लोकतंत्र, मूल्य और शालीनता के सवाल

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आजादी के बाद के हमारे अपने राजनीतिक शासकों को पुलिस नामक इस हथियार की उपयोगिता समझते देर नहीं लगी और आज तक वह कमोबेश वही तरीका अपनाए हुए है।

 

गत माह जिस तरह से बारपेटा (असम) के सेशंस जज ने गुजरात के दलित नेता और राज्य की विधानसभा के एकमात्र निर्दलीय सदस्य जिग्नेश मेवाणी की गिरफ्तारी के मामले में जो कहा, वह देश की पुलिस व्यवस्था के दुरुपयोग के संदर्भ में तो महत्वपूर्ण है ही, ऐसे दौर में जब न्याय व्यवस्था को लेकर भी एक तरह की निराशा बढ़ती जा रही है, कम महत्वपूर्ण नहीं है। गोकि इस तरह की टिप्पणियों का हमारे जैसे समाज में सिवाय गाहे-बगाहे पुलिस व्यवस्था की अतियों पर टिप्पणी कर अपनी भड़ास निकालने के और कोई महत्व नहीं रह गया है, इस पर भी इन्हें इसलिए रेखांकित करना जरूरी है कि ऐसा नहीं है कि चीजें अगर अब तक नहीं बदली हैं, तो आगे भी नहीं बदलेंगी।

न्यायाधीश ए. चक्रवर्ती ने 29 अप्रैल के अपने आदेश में कहा कि पुलिस द्वारा हत्याएं और लोगों को बेवजह फंसाने के लिए ‘वर्तमान तरह के झूठे एफआईआर दायर किए जाने से बचने के लिए जरूरी है कि पुलिसवालों के शरीर पर कैमरे लगें और पुलिस स्टेशनों तथा उनकी गाडिय़ों में भी सीसीटीवी हों।

पुलिस पर सख्त टिप्पणी करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि ”इस तरह के झूठे एफआईआर (जैसा कि मेवाणी के संदर्भ में किया गया) पुलिस यह दावा करने के लिए भी दाखिल करती है कि जब पुलिस आरोपी से कुछ प्रमाण इक_ा करने की कोशिश कर रही थी तो आरोपी ने भागने की कोशिश की, इस पर पुलिसवालों ने गोली चलाई और वह आरोपी या तो घायल हुआ या फिर मारा गया। यह राज्य में आम बात हो गई है।‘’ कोर्ट ने यह चिंता भी व्यक्त की कि अगर ऐसा ही चला तो ”असम ‘पुलिस राज’ न बन जाए।’’

न्यायाधीश की चिंता यूं ही नहीं है। एक रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में पिछले एक साल में पुलिस कार्रवाई में 46 लोग मारे जा चुके हैं और 110 घायल हुए हैं। यह वही दौर है जब से हेमंत बिस्वा शर्मा के नेतृत्व में भाजपा ने राज्य में शासन संभाला है।

 

गुजरात से असम

यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं है कि जिस व्यक्ति अरूप कुमार डे ने मेवाणी के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट की वह भाजपा का कार्यकर्ता तो है ही, असम का भी है और उसी की रिपोर्ट पर पुलिस ने तुरत-फुरत कार्रवाई करते हुए 2,500 किमी दूर जाकर मेवाणी को 20 अप्रैल को गुजरात में गिरफ्तार किया था और असम पुलिस उन्हें कोकराझार लाई थी। आरोप था कि उन्होंने प्रधानमंत्री के खिलाफ जो ट्वीट किया है उससे दो संप्रदायों के बीच शत्रुता फैल सकती है। कोकराझार की कोर्ट ने उन्हें जमानत दे दी थी, पर तत्काल ही महिला पुलिस अधिकारी की इस शिकायत पर कि मेवाणी ने महिला अधिकारी के साथ अशालीन व्यवहार किया उन्हें तुरंत ही गिरफ्तार कर लिया गया और पुलिस उन्हें 90 किमी दूर बारपेटा ले गई, जहां दूसरी एफआइआर लिखवाई गई थी।

पर यहां मसला मात्र किसी पुलिसवाले द्वारा किसी आम आदमी के साथ दुव्र्यवहार का नहीं है और न ही इसे किसी सामान्य पुलिसवाले के द्वारा किया जा रहा नियमों का उल्लंघन कहा जा सकता है। यह ठीक है कि भारतीय पुलिस को, जो हमारे औपनिवेशिक आकाओं की देन है और जिसे कानून व्यवस्था का काम करने के अलावा विशेषकर सामान्य आदमी को डराए रखने की मंशा से ही प्रशिक्षित किया गया था, आजादी के बाद के हमारे अपने राजनीतिक शासकों को पुलिस नामक इस हथियार की उपयोगिता समझते देर नहीं लगी और आज तक वह कमोबेश वही तरीका अपनाए हुए है। यानी सत्ताधारियों के प्रति विशेष रूप से उदार होना, उनके इशारों पर नाचना और सामान्य आदमियों को जितना हो सके डरा और धमका कर रखना।

इसलिए इस संदर्भ में, न्यायाधीश चक्रवर्ती ने जैसा कि रेखांकित किया है, मसला सिर्फ पुलिस को कैमरों या अन्य तकनीकों से लैस करने भर का नहीं है, क्योंकि वह अपनी मानसिकता और व्यवहार में जिस तरह से ढाल दी गई है उसके चलते उम्मीद नहीं की जा सकती कि मात्र तकनीकी तौर पर आधुनिक बना देने से वह बेहतर ढंग से काम करने लगेगी। जरूरी है कि उन्हें नैतिक और सामाजिक रूप से बेहतर समझ वाला, मानवीय और संवेदनशील बनाया जाए, जो हमारे जैसे आर्थिक और सामाजिक रूप से असंतुलित देश में पुलिस को एक आततायी संस्था के बदले एक मानवीय तथा सामाजिक मूल्यों के प्रति चेतना फैलाने वाली संस्था के रूप में समाज में अपनी भूमिका निभाने में सहायक हो सके। यह संभवत: तभी हो सकता है जब हमारे राजनीतिक आकाओं की मंशा साफ हो। समाज के प्रति उनका रवैया मानवीय और समानता मूलक हो तथा पुलिस का एक दमनकारी संस्था के रूप में इस्तेमाल न किया जाए।

 

सत्ता के दुरुपयोग का मामला

यहां महत्वपूर्ण यह है कि जिस मामले पर न्यायाधीश चक्रवर्ती फैसला दे रहे थे वह किसी भी तरह से सामान्य मसला न था, न है। यह शुद्ध रूप से सत्ता के दुरुपयोग का मामला है। यही नहीं कि इस में छुट्टभईये नेता शामिल थे, बल्कि एक सीमा के बाद इसका सीधा संबंध देश के एक मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री से था। प्रधानमंत्री भी ऐसा जो अपने प्रचंड बहुमत के कारण आजादी के बाद के सर्वथा शक्तिशाली प्रधानमंत्रियों में से है। दूसरे अर्थों में यह देश के सर्वोच्च सत्ताधारियों द्वारा अपने प्रतिद्वंद्वी को डराने और धमकाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल करने का है। यह किसी से छिपा नहीं है कि जिग्नेश मेवाणी गुजरात के युवा दलित नेता हैं और उनकी गिरफ्तारी के पीछे सत्ताधारी नेताओं की मंशा क्या रही होगी।

गुजरात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृह राज्य है, यद्यपि स्वयं वह रणनीतिगत कारणों से उत्तर प्रदेश से चुनाव लड़ते हैं, पर जहां एक ओर उत्तर प्रदेश उनके लिए राजनीतिक तौर पर विशेष महत्व का है तो गुजरात उनकी छवि को बनाए रखने के लिए जरूरी है, इसी के चलते गुजरात को, जहां जल्दी ही चुनाव होने वाले हैं, बचाए रखना जरूरी है। देखने की बात यह है कि नरेंद्र मोदी 17 से 20 अप्रैल तक गुजरात में थे। यह कोई सामान्य दौरा नहीं था बल्कि आगामी चुनावों से इसके सीधे संबंध को नकारा नहीं जा सकता। 182 सदस्यीय विधानसभा के चुनाव इसी वर्ष दिसंबर में होने वाले हैं। यानी सिर्फ सात महीने बाद। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि मेवाणी को राजनीतिक कारणों से नहीं पकड़ा गया होगा या उन्हें ढाई हजार किमी दूर के किसी आम भाजपा कार्यकर्ता के कहने मात्र से पुलिस इतनी दूर और इतनी तत्परता से पकडऩे दौड़ी चली आई होगी।

क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि प्रधानमंत्री की ओर से पूरे मामले पर एक शब्द भी नहीं कहा गया। असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा ने तो सीधे ही कह दिया कि उन्होंने मेवाणी का नाम तक नहीं सुना है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि किसी राज्य की पुलिस किसी दूसरे राज्य की विधान सभा के सदस्य को चुटकियों में गुजरात से असम के किसी दूर दराज के थाने में अपने राजनीतिक आकाओं की जानकारी के बगैर ले जा सकती है?

मेवाणी ने मुक्त हो जाने पर कहा कि उन्हें भाजपा नेताओं ने षड्यंत्र के तहत फंसाया, कोई गलत नहीं है। उनका प्रश्न था कि असम पुलिस मुझे क्यों पकड़ती, केस दर्ज करती और रिमांड की मांग करती तथा पूरे दमखम से जमानत का विरोध करती? यह इसलिए था क्योंकि उन्हें राजनीतिक आकाओं का आदेश था। मेवाणी ने यह भी कहा कि मेरी गिरफ्तारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा, आरएसएस और असम सरकार का राज्य की जनता को किसी भी तरह का विरोध करने के खिलाफ चेतावनी थी।

मेवाणी के 19 अप्रैल को जिस ट्वीट पर पालनपुर में गिरफ्तार किया गया था उसमें उन्होंने कहा था कि ”नरेंद्र मोदी गोडसे को भगवान मानते हैं।“

यहां प्रश्न दूसरा यह हो सकता है कि माना मोदी का मेवाणी की गिरफ्तारी से कोई संबंध न हो, और यह भी माना कि पूरा मसला स्वत:स्फूर्त हो, पर तब भी सवाल है कि क्या जिस तरह से और जिस मामले में मेवाणी की गिरफ्तारी हुई वह तरीका सही है? अगर मामला कानून-व्यवस्था से इतनी ही गहराई से जुड़ा था तो गुजरात की सरकार और वहां की पुलिस ने इसका संज्ञान क्यों नहीं लिया? ढाई हजार मील दूर से दूसरे राज्य की पुलिस चली आए और जिस राज्य में घटना घटी है, जिस राज्य से पूरे मामले का संबंध है, वहां की पुलिस के कानों में जूं तक न रेंगे, इसे क्या कहेंगे?

 

संगीन मसला ?

अगर ऐसा है और यह इतना संगीन मसला था, तो गुजरात के मुख्यमंत्री को तत्काल बर्खास्त किया जाना चाहिए। वहां के पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। स्पष्ट है कि मामला ऐसा नहीं है। अब अगर यह मामला असम के एक कार्यकर्ता के अति उत्साह का है तो भी कम-से-कम उस कार्यकर्ता और भाजपा को तो माफी मांगनी ही चाहिए।

ऐसा भी अगर नहीं होता तो भी प्रधानमंत्री को जिसके कारण या नाम पर यह गैर कानूनी काम हुआ, उसको तो कम से कम दो शब्द कहने चाहिए थे कि यह पूरा प्रसंग राजनीतिक नैतिकता के विरुद्ध है और हमारे दल के नेताओं/कार्यकर्ताओं और पुलिस को भी इस तरह से बिना सोचे-समझे काम नहीं करना चाहिए?

आश्चर्य यह है कि प्रधानमंत्री ने एक शब्द नहीं कहा। हो सकता है उन्होंने पूरी घटना को अनदेखा कर दिया हो, पर इससे असम सरकार की और उससे भी कहीं ज्यादा प्रधानमंत्री की जो छवि बनती है वह किसी भी रूप में सकारात्मक नहीं है बल्कि किसी भी स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा के अनुकूल नहीं मानी जा सकती है।

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