भविष्य का अंधेरा

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इस संपादकीय के लिखे जाने के बाद भी इस माह का एक दिन बाकी है। डर है कोई और अप्रिय समाचार न सुनने को मिले। पर 28 जून तक कोचिंग व्यापार की देश की सबसे बड़ी मंडी कोटा में पांच बच्चे आत्महत्या कर चुके थे। आश्चर्य की बात यह है कि न तो राज्य सरकार या उसके मंत्री कुछ बोल रहे हैं और न ही केंद्र, जिसकी रुचि एनसीईआरटी की किताबों को संपादित करने में ज्यादा है, बनिस्बत देश के युवा किशोरों की उन व्यावहारिक समस्याओं में, जो उनके भविष्य को इस हद तक एक डरावने सपने में बदल दे रही है कि वे उस सपने को हासिल करने की असमर्थता में मौत को गले लगा रहे हैं। गत माह (जून) कोटा में आत्महत्या करनेवाला 18 वर्षीय मेहुल वैष्णव पांचवा बच्चा था। वह मेडिकल में दाखिले की तैयारी कर रहा था। रिकार्ड बताते हैं कि इस वर्ष अब तक 14 बच्चे आत्महत्या कर चुके हैं जब कि पिछले पूरे वर्ष इस तरह मरनेवालों की कुल संख्या 15 थी। चिंता की बात यह है कि आत्महत्याओं का यह सिलसिला पिछले छह वर्षों से लगातार बढ़ रहा है। सवाल है आज तक न तो राज्य सरकार ने इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाया है और न ही केंद्र ने।

अफसोसनाक यह है कि प्रेस भी अब इन घटनाओं को नजरंदाज करने की कोशिश करता है। एक बड़ा दैनिक, जिसने स्वयं को काफी हद तक प्रतियोगिता दर्पण का अंग्रेजी संस्करण बना लिया है, गलती से भी कोटा के बारे में कोई नकारात्मक खबर नहीं छापता। इसलिए लाभ भी कमाता है। इधर, जब से नीट के परिणाम आए हैं, कोई दिन ऐसा नहीं गया है जब उसका पहला पृष्ठ कोचिंग कंपनियों की सफलता की तस्वीरों से न सजा होता हो। क्या यह अचानक है कि भारतीय ट्यूशनों का धंधा करने वाली बाईजू नाम की कंपनी आज दुनिया की सबसे बड़ी कोचिंग कंपनी बनी हुई है करोड़ों डालरवाली।

देखने की बात यह है कि कोटा इस समय देश का कोचिंग का सबसे बड़ा केंद्र है और यह धंधा छह हजार करोड़ रुपए वार्षिक का रूप ले चुका है। विशेषकर आईआईटी और एमबीबीएस की कोचिंग के लिए चर्चित इस शहर में हर वर्ष लगभग दो लाख बच्चे ग्लैडिएटर बने भाग्य आजमाने आते हैं और सामान्यत: दो से चार वर्ष यहां रह कर तैयारी करते हैं, अपने चरम लक्ष्य को पाने की। यह तैयारी बच्चों के मां बाप को कितनी मंहगी पड़ती है यह एक और मसला है पर है बहुत सीधा। सामान्य रहन सहन के स्तर पर ही देखें तो भी हर छात्र को प्रशिक्षण की फीस के ड़ेढ से दो लाख प्रति वर्ष के अलावा दो लाख रुपए रहन-सहन पर भी खर्च करने ही होते होंगे। यह इस बात का भी प्रमाण है कि यहां आनेवाले बच्चे मध्य व उच्च मध्यवर्ग से आते हैं।

दूसरी तरह से देखा जाए तो यह इस तथ्य की ओर इशारा है कि सामान्य शिक्षा पाए मध्यवर्ग के युवाओं के लिए सम्मानजनक नौकरी पेशे के रास्ते बंद होते जा रहे हैं। कारण सरकारी नौकरियों का सिकुड़ते जाना है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण सरकार का शिक्षा से लगातार और हर स्तर पर हाथ खींचना है। यह छिपा नहीं है कि निजी क्षेत्र में कर्मचारियों को न तो निर्धारित वेतन मिलता है न ही उनकी सेवा की सुरक्षा है। सरकारी शिक्षक के रूप में एक प्राथमिक स्कूल में शिक्षक होना भी सम्माननीय काम हुआ करता था, जो अब निजी स्कूलों में, भाड़े के मजदूर की स्थिति से भी बद्दत्तर हो गया है। ये स्कूल विद्यार्थियों से जम कर पैसे वसूलते हैं। अचानक नहीं है कि गोयनका से लेकर अंबानी तक स्कूल चलाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो सरकार देश के श्रम को उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को सस्ते से सस्ते दामों पर उपलब्ध करवाने में लगी है। पर चकित करनेवाली बात यह है कि मध्यवर्ग इस पर तालियां बजा रहा है। आरक्षण की रेड़ लग गई है। बचपन में वह कहानी पढ़ी आपने, जिसमें एक छोकरा उसी डाल को काट रहा है जिस पर बैठा है। संभव है न पढ़ी हो, क्योंकि मध्य और उच्च वर्ग अब अपनी भाषाओं की कहानियां जरा कम ही अपने बच्चों को पढऩे को देता है।

पर विडंबना देखिये, आज जो पीढ़ी सरकारी नौकरी में है वह चाहती है येन केन हमारे बच्चे सरकारी नौकरी पा जाएं। अफसर न बनें तो डाक्टर बन जांए, जिससे सफेदपोश निजी प्रेक्टिस की स्थिति में तो रहें। जहां तक सरकारी नौकरियों का सवाल है, वे बची हैं तो सिर्फ अखिल भारतीय सेवा के स्तर पर और वहां भी लगातार सिकुड़ रही हैं। सरकार चमत्कार करने में जुटी हुई है। सीधे निजी क्षेत्र से लोगों को अनुबंध पर लेना शुरू कर दिया है। इस कदम की भी तारीफ हो रही है। क्या मारा रिजर्वेशन को! देखिए सब अपने (?) लोग हैं। अपने बच्चे पर भी कल को नजर पड़ सकती है, प्रतिभाशाली जन्मजात है ही, बस नीट की नैया पार हो जाए।

यूपीएससी वगैर वगैर को किनारे लगाकर चुने गए ये लोग दो तरह से फायदेमंद हैं। एक, विचारधारात्मक स्तर पर सरकार के निकट हैं और दूसरी ओर, अपनी असुरक्षा के कारण सत्ताधारियों के लिए सबसे कारगर हथियार साबित होते हैं। पर सरकार तो ‘जाति-धर्म से परे’ काम करती है। उसका लक्ष्य देश का विकास है, जो सिर्फ पूंजीपति ही कर सकते हैं। इसलिए जनता की पूंजी तनख्वाहों और पेंशनों में बर्बाद न कर सरकार सीधे उन के हाथों में सौंप रही है।

बच्चों की आत्महत्या को इसी परिप्रेक्ष्य में बेहतर समझा जा सकता है। अधिकांश असफल बच्चे अपने माता-पिता की अपेक्षाओं के अनुकूल साबित न हो पाने के अलावा इसलिए भी जान दे देते हैं क्योंकि उन्हें लगता है जीवन में उनके लिए अब (सफेदपोश नौकरी के बाद) कोई रास्ता नहीं रहा है। बढ़ती बेरोजगारी इसको हर कदम पर प्रमाणित भी कर रही है।

पर सवाल है कि क्या किसी समाज में सिर्फ प्रतिभाशाली रहेंगे? बाकी रोटी को भी तरसेंगे? यह वह देश है जहां मजदूरी दुनिया में सबसे सस्ती है। भाजपा सरकार ने उसे और सस्ता बना दिया है। इस में सफेदपोश नौकरियों भी शामिल हैं। अगर नीतियों में बदलाव नहीं हुआ तो कोटा की एल्डोरेडो का मार्ग दिखनेवाली कंपनियों की आमदनी और संख्या बढ़ेगी पर उसकी कीमत जो चुका रहा होगा, मध्यवर्ग उसमें सबसे आगे होगा।

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