो है ही। शासक भी आदि काल से आते रहे हैं। वे अपनी-अपनी पसंद के हिसाब से दिल्ली बनाते रहे हैं। इन दिल्लीयों की संख्या मोटे तौर पर सात गिनाई जाती है। आठवीं अंग्रेजों की बनाई हुई है। जितनी भी दिल्लीयां बनी हों पर किसी ने पहले की बनाई दिल्ली नहीं उजाड़ी, कुछ नया जोड़ा जरूर। स्पष्ट है कि नई दिल्ली नेहरू, शास्त्री, इंदिरा गांधी या फिर मनमोहन सिंह की बनाई हुई नहीं है। नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक ने अपना सारा ध्यान बेहतर सामाजिक व्यवस्थाएं बनाने की ओर दिया था, चाहे वह शिक्षा हो, अनुसंधान हो या प्रयोगशालाएं हों।

आज की दिल्ली, मुगलों और अंग्रेजों की बनाई हुई है। मोदी जी इसी में जोड़-तोड़ कर रहे हैं। करें जो चाहे, पर यह देखें कि दिल्ली डूब रही है। ज्यादा जरूरी है इसका कोई इलाज हो? अमर होने की महत्वाकांक्षाओं के अपने खतरे हैं!

खैर, प्रगति मैदान के पुनर्निमाण को पंडितों के मंत्रोच्चारण और रेशम की चादर में लपेटे जिस मुद्रा में आप नमन कर रहे हैं वह निश्चय ही भव्य है पर उससे भी भव्य है आपका उन मजदूर महिलाओं को सम्मानित करना जो नई साडिय़ों में सकुचाई खड़ी थीं, पर जिन्होंने अपने सर पर ईंट-गारा ढोकर ये भवन बनाए। लेकिन मान्यवर ठेके के इन मजदूरों को जो चाहिए वह है सामाजिक सुरक्षा। बच्चों के लिए स्कूल, अस्पताल और घर। जो उनका हक है और सरकार का दायित्व।

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