‘जेनरिक’ दवाओं का दिवा स्वप्न

Share:

– राम प्रकाश अनंत

आज जेनरिक दवाओं को लेकर कुछ ऐसा माहौल बन गया है जैसे जेनेरिक दवाओं से ही सारी स्वास्थ्य समस्याएं हल हो जाएंगी। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जेनेरिक दवाएं काफी प्रचलन में हैं और गरीब जनता को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।

नेशनल मेडिकल कमीशन की एडवाइजरी गजट में छपी है जिसमें यह निर्देश दिया गया है कि अब सभी रजिस्टर्ड डॉक्टर ब्रांडेड दवाओं की जगह जेनेरिक दवाएं लिखेंगे। इस निर्देश ने मीडिया और सोशल मीडिया में जेनेरिक बनाम ब्रांडेड की बहस को चर्चा में ला दिया है। आज जेनेरिक दवाओं को लेकर कुछ ऐसा माहौल बन गया है जैसे जेनेरिक दवाओं से ही सारी स्वास्थ्य समस्याएं हल हो जाएंगी। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जेनेरिक दवाएं काफी प्रचलन में हैं और गरीब जनता को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। सवाल है जेनेरिक दवाएं क्या होती हैं?

भारत फार्मा कंपनियों के लिए बड़ा बाजार है। करीब 3000 फार्मा कंपनियां भारत में पंजीकृत हैं। कई भारतीय कंपनियां आज मल्टी नेशनल ब्रांड के रूप में स्थापित भी हैं। जैसे सिप्ला, सन फार्मा, जाइडस, इंटास, डॉ. रेड्डी आदि। भारत विश्व में सर्वाधिक जेनेरिक दवाओं का निर्माण करने वाला देश है। यहां जेनेरिक का मतलब उस उपादान (इंग्रेडिएंट) से है जो ब्रांडेड दवा के अंदर होता है। भारत की जेनेरिक दवाएं सभी देशों में निर्यात की जाती हैं। दुनिया की लगभग 20 प्रतिशत दवाएं भारत निर्यात करता है। जेनेरिक कंपनियां जहां एक ओर दवाएं निर्यात करती हैं तो दूसरी तरफ भारत भी उनके लिए बड़ा बाजार है। भारत में जो जेनेरिक दवाएं बेची जाती हैं वे इंग्रेडिएंट के नाम से भी बेची जाती हैं और जेनेरिक कंपनी (जिनकी अपनी कोई ब्रांड वैल्यू-यानी कि उनके नाम का महत्व- नहीं है) उन्हें ब्रांडेड दवाओं की तरह कोई नाम भी दे देती हैं तब भी। जैसे कि ‘दवा इंडिया’ एक जेनेरिक कंपनी है जिसके कपिल देव ब्रांड एम्बेस्डर हैं। कई दवाएं वह जेनेरिक नाम से ही बेचती है और कई दवाओं को ब्रांड (हालांकि उनकी कोई ब्रांड वैल्यू -महत्व- नहीं है) के नाम से बेचती है। जैसे दवा इंडिया एसिक्लोफेन पेन किलर (दर्द दबाने की दवा)  को दवाफेन के नाम से बेचती है।

भारत से निर्यात की जानेवाली दवाओं की गुणवत्ता का परीक्षण भारत का ड्रग कंट्रोलर जनरल करता है और वे देश भी करते हैं जो उन्हें आयात करते हैं। भारत की स्थिति दूसरी है। इनके परणिामों को देखकर ऐसा नहीं लगता कि इनका परीक्षण होता होगा।

इस समय भारत में फार्मा इंडस्ट्री औषधि उद्योग के सामने दो चुनौतियां हैं। नकली दवाओं की और सबस्टैंडर्ड यानी घटिया दवाओं की। भारत में दोनों ही समस्याएं बड़ी हैं। ‘डब्लुटीओ’ (विश्व व्यापार संगठन) का मानना है कि विकासशील देशों में 10 त्न दवाएं ‘सबस्टैंडर्ड’ यानी गुणवत्ता के मानकों को पूरा न करने वाली होती हैं। भारत में यह आंकड़ा ज्यादा हो सकता है। यूएसटीआर (USTR) नाम की संस्था ने कुछ समय पहले ही ‘स्पेशल 301’ नाम से रिपोर्ट जारी की। जिसमें बताया है कि भारत में 20 प्रतिशत नकली दवाएं हैं। हिमाचल के बद्दी व उत्तराखंड के रुड़की में कई बार नकली दवा बनाने की फैक्ट्रियां पकड़ी गई हैं। नकली दवा बनाने का कारोबार पूरी तरह से अवैध है और सरकार उस पर अंकुश नहीं लगा पा रही है। सबस्टैंडर्ड दवाएं तो रजिस्टर्ड कंपनियों द्वारा बनाई जाती हैं। सरकार जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता निश्चित करने में असफल रही है। यह जेनेरिक दवाओं के रिजल्ट बताते हैं। दवाओं की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए ड्रग कंट्रोलर जनरल है। पर होने को तो फूड इंस्पेक्टर भी होता है। सड़े- गले फल – सब्जियों से लेकर ऐसी कौन सी खाने की चीज होगी जिसे आप विश्वासपूर्वक खा सकें कि इसमें मिलावट नहीं होगी। सिंथेटिक (नकली) दूध सहित ऐसी वस्तुएं खुलेआम बिकती हैं जिनमें ‘कार्सिनोजेनिक’(केंसरकारी) पदार्थ मिले होते हैं। इन्हें खाकर लोग बीमार पड़ते हैं और डॉक्टर के पास पहुंचेंगे वो दवा प्रिस्क्राइब करेगा अब उसकी भी गुणवत्ता का कोई भरोसा नहीं है।

जेनरिक दवाओं का बड़ा निर्यातक

भारत पूरी दुनिया में जेनेरिक दवाएं निर्यात करता है। विशेषकर तीसरी दुनिया के देश जो मंहगी ब्रांडेड दवाएं आयत करने में सक्षम नहीं हैं वे भारत की जेनेरिक दवाओं पर काफी निर्भर हैं। अफ्रीकी देश गाम्बिआ में जून 2022 से सितंबर 2022 तक 66 (कुछ रिपोर्टों के अनुसार 70) बच्चों की मौत बल्गमवाली खांसी की दवा (कफसिरप) पीने से हुई। चार फरवरी को डब्लूएचओ (विश्वस्वास्थ्य संगठन) का बयान मीडिया में छपा। उसके अनुसार तीन देशों में (गाम्बिआ, उजबेकिस्तान व उक्रेन) 300 बच्चों की मौत भारतीय घटिया कफ सिरप पीने से हुई है। यह कफ सिरप शिमला स्थिति एक जेनेरिक फार्मा कंपनी के बनाए थे। कुछ महीने कंपनी सील रही और भारत सरकार ने इस पर जांच बैठाई। जांच कमेटी ने रिपोर्ट दी कि निर्यात की गई दवा को ड्रग कंट्रोलर जनरल द्वारा परीक्षण कर के भेजा गया है। बच्चों की मौत का कारण कुछ और हो सकता है। डब्लूएचओ का कहना है दवाओं में एथलीन ग्लाइकोल व डाई एथलीन ग्लाइकोल की अधिक मात्रा पाई गई है। ये कफ सिरप बनाने में उपयोग होते हैं पर अधिक मात्रा जानलेवा हो सकती है।

यह भी कहा जा सकता है कि यह भारतीय फार्मा कंपनियों को बदनाम करने की चाल है। अगर हम पूंजीपतियों के चरित्र को समझते हैं, उनके व्यापार करने के रंग- ढंग को समझते हैं और देशी-विदेशी के चक्कर में न पड़ कर मानवता को प्रमुखता देते हैं तो ऐसी बात मस्तिष्क में नहीं आएगी। यह वैसी ही बात होगी जैसे रामदेव हर जवाबदेही के लिए बोल देते हैं ‘यह फार्मा कंपनियों की चाल हैÓ। अगर आप ऐसा सोचते हैं तो यह नहीं भूलना चाहिए कि पूंजीपतियों के अपने तौर तरीकी के होते हैं और वे इस मामले में देशी-विदेशी में भेद नहीं करते हैं। दिसम्बर, 2019 से जनवरी 2020 के बीच जम्मू के रामनगर में 12 बच्चों की मौत ऐसा ही कफ सिरप पीने से हुई। 8 नवंबर, 2014 को बिलासपुर छत्तीसगढ़ में जिले के एक कैंप में 83 महिलाओं की नसबंदी हुई। 11 नवंबर की द हिंदू अखबार की रिपोर्ट के अनुसार ऑपरेशन के कुछ ही घंटे बाद 60 महिलाएं बीमार हो गईं। उन्हें उल्टी शुरू हो गईं और सांस लेने में दिक्कत हुई। इन में से 11 महिलाओं की मौत हो गई और 34 की हालत नाजुक बनी हुई थी।

 

कारण क्या थे?

कांग्रेस के नेताओं का आरोप था ऑपरेशन में साफ-सफाई नहीं बरती गई और ऑपरेशन जल्दबाजी में किए गए। सरकारी अस्पतालों में ‘अनहाइजीनिक कंडीशंसÓ होने की संभावना होती ही है और ऐसा न भी रहा हो तब भी आसानी से हम ऐसा मान सकते हैं। एक डॉक्टर के रूप में यह सवाल मेरे मन में उठता है कि अनहाइजीनिक कंडीशंस में इन्फेक्शन होने की गुंजाइश रहती ही है जिसमें समय पर इलाज न मिले तब भी ‘सेप्टिसीमिआ’ होने में और इसके बाद मौत होने में 4-5 दिन तो लग ही जाएंगे जबकि महिलाओं को कुछ ही घंटे बाद उल्टियां व सांस लेने में दिक्कत शुरू हुई और दो दिन में 11 महिलाओं की मौत हो गई और 34 नाजुक स्थिति में पहुंच गईं। 60 महिलाएं तुरंत अस्पताल में भर्ती कराई गईं। ऐसे में यह मानना थोड़ा मुश्किल है कि महिलाओं की मौत साफ-सफाई का ध्यान न रखने के कारण हुई होगी। अगर मुहावरे में कहें तो भगवान जाने उन गरीबों के साथ क्या हुआ पर पहली दृष्टि में मन में जो सवाल आता है वह यह है कि इस दुर्घटना में दवाओं की भूमिका हो सकती है। हम सिर्फ संभावना व्यक्त कर सकते हैं असली कारण तो कभी पता नहीं चलता।

जिस वजह से जेनेरिक दवाएं आज इतनी चर्चा में हैं, वह है इसकी कम कीमत। मीडिया में और सोशल मीडिया में यह काफी प्रचारित किया गया है कि ब्रांडेड दवाएं व जेनेरिक दवाओं में एक ही कंटेंट (सामग्री) होता है फिर भी जेनेरिक दवाएं बहुत सस्ती हैं। प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र खुलने के बाद यह धारणा अधिक प्रबल हुई है। लोगों को लगता है सरकार ने लोगों की सेवा के लिए जेनेरिक दवाएं उपलब्ध कराई हैं। जन औषधि केंद्रों पर दवाओं का एमआरपी कम होता है। पर मेडिकल स्टोर पर जेनेरिक दवाओं पर एमआरपी ब्रांडेड दवाओं के लगभग बराबर ही होता है। उदाहारण के लिए सिप्रोफ्लेक्सेसिन एक एंटीबायोटिक है। इसे सिप्ला फार्मा ‘सिपलॉक्स’ के नाम से बनाती है। लीफोर्ड जो जेनेरिक मेडिसिन बनाती है, सिप्रोफ्लेक्सेसिन को ‘सिप्कोस’ के नाम से बनाती है। ‘सिपलॉक्स’ का एमआरपी 47 रूपए 48 पैसे है। किप्कोज का 45 रूपए 40 पैसे है। 1एमजी एक ऑनलाइन वेबसाइट ह,ै जिस पर ‘सिपलॉक्स’ 40 रूपए 48 पैसे की और ‘किप्कोज’ 30 रूपए 27 पैसे की मिल रही है। एमआरपी में मात्र दो रुपए का ही फर्क है पर 1एमजी ‘सिप्कोज’ को ‘सिपलॉक्स’ से 10 रूपये सस्ती दे रही है। इसके बावजूद 1एमजी ‘सिप्कोज’ से ही ज्यादा कमा रही होगी क्यों कि जेनेरिक दवाएं फार्मासिस्ट (खुदरा दवा बेचनेवालों) को बहुत सस्ती उपलब्ध होती हैं। जेनेरिक दवाएं मेडिकल स्टोर को जितनी कीमत पर मिलती हैं उसकी तीन-चार गुनी उन पर एमआरपी (न्यूनतम खुदरा कीमत) होती है। अगर फार्मासिस्ट 20 त्न डिस्काउंट भी इन दवाओं पर दे दे तब भी बड़ा मुनाफा वह इन दवाओं से कमा सकता है। ग्रामीण इलाकों में जेनेरिक दवाएं काफी बिकती हैं। ग्रामीणों पर इसकी दोहरी मार पड़ती है। पैसा वे ब्रांडेड दवाओं जितना खर्च करते हैं, दवा उन्हें वह मिलती है जिसकी गुणवत्ता के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता।

 

व्यापारी और व्यापार के तरीके

यहां समझने वाली बात यह है कि फार्मा कंपनी चाहे ब्रांडेड हो या जेनेरिक उसका एक मात्र उद्देश्य अपने व्यापार को ज्यादा से ज्यादा फैलाना है। ऐसा नहीं है कि जेनेरिक कंपनियां अपने ब्रांड को स्थापित करने के लिए कोशिश नहीं करतीं। वे नैतिक सीमाएं लांघ कर भी ऐसा करती हैं पर व्यापर की अपनी सीमाएं होती हैं और सभी व्यापारी एक साथ सफल नहीं हो पाते हैं। एक भारतीय फार्मा कंपनी मेनकाइंड 1995 में शुरू हुई और देखते – देखते चर्चित ब्रांड बन गई। 25 साल की यात्रा में साम दाम दंड भेद जो भी तरीके हो सकते हैं कंपनी ने अपनाए। शुरू में दवाओं की कीमत दूसरे ब्रांड्स से थोड़ी कम रखती थी। छोटे-छोटे क्लिनिक पर भी फोकस करती थी। अगर रोज पैड, पैन या कोई छोटी-मोटी चीज भी डॉक्टर की टेबल पर रख दोगे तो एक बार उसके दिमाग में जरूर आयेगा चलो इसकी भी कुछ निकाल देते हैं, किसी न किसी की दवा तो लिखनी ही है। दवाओं की क्वालिटी भी ठीक ही रही होगी रेस्पॉन्ड करती थी।

सन 2008 में गौरीकुंड में था तो केदारनाथ से यात्री आते थे। थोड़ी ठण्ड महसूस करते थे। मेडिकल स्टोर वाले उन्हें मेनफार्स (इसका जेनेरिक नाम सिल्डेनाफिल है। फाइजर इसे व्याग्रा के नाम से बनाती है) दे देते थे (गौरीकुंड में 25 -30 मेडिकल स्टोर तो थे ही सब ऐसा नहीं करते थे 1-2 के बारे में मैंने सुना था।)। सेक्स पावर बहुत से लोग बढ़ाना चाहते हैं (यह काम सिल्डेनाफिल नहीं करती है) उन्हें दे देते थे। दरअसल उस समय कंपनी एक स्ट्रिप के साथ तीन स्ट्रिप मेडिकल स्टोर को फ्री देती थी। मेडिकल स्टोर मुनाफे के लिए उन्हें कहीं न कहीं अनावश्यक रूप से खपाते थे। अब मेरे पास कोई कटिंग नहीं है न इंटरनेट पर कहीं उपलब्ध है, 2010 से पहले की बात है, मैंने अखबार में एक खबर पढ़ी थी कि किसी कंपनी के ब्रांड में सिप्रोफ्लॉक्सेसिन की जगह कोट्रीमोक्साजोल पकड़ी गई थी। सिप्रोफ्लॉक्सेसिन महंगी एंटीबायोटिक थी। कोट्रीमोक्साजोल सस्ती एंटीबायोटिक थी। उस समय कोट्रीमोक्साजोल काम करती थी। अब रेसिस्टेंट हो गई है। यानी असरकारक नहीं रही है। बहुत कम लिखी जाती है।

दवा जेनेरिक हो या ब्रांडेड हो, कोई भी कंपनी समाज सेवा करने नहीं आती है (वे ऐसा दावा भी नहीं करती हैं)मार्केट में वह ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए ही आती है। समाज सेवा करने रामदेव आए हैं (वह ऐसी ताल ठोकते हैं और पहनते भी गेरुआ लंगोट हैं), समाजसेवा करते हुए भी उन्होंने गिलोय और अश्वगंधा से ही हजारों करोड़ का साम्राज्य दो दशक में ही खड़ा कर लिया। इस से हम पूजीपतियों के बिजनेस मॉडल (व्यापार के तरीके) को समझ सकते हैं। ब्रांडेड कंपनियों के पास ब्रांड की विश्वसनीयता है, दुनियाभर में उपभोक्ता हैं। आसमान छूती कीमत रख देंगे, रखते भी हैं, जान बचाने के लिए व्यक्ति वह भी खरीदता ही है। जेनेरिक कंपनियों के पास यही है कि वे ईमानदार उत्पादन करने की जगह कीमत -कम रख कर अपने व्यापर का विस्तार करें, जिसमें अपनी तरह के खतरे हैं।

ब्रांडेड कंपनियों की जो आसमान छूती कीमतें हैं उससे आधुनिक चिकित्सा आम आदमी की पहुंच से पूरी तरह बाहर होती जा रही है। सरकार को उनकी कीमतों पर हर हालत में अंकुश लगाना चाहिए। पर सरकार अंकुश क्या लगाएगी। वह तो कंपनियों के बिजनेस को आसान बनाने के लिए अभी जन विश्वास बिल लेकर आई है। जिन कानूनों में गलत तरीके अपनाने पर कंपनियां को जेल का प्रावधान था, उन्हें बदल कर पांच-दस लाख का जुर्माना कर दिया है।

अब खबर आई है कि एनएमसी ने अपनी गाइड लाइंस स्थगित कर दी हैं। यह बात दिमाग में आ रही थी कि डॉक्टर जेनेरिक नाम लिखेगा तो यह कौन तय करेगा कि किस कंपनी की जेनेरिक मेडिसिन देनी है। जेनेरिक मेडिसिन तो बहुत सारी कंपनी बना रही हैं। एक सवाल यह भी है कि एनएमसी के दिमाग में ऐसे चमत्कारी विचार आते कहां से हैं।

कहीं एनएमसी प्रधानमंत्री के महिला वाले बयान से कुछ ज्यादा ही तो प्रभावित नहीं हो गईं कि सरकार को खुश करने के लिए बिना सोचे समझे कुछ भी करने लगता है।

Visits: 192

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*