महत्वाकांक्षाओं का फंदा

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सिविल सेवा परीक्षा परिणामों के घोषित हो जाने के दो दिन बाद की घटना है।

देश की प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग के सबसे बड़े केंद्र, राजस्थान के शहर कोटा से दुखद समाचार था। ‘नीट (नेशनल एलिजिबिलिटि टेस्ट), देश के विभिन्न मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों में दाखिले के लिए ली जाने वाली केंद्रीय परीक्षा, की तैयारी के लिए यहां भेजे गए नांलदा, बिहार के 16 वर्ष के छात्र आर्यन ने 24 मई की रात को फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। 16 साल का लड़का और आत्महत्या! उस उम्र में, जब बच्चे जिंदगी का अर्थ नहीं जानते, तब आत्महत्या!

पर ठहरिये, किशोरों की कब्रगाह बन गए इस शहर में इस माह की यह पहली या अंतिम आत्महत्या नहीं थी। तीन दिन बाद मेडिकल में प्रवेश की तैयारी कर रही एक और 16 वर्षीय लड़की ने आत्महत्या कर ली। यद्यपि अपने पीछे छोड़ पत्र में उसने लिखा कि मेरी मौत के लिए कोई जिम्मेदार नहीं है। पर शंका यह थी कि उसने भी आत्महत्या परीक्षाओं में नंबर कम आने के कारण ही की थी। यानी कोचिंग के इस शहर में अकेले मई में किशोरों द्वारा की जाने वाली मई माह की यह पांचवीं आत्महत्या थी और वर्ष की नौवीं। अंदाज लगाई ये बच्चे किस तरह की उत्पीड़क स्थितियों में रह रहे होंगे कि उनके लिए शिक्षा का यह रूप, जो उन्हें कथित तौर पर जीवन में सफल बनाने का दावा करता है, असल में मौत के गाल में पहुंचा देता है। ये बच्चे भावात्मक रूप से और सामाजिक तौर पर भी किस तरह की प्रताडऩा, अकेलापन और असहायता महसूस कर रहे होंगे, कल्पना भी नहीं की जा सकती! कहना गलत नहीं होगा कि ये बच्चे प्रत्यक्षत: अपने मां-बापों की महत्वाकांक्षा के शिकार हुए हैं। इस हद तक कि बच्चे मां-बाप पर भी विश्वास करने की स्थिति में नहीं रहे।

पर इसके दूसरे पक्ष को नकारा नहीं जा सकता। वह है, ऐसी व्यवस्था में जीने का अभिशाप, जिसने किशोरों और युवाओं के जीवन को तो नारकीय बनाया ही है मां-बाप को भी अपराधी बना दिया है। शिक्षा के बाद की असुरक्षा, बेरोजगारी और बदहाली से अपने बच्चों को बचाने की सद्कामना के वशीभूत इन के माता पिता अपनी विवशता में अबोधों को प्रतिद्वंद्विता की ऐसी बर्बर व्यवस्था के हवाले करने पर मजबूर हैं जहां चुनाव, मौत और कथित ‘सुरक्षित भविष्य’ के बीच, हो जाता है। इस हद तक कि बच्चों को अपने उन माता-पिता पर भी विश्वास नहीं रहता जिन्होंने उन्हें पाला-पोसा और उनका भविष्य बनाने की उम्मीद में लाखों रुपए खर्च कर, इस जगह भेजा होगा।

ये घटनाएं, विशेष कर मध्यवर्ग की उन महत्वाकांक्षाओं से भी जुड़ी हैं, जो अपने बच्चों को अफसर, डाक्टर, इंजीनियर से नीचे कुछ नहीं देखना चाहते। यह वाजिब चिंता है, पर इसे जिस तरह से निजी चिंता के रूप में लिया जाता है, बल्कि कहना चाहिए व्यवस्था द्वारा सप्रयास यह रूप दे दिया गया है, वह एक स्तर पर इस पूरे मसले को खासा कठिन और घातक बना देती है। इस अर्थ में कि हर मां- बाप अपने बच्चे के भविष्य की चिंता को बाकी समाज से काट कर देखने की कोशिश में नजर आते हैं और किसी भी हाल में अपने ही स्तर पर इस वृहत्तर और सामाजिक समस्या का समाधान तलाशते बदहवास देखे जा सकते हैं।

यह, ठेठ पूंजीवाद के शिकार लोगों की मानसिकता है, जिसके तहत व्यक्ति को हर समस्या का समाधान अपने स्तर पर करना होता है या उसे ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाता है। प्रतिद्वंद्विता से त्रस्त व्यवस्था में वह इस जुगाड़ में रहता है कि उपलब्ध संसाधनों के चलते येन केन अपनी नैया पार कर ले, जो डूबता है, उसकी बला से। सवाल है भारत जैसे गरीब देश में, क्यों बहुस्तरीय शिक्षा हो? क्यों सभी शिक्षण संस्थाओं का स्तर एक समान न हो? जो प्रतिभाशाली हैं, समय आने पर अपनी प्रतिभा दिखलाएगा। क्या जब यह प्रतिद्वंद्वी व्यवस्था नहीं थी तब व्यवस्था चल नहीं रही थी?

संभवत: सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर व्यवस्था इसका कोई मानवीय समाधान क्यों नहीं निकाल रही है। यह कहते पीड़ा होती है कि कुछ साल ऐसे भी रहे हैं जब कोटा में 40-40 बच्चों ने आत्महत्याएं कीं हैं। दुखद है कि तब भी सरकारें नहीं चेती हैं। आज स्थिति यह है कि इस शहर में हर वर्ष दो लाख के करीब बच्चों को मां-बाप भविष्य के प्रति अपने सपनों के बोझ के साथ छोड़ जाते हैं, बिना सोचे कि इस सपने में खोट कहां है?

 

रोजगार देने में असफल व्यवस्था

सबसे बड़ा सत्य यह है कि वर्तमान व्यवस्था शिक्षित/योग्य लोगों को उपयुक्त रोजगार देने में असफल रही है, बल्कि एक हद तक उसकी इसमें रुचि ही नहीं है। और इस मंशा को ढकने-छुपाने के लिए उसने इतने बड़े पैमाने पर ‘प्रतिद्वंद्वी व्यवस्था’ खड़ी कर दी है कि उसकी कीमत पूरा शिक्षित वर्ग चुका रहा है। भयावहता यह है कि भारतीय कोचिंग का धंधा संभवत: दुनिया का सबसे बड़ा धंधा हो गया है जो 60 हजार करोड़ रुपए के आंकड़े को पार किए हुए है। इस धंधे से जुड़े लोग क्यों चाहेंगे कि यह सिसिला कम हो। पर इसे समय रहते नियंत्रित करने, इस पर रोक लगाना  कितना जरूरी है इसे हर वर्ष होने वाली किशोरों की आत्महत्या से बेहतर किस प्रमाण की जरूरत हो सकती है?

राज्य सरकार ने पिछले वर्ष, आत्म-हत्याओं के दबाव में, ऐसा बिल तैयार किया था जिससे कि बच्चों को इस खूनी प्रतिद्वंद्विता से एक हद तक बचाया जा सके। बिल में प्रावधान थे कि संस्थान किसी भी शीर्ष स्थान प्राप्त करने वाले परीक्षार्थी का महिमामंडन करने वाले विज्ञापन न दें, कोचिंग के लिए आने वाले छात्रों की एक परीक्षा हो, जिससे उनकी क्षमता को आंका जा सके और सब कोचिंग संस्थाओं का पंजीकरण हो। पर इस बिल का लागू होना तो रहा दूर, अभी तक विधान सभा में प्रस्तुत तक नहीं किया जा सका है।

दूसरी ओर देखें तो इसका एक ताना हमारी जातिवादी व्यवस्था से भी जुड़ा है। हो यह रहा है कि इंजीनियरिंग की बाजार में मांग नहीं रही है और बड़े पैमाने में इंजीनियर सिविल सेवाओं में जा रहे हैं। जैसे कि इस वर्ष उम्मीदवारों की संख्या में 80 प्रतिशत इंजीनियर थे। निजी क्षेत्र का आकर्षण हमारे यहां, उसकी असुरक्षा और शोषण के चरम के कारण, लगभग न के बराबर रहा है।

दूसरी ओर ऊंची जातियों की सबसे बड़ी चिंता ऐसे व्यवसायों तक सीमित रहना भी है जो शीर्ष की हों, मेज कुर्सी की हों और सत्ता से उनका संबंध हो। दूसरे शब्दों में वे किसी भी कीमत पर अपने बच्चों को उनकी प्रतिभा और रुझान के अनुरूप कोई भी शारीरिक काम नहीं करने देना चाहते हैं। एक हद तक दलितों और आदिवासियों को मिलने वाले आरक्षण के प्रति जिस कदर मध्यवर्ग में अप्रसन्नता है उसका संबंध काफी हद तक इस वर्ग, जो मूलत: उच्च जातीय है, की यही हताशा है। वह इस बात को समझने को तैयार नहीं है कि पूंजीवादी व्यवस्था के विस्तार ने, जो पिछले दो दशकों में ज्यादा तीव्र गति से हुआ है, सरकारी नौकरियों को और तेज गति से घटाया है। इस दौरान लगभग सभी भर्तियां बंद रही हैं। यह बात और है कि यह सीधे सीधे उदारीकरण की नीतियों के तहत हो रहा है।

 

मध्यवर्ग की सबसे बड़ी समर्थक?

पर अवसर को आंकने में उस्ताद, भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने इस हताशा को ऐसा मोड़ दिया है मानो वह मध्यवर्ग की सबसे बड़ी समर्थक हो। उसने जो किया है वह खासा घातक पैंतरा है पर मध्यवर्ग और उच्च जातियों को, जो फिलहाल उसके पीछे लट्टू हैं, यह बात पसंद आ रही है कि सरकार ने अप्रत्यक्ष ही सही पर आरक्षण को ठिकाने लगा दिया है।  वह ‘प्रतिभावानों’ का पक्ष ले रही है। कम से कम ऊंचे पदों के लिए। सरकार ने उसी संघ लोक सेवा आयोग के माध्यम से, जिसके तहत आईएएस भर्ती का करोबार चलता है, इधर ‘लेटरल एंट्री’ (यानी बिना प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठे) के तहत सीधे 31 भर्तीयां से शुरुआत की और समाचार है कि इस वर्ष यह संख्या 384 को पार करने जा रही है। इसकी एक खासियत यह है कि यह हर तरह के आरक्षण से मुक्त है और शुद्ध प्रतिभा से ‘जुड़ा मामला’ है!

दूसरी ओर इसका संबंध उस असुरक्षा से भी है जो वर्तमान पूंजीवादी आर्थिक नीतियों के बढ़ते प्रभाव के कारण लगातार नौकरियों और रोजगार के क्षेत्र में ज्यादा प्रभावी तरीके से सामने आ रहा है। इसने  निजी क्षेत्र में नौकरियों की सुरक्षा को तो खत्म कर दिया है बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों को भी असुरक्षित कर दिया है। सार्वजनिक क्षेत्र तो इस दौरान ठप्प ही हो चुका है। एक के बाद एक संस्थान या तो बंद कर दिए गए हैं या फिर बड़े उद्योगपतियों के हाथों में सौंप दिए गए हैं।

यह छिपा नहीं है कि देश के अधिसंख्य लोगों के लिए अच्छे भविष्य का रास्ता शिक्षा के कुछ चुनींदा संस्थानों से होकर जाता है। इसलिए पहला पड़ाव होता है अच्छे संस्थान के लिए संघर्ष। अभिभावक मानते हैं कि अगर बच्चे को अच्छे शिक्षा संस्थान में दाखिला मिल गया तो आधा रास्ता पार हो गया। इस विश्वास के चलते माता-पिता अपने बच्चों की बौद्धिक, मानसिक और शारीरिक क्षमता का सही सही आंकलन किए बिना उन्हें ऐसी कठोर प्रतिद्वंद्विता में झोंक देते हैं जो बच्चों के लिए और स्वयं माता-पिता के लिए भी घातक साबित होती है। कोचिंग के लिए कोटा आने वाले हर बच्चे के अभिभावक की महत्वाकांक्षा होती है कि उसका बच्चा आइआइटी में प्रवेश ले। इस ‘प्रतिष्ठित’ संस्था का रिकार्ड है कि हर वर्ष सिविल सेवाओं के शीर्ष स्थानों में, पिछले कम से कम तीन दशक से, आइआइटी के स्नातकों का बोलबाला चला आ रहा है। अनुमानत: सिविल सेवाओं में चुने जाने वालों में 50-60 प्रतिशत इंजीनियरिंग की डिग्रीधारकों का होता है, जिसमें आइआइटी वालों का प्रतिशत सबसे ज्यादा रहता है।

 

असुरक्षा का संकेतक

निश्चय ही यह उभरते मध्यवर्ग की महत्वाकांक्षाओं का ही उदाहरण नहीं है बल्कि इस बात का भी उदाहरण है कि देश में रोजगार के अवसरों का उस गति से और उस स्तर का विस्तार नहीं हो पाया है जिस गति से, विशेष कर मध्य और निम्नमध्य वर्ग का हुआ है और हो रहा है। दूसरे शब्दों में यह मध्यवर्ग की गंभीर असुरक्षा को भी दर्शाता है। (इस अर्थ में कि इस वर्ग का उदय बहुत पुराना नहीं है।) यह आंकलन मात्र एक उदाहरण का, भावुकता पूर्ण विस्तार नहीं है बल्कि जिस भयावहता में इस देश का युवावर्ग जी रहा है उसका उदाहरण है। सच यह है कि मई के महीने में अकेले 16 वर्षीय आर्यन ने ही कोटा के यातना गृह में आत्महत्या नहीं की थी बल्कि उससे पहले तीन और बच्चे आत्महत्या कर चुके थे। इस वर्ष अब तक कुल आठ बच्चे आत्महत्या कर चुके हैं और दो आत्महत्या का प्रयास।

पांच हजार करोड़ के धंधे के इस सबसे बड़े केंद्र कोटा शहर में शायद ही कोई साल ऐसा होता हो जब आत्महत्याएं न होती हों। गत वर्ष 22 बच्चों ने आत्महत्या की थी। पर कहीं जूं तक नहीं रेंगी है।

इसका एक पक्ष यह भी है कि ऐसे स्तरीय संस्थानों का मांग के मुताबिक विस्तार न होना। यह स्थिति दो तरह से सरकारों की असफलता को दर्शाती है। पर यहां यह चर्चा का विषय नहीं है।

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