अंधे मोड़ से पहले

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  • सिद्धार्थ

कांग्रेस पार्टी का संकट सिर्फ चुनावी हार तक सीमित नहीं है, वह सांगठनिक संकट से भी गुजर रही है। 2019 के लोकसभा के आम चुनावों के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। करीब तीन वर्ष होने को जा रहे हैं, कांग्रेस पार्टी के पास कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम ने कांग्रेस पार्टी को एक और बड़ा धक्का दिया है। पंजाब में दलित मुख्यमंत्री के चेहरे के आधार पर चुनाव जीतने का दांव पूरी तरह असफल साबित हुआ और पंजाब की सत्ता कांग्रेस हाथ से निकल गई। मुख्यमंत्री पद के दावेदार चरणजीत सिंह चन्नी को अपनी दोनों सीटों से हार का सामना करना पड़ा और नवजोत सिंह सिद्धू भी बुरी तरह पराजित हुए। पंजाब में उसे विधानसभा की 117 सीटों में में सिर्फ 18 पर जीत नसीब हुई। 117 सीटों में 92 सीटें जीतकर आम आदमी पार्टी ने अप्रत्याशित विजय हासिल की। उत्तराखंड में कांग्रेस पार्टी इस बार अपनी जीत के प्रति करीब आश्वस्त थी, लेकिन वह बहुमत के करीब भी नहीं पहुंच सकी और उसे 70 सीटों में सिर्फ 19 सीटें मिली। भाजपा ने 70 सीटों में 47 सीटें हासिल कर उत्तराखंड में दोबारा सरकार बनाई। गोवा में भी कांग्रेस पार्टी बहुमत के करीब नहीं पहुंच पाई। इस बार उसे सिर्फ 11 सीटें मिलीं, जबकि पिछली बार उसे पास 17 सीटें थीं। 40 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा ने 20 सीटें हासिल कीं और सहयोगियों के समर्थन से दोबारा अपनी सरकार कायम की। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस किसी बड़ी जीत की दावेदार नहीं थी, लेकिन प्रियंका गांधी के लगातार प्रयासों ने यह उम्मीद बंधी थी कि उसके मत प्रतिशत में वृद्धि होगी और कुछ सीटें भी बढ़ सकती हैं। लेकिन कांग्रेस पार्टी को सिर्फ दो सीटों पर जीत हासिल हुई, जबकि 2017 में उसे सात सीटों पर जीत मिली थी। कांग्रेस पार्टी के इतिहास में उत्तर प्रदेश में उसका अब तक का सबसे बदत्तर प्रदर्शन है। इसके पहले बिहार विधानसभा चुनावों (नवंबर, 2020) में उसे सिर्फ 19 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। एक समय कांग्रेस के गढ़ रहे, पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव (मई, 2021) में कांग्रेस पार्टी को एक सीट भी नहीं मिली। असम में भाजपा ने 2021 के विधानसभा चुनावों में दोबारा 126 सीटों में से 76 सीटें हासिल कर सरकार बना ली। कांग्रेस को सिर्फ 49 सीटों पर संतोष करना पड़ा। केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी की सत्ता भी 2021 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के हाथ से निकल गई और भाजपा अपने सहयोगियों के साथ सत्तारूढ़ हो गई। 2021 केरल विधानसभा चुनाव में वाम गठबंधन एलडीएफ की दोबारा सत्ता में वापसी हुई, यहां भी कांग्रेस अपनी सरकार नहीं कायम कर पाई, जबकि केरल में हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन की परंपरा सी रही है, जो इस बार टूट गई।

सन 2020, 2021 और 2022 के विधानसभा चुनावों के परिणामों के यदि देखें तो ये परिणाम कांग्रेस पार्टी के लिए काफी निराशाजनक रहे हैं। 2019 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में सरकार बनी थी। हालांकि उन विधानसभा चुनावों के कुछ महीनों बाद ही मई, 2019 में हुए लोकसभा के आम चुनावों में भी कांग्रेस को बुरी तरह से पराजय का सामना करना पड़ा था। उसे सिर्फ 52 सीटों मिली यानी 2014 की तुलना में सिर्फ 8 सीटों की वृद्धि हुई। इन तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि मई, 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद चुनाव दर चुनाव परिणामों की दृष्टि कांग्रेस पार्टी की स्थिति बद से बदत्तर होती जा रही है। देश के किसी हिस्से में कांग्रेस पार्टी के पुनर्जीवन या नए सिरे से उठ खड़े होने के कोई लक्षण नहीं दिखाई दे रहे हैं।

सांगठनिक संकट

कांग्रेस पार्टी का संकट सिर्फ चुनावी हार तक सीमित नहीं है, वह सांगठनिक संकट से भी गुजर रही है। 2019 के लोकसभा के आम चुनावों के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। करीब तीन वर्ष होने को जा रहे हैं, कांग्रेस पार्टी के पास कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है। सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष बनी हुई हैं। बार-बार पूर्णकालिक अध्यक्ष के चुनाव के तिथियां-महीने घोषित होते हैं और विभिन्न कारणों से टलते रहते हैं। फिर एक बार अगस्त, 2022 में नए पूर्णकालिक अध्यक्ष के चुनाव की तिथि घोषित की गई है। राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष नहीं हैं, लेकिन व्यवहारिक तौर पर ज्यादात्तर निर्णय लेते हुए वही दिखाई देते हैं और अब उसमें प्रियंका गांधी की भूमिका बढ़ी है। एक तरह की एडॉक व्यवस्था के तहत कांग्रेस संचालित हो रही है। घोषित और अघोषित तौर पर कांग्रेस पार्टी की बागडोर पूरी तरह गांधी परिवार के हाथ में है। इसलिए पिछले वर्षों में पार्टी के परफॉर्मेंस की जवाबदेही शीर्ष स्तर पर गांधी परिवार की बनती है, इसी जवाबदेही के तहत पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में सोनिया गांधी ने यह प्रस्ताव रखा कि पूरा गांधी परिवार कांग्रेस के रास्ते हटने को तैयार है, यदि पार्टी जनों को ऐसा लगता है कि गांधी परिवार के चलते पार्टी कमजोर हो रही है। सूत्रों के अनुसार, सोनिया गांधी ने इस्तीफे की भी पेशकश की। हालांकि पार्टी का बड़ा हिस्सा गांधी परिवार के बिना कांग्रेस की कल्पना नहीं कर पाता है, उसे लगता कि गांधी परिवार ही कांग्रेस की एकजुटता की रीढ़ है।

कांग्रेस का सांगठनिक संकट सिर्फ शीर्ष स्तर तक सीमित नहीं है, प्राथमिक इकाइयों से लेकर शीर्ष स्तर यह संकट है। अधिकांश प्रादेशिक इकाइयां गंभीर स्तर की गुटबाजी की शिकार हैं, यह सभी प्रदेशों में दिखाई दे रहा है। शीर्ष नेतृत्व इस गुटबाजी को खत्म कर पाने में पूरी तरह असफल दिखाई दे रहा है। यह गुटबाजी अभी हाल के पांच राज्यों के चुनावों में भी खुलकर सामने आ गई। पंजाब में यह सबसे बदत्तर रूप में प्रकट हुई, लेकिन उत्तराखंड में कांग्रेस की हार का एक बड़ा कारण पार्टी का विभिन्न गुटों में बंटवारा और वर्चस्व के लिए घात-प्रतिघात था।

कांग्रेस ने लंबे समय से अखिल भारतीय स्तर पर कोई सदस्यता अभियान नहीं चलाया है। किसी पार्टी के प्राथमिक सदस्य पार्टी की बुनियाद होते हैं। कांग्रेस पार्टी में ऐसे सक्रिय और प्रतिबद्ध नए प्राथमिक सदस्यों की संख्या कम होती जा रही है जो पार्टी के प्रति प्रतिबद्ध हों और कांग्रेस पार्टी में ऐसे सदस्यों को जोडऩे की कोई पहलकदमी नहीं दिखाई दे रही है। कांग्रेस के कार्यकर्ताओं-नेताओं का आम जनता से जीवंत नाता कमजोर पड़ता दिखाई दे रहा है। उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी इस स्थिति को तोडऩे की थोड़ी कोशिश करती दिखाई दीं, भले ही वह उसे चुनावी जीत में तब्दील न कर पाई हों। राहुल गांधी में चाहे अन्य जो खूबियां हों, लेकिन वह जननेता के रूप में खुद को स्थापित नहीं कर पा रहे हैं, उनका व्यापक भारतीय जन के साथ कोई सीधा संवाद नहीं है। एक नेता के प्रति जनता का जो भावात्मक लगाव होता है, वह लगाव भारतीय जन का राहुल गांधी के प्रति नहीं दिखाई देता है। वह खुद को लोगों की आशा-आकांक्षाओं के प्रतीक रूप में प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं, जैसे नरेंद्र मोदी और एक हद तक अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, योगी आदित्यनाथ, नवीन पटनायक और एक हद तक तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव, हेमंत सोरोन और जगनमोहन रेड्डी आदि ने किया। राष्ट्रीय स्तर पर राहुल राहुल गांधी को सिर्फ 6.8 प्रतिशत लोग प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं ( इंडिया टुड़े सर्वे, 2021)।

कांग्रेस के भीतर सांगठनिक संकट उम्रदराज नेताओं और सापेक्षिक तौर युवा नेताओं के बीच के संघर्ष के रूप में भी सामने आर रहा है, जहां लंबे समय से राहुल गांधी यह कोशिश कर रहे हैं कि कांग्रेस पुराने नेताओं से छुटकारा पाए और नए युवा लोगों को मौका दिया जाए, वहीं पुराने नेता किसी भी सूरत में अपना स्थान छोडऩे के तैयार नहीं हैं। राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी की स्थिति में नहीं हैं कि भाजपा के पुराने नेताओं को विभिन्न तरीकों से किनारे लगा सकें और अपने मनमाफिक टीम बना सकें। राहुल गांधी ने शुरुआती वर्षों में इसकी भरपूर कोशिश भी की, लेकिन उन्हें निर्णायक तौर सफलता नहीं मिली। इसी बीच राहुल गांधी के अधिकांश भरोसेमंद युवा नेता कांग्रेस छोड़कर भाजपा या अन्य पार्टियों में शामिल हो गए। जिसे राहुल की युवा टीम कहा जाता था, उसके शीर्ष नेताओं में सिर्फ सचिन पायलट बचे हैं, वह भी राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने की चाहत में भाजपा में जाते-जाते रह गए। ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद और आरपीएन सिंह जैसे राहुल के विश्वसनीय सहयोगी भाजपा का हाथ थाम चुके हैं। इस बीच पुराने नेताओं के विरोध को दरकिनार करते हुए राहुल गांधी ने कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवानी जैसे युवा नेताओं को कांग्रेस से जरूर जोड़ा। पुराने दिग्गज कहे जाने वाले कांग्रेसी नेताओं के प्रति राहुल गांधी की बेरूखी देखकर लगता है कि वे इनसे पिंड छुड़ाना चाहते हैं और युवाओं के लेकर एक नई कांग्रेस खड़ी करना चाहते हैं, लेकिन उनका यह प्रयास परवान चढ़ता दिखाई नहीं दे रहा है। इसका एक कारण सोनिया गांधी का पुराने नेताओं पर भरोसा भी है। खुद गांधी परिवार के भीतर कांग्रेस को किस दिशा में, कैसे और किसको लेकर जाना है, इसको लेकर एकराय नहीं है। सोनिया गांधी कांग्रेस की आंतरिक समस्याओं को जैसे हल करना चाहती हैं और राहुल गांधी जैसे करना चाहते हैं, दोनों में काफी भिन्नता है। यह समय-समय पर सतह पर आता रहता है। प्रियंका गांधी अभी मां-भाई को फॉलो करती ही दिखाई दे रही हैं।

कांग्रेस के भीतर जी-23 के रूप में जो गुट सक्रिय दिखाई दे रहा है, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर उसके निशाने पर राहुल गांधी और उनके करीबी हैं। इन्हें राहुल गांधी और उनके करीबी तथा कांग्रेस पार्टी के संगठन मंत्री केसी वेणुगोपाल, कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला और महासचिव अजय माकन फूटी आंख नहीं सुहाते। जी-23 के अधिकांश नेता जनाधार विहीन नेता हैं। जी-23 में शामिल हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को छोड़कर किसी का कोई बड़ा जनाधार नहीं हैं, इसमें कई सारे लंबे समय से दिल्ली केंद्रित राजनीति कर रहे हैं और राज्यसभा के रास्ते नेता बने हुए हैं, जैसे आनंद शर्मा और गुलाम नवी आजाद। इनकी नाराजगी की मुख्य वजह राहुल गांधी द्वारा इनको महत्व न दिया जाना और इनका खुद का अनिश्चित राजनीतिक भविष्य है। फिलहाल जी-23 कांग्रेस के लिए कोई बड़ा संकट नहीं है। जी-23 के पास भी कांग्रेस की भविष्य की दिशा को लेकर कोई रोडमैप नहीं है। इन्हें कांग्रेस की चिंता कम खुद के भविष्य की चिंता ज्यादा सता रही है।

नेतृत्व के स्तर कांग्रेस का सबसे बड़ा सकट यह है कि उसके पास को कोई ऐसा नेता नहीं है, जिसकी भारतीय जनता के बीच एक व्यापक अपील हो, जो भारतीय जन के साथ खुद को कनेक्ट कर सके और उसे भरोसा दिला सके कि वह उसकी समस्याओं को हल कर सकता और उनके सपनों का भारत रच सकता है। जनता के बीच खुद से उम्मीद पैदा करना जन नेता की सबसे बड़ी खूबी होती है। कांग्रेस नेता के रूप में राहुल गांधी खुद को आम लोगों के बीच उम्मीद पैदा करने में बहुत सफल नहीं रहे हैं। प्रियंका गाधी भी फिलहाल कांग्रेस के इस गतिरोध को तोड़ नहीं पाई हैं।

 

जनाधार का संकट

वर्ण-जाति आधारित सामाजिक विभाजन और धर्म आधारित धार्मिक विभाजन भारतीय समाज के बुनियादी विभाजन हैं। विभिन्न पार्टियों के वोट बैंक के निर्धारण में इन दो तत्वों की निर्णायक भूमिका है। आजादी के बाद कहने के लिए कांग्रेस पार्टी भले ही सबकी पार्टी रही हो, लेकिन उसका मुख्य वोट बैंक सामाजिक तौर पर अपरकास्ट और दलित थे। धार्मिक तौर पर मुसलमान थे। अपरकॉस्ट, दलित और मुसलामन कांग्रेस के मुख्य आधार थे। गणित में भले ही अपरकास्ट संख्या में आनुपातिक तौर कम रहा हो, लेकिन अपने सामाजिक, आर्थिक और वौद्धिक वर्चस्व के चलते वोट की दिशा को प्रभावित करने की उसकी क्षमता उसकी जनसंख्या की तुलना में कई गुना अधिक रही है और अभी भी है। जहां अपरकास्ट आनुपातिक तौर कम संख्या में था, वहां कांग्रेस का मुख्य आधार उस प्रदेश या क्षेत्र विशेष की प्रभावशाली जातियां रही हैं, जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चरण सिंह के नेतृत्व में जाट या महाराष्ट्र में कभी शरद पवार के नेतृत्व में मराठा या आंध्र प्रदेश में रेड्डी और अभी हाल तक पंजाब में अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में जट सिख। इसी तरह की स्थिति देश भर में थी। लेकिन धीरे-धीरे यह स्थिति बदली और पिछले तीन दशकों में इस स्थिति में निर्णायक परिवर्तन आया। अपरकास्ट कमोवेश पूरी तरह भाजपा के साथ गोलबंद हो चुका है। यह परिघटना दो तरह से घटित हुई। पहला अपरकास्ट मतदाताओं का भाजपा की ओर तेजी झुकाव और दूसरा अपरकास्ट कांग्रेसी नेताओं के एक बड़े हिस्से का भाजपा में शामिल होना। देश के एक बड़े हिस्से, विशेषकर लोकसभा में सबसे अधिक सांसद भेजने वाले राज्य उत्तर प्रदेश में दलित मतदाताओं का मजबूती से बसपा के साथ खड़े होना। मुसलमान भी पूरे देश में निर्णायक तरीके से कांग्रेस के साथ नहीं हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि भाजपा की मुसलमान के प्रति घृणा आधारित आक्रामक राजनीति के चलते मुसलमान हर उस पार्टी को वोट करने को मजबूर हैं, जो जिस प्रदेश या क्षेत्र में भाजपा को हराने की क्षमता रखती हो। कांग्रेस ऐसी स्थिति में कई प्रदेशों और राज्यों में नहीं रह गई है, क्योंकि सिर्फ मुसलमान अपने वोटों के दम पर किसी भी प्रदेश भी भाजपा को हरा नहीं सकते हैं। इसके चलते मुसलमान पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाले तृणमूल कांग्रेस को वोट देते हैं, उत्तर प्रदेश में सपा को और बिहार में मुख्यत: राजद को, तो दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की पार्टी आम आदमी पार्टी को और जिन प्रदेशों में कांग्रेस मजबूत है उन प्रदेशों में कांग्रेस पार्टी को या भाजपा को हराने में जो सक्षम है, उस पार्टी को। इस तरह कांग्रेस का यह वोट बैंक भी उससे खिसक गया है।

मोदी युग (2014) के आगमन के बाद बहुत तेजी से अपरकास्ट कांग्रेस को छोड़कर भाजपा के साथ खड़ा हुआ है, क्योंकि भाजपा खुले तौर पर उनके सभी तरह के हितों की पूर्ति कर रही है। दलित वोट उत्तर प्रदेश में और आसपास के प्रदेशों में बसपा या अन्य छोटी-मोटी दलित पार्टियों के साथ है या भाजपा और कांग्रेस में बंटता है और मुसलमान भाजपा विरोधी सबसे ताकवतर पार्टी को वोट देते हैं, ऐसे में कांग्रेस के पास कई प्रदेशों में कोई स्थायी वोट बैंक नहीं रह गया है। कांग्रेस का परंपरागत स्थायी वोट बैंक उससे छिटक चुका है, टूट-बिखर गया है। कांग्रेस वोटों का कोई नया सामाजिक समीकरण नहीं बना पा रही है। जीतने में कामयाब समीकरण नहीं होने से मुसलमान भी उसके साथ निर्णायक तरीके से गोलबंद नहीं हो रहे हैं। इसके साथ ही पिछले दो-तीन दशकों में कांग्रेस से निकल क्षेत्रीय क्षत्रपों या प्रभावशाली नेताओं ने अपनी-अपनी पार्टियां खड़ी कर ली हैं, जैसे महाराष्ट्र में शरद पवार, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी, आदि।

विचारधारात्मक संकट

कांग्रेस गहरे स्तर पर विचारधारात्मक संकट की भी शिकार है। इस संकट को आरएसएस-भाजपा की खुली हिंदुत्वादी राजनीति ने और गहरा कर दिया है। कांग्रेस की छवि लेफ्ट-राइट के बीच तालमेल बनाकर चलने वाली एक सेंट्रलिस्ट पार्टी की रही है। धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक, तीनों मामलों में वह एक लेफ्ट-राइट के बीच तालमेल बनाकर चलती थी। पहले उसके सामने मुख्य चुनौती लेफ्ट ओरिएंटेट राजनीति थी, खासकर कर आर्थिक मामलों में। आज उसके सामने आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक, तीनों मामलों में एक खुली दक्षिणपंथी पार्टी से मुकाबला है। कांग्रेस यह तय नहीं कर पा रही है कि वह धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक मामलों में कौन-सी विचारधारात्मक अवस्थिति ले। वह भाजपा के उग्र हिंदुत्व का जवाब नरम हिंदुत्व से दे या हिंदुत्व की राजनीति को खारिज करे और निर्णायक तरीके से धर्मनिरपेक्ष राजनीति के पक्ष में खड़ी हो। कांग्रेस के सबसे प्रभावी नेता राहुल गांधी भाषणों-बयानों में यह दुविधा सबसे अधिक दिखती है, अक्सर वह कट्टर हिंदुत्व के मुकाबले उदार एवं नरम हिंदुत्व की पैरवी करते दिखते हैं। अभी हाल में संसद में दिए अपने चर्चित भाषण में जब वह देश के सामने उपस्थित गंभीर चुनौतियों का जिक्र कर रहे थे, तो उन्होंने बढ़ती आर्थिक असमानता और संघीय ढ़ाचें के समक्ष उपस्थित चुनौती का जिक्र तो किया, लेकिन मुसलमानों को किस तरह हाशिये पर ढकेल दिया गया है, इसकी उन्होंने कोई चर्चा तक नहीं की। एक तरह से आरएसएस-भाजपा द्वारा तैयार राजनीतिक पिच पर खड़े होकर बल्लेबाजी करने जैसा है।

सामाजिक मामले में भी कांग्रेस दुविधा में है, जहां आरएसएस के नेतृत्व में भाजपा पिछड़े और दलितों को अपना राजनीतिक चेहरा बनाकर प्रस्तुत कर रही है और उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति करने की कोशिश कर रहे ही, क्योंकि चुनावी राजनीति बहुसंख्या का खेल है। लेकिन कांग्रेस वर्णों-जातियों में विभाजित भारतीय समाज के संदर्भ में वैचारिक स्थिति तय नहीं कर पा रही है। स्वयं राहुल गांधी कई बार अपना जनेऊ दिखाकर खुद को अपरकास्ट हिंदू के रूप में प्रस्तुत कर चुके हैं। कांग्रेस की वैचारिक दुविधा आर्थिक नीति के संदर्भ में भी दिखाई दे रही है, जहां राहुल गांधी एक ओर क्रोनी कैपिटलिज्म की बात करते हुए अडानी-अंबानी को टारगेट करते हुए दिखते, लेकिन समग्रता में पार्टी को वैकल्पिक आर्थिक एजेंड़ा नहीं दिखाई देता है।

यह वैचारिक दुविधा कांग्रेस शासित राज्यों में सबसे अधिक दिखाई देती है। कांग्रेस शासित राज्य राजस्थान और छत्तीसगढ़ विकास और शासन-प्रशासन का कोई वैकल्पिक या तुलनात्मक तौर पर बेहतर मॉडल नहीं प्रस्तुत कर पाए। जिसके आधार पर कांग्रेस यह कह सके कि वह ऐसा मॉडल राज्य बनाना चाहती है। 2017 में पंजाब में लोगों ने बड़ी उम्मीद के साथ कांग्रेस को सत्ता सौंपी थी, लेकिन पंजाबी लोगों के जीवन में किसी तरह को बड़ा मात्रात्मक या गुणात्मक परिवर्तन नहीं दिखा। कांग्रेस ने भी यथास्थिति कायम रखी। 2022 में उन्होंने आम आदमी पार्टी के रूप में एक नया विकल्प चुना।

पिछले करीब आठ वर्षों से केंद्रीय सत्ता से बाहर रहने और अधिकांश प्रदेशों में सरकार बनाने में असफल कांग्रेस आर्थिक संकटों में भी गुजर रही है। इसके आंकड़े समय-समय पर आते रहते हैं।

इन सारे संकटों के बावजूद कांग्रेस भाजपा के बाद सबसे अधिक जनाधार वाली पार्टी है और उसके पास एक देशव्यापी सांगठनिक ढांचा है। मोदी लहर के बावजूद 2014 और 2019 के लोकसभा के आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी को करीब कुल पड़े वोटों का 20 प्रतिशत मिला था। 2014 में उसे 19.3 प्रतिशत और 2019 में उसे 19.5 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे। आज भी कांग्रेस को मिलने वाला वोट प्रतिशत सभी विपक्षी पार्टियों के साझे वोट प्रतिशत से भी बहुत अधिक है। सभी लोग खुले और दबे स्वर यह स्वीकार करते हैं कि कांग्रेस पार्टी के बिना भाजपा को केंद्रीय सत्ता से बेदखल करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

कांग्रेस पार्टी के पास इस समय दो विकल्प हैं। पहला वह विचारधारात्मक और सांगठनिक संकटों का जल्द से जल्द समाधान कर खुद को भाजपा के एक मजबूत विकल्प के रूप में प्रस्तुत करे। दूसरा वह इस बात का इंतजार करे कि एक दिन लोग भाजपा से आजिज आ जाएंगे और विकल्प के रूप में कांग्रेस को अपनाएंगे। दूसरा विकल्प कांग्रेस और देश दोनों के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है।

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