नज़र आ लिबासे मजाज़ में

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मान लीजिए ‘महल’ फिल्म का ‘आएगा आने वाला’ गीत अगर लता मंगेशकर की जगह नूरजहां, संध्या मुखर्जी, सुरैया, गीता दत्त, सुमन कल्याणपुर या आशा भोंसले ने गाया होता तो क्या उस गीत का महत्व कम होता?

 

कला क्या है? उसके उद्देश्य क्या हैं? क्या एक कला विधा दूसरी कला विधा से भिन्न है? कलाओं और आधुनिक प्रौद्योगिकी का क्या संबंध है और क्या ये संबंध विरोधाभासी हैं?

ये प्रश्न इसलिए जरूरी हैं कि इनको समझे बगैर भारतीय फिल्मों, उस पर भी विशेषकर हिंदी फिल्मों के संगीत से संबंधित सवालों, उसकी उपलब्धियों और उसके प्रमुख किरदारों की भूमिका को मूल्यांकित नहीं किया जा सकता। इसलिए भी कि संगीत, विशेषकर गायन, ऐसा काम है, जो पार्श्व में रह कर भी दर्शक/श्रोता समाज में, अभिनय के बाद, सबसे ज्यादा अपनी उपस्थिति दर्ज करता है। बल्कि एक मामले में यह अभिनेताओं से भी कई गुना प्रभावशाली तरीके से, ध्वनि के अपने भौतिक गुणों के कारण, जन स्मृति में बना रहता है। जैसे 72 साल पुरानी फिल्म महल  को आज मुश्किल से ही कोई देखता हो पर गीत खामोश है जमाना बेकल हैं दिल के मारे’ को न जाने कितने-कितने माध्यमों से आज भी सुना जाता है। पिछले एक वर्ष में अकेले यूट्यूब पर ही इस गाने को (23 फरवरी, 2022 तक) 2,300 बार बजाया गया था, लगभग सात बार प्रति दिन। यद्यपि आज डिजिटल उपकरणों की श्रव्य व दृश्य की तकनीकी बहुआयामी सर्वव्यापकता के कारण फिल्मों को कहीं और कभी भी, देखा जा सकता है, पर श्रव्य और दृश्य की अपनी अपनी गुणवत्ता के कारण उनकी उपस्थिति की तुलना नहीं की जा सकती।

इससे जुड़ी एक समस्या और है। वह है, उसके ‘उपभोगताओं’ यानी दर्शकों और श्रोताओं पर पडऩे वाले प्रभावों की। चूंकि सिनेमा, टीवी, और अब इंटरनेट, मास मीडिया (जन संचार) है, उसका अंतिम उत्पाद जिस रूप में दर्शकों और श्रोताओं तक पहुंचता है, वह उसके पीछे की लंबी और जटिल प्रक्रिया का जरा भी भान सामान्य उपभोगता को नहीं होने देता।

इस भूमिका का उद्देश्य यह है कि जब भी हम यानी सामान्य दर्शक/श्रोता, यांत्रिक कलाओं/माध्यमों के अंतिम उत्पाद से प्रभावित होते हैं और उसकी आलोचना या प्रशंसा कर रहे होते हैं, तब हम अपरिहार्य रूप से सिर्फ, जो हमारे सामने है, उसका ही सामना कर रहे होते हैं। एक दर्शक या श्रोता के रूप में हमारे सामने अभिनेता या गायक होता है। यहां तक कि फिल्म के निर्देशक को भी हम तुलनात्मक रूप से भूल जाते हैं। दूसरे शब्दों में अभिनेता या गायक, जो कर रहा होता है, वह उसका अपना नहीं होता। उसका अपना सिर्फ एक चरित्र का निर्वाह भर होता है। वह क्या करेगा, कैसे करेगा, यह किसी और द्वारा निर्देशित होता है। अच्छा अभिनय मात्र किसी फिल्म को नहीं चला सकता। उसकी पटकथा, निर्देशन यानी परिकल्पना, कथा, संगीत और उससे जुड़ी तकनीकी की भूमिका को नहीं भुलाया जा सकता जो फिल्म के प्रभाव और उसी अनुपात में अभिनेता या गायक के योगदान के लिए सराहना सृजित करती है। इस जटिल प्रक्रिया से जो संश्लिष्ट उत्पाद हमारे सामने होता है उसे हम किस रूप में स्वीकार करते हैं, यह रेखांकन योग्य है। इस ‘विलिंग सस्पेंशन ऑफ डिसबिलीफ’ (अविश्वनीय का स्वैच्छिक स्वीकार) के कारण अक्सर अभिनेता और गायक की बनी छवि, वास्तविक से कभी ज्यादा और कभी वास्तविकता से पूरी तरह भिन्न बनती है।

मान लीजिए महल फिल्म का आएगा आने वाला’ गीत अगर लता मंगेशकर की जगह नूरजहां, संध्या मुखर्जी, सुरैया, गीता दत्त, सुमन कल्याणपुर या आशा भोंसले ने गाया होता तो क्या उस गीत का महत्व कम होता? इसी तरह गालिब की गजल रहिये अब ऐसी जगह चलकर’ सुरैय्या की जगह अगर लता मंगेशकर या आशा भोंसले ने गायी होती तो क्या, उन्नीस-बीस के अंतर के बावजूद, उस गजल की अर्थवत्ता या महत्व कम हो जाता? यह सवाल इसलिए भी मौजूं है क्योंकि उसके पीछे जो अवयव काम कर रहे थे उनमें निर्देशक, गीतकार, संगीतकार और आज उपलब्ध उस टेक्नॉलोजी की भूमिका भी है, जो उसे सर्वसुलभ बनाती है और जिसे भुलाया नहीं जा सकता है। इसलिए भी कि वह निर्णायक है। अगर हम नजरंदाज करते हैं तो यह मूल्यांकन का खोट है।

यहां एक और समस्या है। बड़े पैमाने पर उत्पादन, विशेषकर प्रौद्योगिकी और पूंजीगत, बाजार ढूंढता ही नहीं बल्कि नियोजित तरीके से बनाता भी है। आज तो यह समस्या लगभग सारी सीमाएं लांघ चुकी है। इंटरनेट के माध्यम से ऑनलाइन मंच पाठक-दर्शक के रुझानों को बड़े पैमाने पर प्रभावित करने की स्थिति में पहुंच गया है। उसकी पहुंच में हर उस व्यक्ति की, जो इंटरनेट का इस्तेमाल करता है, लगभग सभी जरूरी सूचना हर क्षण इक्ट्ठी होती रहती है, जिसका वह व्यापार करता है।

अमेरिकी चिंतक हर्बर्ट मार्कूज ने अपनी बहुचिर्चित किताब वन डाइमेंशनल मैन (1968) में बताया है कि तकनीकी, अर्थव्यवस्थाएं और सरकारें मिल कर ‘एक आयामी’ (‘वन डाइमेंशनल’) नागरिक का निर्माण करती हैं। सच यह है कि लगभग सारे संचार माध्यम, इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शासकों और उत्पादकों के पक्ष में गोलबंद हैं।

दूसरे शब्दों में हम ऐसे समाज में रहते हैं जिसकी रुचियों को निर्धारित करने में पूंजी निर्णायक और एक आयामी भूमिका निभा रही है। यह मात्र भौतिक उत्पादों तक ही सीमित मसला नहीं है, बल्कि उन कथित उत्पादों पर भी लागू होता है जो अपने उपभोग में अमूर्त हैं या जिनसे हमारी रुचियों तथा इंद्रियों तक का संबंध है। यानी ये हमारी रुचियों को निर्णायक रूप से बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यानी अब यह काम समाज और उसकी संस्कृति का नहीं रहा है। फिल्म, धारावाहिक और संगीत इसी दायरे में आते हैं।

 

कला और कलाकार, भूमिका का सवाल

यही वह चरम स्थिति है जो बतलाती है कि परफॉर्मिंग (मंचीय) तथा सिनेमेटिक आर्ट और उसके आर्टिस्ट की किसी रचना विशेष में कुल मिला कर क्या भूमिका है। उसका सत्ता पक्ष में होने, या विपक्ष में होने, लोकतांत्रिक होने या तानाशाही समर्थक होने, सांप्रदायिक होने या धर्मनिरपेक्ष होने का, उस रचना से कोई संबध नहीं है जो विभिन्न विधाओं, प्रतिभाओं और टेक्नोलॉजी के मेल से अस्तित्व में आती है। क्योंकि इनमें वह अक्सर ऐसी भूमिका निभाता है जो उसके निजी विचारों और प्रतिबद्धताओं से एकदम उलट होती हैं।

अन्य शब्दों में, किसी भी कलाकार का, फिर चाहे वह लता मंगेशकर ही क्यों न हो, उदार, जन समर्थक, लोकतांत्रिक, नारीवादी या जातिवादी होने का इस तरह की (फिल्म/धरावाहिक) कोई कृति प्रमाण नहीं हो सकती। लता मंगेशकर को ही लीजिए वह कितनी रूढ़िवादी थीं, यह छिपा नहीं है। सबसे विचित्र उनका मांग भरना है। यह क्यों था, कहा नहीं जा सकता। वह सार्वजनिक तौर पर विवाहित तो थीं नहीं। अगर वह विवाहित थीं तो छिपाती क्यों थीं और अगर नहीं थीं तो फिर टीका-सिंदूर क्यों करती थीं? यह कहना गलत नहीं होगा कि ये दोनों की प्रतीक हिंदू समाज में स्त्री की निम्न स्थिति (वैवाहिक स्थिति) और पुरुष के अधिपत्य (सुपरिमेसी) का प्रतीक हैं। पुरुष के लिए वैवाहिकता सिद्ध करने की इस तरह की कोई शर्त नहीं है।

इस उदाहरण को सिर्फ इस तर्क को विस्तार देने के लिए लिया गया है कि कलाकार की सामाजिक प्रतिबद्धता इस बात पर निर्भर करती है कि वह तकनीक पर आधारित व्यावसायिक कलाओं द्वारा स्थापित अपनी छवि से बाहर समाज में किस हद तक ‘स्टैंड’ लेता है।

यांत्रिक माध्यमों से कला रचना जिस तरह काम करती है, इसका एक छोटा उदाहरण महल फिल्म है। फिल्म का गीत आएगा आने वाला’ लगभग मिथक बन चुका है। लता मंगेशकर का गाया यह गाना गहरी उदासी और अकेलेपन के अहसास से सराबोर कर देता है, अंग्रेजी में जिसे ‘हॉन्ट’ करना कहते हैं। स्मृति में देर तक बजता रहने वाला। बल्कि कहना चाहिए सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इस गीत को लता मंगेशकर के गाये उत्कृष्ट गानों में माना जाता है।

गीत के स्वर, शब्द और संगीत में डूबे क्या हम कभी यह भी सोचते हैं कि इसके पीछे स्वर के अलावा, कितनी और प्रतिभाएं काम कर रही थीं। जैसे कि निर्देशक कमाल अमरोही, खेमचंद प्रकाश जिन्होंने इसका संगीत तैयार किया, गीतकार नक्शाब जवारची जिसके शब्दों ने एक हद तक उस संगीत रचना को आधार प्रदान किया और काफी हद तक फिल्म को क्लासिक दर्जा दिलवाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा वह वाद्यवृंद और टेक्नीशियन जिन्होंने इसको अंतिम रूप देकर एक बेहतरीन तकनीकी उत्पाद में बदला था।

सिर्फ तर्क के लिए ही देखें : अगर कमाल अमरोही न होते तो न खेमचंद प्रकाश होते, न ही नक्शाब जवारची होते और न ही लता मंगेशकर, जो तब संघर्षशील कलाकार थीं। शायद यह भी संयोग था कि तब तक विभाजन हो चुका था और नूरजहां पाकिस्तान जा चुकी थीं। इसके अलावा सुरैया पार्श्व गायन करती नहीं थीं।

निश्चय ही जितनी गहराई से इस गीत को गाया गया है, उतनी ही कल्पनाशीलता से इस गीत को लिखा गया है। जरा मुलाहिजा फरमाइए:

चुप चाप हैं सितारे/आराम से है दुनिया/ बेकल हैं दिल के मारे/ ऐसे में कोई आहट/ इस तरह रही है/जैसे कि चल रहा हो/ मन में कोई हमारे/ या दिल धड़क रहा है /इक आस के सहारे। इन पंक्तियों को एक बार स्वर और संगीत को भूल कर पढि़ए और उसके प्रभाव को महसूस करिए, तब आप शब्दों की ताकत का अनुमान लगा पाएंगे।

सारा तर्क यह है कि निर्देशक को छोड़कर, कोई भी फिल्मी कलाकार या पार्श्वगायक, यह दावा नहीं कर सकता कि किसी फिल्म विशेष में उसका अभिनय या गायन या संगीत, यहां तक कि लेखन भी, उसकी सामाजिक, राजनीतिक, प्रतिबद्धता का प्रमाण है। सच यह है कि वह इस माया लोक के बाहर समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता किस तरह प्रकट करता है, उसीसे पहचाना जाता है और पहचाना भी जाना चाहिए।

 

सामाजिक दायित्व का सवाल

पिछली पीढ़ी के उन लोगों को जो 70, 80 और 90 के दशकों में जवान थे, चरम पूंजीवादी व्यवस्था हॉलीवुड में काम करने वाले चैपलिन को तो क्या ही भूलेंगे वेनेसा रेडग्रेव, जेन फोंडा, रॉबर्ट रेडफोर्ड या हाल के शीन पैन जैसे अभिनेताओं को नहीं भूल सकते, जो अपनी राजनीतिक-सामाजिक प्रतिबद्धताओं के लिए जाने जाते हैं। हिंदी सिनेमा के भी बलराज साहनी और हंगल जैसे अभिनेताओं को नहीं भुलाया जा सकता। जहां तक शायरों और कवियों (विशेषकर उर्दू) का सवाल है उनकी काफी हद तक अपनी स्वायत्तता है और इसे बीसवीं सदी के पांचवे, छट्ठे   दशक तक उनकी प्रगतिशील रचनाओं का फिल्मों और उसे दर्शकों /श्रोताओं में डंका बजता था। पर इस संदर्भ में जब हम पश्चिम को देखते हैं तो लगभग अचंभित रह जाते हैं। एक नहीं कई ऐसे गायक और अभिनेता, निर्देशक याद आ जाएंगे, विशेषकर पश्चिम में, जो अपनी कला प्रतिभा के अलावा अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता से आपको अभिभूत कर देते हैं।

इस संदर्भ में एक गायिका याद आ रही है जो, कमोबेश पश्चिम के विद्रोही संगीत का कई मायनों में प्रतिनिधित्व करती है। आयरलैंड की इस गायिका और गीतकार का नाम है शिनएड ओ’कॉनर। अपने गीत ‘नथिंग कंपेयर्स 2यू’ के लिए अपार ख्याति अर्जित करने वाली इस गायिका ने अक्टूबर, 92 के एक कंसर्ट के दौरान जो किया, उसने ओ’कॉनर के पूरे करियर को लगभग चौपट कर दिया था। उस दिन के आयोजन में ओ’कॉनर ने जमायका के गायक बॉब मार्ले के गीत ‘वॉर’, जो मूलत: रंगभेद के खिलाफ है, में परिवर्तन कर उसे बच्चों से दुष्कर्म (चाइल्ड एब्यूज) के विरुद्ध गीत में बदल दिया। ओ’कॉनर ने विशेषकर कैथालिक चर्च पर हमला किया और तात्कालिक पोप जॉन पॉल द्वितीय के फोटो के चीथड़े कर पैरौं से रौंद दिया और कंसर्ट को यह कहते हुए अचानक बंद कर दिया कि ‘असली दुश्मन से लड़ें’ (फाइट रीयल एनिमी)। इससे प्रभावशाली कैथोलिक चर्च के अनुयायियों में दुनिया भर में हंगामा मच गया। ओ’कॉनर को जम कर गालियां दी जाने लगीं और उनका लगभग पूरा सामाजिक और व्यावसायिक, बहिष्कार कर दिया गया। यह सिलसिला एक अर्से तक चला। पर वह अपने स्टैंड से डिगी नहीं। ध्यान देने वाली बात यह है कि आयरलैंड रोमन कैथोलिक है। तथ्य यह है कि चर्च में बाल शोषण कोई छिपी बात नहीं है और 16वीं सदी से ही इस पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीके से अंगुली उठाई जाती रही है, पर चर्च की ताकत के चलते इसका खुलकर विरोध करने की कोई हिम्मत नहीं कर पा रहा था। इस घटना के दस साल बाद एक अमेरिकी अखबार में छपी रिपोर्ट के आधार पर पहली बार पांच रोमन कैथोलिक पादरियों को गिरफ्तार किया गया और आज चर्चों पर लगातार ‘चाइल्ड एब्यूज’ के लिए हमला हो रहा है। गत माह 16वें पोप बेनेडिक्ट जो म्यूनिख के आर्कबिशप थे, को अपने कार्यकाल में हुए दुष्कर्म के लिए माफी मांगनी पड़ी है।

 

हमारा समाज और दूर के सितारे

सवाल है, क्या हमारे देश में इस तरह की कोई समस्या नहीं है? गरीबी, जातिवाद से लेकर स्त्री उत्पीडऩ तक? प्रतीकात्मक रूप से ही लें तो, स्वयं देवदासी प्रथा के आज भी अवशेष महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, तमिलनाडु से लेकर ओडिसा तक में हैं। आखिर क्यों हमारे बड़े सितारे, जो विशेषकर फिल्मों से जुड़े हैं और जिनका जनता पर देशव्यापी असर है, सामाजिक बुराइयों और शासकीय मनमानी पर जबान खोलने से बचते हैं? उल्टा सत्ताधारियों के चाटुकारों के रूप में एडिय़ां रगड़ते नजर आते हैं। वे सांसद बन सकते हैं, शासक दलों से जुड़ सकते हैं पर किसी सामाजिक, धार्मिक अन्याय-उत्पीडऩ के खिलाफ दो शब्द बोलने की हिम्मत नहीं दिखलाते। प्रसंगश, आजकल हमारे देश में इसी तरह से बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए चल रहे एक आंदोलन को एनडीटीवी समर्थन दे रहा है और उसमें फिल्मों से जुड़े कुछ चेहरे भी नजर आते हैं पर इनमें कोई भी समकालीन सुपर स्टार नहीं है।

माना जाता है कि लता मंगेशकर ने 1948 से 1987 तक विभिन्न फिल्मों में 30 हजार गाने गाए और पूरे जीवन में 50 हजार। अगर 30 हजार को लिया जाए तो औसतन 750 गीत प्रति वर्ष पड़ते हैं। इसे और फैलाएं तो औसत दो गीत प्रति दिन से भी ज्यादा। यह स्तंभित कर देने वाला आंकड़ा किसी कलाकार के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। आदमी कोई हाई क्लास साउंड सिस्टम तो है नहीं जो हर तरह के गीत को उसकी संपूर्ण मधुरता या बारीकी के साथ जब चाहे बज उठे। ऐसा विवेकहीन (मैकेनिकल) उत्पादन सिर्फ लाभ के लिए ही हो सकता है। यह किसी यांत्रिक उत्पादन से कम नहीं है और सिर्फ लाभ के लिए ही हो सकता है। इस तरह देखें तो लता मंगेशकर का व्यवसायिक हिंदी फिल्मों को चरम पर पहुंचाने में विशिष्ट योगदान रहा है। कहना गलत नहीं होगा कि पूरा हिंदी फिल्म उद्योग मूलत: यथास्थितिवादी और रीढ़हीन रहा है, जिसे बाल ठाकरे से लेकर नरेंद्र मोदी तक कोई भी छोटा-बड़ा स्थानीय सरदार-सूबेदार तक चंद मिनटों में घुटने टिकवा देता है। स्वयं लता मंगेशकर अपने विचारों से ही यथास्थितिवादी/परंपरावादी नहीं रहीं बल्कि अपने आचार-व्यवहार में भी वह इसका प्रतीक थीं।

 

*अल्लामा इकबाल की इस गजल  ( ‘नजर आ लिबासे मजाज़ में’यानी ओ चिरप्रतीक्षित सच्चाई कभी तो साक्षात प्रकट हो ) को लता मंगेशकर ने मनोयोग से गाया है। ‘दुलहन एक रात की’ फिल्म के इस गीत का संगीत मदन मोहन का है।

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