एई पथ जोदि ना शेष होय….

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बांग्ला की सुप्रसिद्ध गायिका संध्या मुखर्जी को नित्यानंद गायेन की श्रृद्धांजलि

चर्चित शास्त्रीय गायिका संध्या मुखर्जी का 15 फरवरी, 2022 को 91 वर्ष की उम्र में हृदय गति रुक जाने से निधन हो गया। उनके निधन से भारतीय संगीत, खासकर बांग्ला संगीत, जगत को बड़ी क्षति पहुंची है। कला को किसी भाषा या क्षेत्र विशेष तक सीमित या सीमाबद्ध करके नहीं रखा जा सकता। खासकर जब यह संगीत और फाइन आर्ट का मामला हो। गायिका गीताश्री संध्या मुखर्जी भारतीय संगीत जगत में ऐसी ही एक कलाकार थीं। हालांकि उन्हें बांग्ला भाषा की गायिका के रूप में ही ज्यादा पहचान मिली। लेकिन बांग्ला के बाहर ज्यादातर लोगों को यह नहीं पता कि संध्या मुखर्जी शास्त्रीय (क्लासिकल) गायिका थीं और उन्होंने बचपन में ही शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली थी।

स्कूली शिक्षा पूरी करने से पहले ही उन्होंने पंडित संतोष कुमार बसु, प्रोफेसर एटी कानन और प्रोफेसर चिन्मय लाहिरी से संगीत की शिक्षा ले ली थी। इनके अलावा कई और गुरुओं से उन्होंने संगीत की शिक्षा ली थी, जिनमें जामिनी नाथ गांगुली, ज्ञान प्रकाश घोष, पंडित गणपत राव और ध्रुव तारा जोशी जैसे उस्तादों के नाम शामिल हैं। इन सबसे बढ़कर उस्ताद बड़े गुलाम अली खान और उनके बाद उनके पुत्र उस्ताद मुनव्वर अली खान को संध्या मुखर्जी अपना गुरु मानती थीं।

संध्या मुखर्जी का जन्म 4 अक्टूबर, 1931 को ढाकुरिया, कलकत्ता, में हुआ था। हालांकि ढाकुरिया उस वक्त एक गांव ही था, आज की तरह आधुनिक नहीं था। संध्याजी के पिता रेलवे में थे। छह भाई-बहनों में वह सबसे छोटी थीं। उनके पिता का नाम था नरेंद्रनाथ मुखर्जी और माता का नाम था हेम प्रभा देवी था। संध्याजी की गायकी की शुरुआत बचपन में घर पर ही भजन गाने के साथ शुरु हो गई थी। बंगाल के गांवों में हिंदू घरों में ‘ठाकुर घर’ मने मंदिर में शंख और घंटी के साथ दीया जलाना और राधाकृष्ण आदि के भक्ति गीत गाना आज भी अनिवार्य रूप में होता है। संध्याजी की मां हेमप्रभा देवी भी बहुत सुंदर बांग्ला भजन गाती थीं। वहीं उनके पिता का कंठ भी सुंदर था। संध्या मुखर्जी ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा था कि, संध्या पूजा के वक्त घर पर भजन गाया जाता था जिसमें परिवार के लोग शामिल होते थे। संध्या जी को भी गाने में मजा आता था। संध्या जी कहती हैं कि उस वक्त उनके घर पर रेडियो या ग्रामोफोन नहीं था, उनके भैया के एक दोस्त के घर जाकर वह रेडियो सुनती थीं। संध्या मुखर्जी की संगीत शिक्षा में उनके बड़े भाई का बहुत अहम योगदान रहा है। स्कूल से लौटने के बाद वह संगीत सीखने जाती थीं, साथ जाते थे बड़े भैया। संध्या जब 13 साल की थीं तो 1944 में पहली रिकॉर्डिंग हुई जिसे 1945 में रिलीज किया गया। लेकिन इस रिकॉर्डिंग से पहले छह महीने तक उन्होंने ट्रेनिंग ली थी।

संध्या मुखर्जी बांग्ला सिनेमा संगीत के स्वर्ण युग की गायिका थीं। वह परदे पर बांग्ला सिनेमा की महानायिका सुचित्रा सेन की आवाज बन गई थीं। जैसे महानायक उत्तम कुमार की आवाज बन चुके थे हेमंत कुमार और मानवेंद्र मुखर्जी और हिंदी में मुकेश राज कपूर की पहचान बने थे।

संध्या मुखर्जी ने अपने संगीत/गायकी यात्रा में तमाम रागों से लेकर आधुनिक बांग्ला गीत, रबींद्र संगीत, नजरुल गीति सब कुछ गाया। खयाल में उनका गाया अब भाई भोर, क्लासिकल में ‘आए पी मोरे मंदिरवा …’, ‘अब न मानत श्याम’, तोरी भोली सूरतिया, आदि अद्भुत हैं, ये सभी राग आधारित गीत ‘गीताश्री संध्या मुखर्जी’ नामक अलबम पर उपलब्ध हैं।

बंगाल आज भी अपनी भाषा, कला-संगीत, विरासत/संस्कृति के प्रति सजग है और गर्व करता है। अपने कलाकारों और महान व्यक्तित्वों का सम्मान करता है। संध्या मुखर्जी के निधन के बाद इसे पूरे देश ने देखा है। ऐसा ही सम्मान बीते वर्ष बांग्ला सिनेमा और थियेटर के प्रसिद्ध कलाकार सौमित्र चटर्जी के लिए लोगों ने दिखाया था। संध्या मुखर्जी न सिर्फ भारत में बल्कि बांग्लादेश में भी उतनी ही चर्चित और सम्मानित हैं। हालांकि बांग्ला के अलावा संध्या मुखर्जी ने हिंदी फिल्मों के लिए भी गाया है। उन्होंने करीब 17 हिंदी फिल्मों के लिए गाया है। वर्ष 1951 में फिल्म ‘सजा’ और ‘तराना’ के लिए एसडी बर्मन और अनिल विश्वास के निर्देशन में गाने गाए। इसके अलावा उन्होंने कई अन्य फिल्मों के लिए प्लेबैक किया, जिनमें ‘इज्जत’, ‘हुस्न का चोर’, ‘एक दो तीन’, ‘फरेब’, ‘जागते रहो’, ‘ममता’, आदि फिल्में प्रमुख हैं। फिल्मों के बाहर भी संध्या मुखर्जी ने हिंदी में अनेक गीत गाए।

हिंदी में गीतकार प्रेम धवन द्वारा लिखे और संगीतकार कानू घोष के निर्देशन में संध्या जी ने जो गीत गाया है उसके बोल हैं- ‘तुम गए लूट गया प्यार का ये जहां, न रही वो खुशी न रहे अरमां …!’

इसी तरह हिंदी सिनेमा में उनके द्वारा गाए कुछ गीत हैं जो उस समय बहुत ज्यादा हिट हुए और संगीत प्रेमियों द्वारा आज भी सुने जाते हैं। ऐसे गीतों की सूची में कुछ गाने हैं: ‘अश्कों में छिपी अपनी उल्फत की कहानी…’ यह फिल्म ‘पहला आदमी’ से है। वर्ष 1954 में रिलीज ‘मनोहर’ में उनके गाए गीत के बोल थे – ‘डूब गए सब आस के तारे …छा गई काली रात…!’ 1952 में रिलीज ‘इज्जत’ में उनका गाया गीत है – ‘क्या-क्या सितम सहे हैं दो दिन की जिंदगी में…!’ संध्या मुखर्जी का एक और चर्चित गीत है – ‘आजा रे बालम तुझे मेरी कसम…मेरा जिया नहीं लगे…’ यह फिल्म ‘एक दो तीन’ से है, इसमें मोतीलाल और मीना शोरी ने अभिनय किया था। इस गाने पर शानदार कोरिओग्राफी है। वर्ष 1951 में रिलीज देवानंद और निम्मी अभिनीत फिल्म ‘सजा’ में संध्या मुखर्जी- हेमंत कुमार द्वारा गाया गीत है – आ गुप चुप गुप चुप प्यार करे ….छुप-छुप आंखें चार करें…!’ उसी साल दिलीप कुमार-मधुवाला अभिनीत सुपरहिट फिल्म ‘तराना’ में लता मंगेशकर के साथ संध्या मुखर्जी ने जो सुपरहिट गीत गाया था उसके बोल थे – ‘बोल पपीहे बोल रे…।‘ इस गीत को प्रेम धवन ने लिखा था और संगीतकार थे अनिल विश्वास। कुछेक गीत ऐसे भी हैं जिन्हें हिंदी में लता या अन्य आर्टिस्ट ने स्वर दिया और उसी गाने के बांग्ला वर्जन को संगीतकारों ने संध्या मुखर्जी से गवाया। ऐसा ही एक विंटेज गीत है- रातों के साये में… फिल्म ‘अन्नदाता’ से और संगीत सलिल चौधुरी का है। इस गाने के बांग्ला वर्जन को संध्या ने गया है। बांग्ला के बोल हैं – ‘गहनो राति घनाय जानी जा जाबो कोथाय…!’

इसी तरह बांग्ला में संध्या मुखर्जी द्वारा गाए हजारों गीत हैं जिनमें फिल्मी और गैर फिल्मी आधुनिक बांग्ला गीत से लेकर तमाम संगीत शामिल हैं। अभिनेता उत्तम कुमार और बांग्ला महानायिका सुचित्रा सेन पर फिल्माया एक सदाबहार गीत है – ‘एई पथ जोदि ना शेष होय…तबे केमोन होतो तुमि बलो तो…!’ इस गीत को हेमंत कुमार और संध्या मुखर्जी ने गाया है और इसके संगीतकार थे हेमंत कुमार और गीतकार थे गौरी प्रसुन्न मजूमदार। इस गाने को बंगाल की हर पीढ़ी ने गुनगुनाया है और आज भी यह सिलसिला जारी है। इस गीत के बोल का जो अर्थ है वो ही संध्या मुखर्जी की गायकी का भी है शायद। गीत के बोल का अर्थ है – ये पथ यदि कभी खत्म न हो…! तो संध्या मुखर्जी ने अपनी आवाज और गायकी से संगीत के पथ को अशेष बना दिया है।

संध्या मुखर्जी ने बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के समय वहां से पलायन कर भारत में आए लाखों शरणार्थियों के लिए बंगाल के अन्य कलाकारों के साथ मिलकर धन जुटाया और बांग्लादेश की समस्या के प्रति दुनिया का ध्यान आकर्षित करने की दिशा में भी काम किया था।

संध्या मुखर्जी बांग्ला संगीत प्रेमियों के बीच हमेशा से ही सम्मानित रहीं, लेकिन वह हाल ही में अपनी मृत्यु के कुछ दिन पहले अचानक तब सुर्खियों में आईं जब यह खबर फैली कि उन्होंने केंद्र की मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित पद्मश्री पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया। लेकिन उन्होंने क्यों इंकार किया था?

संध्या मुखर्जी ने बताया था कि जिस तरह से उन्हें फोन पर पुरस्कार के लिए पूछा गया उससे उन्होंने अपमानित महसूस किया और प्रस्ताव को ठुकरा दिया। संध्या मुखर्जी ने बताया कि, 24 जनवरी, सोमवार को दिल्ली से केंद्र सरकार की तरफ से उन्हें फोन आया था, बीमार होने के बाद भी फोन खुद उन्होंने उठाया और किसी तरह से बात की। उस कॉल पर उनसे कहा गया कि उन्हें पद्मश्री सम्मान दिया जाएगा, क्या वह इस सम्मान को स्वीकार करेंगी? यदि वह लेना स्वीकार करेंगी तो अन्य प्रस्तावित विजेताओं की सूची में उनका नाम शामिल कर लिया जाएगा!’’ यह सुनते ही उन्हें बहुत दु:ख और हैरानी हुई थी।

”इस तरह से कोई पद्मश्री देता है? क्या उन्हें नहीं मालूम मैं कौन हूं? नब्बे वर्ष की उम्र में आकर अंत में पद्मश्री और फोन करके बोलने से मैं चली जाती लेने के लिए? कलाकारों का कोई सम्मान नहीं है क्या?’’

केंद्र सरकार की तरफ से जिस तरीके से उन्हें फोन पर पद्म पुरस्कार का प्रस्ताव दिया, वह संध्या मुखर्जी के लिए बेहद ही अपमानजनक था। इसीलिए उन्होंने पद्मश्री लेने से इंकार करते हुए कहा था कि, ”मेरे श्रोता ही मेरा पुरस्कार हैं।‘’ संध्या मुखर्जी को 2011 में पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा दिया जाने वाला सर्वोच्च नागरिक सम्मान बंगविभूषण और 1971 में जय जयंती और निशि पद्मा के लिए सर्वश्रेष्ठ महिला पार्श्वगायिका का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। तमाम पुरस्कार मिलने के बाद भी संध्या मुखर्जी के नाम के पहले ‘गीताश्री’ जुड़ा रहा आजीवन। लेकिन इसकी कहानी शायद कम ही लोग जानते हैं। दरअसल वर्ष 1945 में उनकी पहली रिकॉर्डिंग रिलीज हुई। इसके एक साल बाद 6 अप्रैल,1946 को बंगाल में संगीत के लिए ‘गीताश्री’ शीर्षक से एक परीक्षा का आयोजन हुआ था। उस समय संध्या केवल 14 वर्ष की थीं और उस परीक्षा के निर्णायकों में शामिल थे उस्ताद अलाउद्दीन खां, उस्ताद मुहम्मद दाबिर खां और रथिंद्रनाथ ठाकुर। उस परीक्षा में संध्या ने प्रथम स्थान प्राप्त किया था और इसलिए उन्हें ‘गीताश्री’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था। आज भले ही गायिका संध्या मुखर्जी इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन जब तक संगीत रहेगा तब तक ‘गीताश्री संध्या मुखर्जी’ की आवाज हमारे कानों में गूंजती रहेगी।

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