दुनिया के गहनतम जंगल, चार बच्चे और चालिस दिन

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– प्रदीप पांडे

यह घटना प्रकृति की विराटता के साथ दयालुता की बेमिसाल दास्तान है, जो हमें हर उस घड़ी में हिम्मत दे सकती है जब हम हताश और निराश हो जाते हैं। जब लगता है कि अब कुछ नहीं हो सकता। हार मानना ही हल है

दुनिया में छोटे-छोटे देशों की चर्चा सामान्यतया किसी राजनैतिक उथलपुथल, खून खराबे, लगातार चल रही लड़ाई, प्राकृतिक आपदा या किसी बड़ी दुर्घटना के कारण होती है। पर इस बार एक अलग और अविश्वसनीय घटना ने एक छोटे से देश को चर्चा में ला दिया। पनामा, वेनेजुएला, इक्वेडोर, पेरू और ब्राजील से सीमा बनाता देश है कोलंबिया। 5.2 करोड़ की जनसंख्या वाला यह देश 11 लाख 41 हजार वर्ग किमी में फैला है। पनामा नहर बहुत दूर नहीं है। प्रशांत तथा एटलंाटिक दोनों समंदरों को छूने वाला यह अकेला लातिनी अमेरिकी देश है। पनामा से कनाडा तक तो उत्तरी अमेरिका का लगभग हर देश दोनों समंदरों को छूता है। 1914 से पहले पनामा कोलंबिया का हिस्सा था। पनामा नहर के निर्माण के साथ अमेरिकी प्रभाव और दबाव से पानामा एक देश बना। इससे पहले कोलंबिया दोनों अमेरिकाओं में फैला अकेला देश था।

एंडीज पर्वत कोलंबिया के उत्तर-पश्चिमी इलाकों में खड़ा है। अमेजन का जलागम इस देश में है और ओरीनोको नदी का भी। अपनी जैविक विविधता में यह हिमालय जैसा ही है। पृथ्वी की 10 प्रतिशत जैव विविधता यहां बसती है। ब्राजील के बाद यह पृथ्वी का दूसरा सबसे अधिक जैव विविधता वाला देश है। दुनियां की जीव प्रजातियों का 10 प्रतिशत, पक्षियों का 19 प्रतिशत कोलंबिया में है। उनमें अनेक स्थानिक (इनडैमिक) प्रजातियां हैं, जो और कहीं नहीं मिलतीं। अनेक कबीले यहां रहते हैं और उनकी 71 भाषाएं चलन में हैं। बावजूद इसके कि बहुल जनसंख्या स्पानी भाषा बोलती-लिखती है। स्पानी लेखक गैब्रियल गार्सिया मारकेज इसी देश के हैं। पर इस बार इस देश की चर्चा इन कारणों से नहीं हुई। हालांकि इसका प्रकारांतर में गहन रिश्ता वहां की जैव विविधता से जरूर है।

 

यह देश  चर्चा में है, पर क्यों?

आपको जिम कार्बेट की किताब माई इंडिया में आए एक वृत्तांत ‘जंगल का कानूनÓ की याद शायद होगी। कालाढूंगी के पास के जंगल में तीन बच्चे भटक गए थे। कुछ दिन तक वे जंगल में भटकते रहे। वे जिंदा रहे। बाघ ने उन्हें नहीं खाया और जंगल ने उन्हें बचाया। ये कहानी बताती है कि प्रकृति बहुत दयालु है और जंगल का डरावना रूप ‘सभ्य’ हो चुके मनुष्यों की एक अज्ञान जनित कल्पना है। कालाढूंगी की आज से कोई सौ साल पहले हुई घटना चंद दिन पहले कोलंबिया की उस घटना के आगे बहुत मामूली लगने लगती है जिसमें अमेजन के भासी जंगल में चार नन्हे-मुन्ने बच्चों ने 40 दिन तक अपने को जीवित रक्खा। यहां दो चमत्कार साथ-साथ हुए। पहला विमान दुर्घटना से बच निकलना और दूसरा दुनिया के सबसे घने जंगल में 40 दिन तक अपने अनमोल जीवन के लिए कठिन हालातों से संघर्ष करना और अपने को बचाये रखने में सफल होना।

असंभव या पुराण कथा-सी लगने वाली इस घटना की शुरुआत एक मई 2023 को हुई, जब कोलंबिया की एक महिला अपने चार बच्चों के साथ अराराकुअरा जंगल क्षेत्र से किसी और जगह के लिए एक छोटे विमान से यात्रा कर रही थी। यह विमान अमेजन के जंगल में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। दुर्घटना में पायलट, एक अन्य यात्री और चार बच्चों की उस मां की मृत्यु हो गई, जिसके बच्चे इस कथा के जीवित पात्र हैं। जहाज का मलवा और तीनों शव दो सप्ताह के पश्चात मिल गए। मगर चार बच्चों, जिनमें सबसे बड़ी लड़की लेस्ली जैकोबो बोनबैर (13 साल), उससे छोटा सोलेक्नी रेनोक यूकेडोई (नौ साल), उसके बाद का टाइन नोरियल रोनोक यूकेडोई (पांच साल) और सबसे छोटा बच्चा क्रिस्चियन नेरीमैन रोनोक यूकेडोई (11 माह) का था, के बारे में कुछ पता नहीं चल पाया। अमेजन के घने जंगल में उनकी खोज शुरू हुई। कबीलों के लोगों और सेना ने ‘आपरेशन होप’ (उम्मीद का अभियान) नाम से संयुक्त अभियान चलाया। ये जंगल इतने घने हैं कि यहां यदि यात्री से जरा-सा चूक हो जाय तो रास्ता भटक सकते हैं या सिर्फ चक्कर काटते रह सकते हैं।

बचाव अभियान दल को यह उम्मीद थी कि हुईटोटो जनजाति से ताल्लुक रखने वाले ये बच्चे जीवित हैं क्योंकि उन्हें दुर्घटनाग्रस्त विमान के पास कुछ फलों के अवशेष मिले, जिन पर छोटे बच्चों के दांतों के निशानात थे। आगे किसी अन्य जगह पर डायपर गिरा मिला। कहीं पर कैंची। जाहिर था कि बच्चे चलते चले जा रहे थे। स्वाभाविक ही 13 साल की लेस्ली और नौ साल के उसके छोटे भाई सोलेक्नी पर इस विपदा को झेलने और एक घने जंगल में स्वयं को और दो छोटे भाईयों को बचाने की जबर्दस्त जिम्मेदारी थी। जैसा हर दुर्घटना में होता है कि वह अप्रत्याशित होती है। जहाज में यात्रा करने वाले तो और साधनहीन होते हैं क्योंकि उनको जल्दी अपने गंतव्य तक पहुंचने की उम्मीद रहती है।

इन चार बच्चों के पास खाने की सामग्री तो नहीं होगी या कम रही होगी। प्राथमिक उपचार का सामान या अतिरिक्त कपड़े भी नहीं होंगे। फिर भी लेस्ली तथा सोलेक्नी ने मानवीय बुद्धिमत्ता और परिस्थिति के अनुकूल समझदारी का इस्तेमाल किया। जंगल में पेड़ सुरक्षा देते थे तो जानवर जिंदगी ले सकते थे। रात को सोने की समस्या थी तो दिन को चलने की। अपने आसपास से कंद-मूल-फल ढूंढने का काम अलग था। पर वे शहराती या अपने परिवेश से कटे बच्चे नहीं थे। उनके मां-पिता, परिवार और समुदाय ने उन्हें अपने परिवेश से जुडऩा, उसे समझना सिखाया था।

 

घास में सुई ढूंढने से भी दुष्कर

बचाव अभियान के प्रभारी जनरल पेड्रो सांचेज ने कहा कि यह घास में सुई ढूंढने से भी दुष्कर काम था। क्योंकि सुई एक जगह से दूसरी जगह गतिमान नहीं होती। जहां है वहीं बनी रहती है। उनका कहना था कि उनके जीवित होने पर यकीन इसलिए भी था क्योंकि अगर वे मर गए होते तो उनको ढूंढना कठिन नहीं होता। वे इधर-उधर जा रहे थे इसलिए कि वे जिंदा थे। जीवित व्यक्ति ही ऐसे संकट में जीवित बने रहने की जुगत करता है। ‘मरता क्या न करताÓ किसी ऐसे ही अनुभव से निकली लोकोक्ति है।

150 सैनिकों, 200 स्थानीय समुदाय के वाशिंदों तथा 10 प्रशिक्षित कुत्तों की टीम पूरे देश की दुआएं साथ लेकर 323 किलोमीटर के फैलाव में उन बच्चों को ढूंढने लगी। इस ऑपरेशन को नाम दिया गया था ‘ऑपरेशन होप’। और वास्तव में इस अभियान में उम्मीद नहीं हारी।

ऐसे घने जंगल, जहां कई स्थानों पर सूर्य की रोशनी तक जमीन में नहीं छू पाती है और हजारों प्रकार के कीट, सरीसृप, कई प्रकार के खूंखार वन्य जीव मिलते हैं। साथ ही उस क्षेत्र में आजकल चल रहे हैं आंधी-तूफान। इन सबने इस बचाव अभियान को बेहद चुनौतीपूर्ण बना दिया। बचाव टीम को पूरी उम्मीद थी की बच्चे वायुयान दुर्घटना में नहीं मरे हैं। मगर अनेक दिन बीतने पर उनकी सलामती पर चिंता स्वाभाविक तौर से होने लगी। बच्चे हौसला न खोएं इसके लिए उनकी नानी की आवाज में उन्हें हिम्मत बंधाने के लिए एक संदेश रिकॉर्ड कर उसे जंगल के ऊपर से उड़ान भरने वाले बचाव विमानों में लाउड स्पीकर्स में बजाया भी गया और खाने के पैकेट भी फैंके गए।

 

चमत्कार, चमत्कार चमत्कार!

40 दिन बाद 9 जून को जब बच्चों को ढूंढने में आखिरकार कामयाबी मिल गई तो सेना के रेडियो ने संकेत भाषा में घोषणा की, ”मिरैकल, मिरैकल, मिरैकल मिरैकल!’’ एक ही शब्द ‘मिरैकल’ चमत्कार  के चार बार घोषित किए जाने का मतलब था कि चारों बच्चे मिल गए। सुरक्षित और जिंदा। उनके शरीरों में कीट पतंगों के काटने के निशान और कुछ खरोंचें मिलीं। यह स्वाभाविक था। इन बच्चों ने पैरों में चीथड़े बांध रखे थे जो कीचड़ से सन चुके थे। आखिर उस प्रकृति को अपनी छाप भी तो उन पर छोडऩी थी। प्रकृति और जंगल का जननी और पालनहारी रूप यहां साक्षात प्रकट हुआ।

कोलंबिया के राष्ट्रपति गुस्तावो पेट्रो ने कहा कि इन बच्चों को जंगल ने बचाया। ये मूलत: भी जंगल के बच्चे थे। जंगल ने उन्हें अपनी गोद में सुरक्षित रखा। जंगल ने उनके जीवन बनाए रख कर अब उन्हें पूरे कोलंबिया के बच्चे बना दिया है।

आखिर यह कैसे संभव हुआ कि ये मासूम, छोटे-छोटे बच्चे इतनी विकट परिस्थितियों में अपना हौसला कायम करते हुए जिंदा बचे रहे? और सबसे छोटे बच्चे के जीवन का तो पहला जन्मदिन ही अमेजन के गहन वनों के बीच भटकते हुए बीता। माना गया कि बच्चों के परिवार और समाज ने उन्हें जंगल के बारे में जो ज्ञान दिया, उसी के कारण ये बच्चे अपने 11 माह के छोटे भाई के साथ इस अकल्पनीय रूप से विकट परिस्थिति से बाहर निकल आए। इतने लंबे समय तक वे अपने को जिंदा रख पाए। यह घटना प्रकृति की विराटता के साथ दयालुता की बेमिसाल दास्तान है, जो हमें हर उस घड़ी में हिम्मत दे सकती है जब हम हताश और निराश हो जाते हैं। जब लगता है कि अब कुछ नहीं हो सकता। हार मानना ही हल है।

साथ ही यह घटना हमें वन, वन्यता, जंगल और प्रकृति के बारे में आम तौर पर जिस तरह हम सोचते हैं उसको भी दुरुस्त करने के लिए आगाह करती है। हमारी शहराती आधुनिक सोच जंगल को भयावह रूप में प्रस्तुत करती है। जहां खतरे ही खतरे हैं। जानवर हैं, सांप हैं। जांैक हैं। और स्थानीय मिथकों में वर्णित नायक, खलनायक और भूत हैंै। इसीलिए जंगलों ही नहीं जंगलवासियों के प्रति भी सामंती-औपनिवेशिक दौर से चली आ रही घृणा को हमने गणतंत्र में भी बनाए रखा। जैसे हम किसान के प्रति अपने को सम्वेदना से नहीं भर सके वैसे ही वनवासियों और जनजातियों के प्रति भी। इस नकारात्मक सोच को बदलना हमारे लिए ही फायदेमंद है।

यहां यह बताना जरूरी है कि जिस समाज से ये बच्चे आते हैं उस समाज में बच्चा जब पांच साल का हो जाता है तो उसे जंगल में ले जाकर सिखाया जाता है की कौन सा कंद, मूल, फल या पत्ता खाद्य है। पानी कहां मिल सकता है। जंगल में रुकना पड़े तो आसरा कहां, कैसे बनाया जाता है आदि आदि। उनका पालतू के अलावा जंगल के जानवरों, पक्षियों, तितलियों तथा तमाम वनस्पतियों से ठीक-ठाक परिचय होता है। जैसे भारत के आदिवासी, जनजातीय, घूमंतू-पशुचारक, केवट-मछुआरे आदि समाजों के बच्चे अपने परिवार और समाज में प्रचलित विद्याओं में स्वत: ही दीक्षित हो जाते हैं। उनके दैनंदिन संघर्षों में यह शिक्षा शामिल है। इस सिद्धहस्तता के लिए उनको किसी स्कूल की जरूरत नहीं है।

दूसरी तरफ हमारी सोच है घर में तरह-तरह की सुविधाओं को इकबटाना। मशीनों के इस्तेमाल को ही सुखी जीवन मान लेना। किताब, क्रिकेट, कम्प्यूटर, कोल्ड ड्रिंक, कम्पटीशन आदि से हम बाहर नहीं निकल पाते हैं। शहरी बच्चों के फेफड़े शुद्ध आक्सीजन का स्वाद नहीं जानते हैं। जितनी जल्दी हो सके अपने बच्चों को इस दुष्चक्र से बाहर निकालें। उन्हें महीने में कम से कम कुछेक दिन प्रकृति के बीच ले जाएं। उन्हें बताएं कि हमें अपनी सभ्यता अगर बचानी है तो प्रकृति को बचाना होगा, उसके नियमों को समझ, उनका पालन करना होगा। प्रकृति गतिमान संसाधनों का मिलाजुला जाल है और अपनी जगह झूमता सौंदर्य भी। वह मददगार है, तीमारदार भी, पर वह बदला लेने में कभी पीछे नहीं रहती है। उसने पहले सभ्यताओं को पनपने दिया। जब सभ्यताओं के नियंता घमंडी और आत्मकेंद्रित होने के साथ अन्य जीव प्रजातियों के लिए चिंतित होना छोडऩे लगे तो प्रकृति ने इन सभ्यताओं को ही ध्वस्त कर दिया। यही शायद प्रकृति की द्वंद्वात्मकता है, जिसे मनुष्य ऐन मौके पर याद रखना भूल जाता है।

कोलंबिया में इन बच्चों के अपने ‘वंडरलैंडÓ से सुरक्षित लौट आने पर चिपको आंदोलन का एक प्रसंग याद आता है। 26 मार्च, 1974 को जब गौरादेवी अपनी बेटियों और बहिनों के साथ रेणी गांव (गढ़वाल, उत्तराखंड) के पेड़ों को बचाने जंगल गईं तो ठेकेदार के कारिंदों तथा जंगलात विभाग के लोगों से उन्होंने कहा था, ”यह जंगल हमारा मायका है। इस जंगल को मत काटो। इससे हमें लकड़ी, घास, जड़ीबूटी और सब्जी मिलती है। इसे मत काटो। यदि यह जंगल कटा तो ये पहाड़ हमारे गांव पर आ गिरेंगे और बाढ़ आएगी। हमारे बगड़ (नदी किनारे के उपजाऊ खेत) बह जाएंगे। हमारे मायके को बर्बाद मत करो। हमारे घर को बर्बाद मत करो।‘’

गौरादेवी और उनकी बेटियों तथा बहिनों का अपने परिवेश और विशेष रूप से जंगल से वही रिश्ता था, जो अमेजन की इन संततियों को अपने जंगल से है।

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1 Comment

  1. मार्मिक और जरूरी! हजारों साल से प्रकृति से जूझते और तालमेल करते हम मानव सभ्यता को इस दौर में ले आए हैं।…किंतु मशीनें भी मानव ने सभ्यता के विकास क्रम में ही बनाई हैं। संघर्ष साहचर्य तालमेल विकास यह विरोधी नहीं, सभ्यता के विकास के अनिवार्य हिस्से हैं!

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