लता मंगेशकरः अमर आवाज की अप्रतिम गायिका

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– जवरीमल्ल पारख

दरअसल, लता मंगेशकर से पहले की गायिकाओं के गायन पर ‘महफिल’ गायकी का असर था। लता मंगेशकर ने पार्श्वगायकी 1942 से ही शुरू कर दी थी और शुरू में उनकी गायकी पर नूरजहां का असर साफ देखा जा सकता था। लेकिन उनकी पहचान 1948-49 में बनी, यानी आजादी के बाद की पहली और विशिष्ट गायिका के रूप में वह उभरकर सामने आईं। लेकिन जैसा कि हिंदी फिल्म संगीत पर गहन विचार करने वाले अशरफ अजीज का कहना है कि पार्श्वगायिका के रूप में लता मंगेशकर का उभरना दरअसल स्त्रियों के प्रति बदलते रवैये का द्योतक है।

छह फरवरी, 2022 की सुबह लगभग साढ़े आठ बजे प्रख्यात पार्श्वगायिका लता मंगेशकर की 92 वर्ष की आयु में मुंबई में देहांत हो गया। कोविड-19 संक्रमण से ग्रस्त होने के कारण उन्हें ब्रीच कैंडी अस्पताल में भर्ती कराया गया था। लगभग महीने भर उनका इलाज चलता रहा, लेकिन वह स्वस्थ न हो सकीं। एक गायिका के रूप में उनकी ख्याति केवल भारत तक सीमित नहीं थी। वह दक्षिण एशिया की सबसे लोकप्रिय गायिका थीं और लगभग सात दशकों तक पार्श्वगायकी के शिखर पर आसीन रहीं।

28 सितंबर, 1929 को लता मंगेशकर का जन्म इंदौर में एक कलाकार परिवार में हुआ था। उनके पिता दीनानाथ मंगेशकर की अपनी नाटक मंडली थी जो विभिन्न शहरों में जाकर नाटक खेला करते थे। संगीत, गायकी और अभिनय के माहौल के बीच लता मंगेशकर की परवरिश हुई। चार-पांच साल की उम्र में ही वह न केवल विभिन्न राग-रागिनियों से परिचित हो गई थीं, बल्कि काफी प्रवीणता के साथ गा सकती थीं। संगीत की आरंभिक शिक्षा उन्हें अपने पिता से ही प्राप्त हुई थी। लेकिन दुर्भाग्य से जब वह केवल 13 वर्ष की थीं, उनके पिता का देहावसान हो गया। अपने पिता की सबसे बड़ी संतान होने के कारण परिवार की जिम्मेदारी उनके मासूम कंधों पर आ गई। लता मंगेशकर की तीन छोटी बहनें और सबसे छोटा एक भाई था। ऐसे समय उनके पारिवारिक मित्र मास्टर विनायक जो नवयुग चित्रपट मुवी कंपनी के मालिक थे, ने लता मंगेशकर को अपनी मराठी फिल्मों में गाने और अभिनय करने का अवसर दिया। फिल्मों के लिए लता मंगेशकर ने पहला गीत 1942 में रिकॉर्ड कराया था। 1943 में एक मराठी फिल्म के लिए उन्होंने हिंदी गीत भी गाया था। 1945 में मास्टर विनायक अपनी कंपनी सहित मुंबई आ गए थे, इसलिए लता मंगेशकर को भी अपने परिवार सहित मुंबई आना पड़ा जो फिल्म निर्माण के सबसे बड़े केंद्र के रूप में विकसित हो रहा था। लता मंगेशकर की अभिनय में ज्यादा रुचि नहीं थी, गायकी में ही उनकी ज्यादा रुचि थी इसलिए उन्होंने अपना पूरा ध्यान गायकी पर ही केंद्रित किया। गायकी के क्षेत्र में अपने को और कुशल बनाने के लिए हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के भिंडीबाजार घराने के उस्ताद अमान अली खान से उन्होंने संगीत की शिक्षा प्राप्त की। इस दौरान उन्होंने मराठी और हिंदी फिल्मों में गायकी और अभिनय जारी रखा।

गायिका के रूप में लता मंगेशकर की पहचान बनने लगी थी। लता की आवाज पतली और कोमल थी जो उस जमाने में पार्श्वगायकी के लिए बहुत उपयुक्त नहीं समझी जाती थी। लेकिन उस दौर के चर्चित संगीत निर्देशक गुलाम हैदर को लता की आवाज सबसे हटकर और बहुत ही प्रभावशाली लगी। उन्हें इस बात का आभास होने लगा था कि लता की आवाज में भविष्य की एक महान गायिका छुपी है। अपने इसी विश्वास के बल पर वह लता मंगेशकर को अपने समय के प्रख्यात फिल्म निर्माता शशधर मुखर्जी के पास ले गए। लेकिन लता की आवाज से वह बिल्कुल भी प्रभावित नहीं हुए और यह कहकर उन्हें लौटा दिया कि इस लड़की की आवाज बहुत अधिक महीन है। गुलाम हैदर को मुखर्जी की यह टिप्पणी पसंद नहीं आई और उन्होंने कहा कि आने वाले सालों में फिल्म निर्माता और संगीत निर्देशक इस लड़की के पैरों में गिरेंगे। गुलाम हैदर ने फिल्म ‘मजबूर’ (1948) में लता से ‘दिल मेरा तोड़ा, मुझे कहीं का ना छोड़ा’ गीत गवाया जो काफी चर्चित हुआ। लेकिन उन्हें ख्याति फिल्म महल (1949) के गीत ‘आएगा आने वाला’ से मिली जिसने गायिका के रूप में उनकी अलग पहचान बनाई। इस फिल्म का संगीत खेमचंद्र प्रकाश ने दिया था। शुरू में लता ने नूरजहां की गायिका का अनुकरण किया, लेकिन जल्दी ही उन्होंने अपनी एक अलग शैली विकसित कर ली। पार्श्वगायकी

दरअसल, लता मंगेशकर से पहले की गायिकाओं के गायन पर ‘महफिल’ गायकी का असर था। लता मंगेशकर ने पार्श्वगायकी 1942 से ही शुरू कर दी थी और शुरू में उनकी गायकी पर नूरजहां का असर साफ देखा जा सकता था। लेकिन उनकी पहचान 1948-49 में बनी, यानी आजादी के बाद की पहली और विशिष्ट गायिका के रूप में वह उभरकर सामने आईं। लेकिन जैसा कि हिंदी फिल्म संगीत पर गहन विचार करने वाले अशरफ अजीज का कहना है कि पार्श्वगायिका के रूप में लता मंगेशकर का उभरना दरअसल स्त्रियों के प्रति बदलते रवैये का द्योतक है। आजादी के बाद की परिस्थितियों का उल्लेख करते हुए वह लिखते हैं, ‘कई प्रमुख गायिकाओं (नूरजहां, खुर्शीद बेगम) की आवाजों से देश वंचित हो गया जो पाकिस्तान चली गई थीं। दूसरी कई आवाजों (अमीरबाई कर्नाटकी, जोहराबाई अंबाले वाली और मीना कपूर) को मानो ग्रहण लग गया। सुरैया, शमशाद बेगम और राजकुमारी को छोड़कर गायिकाओं के मोर्चे पर अपेक्षाकृत खामोशी छा गई। इस सन्नाटे ने पुरुषों को मौका दिया कि वे दोबारा संगठित हों और भविष्य के लिए नई रणनीति अपनाएं। आजादी हासिल हो चुकी थी और समय आ गया था कि औरतों को वापस रसोईघर में भेज दिया जाए।‘ इन्हीं परिस्थितियों में लता मंगेशकर की आवाज सामने आती है जो पहले की स्त्री आवाजों की तुलना में नाजुक और कोमल थी। पहले की स्त्री आवाजों और लता की आवाज की तुलना करते हुए अशरफ अजीज लिखते हैं, ‘जहां पहले की गायिकाओं की आवाजों में एक तरह की उन्मादकता (दरअसल भावावेग) व्याप्त थी, वहीं लता की आवाज में अकर्मकता की ध्वनि व्याप्त थी। उसकी आवाज में यौन के चिन्ह नहीं थे (और हैं)। वह तारुण्य से पूर्व की किशोर वय की आवाज प्रतीत होती है। लता की निर्मल आवाज ऐंद्रिकता को जगाने की बजाय आत्मा को जगाती है।‘ लता के पूर्व की गायिकाओं की कठोर और अनम्य आवाज का इस्तेमाल अब मुजरों और कैबरे नृत्यों में होने लगा। लता की ही छोटी बहिन आशा भोंसले की आवाज जो लता जैसी नाजुक और कोमल नहीं है, या शमशाद बेगम की आवाज का इस्तेमाल ऐसे अवसरों पर ज्यादा हुआ।

इसका अर्थ यह नहीं है कि लता मंगेशकर की आवाज एक सीमित दायरे में बंधी हुई थी। अपनी नाजुक और कोमल आवाज जो उतनी ही मधुर भी थी, साधारण स्त्री की भावनाओं के विशाल दायरे का प्रतिनिधित्व भी करती थी। स्त्री की पीड़ा, वेदना, उदासी, अकेलापन, विरह जैसी भावनाओं को व्यक्त करने में उनकी आवाज अद्वितीय थी। इन भावनाओं की कई-कई छवियां उनके गाए गीतों में मिलती हैं। सुनने वालों के दिल की गहराइयों तक वह प्रवेश कर जाती थीं। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं था कि उनकी आवाज संघर्ष को, विद्रोह को और संकल्प को व्यक्त करने में किसी भी तरह से कमजोर थी। फिल्म जैसे लोकप्रिय माध्यम के लिए गाते हुए भी उन्होंने ऐसे गीत गाने से परहेज किया जो द्विअर्थी हों, अश्लील हों या छिछले हों।

लता मंगेशकर की मातृभाषा मराठी थी, लेकिन आरंभ से ही वह मराठी के साथ-साथ हिंदी में भी गाती थीं। बताते हैं कि उन्होंने दुनिया की 36 भाषाओं में लगभग तीस हजार गाने गाए हैं। लेकिन सबसे ज्यादा गीत उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए ही गाए हैं। हिंदी सिनेमा के गीतों में जिस भाषा का इस्तेमाल होता रहा है, उस पर उर्दू का गहरा प्रभाव रहा है। हिंदी के आरंभिक गीतकार ज्यादातर उर्दू परंपरा के रहे हैं। लता मंगेशकर ने स्कूल की विधिवत शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। मराठी के साथ-साथ हिंदी और अंग्रेजी का ज्ञान भी उन्होंने घर में रहते हुए ही प्राप्त किया था। उर्दू का ज्ञान उन्हें नहीं था और हिंदी फिल्मों में गायकी के लिए यह बहुत जरूरी था कि गायक का उर्दू उच्चारण दोष रहित हो। अपने करियर के आरंभिक दिनों में ही संगीतकार अनिल विश्वास के साथ मुंबई की लोकल ट्रेन में यात्रा करते हुए उनकी मुलाकात उस समय के उभरते अभिनेता दिलीप कुमार से हुई थी। अनिल विश्वास ने दिलीप कुमार से लता मंगेशकर का परिचय नई पार्श्वगायिका के रूप में कराया तो दिलीप कुमार ने कहा कि ये हिंदी-उर्दू के गीत कैसे गाएंगी। इनके गाने में तो दाल-भात की गंध आती है। लता मंगेशकर ने दिलीप कुमार के इस व्यंग्य को चुनौती के रूप में ग्रहण किया। गुलाम हैदर से कहकर उन्होंने उनके सहायक शफी से उर्दू लिखना, बोलना और पढऩा सीखना शुरू किया। उर्दू में उन्होंने इतनी प्रवीणता हासिल कर ली थी कि नौशाद जैसे संगीतकार भी इस बात को मानने लगे थे कि लता के उर्दू उच्चारण में कोई दोष नहीं होता था। यही बात अभी उनकी मृत्यु के बाद श्रृद्धांजलि देते हुए जावेद अख्तर ने भी स्वीकार की है।

गायकी के प्रति यही समर्पण भाव लता मंगेशकर की शक्ति रहा है। शास्त्रीय संगीत की तो उन्होंने शिक्षा प्राप्त की ही थी और वह भी इस ऊंचाई तक उसे ले गई थी कि प्रख्यात शास्त्रीय गायक बड़े गुलाम अली खां भी उनकी गायकी का लोहा मानते थे। लता के लिए उनका यह कथन कि ‘’कमबख्त कभी बेसूरी नहीं होती’’ उनकी गायकी की ताकत को दिखाता है। लता मंगेशकर ने शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत, सूफी गायकी, भजन और बहुत सी गजलें भी गाई हैं, फिल्मों के लिए भी और फिल्मों के बाहर भी और हर तरह की गायकी में वह उतनी ही बेमिसाल हैं। हां, यह जरूर कहा जाना चाहिए कि उनकी गायकी की उत्कर्षता में उन गीतकारों और संगीतकारों का भी बड़ा योगदान है जिन्होंने लता मंगेशकर से गवाया। दरअसल, 1950 से 1980 के दशकों को लता मंगेशकर की गायकी का स्वर्णकाल कहा जा सकता है, वह दरअसल हिंदी सिने-संगीत का भी स्वर्णकाल है जिस दौर में एक साथ कई महान गीतकार, संगीतकार, गायक और वादक मौजूद थे।

लता मंगेशकर आजीवन अविवाहित ही रही। कुछ प्रेम संबंधों के बारे में भी बहुत कुछ कहा जाता है। लेकिन सात दशकों में फैला उनका गायकी का जीवन अकेली स्त्री की संघर्ष गाथा भी है। एक भरे-पूरे परिवार का दायित्व निभाना और पुरुष-वर्चस्व वाले फिल्मी दुनिया में हमेशा शिखर पर बने रहना आसान काम नहीं था। इस दौरान उनके कइयों से मन-मुटाव हुए, नाराजगी और झगड़े भी हुए। कई तरह की बातें भी उनके बारे में फैली। कुछ साल तक उन्होंने मोहम्मद रफी के साथ कोई गाना नहीं गाया। कुछ साल उन्होंने सचिनदेव बर्मन का भी बहिष्कार किया और राजकपूर की फिल्मों के लिए गाने से भी इन्कार किया। लेकिन इस संदर्भ में इस बात को जरूर ध्यान रखा जाना चाहिए कि लोकप्रियता के इस क्षेत्र में उन्होंने अपने आत्मसम्मान के साथ कभी समझौता नहीं किया। मोहम्मद रफी के साथ जो विवाद हुआ जिसमें शायद दोनों ही अपनी जगह सही थे, लेकिन लता मंगेशकर की ही कोशिशों का नतीजा था कि गायकी के लिए गायकों को रायल्टी मिलना आरंभ हुआ।

गायकी ने उन्हें बहुत कुछ दिया, धन भी और सम्मान भी। गायकी के अलावा उन्हें क्रिकेट में भी गहरी रुचि थी। आभूषणों और कारों का भी शौक था। लेकिन उन्होंने पुणे में अपने पिता के नाम पर बड़ा अस्पताल भी बनवाया। अपनी गायकी के लिए लता मंगेशकर को फिल्मों से जुड़े सर्वोच्च सम्मान प्राप्त हुए। उन्हें कई राष्ट्रीय पुरस्कारों के साथ ही दादा साहब फाल्के अवार्ड प्रदान किया गया। एमएस सुब्बुलक्ष्मी के बाद गायकी के लिए भारत रत्न प्राप्त करने वाली वह दूसरी गायिका थीं। फिल्म फेयर अवार्ड भी उन्हें कई बार प्राप्त हुआ और कई दशकों पहले उन्होंने फिल्म फेयर अवार्ड लेने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि यह अवार्ड नए गायकों को मिलना चाहिए।

यह सच्चाई है कि लता मंगेशकर राजनीतिक रूप से भारतीय जनता पार्टी के काफी नजदीक रही हैं और उनके द्वारा अपना राजनीतिक इस्तेमाल भी होने दिया है। हिंदुत्व के पैरोकार विनायक दामोदर सावरकर के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करती रही हैं। उनकी लिखी एक कविता को भी उन्होंने अपनी आवाज दी थी। इसी तरह लालकृष्ण आडवाणी की रथ-यात्रा के लिए एक गीत भी गाया था। लेकिन यह भी सही है कि जिस मिली-जुली संस्कृति का प्रतिनिधित्व हिंदुस्तानी सिनेमा करता है, उसी का अंग होकर वह गायकी के शिखर तक पहुंची थी और इस बात को उन्होंने कभी अस्वीकार नहीं किया। अपने बानवें जन्मदिन पर नेशनल हेरल्ड के पत्रकार को दिए इंटरव्यू में उन्होंने देश के हालात पर गहरी चिंता व्यक्त की थी। उन्होंने कहा था, ‘मैं अंदर से दुखी हूं। देश में बहुत अधिक विभाजन दिखाई दे रहा है। लोग अधिक से अधिक इसमें धंसते जा रहे हैं। ‘’मैं हिंदू हूं, वह मुसलमान है’ संदेह और शत्रुता का यह भाव खत्म होना चाहिए।‘’

गायकी के क्षेत्र में उनके योगदान ने जहां मिली-जुली सांस्कृतिक परंपरा को समृद्ध किया है, तो दूसरी तरफ दक्षिणपंथी और सांप्रदायिक राजनीति को दिया जाने वाला समर्थन उनकी गायकी के प्रशंसकों को विचलित भी करता रहा है। लेकिन इन सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि पिछले सात दशकों से लता मंगेशकर की आवाज दक्षिण एशिया के हर बाशिंदे की जीवन-साथी रही है। उनके दु:ख में, सुख में, उदासी में, उल्लास में, अकेलेपन में उनके गाए, गीत उनकी आवाज बहुत बड़ा सहारा बनकर मौजूद रही है और शायद आगे आने वाले कई-कई दशकों तक यह आवाज इस उपमहाद्वीप के लोगों के बीच उसी तरह मौजूद रहेगी, जैसे आज मौजूद है। किसी राजनीतिक दबाव से नहीं बल्कि दक्षिण एशिया के लोगों के मध्य उनकी लोकप्रियता ने ही पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका के शासकों और अफगानिस्तान के पूर्व शासक हमीद करजाई को भावभीनी श्रद्धांजलि देने के लिए प्रेरित किया।

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