रोइये जार जार क्या कीजिए हाय हाय क्यूं…

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हिंदी में रायल्टी को लेकर चलने वाला विवाद कोई नया नहीं है। आज, उम्र के सातवें-आठवें दशक में पहुंचे लेखक, जो तब कलम चलाना सीख रहे थे, इसकी ताकीद करेंगे कि उनके होश संभालने के साथ से ही रायल्टी को लेकर बातें यदाकदा ही सही, पर सुनने को मिलती जरूर थीं। पर तब यह भी सुनने को मिलता था कि राजेंद्र यादव या मोहन राकेश या निर्मल वर्मा को धर्मयुग (साप्ताहिक) ने या सारिका (मासिक)ने दो हजार या एक हजार पारिश्रमिक कहानी के लिए ‘एडवांसÓ तक दिया है। वह राशि तब अच्छे अच्छों की महीने भर की तनख्वाह से ज्यादा हुआ करती थी। इसलिए यह मात्र संयोग नहीं हो सकता कि उस दौर में कई लेखक ऐसे थे जो पूरी तरह लेखन पर निर्भर थे। अगर पत्रिकाएं एडवांस देती थीं तो प्रकाशक न देते हों ऐसा हो नहीं सकता। कुछ नाम जो लिए जा सकते हैं उन में राहुल सांकृत्यायन, विष्णु प्रभाकर, यशपाल, अश्क, राजेंद्र यादव, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, नागार्जुन, शैलेश मटियानी, यादवेंद्र शर्मा चंद्र हैं। इन में वल्लभ डोभाल को भी शामिल किया जा सकता है, हमारा सौभाग्य है कि वह हमारे बीच मौजूद हैं और दिल्ली से लगे नोएडा में रहते हैं। इस संदर्भ में एक और नाम भुलाया नहीं जा सकता, वह है गुणकर मुले का। उन्होंने यद्यपि रचनात्मक लेखन नहीं किया, पर हिंदी वाङ्मय को विज्ञान लेखन से समृद्ध किया।

निश्चय ही इन लेखकों का जीवन आसान नहीं रहा होगा, पर वह सम्मान जनक था। इस पर यह भी जोड़ा जा सकता है कि तब तक उम्मीद थी कि हम एक नए-नए आजाद देश की अपनी भाषा में लिख रहे हैं इसलिए भविष्य के साथ स्वतंत्र लेखन ज्यादा आसान और सम्मानजनक होता जाएगा। अपनी भाषा के महत्व और पहुंच का बढऩा लाजिमी माना जाता था। उम्मीद गलत भी नहीं थी। या कम से कम अयथार्थवादी तो नहीं ही थी।

इस बीच अकादमियों पर अकादमियां बनीं, एक के बाद एक विश्वविद्याल खुले। छात्रों की संख्या लाखों से करोड़ों में पहुंची। व्याख्याता बने, आचार्य बने, लाब्रेरियां बनीं, फैलोशिपें दी जाने लगीं, पुरस्कार स्थापित किए गए जो धीरे धीरे एक आध हजार से बढ़ कर लाखों में पहुंच गए। केंद्र सरकार के उत्तर भारत में होने के साथ ही साथ देश में सिर्फ अकेली हिंदी के ही चार राज्य थे, जो संख्या अब बढ़कर, छत्तीसगढ़ को छोड़ दें तो, आठ हो गई है और पिछली जनगणना के अनुसार देश में हिंदी बोलने वालों की संख्या 42 करोड़ से ज्यादा थी।

पर हुआ क्या? जितनी निर्भरता सरकारों पर बढ़ी उसी अनुपात में बने मठाधीश। उतना ही नौकरशाही हावी हुई और भ्रष्टाचार बढ़ा। यही वह दौर था जब हिंदी के अनगिनत दैनिक छोटे छोटे शहरों से निकलने लगे पर साथ ही धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान, रविवार, सारिका, कादंबनी, निहारिका, और अरुण जैसी पत्रिकाएं व्यावसायिक और कहानी, नई कहानियां, माध्यम तथा ज्ञानोदय जैसी गैर व्यावसायिक पत्रिकाएं निजी प्रयत्नों और संस्थानों से निकलीं। फिर वह दौर आया जब सारिका, दिनमान, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी व्यावसायिक पत्रिकाएं एक के बाद एक बंद होने लगीं, नवभारत टाइम्स जिससे कभी अज्ञेय, राजेंद्र माथुर, सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसे प्रतिष्ठित लेखक-संपादक जुड़े हुए थे और जनसत्ता जैसे अखबार को जिसने नव्वें दशक में हिंदी पत्रकारिता में प्रभाष जोशी के नेतृत्व में धूम मचा दी थी, पहचाना मुश्किल हो गया। दूसरी ओर ऐसे अखबार फैलने लगे जिन्होंने मुफसिल कस्बों से शुरुआत की थी जैसे कि दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, अमर उजाला, पंजाब केसरी आदि और वे पूरे परिदृश्य पर छा गए। एक ओर गंभीर पत्र-पत्रिकाओं का पतन और दूसरी ओर मुफसिल अखबारों का उत्थान क्या बता रहा था? यही न कि हिंदी में गंभीर पाठक नहीं रहे हैं और उसका मानक ‘लोएस्ट कॉमन डिनोमिनेटर’ हो गया है।

हिंदी राज्यों की अकादमियां, जिन्हें अगर यह माना जाए कि साहित्य के प्रचार प्रसार के लिए बनाया गया था, मठाधीशी और राजनैतिक हस्तक्षेप के कारण, हिंदी का मखौल बन गईं। कथित बड़े साहित्यकार इन अकादमियों से सम्मानित होते रहे, मोटी-मोटी राशियां समेटते रहे और चेले चांटों को उपकृत करते रहे, पर उन्होंने कभी भी उनसे साहित्य में गंभीर हस्तक्षेप करने के लिए दबाव नहीं डाला बल्कि कमोबेश उसका हिस्सा हो गए। किसी ने कभी इस बात की परवाह तब नहीं की कि यह सब साहित्य और समाज के लिए किस हद तक घातक होने जा रहा है। दो प्रतिनिधि उदाहरण लीजिए। साहित्य अकादेमी में जिस तरह से एक गुट का कब्जा रहा और इसके रहते, उस गुट के नेता ने, अपने बंधु-बांधवों सहित, जिसे चाहा, यहां तक कि गली मोहल्ले के निवासियों तक को, पुरस्कृत किया और जिसे असुविधाजनक माना या तो उसे खदेड़ कर दूर हांक दिया या फिर नाक रगड़वा दी। यों ही नहीं यह आचार्य महोदय, जो लंबे समय तक रह-रह कर अकादमी की हिंदी की कमेटी के संयोजक का पद संभाल लेते थे, कहने से चूकते नहीं थे कि फलां को मैंने पुरस्कार दिलवाया या फिर जो उनके खिलाफ बोलता था, कहने से चूकते नहीं थे कि फलां मुझ से इसलिए नाराज है कि मैंने उसे पुरस्कार नहीं दिलवाया।

हद यह हुई कि इसी गुट ने हिंदी के एक कवि को अध्यक्ष पद के चुनाव में बाकायदा हरवा दिया। इसलिए कि उन्हें लगा, अगर हिंदी का कोई ऐसा आदमी जो जरा भी स्वतंत्र प्रकृति का है, अध्यक्ष बना तो वे बाहर हो जाएंगे। दूसरा उदाहरण है, नागरी प्रचारिणी सभा का। इस अत्यंत महत्वपूर्ण संस्था को, जिसमें हिंदी की न जाने कितनी ऐतिहासिक महत्व की बहुमूल्य सामग्री संचयित थी, जिस तरह से बर्बाद किया गया उसकी तुलना सिर्फ मोहम्मद गजनवी की किसी लूट से ही हो सकती है।

इधर जो हो रहा है, वह भी कम मजेदार नहीं है। देश में स्वयं को सबसे ईमानदार राजनीतिक दल बतलाने से जो पार्टी झिझकती नहीं हैं वह दिल्ली पर शासन कर रही है। जी हां, प्रसंग आम आदमी सरकार का ही है। इसने सात साल में साहित्य के राजनीतिक इस्तेमाल की परिभाषा ही बदल दी है। क्षेत्रीय भाषाओं को तो छोडि़ए, इस सरकार ने बोलियों तक की अकादेमियां बना दी हैं। इन लगभग 15 अकादमियों के अध्यक्ष एक एक टेबुल-कुर्सी लेकर दिल्ली के कोने कोने में बिठला दिए गए हैं। ये अकादमियां क्या काम करती हैं, इसका सबसे अच्छा उदाहरण ही इस नगर राज्य की सबसे पुरानी अकादमी हिंदी अकादेमी में किए गए ‘क्रांतिकारी परिवर्तनों’ से समझा जा सकता है। उदाहरण लीजिए। आम आदमी पार्टी के इस महानगर राज्य में सत्ता संभालने के शुरू में इस अकादमी के सचिव के रूप में विष्णु खरे को लाया गया था, जिनका दुर्भाग्य से कुछ ही महीने में देहांत हो गया। सवाल है, किसी ने कभी पूछा कि उसके बाद क्या हुआ? यह क्या कर रही है? इसलिए कि आज भी दिल्ली हिंदी लेखकों का सबसे बड़ा केंद्र है। आप सरकार ने भाषा और साहित्य की अकादेमियां बना कर उनका ऐसा इस्तेमाल किया है कि कांग्रेस तो क्या भाजपा भी दिल्ली में पानी मांग रही है। उसने अकादेमी का ‘लोकतांत्रीकरण’ कर के हर एमएलए को अपने क्षेत्र में साहित्यिक कार्य करने का अधिकार यानी फंड दे दिया है। जैसा कि होना था, विधायकों ने इस महती काम में अपने चेले चांटों को लगा दिया है। हां, वार्षिक पुरस्कार जारी हैं, यह पता सोशल मीडिया से मिलता है, जहां सम्मानित लेखक अपना चित्र स्वयं ही चेपते रहते हैं। स्पष्ट है कि हर लेखक इस उम्मीद में है कि अगला पुरस्कार मुझे मिल जाएगा, कुछ भी बोलने से बचता है।

 

पुरस्कारों का चारा

इसका एक पक्ष और भी है केंद्रीय या हिंदी भाषी राज्यों की अकादमी के पुरस्कारों पदों का लाभ यह होता है कि इसके माध्यम से देश विदेश में मिलने वाले सम्मानों और पुरस्कारों पर भी कब्जा हो जाता है। इस बात की जांच करना भी कोई कठिन नहीं है। सिर्फ यह देखिए कि किन किन को हिंदी क्षेत्र के बाहर के कितने पुरस्कार मिले हैं फिर यह जांचिए कि उनके संबंध हिंदी क्षेत्र के किन मठाधीशों से किस तरह के हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इन लोगों में से अधिकांश को अपनी कथित रायल्टी की कोई परवाह नहीं है। वरना रायल्टी के संदर्भ में प्रकाशक जो कर रहे हैं वह कम से कम इस स्तर पर तो नहीं ही होता। अपवाद हो सकते हैं, जो बड़ी बात नहीं है।

इसलिए जो हाल दिल्ली का है वही या उससे भी बदत्तर हाल हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान का है। उत्तराखंड और हिमाचल का तो कहना ही क्या है? मध्यप्रदेश को लीजिए, जो एक जमाने में साहित्य व कला की देश की धुरि था, कहां है आज? आरएसएस का सबसे बड़ा हमला साहित्य और संस्कृति पर है, लेकिन किसी माइके लाल के कान में जूं भी रैंगी हो!

ये उदाहरण इसलिए लिए दिए गए हैं कि चरम हैं। यह अपेक्षा उचित नहीं होगी कि साहित्य सरकारों पर निर्भर हो, पर ऐसा भी नहीं होने दिया जा सकता कि सरकारें अपनी हरकतों से जनता के पैसे का इस्तेमाल साहित्य के मानदंड निर्धारित करने, साहित्यकारों का मुंह बंद करने या वोट जुटाने के लिए खुलेआम करने लगे और कहीं कोई आवाज ही न आए। किसीने विरोध की कहीं कोई आवाज सुनी हो तो बताइए? दिल्ली में कौन नहीं है, कलम के ‘समर्पित सिपाहियों’ से लेकर ‘प्रचंड और प्रकांड’ आचार्यों प्रचार्यों तक? पुरस्कार वापसी तो हुई, जो निश्चित ही बड़ा काम था, पर क्या उसके बाद पुरस्कार लेना बंद हुआ? हर वर्ष जिस तरह से अकादेमी के इन अर्थहीन पुरस्कारों की जय जयकार पुरस्कार वापसी से पहले हुआ करती थी, आज भी क्या उसी स्वर में नहीं हो रही है? या अकादेमी ने अपने तौर तरीके बदले हैं? सच यह है कि उसके स्तर में और गिरावट आ गई है। देश भक्तों का जो राज है!

साहित्य की आज जो कुछ पत्रिकाएं निकल रहीं हैं उनमें से अधिसंख्य के आर्थिक स्रोत शंकास्पद हैं। नतीजा यह है उनकी गुणवत्ता भी संदेहास्पद है। मुख्य बात यह है कि कोई भी पत्रिका जिसका आधार पाठक नहीं होगा, वे सदा शंकास्पद बनी रहेंगी। अगर संपादकों, व्यवस्थापकों का सारा काम पैसा जुगाडऩा हो कर रह जाएगा, चाहे मजबूरी में ही क्यों न हो, तो वही होगा जो हो रहा है।

सवाल है, क्या पाठक और साहित्यकार हवा में पैदा होते हैं? अगर हम यह नहीं समझेंगे तो वही होगा जो आज एक वरिष्ठ कवि के साथ हो रहा है, कल को दूसरे वरिष्ठ उपन्यासकार या कथाकार के साथ होगा या हो रहा होगा। या जो हो रहा है, वह वाकेई यथार्थ हो। यानी किताबें ही न बिकती हों। क्यों कि हिंदी का पाठक लगभग गायब हो चुका है और सरकारी खरीद, जिस पर अधिसंख्य प्रकाशक निर्भर हैं, सिर्फ नई किताबों की होती है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हिंदी के अधिसंख्य प्रकाशक कुटिर उद्योग श्रेणी के हैं। जो अक्सर रायल्टी देना तो रहा दूर खुले आम पैसा लेकर किताबें छापते हैं। वैसे यह काम बड़े प्रकाशक भी करते हैं पर उनका तरीका थोड़ा शालीन किस्म का है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदी प्रकाशकों को अपनी किताबें ‘अंडर हैंड’ बेचने की कला में महारथ हासिल करना जिसने सिखाया, वह साहित्य का ही आदमी (मठाधीश) था। नंवें दशक के शुरू की बात है, मध्यप्रदेश की साहित्य अकादमी ने हिंदी साहित्यकारों की किताबें थोक में खरीदनी शुरू कीं। जाहिरा तौर पर मंशा थी हिंदी साहित्यकारों को ‘रायल्टी’ की बड़ी राशि दिलाने की। यानी रॉयल्टी न मिलना तब भी बड़ी समस्या थी।

नतीजा क्या हुआ? दिल्ली के निकट के एक कस्बे, जो अनाज की बड़ी मंडी के रूप में प्रसिद्ध है, में रातों रात एक प्रकाशक का जन्म हुआ, जिसने धड़ाधड़ हिंदी के दिग्गजों की किताबें छापीं। ऐसा भी नहीं है कि किताबों की खरीद सिर्फ एक ही प्रकाशक से की गई हो, बल्कि सच यह है कि सभी बड़े प्रकाशकों का ध्यान रखा गया और हर बड़े लेखक की किताबें एकमुश्त खरीदी गईं। इस खरीद के साथ शर्त यह थी कि इन पर लेखकों को 18 प्रतिशत रॉयल्टी दी जाएगी और उसकी रसीद मध्यप्रदेश अकादेमी को भेजनी होगी तब खरीद का भुगतान होगा। निश्चय ही लेखकों को बड़ी बड़ी रकमें मिलने लगीं और पूरे हिंदी साहित्य में एक तरह से भूकंप आ गया। पर तब भी प्रकाशक अपनी कारस्तानी से बाज नहीं आए। उन्होंने लेखकों से साफ कह दिया, साढ़े बारह प्रतिशत से एक पैसा ज्यादा नहीं देंगे। स्वीकार न हो तो हम बेचेंगे ही नहीं। बड़े बड़े लेखकों ने चुपचाप 18 प्रतिशत पर हस्ताक्षर किए और 12.5 प्रतिशत रायल्टी स्वीकार की।

पर इसका एक और पक्ष भी है, जिसे भूला नहीं जाना चाहिए। क्या लेखक का एकमात्र उद्देश्य रायल्टी कमाना है? आश्चर्य यह है कि किसी लेखक ने यह नहीं पूछा कि ये किताबें कहां जाएंगी? अगर ये वितरित नहीं की गईं तो एक तरह से लेखक की हत्या की गई और अगर वितरित की गईं तो क्या यह बिना सोचे समझे थोपी नहीं गईं? कहां किसे कैसी किताबों की जरूरत है यह फैसला भोपाल में रह कर किया जाए या लखनऊ, पटना या जयपुर में इससे कोई फर्क पड़ता है? तात्पर्य यह है कि यह साहित्य के जनतांत्रीकरण या पुस्तक संस्कृति के विस्तार का बर्बर तरीका माना जाएगा।

 

कहां है हिंदी समाज?

इसी से जुड़ा ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल है हिंदी भाषा की अपने समाज में स्थिति। यह कोई छिपी बात नहीं है कि साहित्य के पाठक मूलत: उच्च, मध्य व निम्न मध्यवर्ग से आते हैं। जरा इस पर नजर डालिए कि आज कौन पढ़ क्या रहा है? क्या हिंदी पट्टी का उच्च वर्ग हिंदी पढ़ रहा है? जिस भाषा के लोग इतने बड़े पैमाने पर अंग्रेजी पर टूट पड़े हों कि शहरों से लेकर कस्बों और गांवों तक के गलीकूचों में अंग्रेजी ‘कानवेंटों’ और ‘पब्लिक स्कूलों’ का विस्फोट हो गया हो, वहां हिंदी कोई क्यों और किसलिए पढ़े? विशेष कर उच्च व मध्यवर्ग, जिसका बहुलांश इत्तफाक से उच्च वर्ण से आता है, उस भाषा का क्या होगा? सच यह है कि आजादी के बाद ज्यों ज्यों हिंदी क्षेत्र में उच्च व मध्यवर्ग का विस्तार होता गया, त्यों-त्यों वह हिंदी भाषा से दूर होता गया। ऐसा क्यों हुआ समझना कठिन नहीं है। इस मानसिकता या कहिए समझ का पुराना इतिहास है।

पहली बात, हिंदी का यह वर्ग जबर्दस्त अवसरवादी तो है ही असुरक्षा से भी पीडि़त है। यह अचानक नहीं है कि हिंदी में नए लेखक दो तरह के हैं। निम्न मध्य व मध्य वर्ग के। इन लोगों ने विकट आर्थिक और सांस्कृतिक असुरक्षा देखी है। अपनी आजादी के बाद हासिल की अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को अपने बच्चों के माध्यम से बनाए रखने के लिए उनका सबसे पहला कदम अपनी भाषा, (कहना मुश्किल है कि वह कितनी उनकी मातृभाषा है, क्यों कि कोई भोजपुरी पृष्ठभूमि से आता है, कोई मैथिली से, कोई अवधी से तो कोई मगधी से। इसके लावा राजस्थानी, ब्रज, बुंदेली, हरियाणवी, हिमाचली, कुमाऊंनी और गढ़वाली आदि से आते हैं।), जो एक मामले में उनके आर्थिक, सामाजिक पिछड़ेपन का प्रमाण हो, से वह दूर हटता है। यह अचानक नहीं है कि आज हिंदी क्षेत्र से जितने लेखक अंग्रेजी में आ रहे हैं लगभग उनकी संख्या अन्य भारतीय भाषााओं के लेखकों के बराबर तो है ही, जब कि आज से तीन दशक पहले ऐसा नहीं था। यह साधारणीकृत टिप्पणी है पर इसे प्रमाणित करना बहुत मुश्किल नहीं है। तब लोग अंग्रेजी पढऩे के बावजदू हिंदी में लिखते थे चाहें तो एक बार जांच लें।

एक बात और, आज से 75 से 80 वर्ष पहले हिंदी का टाइप राइटर मौजूद था। यानी आजादी से पहले। ऐसे ही एक टाइप राइटर पर समयांतर के शुरू के संपादकीय लिखे गए थे। आज जब देश के आठ राज्य हिंदी भाषी हैं, उनकी सरकारें हिंदी में काम करती हैं, न तो कंप्यूटर में देवनागिरी की-बोर्ड है और न ही फांटों में एकरूपता। यह हालत तब है जब कि देश में कथित ‘हिंदी प्रेमी’ दल का शासन है।

”फर्राटे से अंग्रेजी बोलना सीखिए और हजारों की नौकरी पाइए।‘’ यह विज्ञापन हिंदी में दिया जाता है। आपको चपरासी का काम भी नहीं मिलेगा, उस भाषा का देर सबेर वही हाल होगा जो हिंदी का आज नजर आ रहा है।

और हम हैं कि रायल्टी को रो रहे हैं!

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