अकादमिक आजादीः बढ़ता खतरा

Share:

– भूपेन सिंह/ श्रुति जैन

सरकारी हस्तक्षेप की वजह से विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंच चुकी है। कुलपति और विश्वविद्यालय के नीति निर्धारण के लिए बनी कार्य परिषदें भाजपा और आरएसएस प्रतिनिधियों की तरह व्यवहार कर रही हैं।

भारतीय विश्वविद्यालयों में अकादमिक आजादी पर हमले बेहिसाब बढ़ चुके हैं। जो भी शिक्षक या विद्यार्थी सत्ता की मनमानी पर सवाल उठाते हैं उन्हें सीधे निशाना बनाया जा रहा है। सरकारी हस्तक्षेप की वजह से विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंच चुकी है। कुलपति और विश्वविद्यालय के नीति निर्धारण के लिए बनी कार्य परिषदें भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रतिनिधियों की तरह व्यवहार कर रही हैं। लोकतांत्रिक नियमों की मनमानी व्याख्या कर जंगलराज कायम किया जा रहा है।

जून के महीने में दिल्ली की साउथ एशियन यूनीवर्सिटी (साउ) के चार शिक्षकों… स्नेहाशीष भट्टाचार्य (अर्थशास्त्र), श्रीनिवास बर्रा (लीगल स्टडीज), रवि कुमार और इरफानुल्लाह फारुकी (समाजशास्त्र) को सस्पेंड कर दिया गया। उन पर आरोप था कि वे छात्रों को विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ भड़का रहे हैं (कुंतामाला, 2023)। जबकि शिक्षकों ने इन आरोपों को बेबुनियाद बताया। उनका कहना था कि वे सिर्फ मामले का दोस्ताना हल निकालने की बात कह रहे थे। शिक्षकों पर विश्वविद्यालय में ‘माक्र्सिस्ट स्टडी सर्किलÓ चलाने जैसा बचकाना आरोप भी लगाया गया।

साल 2022 में साउथ एशियन यूनीवर्सिटी ने विद्यार्थियों को मिलने वाले वजीफे की राशि घटाकर कम कर दी थी। इससे नाराज विद्यार्थी आंदोलन कर रहे थे। जिसके चलते प्रशासन ने विश्वविद्यालय में पुलिस बुला ली। कुछ विद्यार्थियों को निष्कासित कर दिया गया। इस तरह विद्यार्थियों और प्रशासन के बीच खाई बढ़ती गई। विश्वविद्यालय के रवैये का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि नए विद्यार्थियों से आवेदनपत्रों पर यह भी लिखवाया जा रहा है कि वे किसी धरना-प्रदर्शन में हिस्सा नहीं लेंगे। यह एक तरह से उनसे विरोध करने के अधिकार को छीनना है। अगर विश्वविद्यालय ही विद्यार्थियों को लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित रखने लगेंगे तो फिर वे उन्हें किस तरह की शिक्षा देंगे। आधुनिक विश्वविद्यालयों के ऊपर छात्रों की लोकतांत्रिक चेतना को बढ़ाने की जिम्मेदारी भी है। इसी वजह से छात्र संघों की कल्पना भी की गई है।

साउ को चलाने में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) मुख्य भूमिका निभाता है। लेकिन सार्क देशों का अहम हिस्सा होने और विश्वविद्यालय के यहां होने की वजह से भारत सरकार भी इस मामले में अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती है। साथ ही यह बात भी नहीं भुलाई जा सकती कि यह विश्वविद्यालय भारत की संसद में पारित एक ऐक्ट के तहत चलता है। यही वजह है कि भारतीय अकादमिक जगत में व्याप्त बुराइयां यहां भी वैसी ही नजर आती हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार संसद में कहे कि वह साउ की घटनाओं के लिए सीधे जिम्मेदार नहीं है।

इस बीच साउथ एशियन यूनीवर्सिटी जैसी मिलती-जुलती कई और घटनाएं देश में हुई हैं। दिल्ली से सटे सोनीपत की अशोका यूनीवर्सिटी के एक असिस्टेंट प्रोफेसर सव्यसाची दास को इसलिए नौकरी छोडऩे पर मजबूर कर दिया गया कि उन्होंने अपने एक शोधप्रबंध में पाया था कि भारतीय जनता पार्टी ने 2019 के चुनाव में उन कुछ सीटों पर जहां हार-जीत बहुत कम अंतर से हुई है अंतिम दौर में बड़ी मात्रा में वोटिंग हुई। ये सीटीं भाजपा की झोली में गईं। पर शोधकर्ता ने यह भी कहा कि यह नहीं कहा जा सकता कि वोटिंग में अनिवार्य रूप से हेराफेरी हुई (द हिंदू, 2023)। इस अभिजात प्राइवेट यूनीवर्सिटी में दुनियाभर के शिक्षक पढ़ाते हैं। विद्यार्थियों से लाखों में फीस वसूली जाती है। देश के कई जाने-माने विद्वान सार्वजनिक विश्व-विद्यालयों को छोड़कर इसका हिस्सा बन चुके हैं। इसे शिक्षा के खुले बाजार में एक अंतरराष्ट्रीय ब्रांड बनाकर पेश किया जा रहा है। लेकिन यहां भी दबाव डाला जा रहा है कि शोध ‘सरकारीÓ ही हो।

एक और निजी कॉलेज सिम्बायोसिस पुणे में एक शिक्षक को निशाना बनाया गया है। यहां के एक छात्र ने कक्षा में पढ़ा रहे अशोक सोपन का एक ऐसा वीडियो बनाकर इंटरनेट पर वाइरल करवा दिया जिसमें वह सभी धर्मों के बीच समानता और ईश्वर के एक होने की बात कर रहे थे। यह बात हिंदु कट्टरपंथियों को नागवार गुजरी। शिक्षक के खिलाफ एफआइआर दर्ज की गई और उन्हें धार्मिक भावनाओं को भड़काने के मामले में गिरफ्तार कर लिया गया (पाठक, 2023)।

एक और किस्सा ऑनलाइन कोचिंग कराने वाली बहुचर्चित कंपनी अनअकेडमी के शिक्षक करन सांगवान का है। उन्हें सिर्फ इस बात के लिए ‘ट्रोलÓ किया गया कि उन्होंने पढ़े-लिखे लोगों के राजनीति में आने की वकालत की थी। उन्हें भी नौकरी गंवानी पड़ी। इस तरह कक्षा की गतिविधियों को कानूनी दायरे में लाना और शिक्षकों का नौकरी से निकाला जाना अकादमिक आजादी पर सीधा हमला है। एक जीवंत कक्षा में एक रचनात्मक शिक्षक तरह-तरह से विद्यार्थियों के आलोचनात्मक विवेक को जगाने की कोशिश करता है। अगर उसे कानूनी पचड़ों में इस तरह फंसाया जाने लगेगा और उसकी आजीविका पर चोट की जाएगी तो फिर देश में शिक्षा का भगवान ही मालिक है।

उत्तराखंड के पंतनगर विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर राजेश प्रताप सिंह को इसलिए निलंबित कर दिया गया क्योंकि उन्होंने राज्य सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन की नीतियों की सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर आलोचना की थी। एक प्रोफेसर का विश्वविद्यालय और शिक्षकों के पक्ष में सही बात को उठाना अकादमिक आजादी के साथ ही अभिव्यक्ति की आजादी के संवैधानिक अधिकार से भी जुड़ा मामला है। गौरतलब है कि विश्वविद्यालय के शिक्षकों को राजनीतिक पार्टियों का सदस्य बनने, उनका प्रचार करने और यहां तक कि चुनाव लडऩे तक की आजादी है। अलग-अलग पार्टियों के कई ऐसे नेता संसद और विधानसभाओं में पहुंचते रहे हैं। क्या आने वाले दिनों में ये आजादी भी छीन ली जाएगी?

 

क्या है अकादमिक आजादी?

यह बात तो जग जाहिर है कि कोई भी नया ज्ञान बिना पुरानी मान्यताओं को चुनौती दिये संभव नहीं। इंसानी इतिहास में हमेशा ही पुराने विचारों को चुनौती मिलती रही है और नए विचार आते रहे हैं। बंद समाजों में कई बार नई बात कहने वालों को अपनी जान भी गंवानी पड़ी है। लेकिन आधुनिक समय में लोकतंत्र के उदय के साथ अकादमिक आजादी को सामाजिक-राजनीतिक स्वीकृति मिलती है। इसलिए जब-जब अकादमिक आजादी पर खतरा मंडराने लगे तो उसे लोकतंत्र पर खतरे से जोड़कर देखा जाता है।

अकादमिक आजादी के तहत शिक्षक को बिना किसी राजनीतिक, धार्मिक और विचारधारात्मक दबाव के पढ़ाने, शोध करने, प्रकाशन करने का अधिकार है (गिब्स, 2016)। विश्वविद्यालय सोचने-विचारने, तर्क करने, सहमति-असहमति जताने और खुले विमर्श की जगहें हैं। राज्य के सीधे हस्तक्षेप और धार्मिक विचारों से इन्हें हर संभव दूर रखने की कोशिश की जानी चाहिए। विश्वविद्यालयों को आबादी से दूर बसाये जाने के पीछे भी यही कारण है कि ज्ञान के सृजन में बेवजह कोई बाधा न आये। दुनियाभर के अच्छे माने जाने वाले विश्वविद्यालयों में अकादमिक आजादी से कोई समझौता नहीं किया जाता है। इसकी सैद्धांतिक और दार्शनिक जड़ें इस बात से जुड़ी हैं कि बिना सवाल उठाये कोई ज्ञान संभव नहीं। लेकिन परंपरावादियों को अक्सर सवालों से दिक्कत होती है।

जर्मनी में हम्बोल्ट यूनीवर्सिटी के संस्थापक विल्हेम वॉन हम्बोल्ट (1767-1835) को अकादमिक आजादी की अवधारणा के महत्व को रेखांकित करने वाला प्रारंभिक विचारक माना जाता है। वक्त के साथ उदारवादी लोकतंत्रों में अकादमिक आजादी की अवधारणा को व्यापक स्वीकृति मिलती गई। इसकी अवधारणा अभिव्यक्ति की आजादी से भी जुड़ती है। किसी धार्मिक, राजशाही या तानाशाही वाले समाज में इस आजादी की अपेक्षा करना मुश्किल है। अकादमिक आजादी की अहमियत को समझते हुए यूनेस्को (1997) ने भी इसकी वकालत की। भारत में भी कहने के लिए अकादमिक आजादी का प्रावधान है। राधाकृष्ण कमेटी (1948-49) ने अपनी रिपोर्ट में अकादमिक आजादी को जरूरी बताया था। लेकिन 2016 में सामने आयी रिपोर्ट ऑफ द कमेटी फॉर द इवोल्यूशन ऑफ द न्यू एजुकेशन पॉलिसी (नई शिक्षा नीति के विकास की कमेटी की रिपोर्ट) ने अकादमिक आजादी के विचार को विरूपित करने का काम किया है। हैरानी की बात यह है कि इस सरकारी रिपोर्ट को तैयार करने वाली कमेटी के चार सदस्यों में से तीन सेवानिवृत्त नौकरशाह थे (जयाल, 2018)।

दुनिया के उदारवादी लोकतंत्रों ने तमाम बाधाओं के बावजूद अपने यहां बहुत हद तक अकादमिक गुणवत्ता बनाये रखी है। लेकिन दक्षिण एशिया में भाई-भतीजावाद की वजह से बहुत ही औसत स्तर के व्यक्ति भी विश्वविद्यालयों के शिक्षक बन जाते हैं। वे न अकादमिक आजादी का मतलब समझते हैं और न ही उन्हें उससे कुछ लेना-देना होता है। इस तरह यहां विचारों का पिछड़ापन अकादमिक आजादी को बेमानी बनाने लगता है। कुछ रचनात्मक शिक्षक और विद्यार्थी अकादमिक आजादी पर अड़े रहते हैं। लेकिन उन्हें हर तरह से परेशान करने की कोशिश की जाती है। कई बार उन्हें कानूनी मामलों में फंसा दिया जाता है। जबकि आधुनिक विश्वविद्यालयों को जितना संभव हो सके कानूनी उलझनों और नौकरशाही वाले रवैये से दूर रखने की वकालत की जाती रही है। यह मानकर चला जाता है कि विश्वविद्यालय समाज में बनी-बनायी मान्यताओं पर भी सवाल उठाकर नए ज्ञान की तलाश करने वाली जगहें हैं इसलिए ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों पर बेवजह के प्रतिबंध नहीं थोपे जाने चाहिए।

विश्वविद्यालय विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए बनाये जाते हैं। शिक्षक उनके साथ अपने अनुभवों को साझा करते हैं। इस तरह विद्यार्थी और शिक्षक मिलकर इंसानी ज्ञान में इजाफा करते हैं। बाकी के सारे अकादमिक नौकरशाह चाहे वे कुलपति हों, अध्यक्ष हों या रजिस्ट्रार हों, विद्यार्थियों और शिक्षकों को सुविधाएं मुहैया करवाने के लिए हैं। लेकिन भारतीय विश्वविद्यालयों में होता इसका ठीक उलट है। हमारे यहां अकादमिक नौकरशाहों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से वे विश्वविद्यालयों में केंद्रीय जगह ले लेते हैं और ज्ञान उत्पादन की गंभीर गतिविधियों से जुड़े लोग हाशिये पर चले जाते हैं। अकादमिक नौकरशाह तमाम लोकतांत्रिक मूल्यों का मखौल उड़ाते हुए किसी बेहूदा तानाशाह की तरह विश्वविद्यालयों को चलाने लगते हैं।

 

पूंजीवादी और सांप्रदायिक हमला

देश के महानगरों में स्थित और ‘ब्रांडेडÓ चरित्र वाले विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं की हलचलें तुरंत मीडिया और बुद्धिजीवियों के बीच जगह पा लेती हैं। लेकिन छोटी जगहों और गुमनाम विश्वविद्यालयों की घटनाएं उस तरह व्यापक समाज का ध्यान नहीं खींच पातीं। जैसे साउ, अशोका, सिम्बायोसिस, अनअकेडेमी की घटनाओं ने सबका ध्यान खींचा। लेकिन पंतनगर विश्वविद्यालय की घटना का कहीं कोई जिक्र ही नहीं हुआ। यहां तक कि विश्वविद्यालय के शिक्षकों की तरफ से भी प्रतिरोध की मुखर आवाज नहीं सुनाई दी। यह खबर स्थानीय अखबारों के एक-दो कॉलमों में सिमटकर, कुछ सोशल नेटवर्किंग साइट्स में आकर गायब हो गई।

दूसरी ओर साउ में शिक्षकों के निलंबन की खबर ने अंतरराष्ट्रीय स्वरूप ले लिया। सैकड़ों अकादमिकों ने निलंबित शिक्षकों के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान चलाया। इस तरह निलंबित शिक्षकों ने खुद को अकेला नहीं पाया। ठीक इसी तरह अशोका की घटना के खिलाफ विश्वविद्यालय के अंदर से ही प्रतिरोध के स्वर सुनाई दिये। शिक्षकों और छात्रों ने उत्पीडि़त शिक्षक को वापस लेने की मांग की। कई जाने-माने विद्वानों ने इस घटना की आलोचना की। इससे पहले भी अशोका विश्ववद्यालय से राजनीतिशास्त्री और स्तंभकार प्रताप भानु मेहता को कुलपति और प्रोफेसर के पद से हटना पड़ा था। उन्हें मोदी सरकार की आलोचना करने का खामियाजा भुगतना पड़ा। उस घटना की चर्चा भी भारत में अकादमिक आजादी छीने जाने को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई। सिम्बायोसिस और अनअकेडमी वाली घटनाएं भी मीडिया में छायी रहीं। लेकिन पंतनगर विश्वविद्यालय की घटना के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खबर न बन पाने को अभिजात और हाशिये के समाजों की घटनाओं के परिप्रेक्ष में समझा जा सकता है। इससे इस बात का भी अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर मीडिया और राजनीतिक गतिविधियों वाले इलाकों में अकादमिक आजादी का यह हाल है तो फिर पिछड़े हुए इलाकों में क्या हाल होगा। एक मायने में यह स्थानीय मीडिया के सरोकार और उन पर राजनीतिक और आर्थिक दबाव के परिप्रेक्ष्य में भी समझा जा सकता है।

इन सभी घटनाओं को गंभीरता से देखने पर पता चलता है कि अगर भारतीय लोकतंत्र को सचमुच में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढऩा है तो उसे अकादमिक आजादी की गारंटी करनी पड़ेगी वरना सिर्फ विश्वगुरु का जाप करने से कुछ होना-हवाना नहीं है।

आज भारतीय शिक्षा को मुख्य खतरा नवउदारवाद और सांप्रदायिक फासीवाद से नजर आ रहा है। शिक्षा का निजीकरण और सांप्रदायीकरण इसके अहम पहलू हैं। फिलहाल शिक्षा के दुकानदार और हिंदुत्ववादी सरकार दोनों एक-दूसरे का इस्तेमाल करने पर जुटे हैं। ऐसे हालात में अकादमिक आजादी के पक्ष में खड़ा हो पाना और उसे बचा पाना बड़ी चुनौती बना हुआ है। शिक्षक समुदाय में एक डर का माहौल है और ज्यादातर पाला बदलकर सत्ता पक्ष के साथ कदमताल कर रहे हैं।

सामाजिक संस्थाओं को मुक्त बाजार के हवाले करने की वजह से पिछले सालों में बहुत सारे निजी विश्वविद्यालय अस्तित्व में आये हैं। ये विश्वविद्यालय एक तरह से पैसे कमाने का अड्डा बन चुके हैं। तमाम तरह के प्रचार माध्यमों से इन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर का शिक्षण संस्थान बताने की कोशिश की जाती है। भारत की पूरी अकादमिक दुनिया में ही रैंकिंग का बोलबाला चल पड़ा है। प्राइवेट विश्वविद्यालय इस रैंकिंग को पाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाते हैं। सरकार अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटकर ऐसे विश्वविद्यालयों को हर तरह की सुविधाएं मुहैया कराती है। कई निजी विश्वविद्यालयों को बसाने के लिए सरकारों ने किसानों की हजारों एकड़ जमीन कौडिय़ों के भाव हथिया ली। निजीकरण का ही असर हैं देश में निजी विश्वविद्यालयों की संख्या 430 पहुंच चुकी है। जबकि राज्य विश्वविद्यालयों की संख्या 460 और केंद्रीय विश्वविद्यालयों की संख्या 56 है। देश में कुल विश्वविद्यालयों की संख्या 1074 है (यूजीसी, 2023)। बाकी विश्वविद्यालय डीम्ड श्रेणी में है यानी उन्हें अभी पूर्ण विश्वविद्यालय का दर्जा मिलना बाकी है।

सार्वजनिक क्षेत्र में जो विश्वविद्यालय बचे हैं उन्हें भी सामाजिक जरूरत के बजाय धंधे में बदला जा रहा है। उनसे कहा जा रहा है कि वे अपने आर्थिक संसाधन खुद जुटाएं। बीजेपी की दक्षिणपंथी सरकार ने 2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे सार्वजनिक संस्थानों को पहले बदनाम करने की कोशिश की और बाद में बीजेपी-संघ कार्यकर्ताओं को वहां फैकल्टी के तौर पर घुसाकर रही-सही कसर भी पूरी कर ली। ऐसे ही देशभर की दूसरी सार्वजनिक शिक्षण संस्थाओं को भी सरकार ने मरणासन्न हालात में पहुंचा दिया है। इसलिए अब वहां से अकादमिक आजादी को बचाने की कोई बड़ी आवाज नहीं सुनाई देती। यही हाल रहा तो धीरे-धीरे भारतीय विश्वविद्यालयों से सिर्फ गोमूत्र और गाय के गोबर की महानता का बखान करने वाले शोध विज्ञान से लेकर समाज विज्ञानों में केंद्रीय जगह लेते जाएंगे।

 

जहालत और धूर्तता के विश्वविद्यालय

माना जाता है कि आधुनिक विश्वविद्यालय एक समुदाय के तौर पर समाज को नई राह दिखाने वाले ज्ञान का सृजन करते हैं और समाज में विभिन्न भूमिकाएं निभाने के लिए तैयार लोगों के ज्ञान को प्रमाणित करते हैं। इसीलिए ऐसी संस्थाओं को चलाने के लिए भी उदार परंपराओं में दीक्षित कोई दूरदृष्टा अकादमिक नेता चाहिए न कि ऐसी परंपराओं से अनजान हरफन मौला शिक्षक-नौकरशाह। पद के गुरूर से भरे अकादमिक नेता ऐसी संस्थाओं की जड़ में ही म_ा डालने का काम करते हैं। विश्वविद्यालय ज्ञान-विज्ञान की एक खुली जगह बनने की बजाय क्षुद्र राजनीति और जोड़-तोड़ के केंद्र बन जाते हैं जैसा कि नजर आने लगा है।

विश्वविद्यालयों में पुलिस बुलाना, स्टडी सर्कल चलाने और प्रशासन की आलोचना करने पर निलंबन करना, शिक्षण में प्रयोग करने पर प्रताडि़त करना, सामान्य बातें हो गई हैं। विश्वविद्यालयों का लोकतंत्रीकरण धीरे-धीरे एक अवांछित विचार बनता जा रहा है। इसीलिए अब छात्र संघों और शिक्षक संघों को अघोषित तरीके से प्रतिबंधित करने की कोशिश की जाती है। इनके अभाव में राजनीतिक संरक्षण मिला प्रशासन बेलगाम होकर काम करने लगता है। जबकि अकादमिक आजादी के पैरोकारों ने शिक्षकों और छात्रों को शिक्षण संस्थानों का सबसे प्रमुख ‘स्टेकहोल्डर’ माना है। हर फैसले में इनकी हिस्सेदारी जरूरी मानी है।

भारतीय विश्वविद्यालयों में राजनीतिक हस्तक्षेप इस कदर बढ़ चुका है कि अब यहां किसी स्वतंत्रचेत्ता अकादमिक नेता को तलाश पाना लगभग असंभव हो चुका है। हालात ये हैं कि नई नियुक्तियों के लिए उम्मीदवारों की ‘संघ आयुÓ देखी जा रही है। ऐसी नियुक्ति पाये शिक्षक कभी सत्ता संरक्षित अकादमिक नौकरशाहों के खिलाफ कुछ बोलेंगे ऐसा सोचना भी बेमानी है। वे बाकायदा प्रशासन के लठैत की भूमिका में खड़े हो जाते हैं। देशभर के विश्वविद्यालयों में इस बात को साफ तौर पर देखा जा सकता है। भाजपा शासित राज्यों के विश्वविद्यालयों में हालात और भी खराब हैं। एक से एक अयोग्य और औसत दर्जे के व्यक्ति विश्वविद्यालयों के खेवनहार बने नजर आ रहे हैं। इस तरह विश्वविद्यालय एक सामाजिक संस्था के तौर पर अपनी भूमिका निभाने में नाकाम होते जा रहे हैं। यही सब वजहें हैं कि विश्वस्तर पर अकादमिक आजादी के मामले में भारत की जगह अब नेपाल, पाकिस्तान और भूटान से भी पीछे चली गई है। पिछले एक दशक में इसमें बहुत ज्यादा इजाफा हुआ है (द वायर, 2023)।

बदलती हुई सामाजिक स्थितियों का ही असर है कि हिंदुत्व और नवउदारवाद की वजह से शिक्षकों और विद्यार्थियों का आत्मबोध ही गुणात्मक रूप से बदल गया है। आदर्शवाद जैसे बीते जमाने की चीज हो गई है। छात्रों और शिक्षकों में लोकतांत्रिक एकजुटता की भावना की बजाय निहित स्वार्थों के लिए नेटवर्किंग की प्रवृत्ति बढ़ी है। ज्यादातर विद्यार्थियों और शिक्षकों के लिए शिक्षा की सामाजिक भूमिका इतनी ही बची रह गई है कि समाज में उनका गुजारा बढिय़ा तरीके से चले फिर चाहे व्यापक समाज का जो हो। यहां तक कि कई बार अकादमिक तौर पर नैतिक बातें करने वाले भी सामाजिक घटनाओं को निरपेक्ष भाव से देखने लगते हैं।

ऐसे दौर में निजी विश्वविद्यालय शिक्षा को ब्रांड में बदलने में जुटे हैं। सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में हिंदुत्व के झंडाबरदार पहले ही कब्जा कर चुके हैं। जो बचे-खुचे खुले दिमाग के शिक्षक रह गए हैं वे अपनी इज्जत बचाने में जुटे हैं। विश्वविद्यालयों से अपने आर्थिक स्रोत खुद जुटाने के लिए कहा जा रहा है। पुरानी पेंशन स्कीम बंद कर शिक्षकों की आर्थिक सुरक्षा पहले ही खत्म की जा चुकी है। अब विद्यार्थियों को दुधारू गाय समझकर हर सेमेस्टर में उनकी फीस बढ़ायी जा रही है। स्थाई शिक्षकों के बजाय अस्थाई शिक्षकों की भर्ती की जा रही है। जिस वजह से वे हमेशा दबाव में रहते हैं। अपने अधिकारों के लिए या सही बात के लिए आवाज उठा पाना उनके लिए बेहद मुश्किल हो जाता है।

ज्ञान को अब उग्र राष्ट्रवाद के दायरे में देखने का दबाव चरम पर है। विश्वविद्यालयों में दो सौ मीटर ऊंचे राष्ट्र ध्वज को अनिवार्य तौर पर फहराना, शौर्य दीवार बनाकर उनमें युद्ध में मारे गए सैनिकों की तस्वीरें लगाना और युद्ध के टैंक को प्रतीकात्मक तौर पर लगाने की वकालत करना, नए दौर की हकीकत है। विश्वविद्यालयों को युद्ध के मैदान की तरह देखने के इस चलन से हर तरफ उत्तेजना और नफरत का माहौल है। डरावने विश्वविद्यालयों का आगमन हो चुका है।

 

संदर्भ:

गिब्स, ए (2016), अकेडमिक फ्रीडम इन इंटरनेशनल हायर एजुकेशन: राइट ऑर रिस्पॉन्सिबिलिटी, एथिक्स एंड एजुकेशन, 11(2), 175-185.

जयाल, नीरजा गोपाल (2018), आइडिया ऑफ अकेडमिक फ्रीडम’, अपूर्वानंद द्वारा संपादित आइडिया ऑफ यूनीवर्सिटी में।

कुंतामाला, विदिशा (2023), ‘साउथ एशियन यूनीवर्सिटी सस्पेंड्स फोर टीचर्स फॉर ‘इनसाइटिंगÓ स्टूडेंट्स’ स्टर, इंडियन एक्सप्रेस

पाठक, अविजित (9 अगस्त, 2023)। ‘एज अ टीचर आइ फील अलाम्र्ड’, इंडियन एक्सप्रेस

हिंदू (20 अगस्त 2023), ‘अशोका यूनीवर्सिटी रो’। प्रोफेसर बालाकृष्ण द्वारा उद्धृत, ‘वायोलेशन ऑफ अकेडमिक फ्रीडम इन लैटर’।

वायर: (3 मार्च, 2023), ‘इंडिया हैज सिग्निफिकैंटली लैस अकेडमिक फ्रीडम नाउ दैन टैन यीअर्स अगो’ : न्यू वी-डेम रिपोर्ट

यूनेस्को (1997): ‘रिकॉर्ड्स ऑफ द जनरल कॉन्फ्रेंस, ट्वैंटी नाइंथ सेशन’, पेरिस, अक्टूबर 21 से नवंबर 2012, खंड-1

यूजीसी (2023) ‘कंसोलिडेटेट लिस्ट ऑफ ऑल यूनीवर्सिस्टीज’

https://www.ugc.gov.in/oldpdf/consolidated %20list%20of%20 All%20universities.pdf

Visits: 253

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*