दौड़ो बेटा दौड़ो

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– प्रेम पुनेठा

सोचिए अगर पहाड़ पर ही रोजगार होता तो क्या इतने सारे नौजवानों को दिल्ली या दूसरी जगह दौड़ लगानी पड़़ती। अगर अपने जिले या प्रदेश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं होतीं तो क्या मां को दिल्ली ले जाना पड़ता और उधार लेकर इलाज करवाना पड़ता और फिर उसे चुकाने को दिनरात ओवर टाइम करना पड़ता?

 

देहरादून में 23 मार्च को उत्तराखंड के एक युवा नेता पुष्कर सिंह धामी, हारने के बाद भी मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे और इससे तीन दिन पहले एक वीडियो वायरल हो रहा था, जिसमें अल्मोड़ा जिले का एक लड़का प्रदीप मेहरा, रात के बारह बजे दिल्ली से लगे नोएडा के सेक्टर 16 की सड़कों पर दौड़ रहा था। एक कार वाले को उसे देखकर आश्चर्य होता है कि लड़का इतनी रात क्यों दौड़ रहा होगा कहीं इसके साथ कोई अप्रिय घटना तो नहीं घट गई होगी। वह पूछता है, ”क्या हो गया! क्यों दौड़ रहे हो?’’

इस पर लड़का बताता है कि मैं घर लौट रहा हूं, जो यहां से दस किमी दूर है। कार वाला इत्तफाक से जानामाना पत्रकार और डाक्यूमेंटरी फिल्म ममेकर विनोद कापड़ी था। जब कापड़ी ने उसे ‘लिफ्ट’ देनी चाही तो लड़के ने मुस्कराते हुए मना कर दिया। इस पर पत्रकार ने पूछा तुम इस तरह क्यों दौड़ रहे हो? उत्तर भी कम असामान्य नहीं था: लड़के ने बतलाया कि मैं हर रोज इसी तरह दौड़ता हूं। वह यह दौड़ सेना में भर्ती होने के लिए अभ्यास के तौर पर लगाया करता हूं। उसने बतलाया, सुबह समय नहीं मिल पाता है, इसलिए रात को घर लौटते समय दौड़ता हूं।

चूंकि लड़का उत्तराखंड के कुमांऊ क्षेत्र का निकला, कापड़ी के लिए यह और भी सरोकार का विषय बन गया। वह स्वयं भी इसी क्षेत्र से आते हैं। लड़के ने, जिसका नाम प्रदीप मेहरा है, बतलाता है कि मैं बड़े भाई के साथ रहता हूं जो एक प्राइवेट संस्थान में काम करता है।

बातों का सिलसिला चलता है तो वह यह भी बतला देता है कि हमारी मां बीमार है और यहीं एक अस्पताल में भर्ती है। मैं अभी घर जाकर खाना बनाऊंगा, तब भाई और मैं मिलकर खाना खाएंगे। उसका भाई भी नाईट शिफ्ट में काम कर रहा है जो उससे भी बाद में घर पहुंचा करता है। घर परिवार का इस दौरान कोई जिक्र नहीं होता है।

इस बातचीत को कैसे रिकार्ड किया गया यह अलग मसला है, पर अगले दिन, जैसा कि होना था, वीडियो वायरल होने के बाद प्रदीप की चर्चा सोशल मीडिया पर जम कर शुरू हो गयी। सोशल मीडिया को हमेशा कुछ नया और चुलबुलापन भरा ऐसा मसाला चाहिए जो सामान्य जीवन में कुछ विचित्रता, कुछ चटकारे और सनसरी का अनुभव करवा सके। देखते देखते कम से कम उस दिन के लिए प्रदीप लोगों का हीरो बना गया। प्रदीप के सेना में भर्ती होने के जजबे को देश भक्ति और राष्ट्रवाद से जोड़कर महिमामंडित किया जाने कि इस होनहार में (सेना यानी देशभक्ति के प्रति) कितनी प्रतिबद्धता है कि दिल्ली की सड़क पर आधी रात में भी दौड़ लगा रहा है।

और जो हुआ सो तो हुआ ही पर एक अच्छा काम यह हुआ कि दिल्ली और उत्तर प्रदेश की (उत्तराखंड की नहीं) सरकार ने प्रदीप की मां का बेहतर इलाज का वायदा कर दिया है और संभव है प्रदीप की बहुत सारी समस्याओं का समाधान हो भी जाए। पर सवाल रह जाएगा कि नोएडा की सड़कों पर आधी रात को दस मील की दौड़ लगाने को मजबूर प्रदीप पर लोग गर्व महसूस करने को क्यों कह रहे हैं? क्या वास्तव में यह गर्व करने का विषय है या इस व्यवस्था के लिए शर्म से डूब मरने का। एक अंग्रेजी चैनल पर जहां आतंक (अंग्रेजी) और घबराहट से प्रदीप की घिघ्घी बंधी हुई थी, के साथ एक जनरल को ला खड़ाकर आखिर समाज संदेश क्या देना चाहता है! जब कि बेरोजगारी और सामाजिक असुरक्षा का सच खासा विकराल है। फिर यह एक प्रदीप का ही मसला तो है नहीं। हां सनसनी और अधकचरी देशभक्ति और उम्मीद का एक छद्म इससे जरूर गढ़ा जा रहा है।

सच वैसे यह है कि नोएडा की सड़क पर रात के बारह बजे दौडऩेवाले प्रदीप ने उत्तराखंड की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की स्थिति को पूरी नंगई के साथ लोगों के सामने रख दिया है। एक 19 साल का लड़का अपने घर से 400 किमी दूर सुबह आठ बजे से 11 बजे तक, 15 घंटे काम करता है। फिर 10 किमी की दौड़ लगाता हुआ (सेक्टर 16 से बरोला) डेरे पर पहुंचता है और आधी रात के बाद खाना बनाता है, अपने और रात की शिफ्ट में काम करनेवाले बड़े भाई के लिए भी। वैसे ज्यादा सोचने की बात यह है कि 15 घंटे काम करने के बाद, आधीरात को खाना बनाने वाले इस बच्चे के पास अपने लिए भी कोई समय रहता होगा! ऐसी सड़कें जो दिल्ली या उसके आसपास के विस्तारों में चमकती हैं, तो अब उत्तराखंड में भी कम नहीं हैं जहां लड़के 10-15 किमी की जब चाहे दौड़ लगा सकते हैं और लगाते भी हैं। इस के लिए दिल्ली जाने की जरूरत क्या है?

लड़के के जीवट की असली कहानी का पता तो तब चलता है जब प्रदीप के पिताजी से बात की जाती है। अल्मोड़ा जिले के पश्चिमी छोर पर स्थित चौखुटिया ब्लॉक के तड़ागताल क्षेत्र में स्थित धनाड़ गांव में रहने वाले प्रदीप के पिता त्रिलोक सिंह से मिलने एक पत्रकार पहुंचता है।

वह बतलाते हैं कि मेरी पत्नी बीमार है और दिल्ली में इलाज चल रहा है। त्रिलोक सिंह के अनुसार उनकी पत्नी को गांव में केवल खांसी और कमजोरी थी लेकिन दिल्ली में जाने के बाद तबियत ज्यादा खराब हो गयी। प्रदीप की मां को टीबी और पेट संबंधी समस्या है। (संभवत: एबडोमिनल -औदरिक – टीबी) इसके इलाज के लिए त्रिलोक सिंह के बेटे 80 हजार रुपये का उधार ले चुके हैं और इसी को चुकाने के लिए उन्हें घर से चार सौ किमी दूर नोएडा की सड़कों पर दौड़ लगानी पड़ रही है।

एक 19 साल का लड़का शिक्षा पाने के बजाय रेस्टोरेंट में काम करता है और भाई के साथ रहता है। बीमार मां को इलाज कराने के लिए वही गांव से दिल्ली लेकर आया है और इसीलिए उधार लेना पड़ा है। इसे चुकाने के लिए दोनों भाई ओवर टाइम करते हैं। सोचिए अगर पहाड़ पर ही रोजगार होता तो क्या नौजवानों को दिल्ली या दूसरी जगह दौड़ लगानी पड़़ती। अगर अपने जिले या प्रदेश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं होतीं तो क्या मां को दिल्ली ले जाना पड़ता और उधार लेकर इलाज करवाना पड़ता और फिर उसे चुकाने को दिन-रात ओवर टाइम करना पड़ता?

लड़के को अपने क्षेत्र के अन्य लाखों युवाओं की तरह मुक्ति का रास्ता केवल सेना में भर्ती होना ही नजर आया, क्योंकि अब वहीं पूर्णकालिक रोजगार उपलब्ध है। लेकिन वहां भी पिछले दो साल से कोई भर्ती नहीं हुयी है। सरकार भर्ती न करा पाने का कारण कोविड को ठहरा सकती है, लेकिन सच तो यह है सरकार सेना के आधुनिकीकरण के लिए मानव संसाधनों में कटौती करने की योजना बनाने की सोच रही है। ऐसे में सेना में भर्ती होना भी पहाड़ के युवाओं के लिए मृगमरीचिका-सा हो कर रह गया है। दिल्ली की सड़क पर दौड़ता प्रदीप तो सभी को दिखायी दे गया लेकिन उत्तराखंड के वे अनगिनत युवा जो अन्य शहरों की सड़कों पर दौड़ रहे होंगे या घिसट रहे होंगे, उनके वीडियो शायद ही कभी बनाए जाएंगे, क्योंकि तब यह कहानी घिसीपिटी हो जाएगी।

पांचवीं विधानसभा के चुनाव के बाद भाजपा ने पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया है। भाजपा को तो उत्तराखंड के लिए युवा नेता चाहिए इसलिए हारने के बाद भी धामी को मुख्यमंत्री बना दिया गया है, लेकिन उत्तराखंड का समाज जिस गति से युवाओं से वंचति होता जा रहा है, इसके लिए भी कुछ सोचने की जरूरत है।

प्रश्न है क्या इस यथार्थ के बाद भी  दिल्ली की सड़क पर मध्य रात्रि में मैराथन दौड़ता उत्तराखंड का यह युवा इस व्यवस्था के लिए गर्व का विषय बना रहेगा या शर्म का बन जाएगा!

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