‘विचारधारात्मक हिंसा का हिंदू समय’

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– यूसुफ किरमानी

जी हां, पहली बार, बिल्कुल पहली बार… रामनवमी पर शोभा यात्रा निकलने के दौरान सांप्रदायिक हिंसा होने और उसकी आड़ में ‘बुलडोजर राजनीति’ के परवान चढऩे की खबरें सामने से गुजरीं। हिंदुओं के दो प्रसिद्ध त्यौहार रामनवमी और हनुमान जयंती पर अप्रैल महीने में हिंसा की जो घटनाएं सामने आई हैं, उनके भयावह सच की प्रतिध्वनियां लंबे समय तक सुनाई देंगी।

 

किसी ने सच ही कहा है कि यह हिंदू समय है। रामनवमी कभी इतनी डरावनी नहीं गुजरी थी। हमारे घर से अयोध्या बहुत दूर नहीं है। जब से होश संभाला ‘रामनवमी का मेला’ शब्द सुनते हुए, देखते हुए, फैजाबाद की फिजाओं में महसूस करते हुए गुजरा। जब अखबार पढऩे की समझ बनी, तो रामनवमी मेले से जुड़े अयोध्या हनुमानगढ़ी के साधुओं, महंतों के किस्से भी सुनने को मिले। लेकिन कुल मिलाकर रामनवमी पर कभी किसी तनाव या शोभायात्रा निकलने की सूचना नहीं मिली। जी हां, पहली बार, बिल्कुल पहली बार… रामनवमी पर शोभा यात्रा निकलने के दौरान सांप्रदायिक हिंसा होने और उसकी आड़ में ‘बुलडोजर राजनीति’ के परवान चढऩे की खबरें सामने से गुजरीं। हिंदुओं के दो प्रसिद्ध त्यौहार रामनवमी और हनुमान जयंती पर अप्रैल महीने में हिंसा की जो घटनाएं सामने आई हैं, उनके भयावह सच की प्रतिध्वनियां लंबे समय तक सुनाई देंगी। देश का बहुसंख्यक अगर इस सच को नहीं समझ सका या समझ कर भी अनजान रहा तो उसकी कई पीढिय़ों को इसकी कीमत चुकानी होगी।

 

एक जैसा तरीका, एक ही तारीख

रामनवमी और हनुमान जयंती पर शोभायात्राएं मुस्लिम आबादी से निकाली गईं। इससे तनाव हुआ और फिर हिंसा हुई। हिंसा फैलाने का आरोप मुसलमानों पर लगा और अगले दिन उनकी दुकानों और मकानों को गिराने के लिए बुलडोजर भेज दिए गए। सारे शहरों में दंगे का एक ही पैटर्न था। निपटने का तरीका एक था। बुलडोजर भेजने की पहल एक जैसी थी। बुलडोजर राजनीति की सनक अभी कम नहीं हुई है। दिल्ली के जहांगीरपुरी में सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर रोक दिए हैं, लेकिन 26 और 27 अप्रैल को गुजरात के हिम्मतनगर में वही बुलडोजर ‘चुनिंदा लक्ष्य’ की ओर बढ़ते दिखे।

करौली (राजस्थान), खरगौन और बड़वानी (मध्य प्रदेश), वडोदरा और हिम्मत नगर (गुजरात), हुबली (कर्नाटक), करनूल (आंध्र प्रदेश), मुजफ्फरपुर (बिहार), लोहरदगा (झारखंड) और जहांगीरपुरी (दिल्ली) में हिंसा के नाम पर जो तांडव हुआ, उसने अब सांप्रदायिकता के खिलाफ लिखने वाले, मोर्चा लेने वालों को पहली बार इतना हताश और निराशा से भर दिया है।

 

सिलसिला दर सिलसिला

मध्य प्रदेश के खरगौन में 10 अप्रैल को रामनवमी के मौके पर जुलूस मुस्लिम बहुल इलाके से निकाला गया। यह जुलूस जब तालाब चौक से गुजर रहा था, तो जुलूस में जोर-जोर से डीजे बजाया जा रहा था। इस पर शाम को रोजा खोल रहे मुसलमानों ने वहां डीजे न बजाकर थोड़ा आगे जाकर बजाने का अनुरोध किया। इस पर बहस हुई। उसी दौरान पथराव हुआ और फौरन हिंसा शुरू हो गई। एक घंटे के अंदर सारे मुस्लिम बहुल इलाके इसकी चपेट में आ गए। मस्जिदों को जलाया गया। घर लूट लिए गए। पुलिस ने करीब 200 लोगों की गिरफ्तारी की, लेकिन वे सभी एक ही समुदाय के थे और वे मुसलमान थे। कफ्र्यू लग गया। अगले दिन मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जो खुद को राजनीतिक रूप से ‘बुलडोजर मामा’ कहलवाना पसंद करते हैं, ने बयान दिया कि जो दंगाई हैं, उनसे इसकी कीमत वसूल की जाएगी। मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्र उनसे भी चार हाथ आगे निकले और उन्होंने बयान दिया कि उन घरों को पत्थरों के ढेर में बदल दिया जाएगा, जहां से पत्थर आए थे।

खरगौन में बुलडोजर मुस्लिम बस्तियों की तरफ भेज दिए गए। खरगौन में जिन घरों को गिराया गया, वहां से दहलाने वाली तस्वीरें सामने आईं। सरकार ने वसीम शेख की गुमटी गिराई। वसीम शेख दोनों हाथों से दिव्यांग हैं लेकिन उन्हें पत्थर बरसाने वालों की सूची में डाला गया था, इसलिए उनकी गुमटी को गिरा दिया गया। पुलिस ने तीन ऐसे दंगाइयों के नाम भी मीडिया को बताए, जो जेलों में बंद थे। खरगौन में हिंसा और उसके बाद बुलडोजर मामा की राजनीति से सारा खेल सामने आ गया।

खरगौन दंगे का सबसे खौफनाक पहलू ये है कि 10 अप्रैल को ही उत्तरी पूर्वी दिल्ली के दंगों का आरोपी कपिल मिश्र खरगौन में मौजूद था। वह एक मंदिर के कार्यक्रम में गया था। उसने खुद रामनवमी कार्यक्रम के फोटो अपने ट्विटर हैंडल पर डाले। खरगौन के दंगों और कपिल मिश्र का आपस में कोई कनेक्शन है या नहीं, पुलिस इस पर मौन है। मीडिया भी इस पर मौन है। जिस शहर में दंगे हो रहे हों और कपिल मिश्र मौजूद हो, वो शख्स वहां के दंगों का रत्ती भर जिक्र न करके, बल्कि किसी और मंदिर के फोटो डाल रहा हो, जरूर गहन जांच का विषय है। लेकिन किसी भी नागरिक संगठन या राजनीतिक दल ने इसका संज्ञान नहीं लिया और न ही आवाज उठाई। कपिल मिश्र अभी उत्तर पूर्वी दंगे के आरोप से बरी नहीं हुआ है। आज भी यह शख्स अपने ट्विटर हैंडल और खुद की बनाई संस्था ‘हिंदू ईको सिस्टम’ के जरिये नफरत का प्रचार कर रहा है।

गुजरात में भी इसी पैटर्न पर दंगा हुआ। 10 अप्रैल को रामनवमी वाले दिन गुजरात के तीन शहरों हिम्मतनगर, वडोदरा और द्वारका में हिंसा की घटनाएं हुईं। वडोदरा में तो दो युवकों की बाइक आपस में टकराई थी। संयोग से दोनों हिंदू-मुसलमान थे। उस मामूली दुर्घटना में उनका हिंदू-मुसलमान होना ही दंगे का कारण बना। लेकिन वडोदरा में मुसलमानों ने भी एक मंदिर में घुस कर मूर्तियां तोड़ीं। वडोदरा पुलिस ने चार दर्जन मुस्लिम युवकों को घरों से उठाया तो उनके फोटो सोशल मीडिया पर जारी कर दिए गए। कई फोटो पुलिस के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से जारी किए गए। वो फोटो ये बताने के लिए जारी हुए कि शहर के लोग पहचान लें कि यही हैं दंगे के मुलजिम (बकौल पुलिस)। उन सभी के चेहरे इतने साफ नजर आ रहे हैं कि उनकी जिंदगी का बाकी हिस्सा अब खराब गुजरेगा। वे सारे लोग शायद ही कोई रोजगार बहुसंख्यकों के बीच में कर पाएं या उनको कोई नौकरी मिल सके। हिम्मतनगर में भी रामनवमी जुलूस के दौरान हिंसा हुई। वहां भी सरकार के निर्देश पर प्रशासन ने बुलडोजर भेज दिए और मुस्लिमों के घरों पर चुन-चुन कर कार्रवाई की गई। यह कार्रवाई 26 और 27 अप्रैल को भी जारी रही।

कर्नाटक के हुबली में 16 अप्रैल को सोशल मीडिया की पोस्ट से नाराज लोगों ने ओल्ड हुबली थाने पर हमला कर दिया। थाने के पास हनुमान मंदिर है। आरोप लगाया गया कि लोगों ने मंदिर पर हमला किया है। लेकिन पुलिस ने 12 एफआईआर और 134 लोगों की गिरफ्तारी कर साबित किया कि हमला थाने और मंदिर, दोनों पर हुआ। हमलावर कौन थे, यह बताने की जरूरत नहीं है। सोशल मीडिया की जिस पोस्ट की आड़ लेकर सारा बवाल हुआ, वह मुद्दा गायब हो गया। 16 अप्रैल को ही हनुमान जयंती थी। यह तारीख याद रखना बहुत जरूरी है। क्योंकि हर दंगे का पैटर्न एक ही था। या तो मामला रामनवमी (10 अप्रैल) से जुड़ा था या हनुमान जयंती (16 अप्रैल) से जुड़ा। इसी से पता चलता है कि सारा काम योजनाबद्ध तरीके से चल रहा था।

आंध्र प्रदेश के करनूल में भी हिंसा का यही पैटर्न था। वही 16 अप्रैल हनुमान जयंती का दिन। विश्व हिंदू परिषद ने पहली बार शोभा यात्रा निकालने की घोषणा करनूल के उपनगर अलूर में निकालने की घोषणा की। शोभा यात्रा शुरू हुई तो उसमें जोर-जोर से डीजे बज रहा था। पुलिस ने इस पर एतराज किया कि डीजे बंद किया जाए, क्योंकि मस्जिद के सामने से शोभा यात्रा गुजरेगी तो दूसरा समुदाय आपत्ति कर सकता है। करनूल पुलिस की सलाह को विश्व हिंदू परिषद ने ठुकरा दिया। वही हुआ। मस्जिद के सामने जय श्रीराम के नारे से जुलूस रोका गया। मस्जिद से लोग निकले, डीजे बजाने पर आपत्ति की। बहस हुई। जल्द ही पथराव शुरू हुआ और पूरे शहर में हिंसा शुरू हो गई। करनूल पुलिस ने अक्लमंदी यह दिखाई कि वो वीडियोग्राफी भी कर रही थी। उसके पास सबूत थे। उसने वीडियो से पहचान कर एक-एक वीएचपी और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं को पकड़ा। इससे वहां लंबे समय तक तनाव कायम नहीं रह पाया।

राजस्थान में कांग्रेस का शासन है। लेकिन इस समय लग रहा है कि वहां बीजेपी हावी है। दो अप्रैल को हिंदुओं के नववर्ष (नवसंवत्सर) पर करौली में बाइक रैली निकालने की घोषणा बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद ने की। इस रैली को उस बाजार से निकाला गया, जहां हिंदू-मुसलमानों की मिली जुली आबादी थी। रैली जब मार्केट में बनी मस्जिद के सामने से गुजर रही थी तो कुछ युवक मस्जिद पर चढ़ गए, वहां उन्होंने भगवा झंडा लहराया। इस पर मुसलमान भड़के। दोनों तरफ से पथराव हुआ। इसके बाद उस मार्केट में आगजनी की गई। लेकिन आगजनी में सिर्फ मुसलमानों की दुकानें निशाना बनीं। लेकिन मीडिया ने इसकी जो खबरें प्रकाशित कीं और चैनलों ने दिखाईं, उनमें यही बताया गया कि जुलूस पर पथराव हुआ। मीडिया तब शांत हुआ जब मस्जिद पर भगवा झंडा फहराने का वीडियो वायरल हुआ। करौली पुलिस की भूमिका इस मामले में संदिग्ध रही। उसने उन मुसलमानों के खिलाफ ही दंगा करने का केस दर्ज किया जो खुद पीडि़त थे। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपनी पुलिस से सवाल नहीं कर पाए।

राजस्थान के अलवर शहर में भी तनाव बनाया गया। अलवर में बीजेपी के नेतृत्व वाली नगर पालिका ने शिव मंदिर को गिराने के संबंध में प्रस्ताव पारित किया। जब मंदिर गिराया जाने लगा तो बीजेपी ने इसे मुद्दा बना दिया। लेकिन जब सच्चाई सामने आई तो राजस्थान सरकार ने नगर पालिका अध्यक्ष और बीजेपी नेता समेत दो अफसरों को निलंबित कर दिया। अलवर में बीजेपी सांसद योगी बालकनाथ ने 27 अप्रैल की जनता रैली की। मंच से धमकी भरी भाषा का इस्तेमाल हुआ। योगी बालकनाथ का कारोबारी हित हरियाणा में है। वह मस्तनाथ आयुर्वेदिक कॉलेज के चेयरमैन हैं। इस कॉलेज में एडमिशन के नाम धांधली के आरोप लगते रहते हैं।

अभी लोहरदगा (झारखंड) का जिक्र बाकी है। अभी मुजफ्फरपुर का जिक्र बाकी है।…और बाकी है दिल्ली के जहांगीरपुरी हिंसा का जिक्र।

दिल्ली में दंगे का मतलब उसका अंतरराष्ट्रीयकरण। विश्व मीडिया में कवरेज। लेकिन जबरन विश्वगुरु बन बैठे देश को इसकी परवाह कहां? जहांगीरपुरी ने केंद्र सरकार की नाक तो कटा ही दी है।

विश्व हिंदू परिषद ने ठीक उसी पैटर्न पर 16 अप्रैल को जहांगीरपुरी में रैली निकाली। हालांकि, यहां तीन रैलियां निकलीं, लेकिन हिंसा तीसरी रैली में हुई। पहली दो रैलियों में कुछ नहीं हुआ। लेकिन तीसरी रैली में पिस्तौल, बंदूक, तलवारें, चाकू, डंडे लहराते हुए युवकों का झुंड जय श्रीराम के नारे लगाता हुआ मस्जिद के सामने आकर रुका। शाम का वक्त था। अंदर रोजा इफ्तार की तैयारी चल रही थी। हथियारबंद युवकों ने भगवा झंडा लेकर अंदर जाने की कोशिश की। इस पर विवाद हुआ। फिर पथराव हुआ और हिंसा शुरू हो गई। पहले दिन दिल्ली पुलिस ने 23 लोगों को गिरफ्तार किया। सभी समुदाय विशेष के लोग थे। इलाके में कबाड़ का काम करने वाले और खुद को सोशल वर्कर कहलाने वाले अंसार को मुख्य आरोपी, मास्टरमाइंड, बांग्लादेशी और न जाने क्या-क्या घोषित कर दिया गया। आम आदमी पार्टी और बीजेपी ने उसे एक दूसरे का आदमी साबित करने में पूरी ऊर्जा लगा दी। लेकिन सच यही है कि वह बीजेपी की टोपी में भी मिला और आम आदमी पार्टी की टोपी में भी मिला। जहांगीरपुरी शोभा यात्रा को पुलिस की अऩुमति नहीं थी। पुलिस का आधिकारिक बयान तो वीएचपी की एक घुड़की के बाद पुलिस ने उस बयान को ही वापस ले लिया। लेकिन यह साबित हो गया कि तीसरी शोभा यात्रा अवैध थी। उसे अनुमति नहीं थी।

इसके बाद बीजेपी दिल्ली प्रदेश के अध्यक्ष आदेश गुप्ता का बयान जारी हुआ कि एमसीडी जहांगीरपुरी में बुलडोजर भेजे। बयान अखबारों में छपा। अगली सुबह बुलडोजर जहांगीरपुरी की सड़कों पर ‘चुनिंदा लक्ष्य’ का शिकार कर रहे थे। इसमें वह मस्जिद शामिल थी, जहां दो दिन पहले विवाद के बाद हिंसा की शुरुआत हुई थी। मस्जिद की बाहरी दीवार और गेट को गिरा दिया गया। लेकिन पड़ोस के मंदिर को खरोंच तक नहीं आई। बुलडोजर का यह अभियान तभी रुका जब सुप्रीम कोर्ट ने दखल दिया। जब सीपीएम की वृंदा करात वहां सुप्रीम कोर्ट का आदेश लेकर पहुंचीं।

देश की जानीमानी यूनिवर्सिटी जेएनयू भला इस विवाद से कैसे अछूती रहती। यहां भी रामनवमी की ही आड़ ली गई। 10 अप्रैल को रामनवमी की पूजा आरएसएस से जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने आयोजित की। उसने जेएनयू के सभी हॉस्टल में आदेश जारी किया कि 10 अप्रैल को किसी भी हॉस्टल मेस में मांसाहारी भोजन नहीं परोसा जाएगा। कावेरी हॉस्टल में मांस सप्लाई करने वाले वेंडर को ऐसे किसी आदेश-निर्देश की जानकारी पहले से नहीं थी। उधर, एबीवीपी के जासूस सभी हॉस्टलों में इस बात की निगरानी कर रहे थे कि किसी भी हालत में मांस नहीं परोसा जाए। कावेरी में जैसे ही मांस पहुंचा, वहां एबीवीपी ने हंगामा कर दिया। जेएनयू में अभी वामपंथी विचारधारा के आखिरी अवशेष बचे हैं तो विरोध उधर से भी हुआ। इस पर मारपीट हुई और एबीवीपी के संस्कारी लोगों ने जेएनयू की लेफ्ट विचारधारा वाली लड़कियों को जमकर पीटा। पुलिस में केस भी दर्ज किया गया। फिर पुलिस ने एबीवीपी के एक छात्र नेता की उंगली से खून टपकने के मामले का संज्ञान लेते हुए केस दर्ज किया। दोनों पक्ष शांत हो गए। एबीवीपी ने जेएनयू में सरकारी छत्रछाया में अपनी जड़ें जमा ली हैं। लेकिन जेएनयू में अपनी जड़ें जमाने से जिस तरह वामपंथी संगठन पीछे हट रहे हैं, वहां बहुत जल्द एबीवीपी का कब्जा पूर्ण रूप से हो जाएगा।

बांग्लादेशी मुसलमानों का मसला

इस बार दंगों का पैटर्न जहां एक था, वहीं इस मुद्दे को भी स्थापित करने की कोशिश की गई कि तमाम देश में बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों ने अपनी पैठ बना ली है और वे कई तरह की गतिविधियों में शामिल हैं। जहांगीरपुरी हिंसा के बाद ऐसा पहली बार हुआ जब बंगाली प्रबुद्ध वर्ग ने बीजेपी के इस नेरेटिव का जवाब दिया है। इन लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखा है कि बंगाल में रहने वाले लोग बंगाली भाषा बोलते हैं। बंगाल के लोग पूरी दुनिया में रोटी-रोजी के सिलसिले में फैले हुए हैं। बंगाल के बंगाली मुसलमान भी अन्य समुदायों की ही तरह रोटी-रोजी कमाने के लिए तमाम महानगरों और छोटे शहरों में फैले हुए हैं। वे अपनी भाषा बंगाली में बात करते हैं। अपनी संस्कृति को जिंदा रखे हुए हैं लेकिन बीजेपी उन बंगाली बोलने वाले मुसलमानों को बांग्लादेशी बताकर उनके लिए बहुत विकट स्थिति पैदा कर रही है। मसलन, जहांगीरपुरी में जिसे मुख्य आरोपी बताकर पकड़ा गया, वह अंसार बंगाली जुबान बोलने वाला है और पश्चिम बंगाल का रहने वाला है। लेकिन बीजेपी उसे बांग्लादेशी बताकर प्रचार कर रही है। अधिकांश बंगाली मुसलमान गरीबी रेखा से भी नीचे रहते हैं, इसलिए वे कूड़ा बीनने से लेकर महानगरों में सीवर की सफाई तक के काम में जुटे हुए हैं। लेकिन बीजेपी और अब सरकारी एजेंसियों की नजर में वे बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं, जबकि उनके घर पश्चिम बंगाल में हैं। बीजेपी के जोरदार प्रचार तंत्र की वजह से तमाम बहुसंख्यकों में यह बहुत खतरनाक प्रवृत्ति पनप चुकी है जो कई बार बंगाली मुसलमानों की बांग्लादेशी के नाम पर लिंचिंग भी करा देती है।

देशभर में जिस तरह अप्रैल महीने में रामनवमी, हनुमान जयंती और नवसंवत्सर (हिंदू नववर्ष) के मौके पर दंगों और हिंसा का आयोजन किया गया, उसमें जब एक जैसा तरीका या पैटर्न अपनाया गया तो इतने बड़े ऑपरेशन का संचालन किसी न किसी गिरोह ने तो जरूर किया होगा। वो गिरोह अब हिंदुओं

के त्यौहारों पर हिंसक घटनाओं को अंजाम दे रहा है। देश की किसी भी संवैधानिक संस्था में अब इतनी ताकत नहीं बची है कि वह ऐसे गिरोह या मास्टरमाइंड को तलाश करे और उसका इलाज करे।

हालांकि इन योजनाबद्ध दंगों को 2024 के लोकसभा चुनाव से जोड़ा जा रहा है कि उस चुनाव के लिए बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण कराने के लिए इसकी शुरुआत की गई है। अब आगे भी हिंदुओं के त्यौहारों को इसी काम के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। जिस देश में विपक्ष नाकारा हो चुका हो, तमाम पार्टियां मृत्यु शैया पर पड़ी हों, वहां ऐसे ही तर्कों का सहारा लिया जाता है। लोगों को यह समझ तो आ रहा है कि यह 2024 की तैयारी है लेकिन उस दानव से टकराने की प्रवृति किसी भी राजनीतिक दल या कथित मसीहाओं में नहीं दिखती। बहुत ही भयानक दौर है। भोंडे तर्कों से नजर चुराने का यह समय नहीं है, लेकिन रणक्षेत्र में उतरने को कोई तैयार नहीं है। अधिकांश विपक्षी दलों के नेता ट्वीट की राजनीति तक सिमट कर रह गए हैं। चुनाव के समय वे दड़बे से बाहर निकलते हैं।

 

बस, आखिरी सवाल

क्या हिंदुओं के त्यौहार ‘विचारधारात्मक हिंसा’ में बदल रहे हैं? ‘विचारधारात्मक हिंसा’ शब्द का प्रयोग शिक्षाविद प्रताप भानु मेहता ने अपने एक लेख में किया है, उस एक शब्द का इस्तेमाल मैं यहां करना चाहता हूं। ऊपर जिन शहरों में एक ही पैटर्न और एक ही तारीख में घटनाओं का जिक्र किया गया है, उसे और विस्तार से भी लिखा जा सकता था और बहुत ही संक्षेप में। लेकिन अगर सारी घटनाओं और उनके पैटर्न का विश्लेषण करें तो पाएंगे की ‘विचारधारात्मक हिंसा’ का यह प्रयोग रामनवमी और हनुमान जयंती के लिए खासतौर पर डिजाइन किया गया था। इसीलिए मुझे यह कहने दीजिए कि यह ‘विचारधारत्मक हिंसा का हिंदू समय’ है। मुसलमानों के प्रति कुछ बहुसंख्यकों का राष्ट्रवादी रुख समय के साथ और अधिक शत्रुतापूर्ण होता जा रहा है। मैं चूंकि मुस्लिम हूं। तमाम लोग इस लेख में मेरी पक्षधरता या कठमुल्लापन को तलाश सकते हैं। लेकिन मुझे उसकी परवाह नहीं है। नक्कारखाने में तूती की आवाज ही समझ लीजिए।

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