छोटी पत्रिकाएं बड़े लक्ष्य

Share:

मई के पहले पखवाड़े में उत्तराखंड के बड़े औद्योगिक शहर रुद्रपुर से लगे उतने ही छोटे कस्बे, दिनेशपुर में, जो मूलत: भारत विभाजन के बांग्ला विस्थापितों की बस्ती है, लेखक और पत्रकार पलाश विश्वास (वह स्वयं विस्थापित हैं) तथा प्रेरणा अंशु  मासिक के युवा संपादक रूपेश कुमार सिंह द्वारा आयोजित लघु पत्रिका सम्मेलन किसी चमत्कार से कम नहीं था। सम्मेलन में विशाल हिंदी भाषी क्षेत्र के विभिन्न कोनों से एकत्रित लेखकों और संपादकों की भागीदारी जितनी भी संख्या में थी, कम महत्वपूर्ण नहीं रही। इस अवसर पर जारी कार्ययोजना अपनी व्यावहारिकता के लिए ध्यान खेंचे बिना नहीं रहती है।

योजना की जो बातें रेखांकन योग्य हैं वे हैं : सामंतवाद, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के साथ ”मुक्तबाजार की धारक वाहक पितृसत्ता है, जिसे तोड़े बिना कोई परिवर्तन संभव नहीं।‘’ और दूसरा मुद्दा है, ”हमें लगता है कि विमर्श, विचारधारा और वाद-विवाद में हम भारतीय समाज की मूल समस्याओं, अंतर्विरोधों और सामाजिक यथार्थ को नजर अंदाज करने लगे हैं। जाति उन्मूलन, समता, न्याय, विविधता, बहुलता, लोकतंत्र, नागरिक और मानवाधिकार, प्रकृति के पक्ष में हम सभी को मिलकर लोकतांत्रिक, प्रगतिशील सांस्कृतिक मोर्चे को मजबूत करना चाहिए।‘’

ये मांगें ज्यादा लोकतांत्रिक और समझ में आने वाली हैं। इस अर्थ में कि इनका संबंध व्यापक जनता से है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि उद्देश्य हमारा जो भी हो, क्रांति या प्रतिक्रांति, अगर अखबार, पत्रिका या अब उसके नए मंच इंटरनेट उर्फ सोशल मीडिया के माध्यम से, अंतत: संवाद आम आदमी से ही किया जाना है। अगर हम सामने खड़ी चुनौतियों से सैद्धांतिकता की आड़ में बचते रहेंगे और अपनी सीमाओं को नहीं समझेंगे, तो हमारा सफल होना भी सदा संदेहास्पद रहेगा। और यही पिछले सात दशक के अनुभव बतलाते भी हैं।

आगे बढऩे से पहले स्पष्ट होना जरूरी है कि असल में लघु पत्रिका आंदोलन अपने आप में प्रत्यक्षत: कोई राजनीतिक आंदोलन नहीं है बल्कि प्रगतिशील सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन है। काफी हद तक बौद्धिक। यहां यह रेखांकित करना जरूरी है कि प्रतिक्रयावादी सोच दुनिया में कहीं लघु पत्रिका आंदोलन का हिस्सा नहीं होता है। इसलिए लघु पत्रिकाएं जहां भी हैं, साहित्यिक-सांस्कृतिक, बौद्धिक या राजनीतिक, अगर वे अपनी स्वायत्तता नहीं बचा सकतीं तो उनके अस्तित्व का अर्थ नहीं रह जाता है। चूंकि पत्रिका एक बौद्धिक हस्तक्षेप होती है  इसलिए उसकी स्वायत्तता, विशेषकर बौद्धिक, जरूरी है। यही कारण है कि उनसे विचारों के स्तर पर रेडिकल हस्तक्षेप की अपेक्षा की जाती है।

इस संदर्भ में यह अचानक नहीं है कि हिंदी में लघु पत्रिका आंदोलन अनावश्यक रूप से ‘रेजिमेंटेड’ या कहें राजनीतिक रूप से नियंत्रित होने के कारण ही अपनी सार्थकता खो बैठा है। प्रश्न पूछा जा सकता है कि आखिर ऐसा क्या हुआ है कि पिछले दो दशक से ज्यादा हो गया है, वामपंथियों के नेतृत्व में चलने वाला लघु पत्रिका आंदोलन, एक भी सम्मेलन नहीं कर पाया है? उल्टा अधिसंख्य पत्रिकाएं सत्ता संस्थानों से मिलने वाली मदद पर ज्यादा से ज्यादा निर्भर होती गई हैं। हद यह है कि वामपंथी हल्कों की कुछ अति प्रतिष्ठित पत्रिकाएं तो सबसे ज्यादा सरकारी मदद (विज्ञापन और खरीद के रूप में मिलने वाली खैरात) पर निर्भर रही हैं, और, मात्रा में कम ही सही, पर आज भी हैं। दूसरे शब्दों में, जो ठहराव वामपंथी राजनीतिक आंदोलन में नजर आता है उसी का प्रतिबिंबन लघु पत्रिका आंदोलन में भी देखा जा सकता है, कम से कम घोषित रूप से ‘जन समर्थक’ संपादकों में।

एक बात यहां यह स्पष्ट है कि ‘छोटी पत्रिका’ मात्र इसलिए छोटी नहीं है कि वह निजी प्रयत्नों और सीमित संसाधनों से निकलती है। यह सब तो हो सकता है, और होता भी है, पर सबसे बड़ी बात यह है कि छोटी पत्रिकाएं अपनी ‘एप्रोच’ में यथास्थितिवादी नहीं होती हैं बल्कि उदार व रेडिकल होती हैं। अगर ऐसा नहीं है तो फिर चाहे जिस विचार या उद्देश्य के प्रति समर्पित हों, उनकी सार्थकता संदेहास्पद रहेगी और उन्हें व्यावसायिक रूप अख्तियार करने में समय नहीं लगेगा।

यद्यपि लेखकों और साहित्य प्रेमियों द्वारा हिंदी में पत्रिकाएं निकालने का सिलसिला पुराना है और एक तरह से अधिसंख्य पत्रिकाएं छोटी ही रही हैं, पर यह छोटापन कमोबेश उनकी पहुंच और आर्थिक सीमाओं का रहा है। मोटे तौर पर भारतेंदु हरिश्चंद्र से ही इसकी शुरुआत मानी जा सकती है। कवि वचन सुधा  ‘छोटी पत्रिका’ हो न हो, मूलत: साहित्यिक या साहित्यिक झुकाव वाली पत्रिका तो थी ही। साहित्यकारों द्वारा पत्रिका निकालने का यह लगभग पौने दो सौ साल पुराना सिलसिला है, इस मामले में कि मोटा-मोटी प्रेमचंद, प्रसाद, महादेवी, यशपाल, अज्ञेय, श्रीपत राय, अमृत राय, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, रमेश बक्षी, रमेश उपाध्याय, ज्ञानरंजन तक न जाने किस-किस लेखक ने पत्रिकाएं निकालीं जो मूलत: साहित्य केंद्रित रहीं हैं। सौभाग्य से राजेंद्र यादव द्वारा स्थापित हंस, रमेश उपाध्याय स्थापित कथन उनकी अनुपस्थिति के बावजूद, आज भी निकल रही हैं। यद्यपि मुख्य रूप से उपरोक्त सभी पत्रिकाएं साहित्यिक थीं, पर सच यह है कि इन सभी संपादकों ने राजनीतिक रूप से पक्ष लेने और टिप्पणी करने से कभी गुरेज नहीं किया। सच यह है कि ये पत्रिकाएं खास विचारपक्षीय रही हैं। यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं यह है कि साहित्यकारों द्वारा नई-नई पत्रिकाएं निकालने का सिलसिला कमोबेश आज भी जारी है।

प्रारंभ में पत्रिकाएं विविध विषयी होती थीं। सरस्वती  इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, पर साहित्य की ओर इसलिए ज्यादा झुकाव रहता था क्योंकि कहानी-कविता और उपन्यास तब मनोरंजन का सबसे बड़ा माध्यम थे। हिंदी में पाठक नहीं थे, चूंकि शिक्षा नहीं थी और न ही हिंदी बोलचाल की भाषा थी। अंग्रेजी और बांग्ला जैसी भाषाओं के साहित्य ने हिंदी के मध्यवर्ग में भी रचनात्मक साहित्य के प्रति आकर्षण पैदा किया था और रचनात्मक लेखन की शुरुआत खासे बड़े पैमाने पर हुई थी। उपन्यास की जगह भारतेंदु द्वारा नाटक लिखना भी कमोबेश इस बात का सूचक है कि तब हिंदी में साहित्य के सामान्य पाठक नहीं थे, अन्यथा कहानी और उपन्यास लिखना अपनी पहुंच के कारण सदा ज्यादा आसान होता है। इसलिए कि तब न तो फिल्में थीं, जब आईं तो भी सब जगह उपलब्ध नहीं थीं और दूरदर्शन तो भारत में आया ही बीसवीं सदी के साठ के दशक में। यह बात और है कि बाद की पत्रिकाएं साहित्य केंद्रित हो गई थीं। पर उसके भी स्पष्ट कारण रहे हैं।

अखबारों की बाढ़ का दौर

पिछली सदी के मध्य तक हिंदी में दैनिक अखबार भी नहीं थे। हिंदी अखबारों की बाढ़ आजादी के आंदोलन और काफी हद तक स्वतंत्रता के बाद अपनाई गई लोकतांत्रिक व्यवस्था के कारण आई। यह कोई संयोग नहीं है कि आज, जबकि मुद्रित पत्र-पत्रिकाएं ही नहीं बल्कि मुद्रित शब्द ही अपना वर्चस्व गवांने के दौर में पहुंचा दिखलाई दे रहा है, हिंदी का मुश्किल से एक अखबार सौ वर्ष पार किए हुए है। इससे भी ज्यादा दुखद यह है कि हिंदी अखबार देर से फलने-फूलने के बावजूद अपना कोई व्यक्तित्व नहीं बना पाए हैं। दुनिया की तो छोड़ो भारतीय भाषाओं के अखबारों की तुलना में भी न तो हिंदी का कोई दैनिक नाम लेने लायक है और न ही पत्रिका। हिंदी अखबारों का जिस तरह से वाणिज्यीकरण हुआ है संभवत: नवभारत टाइम्स उसका उदाहरण है। यह उस संस्थान द्वारा निकाला गया था जिसने कभी दिनमान, धर्मयुग और सारिका जैसी पत्रिकाएं हिंदी समाज को दीं। आखिर ऐसा क्यों है कि नभाटा एक छोर पर है और टाइम्स ऑफ इंडिया अपनी निपट व्यावसायिकता के बावजूद दूसरे छोर पर। जिस व्यावसायिकता ने बेनेट कोलमैन की पत्र पत्रिकाओं को निगला उसी ने अंतत: साप्ताहिक हिंदुस्तान  और कादंबिनी को ग्रस लिया। वैसे भी जिस तरह से आज और नवजीवन, बाद के दिनों में नई दुनिया और अब जनसत्ता  जैसा अखबार अप्रासंगिक हुआ है, वह हतप्रभ करने वाला है।

उसका एक बड़ा कारण है हिंदी समाज में बौद्धिकता का एक मूल्य के रूप में विकसित न होना। दिन अब दूर नहीं लगता जब हिंदी दैनिकों का नंबर लगने वाला है और उसका कारण इंटरनेट और इलेक्ट्रॉनिक्स में दिन दूनी रात चौगुनी विकसित होने वाली तकनीकी घी का काम करेगी। हिंदी अगर अभी बची हुई है तथा कुछ दिन और खेंच लेगी तो इसका कारण उसके पाठकों की आर्थिक सीमाएं हैं, जिनके कारण वे मंहगे उपकरण, ऑन लाइन प्लेटफार्म तथा इंटरनेट सेवाएं एक सीमा से ज्यादा लेने में असमर्थ हैं। इस सबके बावजूद पत्रिकाएं बचेंगी और बची हुई हैं, तो वे वैचारिक पत्रिकाएं ही होंगी, इसलिए आज जो चुनौती है वह यह कि हम उस परिवर्तन के लिए अपने को कैसे तैयार करें। स्पष्ट है कि नई तकनीकी में अद्यतन तो रहें ही, पर साथ ही प्रिंट का जो महत्व है उसे सदा प्रासंगिक बनाए रखें। यह तभी संभव है जब हम शब्द की गरिमा को बचाए रखें यानी विचारों की गंभीरता के साथ ही समकालीन चुनौतियों का भी सामना करने की स्थिति में हों।

इस संदर्भ में हमें समर सेन के फ्रंटियर को नहीं भूलना चाहिए जो अपनी साज-सज्जा से कहीं आगे अपने विचारों और सामग्री के लिए जाना जाता था। या इसी तरह इकनॉमिक पॉलिटिकल वीकली के कम-से-कम, सचिन चौधरी और विशेषकर कृष्ण राज के संपादन के दौर को नहीं भूलना चाहिए, जब वह वाम का व्यापक मंच था।  अगर अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में कहें तो अमेरिका से जॉन बेलेमी फॉस्टर के संपादन में निकलने वाली मंथली रिव्यू, जिसकी स्थापना पॉल स्वीजी और अल्बर्ट आइंस्टाइन जैसे लोगों ने की थी या फिर तारिक अली संपादित न्यू लैफ्ट रिव्यू को उदाहरण के तौर पर याद किया जा सकता है। उदाहरण और भी हैं और दुनिया भर में फैले हैं।

हमारा कहना यह है कि छोटी पत्रिकाओं का अर्थ अगर वैचारिक या विचारधारात्मक जड़ता नहीं है, तो बड़ी व्यावसायिक पत्रिकाओं की असफल या भौंडी नकल होना भी नहीं है। इसे आत्म प्रचार का अश्लील मंच बनने से तो हर हालत में बचना ही चाहिए बल्कि वैचारिक रूप से हर जनविरोधी विचार और व्यवहार को चुनौती देने वाली पत्रिका होना चाहिए। कहने की जरूरत नहीं कि यह तभी हो सकता जब वह अपने सरोकार में सक्रिय रूप से जन समर्थक और विचारों में रेडिकल हो। यानी हर प्रगतिशील समाजिक परिवर्तन का नेतृत्व करनेवाली ।

Views: 257

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*