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अंकिता भंडारी हत्याकांड

January 28, 2023 admin 0
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उत्तराखंड में अंकिता भंडारी का मामला भी देश भर में महिलाओं के रोजगार की स्थिति से अलग नहीं है। लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों में काम के अवसर प्रदान करने पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। पूरे राज्य में सरकारी नौकरियों की कमी बनी हुई है । एनएसओ 2020 के आंकड़ों से पता चलता है कि 15-29 वर्ष की आयु के कुल 27 प्रतिशत युवा उत्तराखंड में बेरोजगार हैं, जो राष्ट्रीय औसत के 25 प्रतिशत से कहीं अधिक है। इससे यह भी पता चलता है कि महिलाओं की बेरोजगारी दर 35 प्रतिशत है, जो पुरुषों की 25 प्रतिशत की तुलना में काफी ज्यादा है।

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आंतरिक दुश्मनों की अंतहीन खोज से उभरे सवाल

January 28, 2023 admin 0
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इतिहास इस बात की बार-बार ताईद करता है कि हर असमावेशी विचारधारा – जो खास समूह या तबके के अन्यायीकरण पर आधारित होती है – उसकी पूरी कोशिश उपरोक्त समूह या तबके को ‘मनुष्य से कमतर’ या ‘संहार योग्य’ बताने की रहती है। बीसवीं सदी का पूर्वाद्र्ध ऐसे संहारों के लिए कुख्यात रहा है, जिसमें सबसे अधिक सुर्खियों में रहा है यहूदियों का जनसंहार। हमारे अपने समय में भी आंतरिक दुश्मनों की खोज की कवायद जारी ही दिखती है, कभी ज्यादा भौंडे रूप में, तो कभी अधिक साफ-सुथराक्रत/सैनिटाइज्ड अंदाज में।

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आंतरिक दुश्मनों की अंतहीन खोज से उभरे सवाल

January 24, 2023 admin 0
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इतिहास इस बात की बार-बार ताईद करता है कि हर असमावेशी विचारधारा – जो खास समूह या तबके के अन्यायीकरण पर आधारित होती है – उसकी पूरी कोशिश उपरोक्त समूह या तबके को ‘मनुष्य से कमतर’ या ‘संहार योग्य’ बताने की रहती है। बीसवीं सदी का पूर्वाद्र्ध ऐसे संहारों के लिए कुख्यात रहा है, जिसमें सबसे अधिक सुर्खियों में रहा है यहूदियों का जनसंहार। हमारे अपने समय में भी आंतरिक दुश्मनों की खोज की कवायद जारी ही दिखती है, कभी ज्यादा भौंडे रूप में, तो कभी अधिक साफ-सुथराक्रत/सैनिटाइज्ड अंदाज में।

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आखिर ये माजरा क्या है

January 22, 2023 admin 0
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कॉरपोरेट मालिकाने वाला एनडीटीवी पत्रकारिता का कम, संस्कृति उद्योग का ज्यादा महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि पूंजीवादी नियंत्रण में जन संचार माध्यम ‘संस्कृति उद्योगÓ के तौर पर काम करते हैं। यहां व्यापारिक कंपनियां अपने फायदे के लिए संस्कृति का निर्माण करती हैं और उसे बेचती हैं। इस तरह के उद्योग जनता की चेतना को कुंद कर उन्हें निष्क्रिय उपभोक्ता में बदल देते हैं। मुनाफाखोर कॉरपोरेट मीडिया मालिकों में पत्रकारिता के उद्धारक तलाशना या तो निरी बेवकूफी है या फिर हद दर्जे की चालाकी।