मार्क्सवादी विमर्श के आयाम

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– कृष्णमोहन

 

ऐजाज अहमद के चिंतन के केंद्र में बीसवीं सदी में पूरी दुनिया में चलने वाले उपनिवेश-विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन हैं। आजाद होने के बाद इनमें से कुछ ने पूंजीवाद की ओर कदम बढ़ाया और कुछ ने समाजवाद की दिशा में बढऩे का प्रयास किया। ऐजाज अहमद इन प्रयासों की बारीकी से पड़ताल करते हैं, खास तौर पर समाजवाद के सामने आने वाली कठिनाइयों की छानबीन से वह यह निष्कर्ष निकालते हैं।

 

ऐजाज अहमद की ख्याति तमाम फैशनेबल  भटकावों के बीच बुनियादी  मार्क्सवादी स्थापनाओं के लिए संघर्ष करने वाले विचारक की रही है। 1993 में प्रकाशित उनकी सबसे प्रसिद्ध किताब इन थियरी उनकी वैचारिक जद्दोजहद के सबूत पेश करती है। इस किताब में ऐजाज अहमद बीसवीं शताब्दी में हुए बदलावों, खास तौर पर दूसरे विश्वयुद्ध के बाद हुए बड़े वैचारिक और राजनीतिक बदलावों पर विस्तार से बहस करते हैं। इस किताब का उप-शीर्षक उन्होंने ‘क्लासेस’, ‘नेशन्स’, ‘लिटेरचर्स’ दिया है। इस तरह हम उनके चिंतन के तीन बुनियादी सरोकारों से परिचित होते हैं।

‘क्लासेस’ यानी ‘वर्गों’ की भूमिका और उनके दृष्टिकोणों का अध्ययन किसी भी मार्क्सवादी का सबसे प्रारंभिक और बुनियादी काम है, इसे कहने की आवश्यकता नहीं है। जहां तक ‘राष्ट्रों’ का प्रश्न है, उनके चिंतन के केंद्र में बीसवीं सदी में पूरी दुनिया में चलने वाले उपनिवेश-विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति के आंदोलन हैं, जिनमें से अधिकांश को दूसरे महायुद्ध के बाद कामयाबी मिली। आजाद होने के बाद इनमें से कुछ ने पूंजीवाद की ओर कदम बढ़ाया और कुछ ने समाजवाद की दिशा में बढऩे का प्रयास किया। ऐजाज अहमद इन प्रयासों की बारीकी से पड़ताल करते हैं, खास तौर पर समाजवाद के सामने आने वाली कठिनाइयों की छानबीन से वह यह निष्कर्ष निकालते हैं। कहना गैर-जरूरी है कि यह सारा विचार-विमर्श तीसरे बिंदु ‘साहित्यों’ के माध्यम से ही होगा, जिसमें लिखित रूप में प्रस्तुत वैचारिक और रचनात्मक साहित्य तो है ही, पढऩे, भाषण देने, विमर्श करने, यानी भाषाई व्यवहार के तमाम रूपों को भी शामिल माना गया है। किताब से दिए गए उद्धरणों का अंग्रेजी से अनुवाद मैंने ही किया है। हिंदी में उनके लेखन की अनुपलब्धता को देखते हुए इस लेख के पहले हिस्से में मैंने उनके विचारों का सार-संक्षेप प्रस्तुत किया है, और दूसरे भाग में उसकी समीक्षा की है।

 

तीसरी दुनिया और ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’

इस किताब में ऐजाज अहमद का मुख्य जोर परिवर्तन और आमजन की पक्षधरता का दावा करने वाले विचारों से बहस करने पर है। पूंजीवादी और साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों और उनके कारनामों का उल्लेख वह उपयुक्त अवसर पर करते हैं, लेकिन उन पर कोई तर्क-वितर्क नहीं करते। वह जनता और मनुष्यता की पक्षधरता का दम भरने वाले विचारों से निर्मम संघर्ष में उतरते हैं, और उन पर अपने कठोर प्रहारों के साथ-साथ तीखी व्यंग्योक्तियों का तालमेल बनाए रखते हैं। मुक्तिबोध ने कभी कहा था-

बुरे अच्छे बीच के संघर्ष से भी उग्रतर

अच्छे उससे अधिक अच्छे बीच का संगर’

इस बहसधर्मी किताब से गुजरते हुए हम समानधर्मा लोगों, मुक्ति की राह के हमसफरों के बीच छिडऩे वाले विवादों की जरूरत को नए सिरे से महसूस करते हैं।

ऐजाज अहमद के आकलन के मुताबिक दूसरे महायुद्ध के बाद और खास तौर पर साठ के दशक में बुनियादी महत्व की कुछ समानांतर प्रक्रियाएं चलीं। दुनिया में जारी राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों की सफलता के बीच एक तरफ तो राजनीतिक स्तर पर पूंजीवाद और समाजवाद के दो मॉडलों के बीच संघर्ष चला और दूसरी तरफ साहित्य, संस्कृति के क्षेत्र में ऐसे नए आंदोलन सामने आए, जिन्होंने राजनीति का विकल्प बनने का दावा किया और जिन्हें वह कुछ व्यंग्य के साथ ‘रैडिकल’ आंदोलन कहते हैं। इन आंदोलनों की मुख्य प्रेरणा 60 के दशक में एशिया और योरोप के विभिन्न देशों के विश्वविद्यालयों में चले छात्र आंदोलन थे। उन्होंने साहित्यिक-सांस्कृतिक अध्ययन की पद्धतियों को अपने राष्ट्रवादी-राजनीतिक व्यवहार का प्रमुख हिस्सा बनाया। इसी कारण इन्हें सांस्कृतिक राष्ट्रवादी भी कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि भारत में यह संज्ञा हिंदुत्ववादियों के लिए सुरक्षित हो गई है, लेकिन साहित्यिक सिद्धांतों को लेकर चलने वाले वैश्विक विमर्श में इसका अर्थ अलग है।

इस ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की विशेषताओं को चिह्नित करते हुए ऐजाज अहमद कहते हैं— ” ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की विचारधारा में एक व्यापक निहितार्थ है, जैसा कि यह साहित्यिक ‘सिद्धांत’ में प्रकट होता है कि तीसरी दुनिया के पास एक ‘संस्कृति’ और ‘परंपरा’ है, और अपनी संस्कृति और परंपरा के अंदर से बोलना अपने आप में ही उपनिकेशवाद-विरोधी कृत्य है।‘’ ( इन थियरी, पृष्ठ- 9)

इस उद्धरण में लेखक ने जिस चीज को साहित्यिक ‘सिद्धांत’ कहा है, वही दरअसल इस किताब का केंद्रीय सरोकार है। किताब की बिल्कुल शुरुआत में ही इसे स्पष्ट करते हुए लेखक कहता है- ”साहित्यिक अध्ययनों का विकास पिछली तिहाई सदी से अंग्रेजी भाषी देशों में ”सिद्धांत’’ के रूप में हुआ है।…जेराल्ड ग्राफ ने बिल्कुल सही बताया है कि सिद्धांत का यह विस्फोट ”रैडिकल असहमतियों के वातावरण’’ की देन है जो विशिष्ट सूचनात्मक सांस्कृतिक व्यवहारों और उनकी व्याख्या के तरीको के बारे में है। ”असहमति की संस्कृति’’ ज्ञान के उन नए रूपों की देन है, जो दूसरे महायुद्ध के बाद बौद्धिक जांच-पड़ताल के स्थापित तौर-तरीकों को विस्थापित करने के लिए विकसित हुई थी। युद्ध के बाद महानगरों के विश्वविद्यालयों में आए जनसांख्यिकीय बदलावों के दौरान हुए राजनीतिकरण के चलते और 1960 के दशक के छात्र आंदोलनों के कारण ये परिवर्तन हुए हैं।‘’ (वही, पृष्ठ- 1)

 

मेट्रोपोलिटन केंद्रों’ में विकसित ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’

गौरतलब है कि ऐजाज अहमद प्राय: विकसित देशों और उनके शहरों में स्थित विश्वविद्यालयों को ‘मेट्रोपोलिटन’ की संज्ञा देते हैं। यही ‘मेट्रोपोलिटन’ केंद्र इस ‘सिद्धांत’ के विकास के लिए जिम्मेदार हैं। रचनाओं, घटनाओं, परिघटनाओं, आदि के अध्ययन और उनके अपने ‘पाठ’ (रीडिंग) यानी अपनी व्याख्या को प्रतिरोध का पर्याप्त तरीका मानने वाली इस प्रवृत्ति की वर्गीय स्थिति का संकेत करते हुए वह कहते हैं – ”बड़े प्रभावशाली लोग ही मानते हैं कि के पढऩे, लिखने, बोलने आदि के द्वारा साम्राज्यवाद से छुटकारा पा सकते हैं। पूंजी के पिछड़े इलाकों के मानव समूहों का साम्राज्यवाद से हर रिश्ता उनके अपने राष्ट्र-राज्यों के माध्यम से बनता है। अलग तरीके की राष्ट्रीय परियोजनाओं और अपने राष्ट्र-राज्यों की क्रांतिकारी पुनर्रचना के बिना उन्हें साम्राज्यवाद से मुक्ति नहीं मिल सकती। यह राष्ट्र-राज्य से सीधे जा टकराने का मसला नहीं है, बल्कि वर्ग, राष्ट्र, और राज्य की नई व्याख्याओं को विकसित करने का प्रश्न है।‘’ (वही, पृष्ठ- 11)

लेखक अपने विश्लेषण के माध्यम से हमें बताता है कि 60 के दशक के छात्र आंदोलनों से उपजे इस ‘सिद्धांत’ का जोर राजनीतिक कार्यक्रमों की संस्कृति की जगह ‘पाठ’ (टेक्स्ट) केंद्रित संस्कृति की स्थापना, स्थापित संस्कृतियों की समझौताहीन आलोचना को एक नए प्रकार की वामपंथी रहस्यमयता से विस्थापित करने के साथ-साथ अतीत में मार्क्सवाद से जुड़े मुद्दों को उत्तर आधुनिक दिशा में मोड़ देने की कुशलता के साथ परिभाषित किया है। इसे ही ‘नव वाम’ की संज्ञा भी वह देता है। इस कथित ‘सिद्धांत’ में समाविष्ट अनेक चिंतनधाराओं के प्रसंग में वह बेंजामिन, फ्रैंकफर्ट स्कूल, लुकाच, भाषा विज्ञान, संरचनावाद, उत्तर संरचनावाद, वोलोशिनोव-बख्तिन सर्कल, ग्राम्शी, फ्रायड, लाकां, आदि का उल्लेख करता है।

राष्ट्र, राष्ट्रवाद और तीसरी दुनिया

ऐजाज अहमद के विश्लेषण में ‘सिद्धांत’ की उन शाखाओं को प्रमुखता प्राप्त है, जो उपनिकेश और साम्राज्य का मुद्दा उठाती हैं; और राष्ट्र, राष्ट्रवाद और तीसरी दुनिया जैसी श्रेणियों के माध्यम से खुद को परिभाषित करती हैं। राष्ट्रवाद को वह आमतौर पर राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग की अगुवाई में चलने वाली प्रक्रिया मानते हैं। यह वर्ग साम्राज्यवाद से संघर्ष के मामले में अंतत: कमजोर साबित होता है और समझौते पर बाध्य होता है। इसलिए साम्राज्यवाद से संघर्ष की जिम्मेदारी भी उनके मुताबिक समाजवाद पर ही आती है। इस बात को स्पष्ट करते हुए वह कहते हैं— ”मैं यह नहीं मानता कि राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद का दृढ़, द्वंद्वात्मक विपरीत है। यह हैसियत सिर्फ समाजवाद की है।ज् न ही मैं मानता हूं कि राष्ट्रवाद कोई एकात्मक (यूनिटरी) चीज है, जो हमेशा प्रगतिशील या प्रतिगामी होता है। कोई राष्ट्रवाद क्या भूमिका निभाएगा, यह हमेशा वर्ग शक्तियों और सामाजिक- राजनीतिक व्यवहार के तरीकों पर निर्भर करता है, जो उस शक्ति समूह (पावर ब्लॉक) को संगठित करते हैं, जिसके भीतर कोई राष्ट्रवादी पहल ऐतिहासिक रूप से प्रभावी होती है।‘’ (वही, पृष्ठ- 11)

ऐजाज अहमद के मुताबिक वि-उपनिकेशीकरण के साथ-साथ अमेरिकी पूंजीवाद का अभूतपूर्व केंद्रीकरण और उसकी साम्राज्यवादी अभिव्यक्ति युद्धोत्तर विश्व की एक प्रमुख सच्चाई थी। व्यवहार में यह देखने में आया कि जो देश अपनी मुक्ति के बाद समाजवादी राह पर नहीं चले, के क्रमश: साम्राज्यवादी ढांचे में समाते चले गए। उत्तर औपनिकेशिकता इसी प्रवृत्ति की विचारधारा थी। इसने उपनिकेशवाद के विरुद्ध संघर्ष तो किया, उससे मुक्ति भी हासिल की और साम्राज्यवाद के बारे में हायतौबा मचाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन यह सब ऊपरी रंग-रोगन साबित हुआ। ‘नव वामÓ और साहित्यिक ‘सिद्धांत’ के ‘रैडिकल’ अनुयायियों की ऐसी अनेक गतिविधियों का उल्लेख उन्होंने किया है, जिनमें के अपनी गर्मागर्म साम्राज्यवाद-विरोधी लफ्फाजी भी जारी रखते हैं और समझौते का चोर-रास्ता भी ढूंढ लेते हैं। वह बताते हैं कि मेट्रोपोलिटन वाम संरचनाओं और विकसित पूंजीवादी राज्यों ने उपनिकेशवाद से पीडि़त देशों के प्रति भेदभावपूर्ण नजरिया प्रदर्शित किया है। इस्राइल-फिलिस्तीन संघर्ष में उन्होंने पर्दे के पीछे इस्राइल से हाथ मिला लिया था और फिलिस्तीन से आंख फेरकर दक्षिण अफ्रीका के लिए घडिय़ाली आंसू बहाते रहे थे। वह लिखते हैं : ”फिलहाल चर्चा का मुख्य बिंदु उपनिकेश-विरोधी राष्ट्रवाद है। इसके दो रूप हैं – पहला, राष्ट्रवादी विचारधाराओं से युक्त तथा राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के उत्तर-औपनिकेशिक राज्य; और दूसरा, क्रांतिकारी युद्धों और समाजवादी वाम के उत्तर-क्रांतिकारी राज्य। 1970 के दशक तक यह वैश्विक संरचना का निर्धारक तत्व था। इस अवधि के भी आखिरी दशक तक क्रांतिकारी आंदोलनों का वर्चस्व था, जिन्होंने अपने उपनिकेशवाद-विरोध को बुनियादी बदलाव के राजनीतिक कार्यक्रमों का हिस्सा बनाया था। लेकिन ’60 के दशक के बाद आए मेट्रोपोलिटन वाम ने इससे यह गलत नतीजा निकाल लिया कि प्रगतिशील सामाजिक परिवर्तन उपनिकेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद का अभिन्न अंग है। इसी पृष्ठभूमि में तीन दुनियाओं के चीनी सिद्धांत ने वैश्विक मान्यता प्राप्त की, और राष्ट्रवाद तथा सांस्कृतिक सिद्धांतकारों के लिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा को साम्राज्यवादी (उत्तर-आधुनिकतावादी?) संस्कृति के स्वाभाविक विरोधी की मान्यता मिल गई।‘’ (वही, पृष्ठ- 33)

 

समाजवाद में सेंध लगाते ‘रैडिकल नववामपंथी’

लेकिन इस भ्रामक मान्यता से ये तथ्य नहीं बदलते कि 1980 के दशक के अंत तक दुनिया की संरचना में ऐतिहासिक परिवर्तन घटित हो रहे थे, क्रांति के बाद समाजवाद की राह पकडऩे वाले देशों को प्राय: सबसे निम्न स्तर की उत्पादक शक्तियों से काम लेना पड़ा, जिससे आर्थिक ठहराव की स्थिति बनी। लेकिन इन रैडिकल नववामपंथियों में शामिल कम्युनिस्ट-विरोधियों ने इसे इस रूप में प्रचारित किया कि समाजवाद आर्थिक रूप से कारगर नहीं है। इस तरह सोवियत संघ के बारे में राय बदलने लगी। ऐजाज अहमद के अनुसार अभी कुछ समय पहले तक जब क्रांतिकारी संघर्ष चल रहे थे, तो बात कुछ और थी। तब इस तथ्य को नजरअंदाज करना मुश्किल था कि हर प्रकार के क्रांतिकारी संघर्ष को सोवियत संघ का निर्णायक भौतिक और राजनयिक समर्थन मिलता रहा था। यहां तक कि ब्रेजनेव के शासनकाल के तथाकथित ‘जड़ता’ के दौर में भी बहुत सारी क्रांतियां सोवियत संघ के प्रत्यक्ष समर्थन से सफल हुईं। बहरहाल, आगे चलकर गोर्बाचेव के दौर ने इस ऐच्छिक स्मृतिभ्रंश को और तेज किया।

दूसरी तरफ जिन उत्तर औपनिकेशिक राज्यों से बहुत बड़ी-बड़ी आशाएं की गई थीं, के बहुत जल्द जड़ता, परनिर्भरता, तानाशाही क्रुरता, धार्मिक कट्टरता आदि का प्रदर्शन करने लगीं। सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की आखिरी उम्मीद ईरान की क्रांति थी, जहां खोमैनी ने असंख्य ईरानी कम्युनिस्टों और देशभक्तों का सफाया किया और ईरान को एक धर्म-शासित राज्य में बदल दिया। इस तरह साम्राज्यवाद के विकल्प के रूप में मेट्रोपोलिटन वामपंथियों के लिए समाजवाद तो पहले ही चुक गया था, उत्तर औपनिकेशिक राज्य भी नहीं बच सके।

 

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बनाम उत्तर संरचनावाद

ऐजाज अहमद बताते हैं कि ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का संबंध तीन दुनियाओं के सिद्धांत के साथ अनिवार्यत: होता है। इसके बाद राष्ट्रवाद के विरोध का विचार एक पूरी तरह से अलग सैद्धांतिक ढांचे ‘उत्तर संरचनावाद’ से प्रेरित होकर आता है। उत्तर संरचनावाद प्रत्यक्षत: तीन दुनियाओं के सिद्धांत का विरोधी है, इसके बावजूद वह इन्हें समेटने का प्रयास करता है। मार्क्सवाद को ठुकराने के क्रम में इस विचारधारा ने ऐतिहासिकता से अपना नाता पूरी तरह से खत्म कर लिया। नतीजा यह निकला कि नई जमीन तोडऩे निकला यह अवांगार्द (हिरावल) साहित्य-सिद्धांत आंतरिक रूप से संगत कोई संरचना तक तैयार न कर सका।

मार्क्सवाद-विरोध से भी बड़ी वजह इस असंगति की यह रही कि यह विचार दुनिया मे तेजी से हो रहे राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों से संचालित था। ’70 के दशक में साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रवाद गतिशील था, तो तीन दुनियाओं के सिद्धांत के रूप में उसकी स्थापना हुई, लेकिन ’80 के दशक में जब यही राष्ट्रवाद निरंकुश और दमनकारी हो गया, तो उसे ठुकराने की जरूरत उत्तर संरचनावाद में प्रकट हुई। ऐसा करते हुए उत्तर संरचनावाद किसी भी प्रगतिशील या पतनशील राष्ट्रवाद के बीच अंतर नहीं करता और सबको सिर्फ राष्ट्रवाद होने के कारण खारिज कर देता है।

’60 के बाद पैदा हुए ‘पश्चिमी मार्क्सवाद (नव वामपंथियों को यह नाम पेरी एंडरसन ने दिया था) की बहुत सी प्रवृत्तियों ने आगे चलकर उत्तर संरचनावाद की राह आसान की। मसलन, माक्र्यूस ने वर्ग की श्रेणी का परित्याग करके कामुकता और सौंदर्य के क्षेत्र में क्रांतिकारी गतिशीलता की खोज की। अडोर्नो की चरम निराशावादी कृति ‘मिनिमा मोरलिया’ ने सार्त्र के ‘क्रिटिक ऑफ डाइलेक्टिकल रीजन’ के सहयोग से यह विचार विकसित किया कि ‘अभाव’ की श्रेणी के चलते यह अनिवार्य है कि कोई भी विद्रोही समूह सत्ता पाने के बाद नौकरशाही में परिवर्तित हो जाएगा। ‘सिद्धांत’ पर उल्लेखनीय प्रभाव रखने वाले अल्थ्यूसर का संरचनावाद से रिश्ता जगजाहिर है, लेकिन विचारधारा को ‘अचेतन’ ‘प्रतिनिधित्व की प्रणाली के रूप में’, ‘इंसान और दुनिया के बीच जिए गए संबंध के रूप में’, और ‘ऐसी चीज के रूप में जो किसी राज्य के सभी अनुमानित उपकरणों को संतृप्त कर देती है’, प्रस्तुत करके उसने इसे मिशेल फूको द्वारा प्रवर्तित उत्तरसंरचनावादी विमर्श के समतुल्य बना दिया। ब्रिटिश-अमेरिकी अकादमिक जगत में पश्चिमी माक्र्सवाद का आगमन उल्लेखनीय रूप से ’70 के दशक में उत्तरसंरचनावाद के साथ हुआ।

 

तीसरी दुनिया के साहित्य पर अमरीकी वर्चस्व

‘तीसरी दुनिया का साहित्य’ बकौल ऐजाज अहमद इंग्लैंड और अमेरिका के महानगरों में स्थित विश्वविद्यालयों की निर्मिति है। इस पर संदेह करने की प्रमुख वजह इन विश्वविद्यालयों का विकासशील देशों के बौद्धिक जगत पर कायम वर्चस्व है। दोनों के बीच का रिश्ता, खासकर अंग्रेजी भाषा के माध्यम से, शासक-शासित-संबंध जैसा हो जाता है। लैटिन अमेरिका में छपे किसी उपन्यास को चुनकर उसका अंग्रेजी में अनुवाद कराने से लेकर किसी अन्य देश, मसलन, भारत के विश्वविद्यालयों में इसे ‘तीसरी दुनिया’ के प्रतिनिधि उपन्यास की हैसियत से स्थापित करने की प्रक्रिया इसी वर्चस्व के तहत संचालित होती है। आमतौर पर इस कथित तीसरी दुनिया की भाषाओं से ‘पहली दुनिया’ के इन महानगरीय बुद्धिजीवियों और लेखकों का परिचय तक नहीं होता। इसलिए खास दृष्टि से चुनी हुई बहुत थोड़ी सी कृतियां अनूदित होकर इस प्रतिष्ठान द्वारा स्वीकृत-पुरस्कृत होने की दहलीज पर पहुंच पाती हैं। इसके अलावा अपनी मातृभाषाओं से मुंह मोड़कर सीधे अंग्रेजी में लिखने वाले लेखक भाग्यशाली होते हैं कि उन्हें इस प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ता। पहली दुनिया के लेखकों को भी इसी में आसानी होती है। इस वजह से उन्हें तुरंत अपने देश का प्रतिनिधित्व करने का गौरव मिल जाता है।

जहां तक साहित्यिक ‘सिद्धांत’ का सवाल है, ऐजाज अहमद उसका खाका खींचते हुए हमें बताते हैं कि दो महायुद्धों के बीच के समय में अंग्रेजी साहित्य में चार प्रमुख प्रवृत्तियों का जोर था। ये थीं – आई. ए. रिचर्ड्स की व्यावहारिक आलोचना, टी. एस. इलियट की रूढि़वादी-कैथोलिक-राजतंत्रवादी आलोचना, आधुनिकतावाद की कुछ अवांगार्द प्रवृत्तियां, और अमेरिका में नई-नई उभर रही रैंसम और टेट आदि की ‘नई समीक्षा’। इन प्रवृत्तियों का प्रतिवाद करने की रुचि इंग्लैंड में अधिक थी, क्योंकि वहां सामाजिक चेतना से संपन्न साहित्यिक अध्ययनों की परंपरा पुरानी थी। एफ. आर. लेविस की अगुवाई में ‘स्क्रुटिनी’ ग्रुप ने व्यावहारिक समीक्षा के शिक्षाशास्त्रीय महत्व को समझते हुए इसे साहित्यिक विश्लेषण के वस्तुगत मानदंड में बदल दिया, और इस प्रकार उन्होंने साहित्यिक ‘आस्वाद’ की अभिजात प्रवृत्तियों को विस्थापित कर दिया।

लेविस और उनके ग्रुप की मध्यवर्गीय जड़ों, और साहित्यिक अध्ययन को इंग्लैंड की सांस्कृतिक मुक्ति के सुनिश्चित मार्ग की तरह देखने के लगभग धार्मिक रवैये के बावजूद इसमें रैडिकलवाद का कुछ लोकप्रियतावादी किस्म का अंश भी था। इसी लोकप्रियतावादी तत्व को रेमंड विलियम्स ने अपनी श्रमिकवर्गीय पृष्ठभूमि और उस खास किस्म के रैडिकलवाद से जोड़ा, जो उसे कम्युनिस्ट पार्टी में ले गया था। अगले बीस साल तक ‘कल्चर एंड सोसाइटी’ से लेकर ‘द कंट्री एंड द सिटी’ तक उसने अनेक अध्ययन प्रस्तावित किए। बाद वाली किताब को ऐजाज अहमद अंग्रेजी समीक्षा की सबसे प्रभावशली कृति मानते हैं। हालांकि, ब्रिटिश अकादमिक जगत में रेमंड विलियम्स को वह महत्व कभी नहीं मिल सका, जो टी. एस. इलियट को मिला। लेकिन यह आसानी से कहा जा सकता है कि लेविस की मध्यवर्गीयता और विलियम्स के माक्र्सवादी संदर्भों के बीच ब्रिटिश बौद्धिकता का अगुवा तबका शीतयुद्ध के दौर में भी साहित्य की सामाजिक भूमिका की स्थापना की ओर बढ़ता रहा। दूसरे शब्दों में, जब अमेरिका में ‘नई समीक्षा’ के विरुद्ध उपजी प्रतिक्रिया ‘विखंडनवाद’ की ओर अग्रसर हुई, इंग्लैंड में रिचर्ड्स और लेविस के आलोचकों ने वामपंथी दिशा अपनाई।

अमेरिकी समाज को ऐजाज अहमद ऐतिहासिक कारणों से अधिक रूढि़वादी, कुलीनतावादी, और यहां तक कि नस्लवादी मानते हैं। दास प्रथा जैसी बुराई को अपनी आजादी के बाद बहुत लंबे समय तक बनाए रखने की जो वजहें अमेरिकी समाज में थीं, उन्होंने ऐसी ही मनोभूमि का निर्माण किया था। फ्रांस की ‘जैकोबिन’ और इंग्लैंड की ‘क्रामकेलियन’ मनोवृत्ति के मुकाबले यह अमेरिका का पिछड़ापन ही कहा जाएगा। इसी पृष्ठभूमि में वहां ‘नई समीक्षाÓ का उदय होता है। इसने प्रत्येक कृति को निरपेक्ष रूप से स्वायत्त और ‘साहित्य’ को ‘एक खास तरह का ज्ञान रखने वाली अलग भाषा’ मानते हुए ‘पाठ’ (रीडिंग) की जो संस्कृति विकसित की, वह अमेरिकी साहित्यिक अध्ययन के क्षेत्र में चौथाई सदी तक छाई रही।

गौरतलब है कि 1940 के दशक के अंत तक ‘नई समीक्षा’ अपने उत्कर्ष पर पहुंच गई थी। यही समय है जब अमेरिका ने शीतयुद्ध छेड़ा और सख्त कम्युनिस्ट विरोधी ‘मैकार्थीवाद’ की शुरूआत की। 50 के दशक के अंत में जब उसका वर्चस्व गिरावट के दौर में पहुंचा, तो मैकार्थीवाद का भी उतार हो रहा था, और आइजनहावर के कठोर सिद्धांतों ने केनेडी-युग के लिए जगह खाली कर दी थी। अमेरिकी उदारतावाद का यह वही सुनहरा जमाना था जिसने वियतनाम युद्ध छेड़ा था।

नई समीक्षा के विरुद्ध उसी दौर में पहली असहमति नार्थोप फ्राई जैसे आलोचकों के माध्यम से सामने आई। उन्होंने साहित्य को ‘विशेष ज्ञान रखने वाली विशेष भाषा’ के विचार को बरकरार रखा, लेकिन उसकी निरपेक्ष स्वायत्तता से इनकार कर दिया। उनका कहना था कि किसी व्यापकतर आख्यान के बगैर कोई रचना अपना अर्थ नहीं प्रकट कर सकती। साफ तौर पर यह ‘टेक्स्ट’ को ‘कॉन्टेक्स्ट’ में समझने का आग्रह था। सभ्यताओं की गहन संरचनाओं के रूप आकार के अंदर ही रचनाकार अपनी बातों को भाषा के माध्यम से प्रेषित करता है। इस परंपरा ने आगे चलकर ‘संरचनावाद’ की राह आसान कर दी। साथ ही साथ इसने ‘विमर्श’ के उत्तरसंरचनावादी सिद्धांत के लिए भी जगह बनाई, जिसमें यह माना जाता था कि भाषा ही मनुष्यों के माध्यम से बोलती है और मानव तत्व (ह्यूमन एजेंसी) का निर्माण भाषा ही के द्वारा हुआ है।

 

अमेरिकी समाज और साहित्य में परिवर्तन का दौर

60 के दशक में और उसके बाद अमेरिकी साहित्यिक परिदृश्य को आच्छादित करने वाले हेरल्ड ब्लूम और पॉल दी मान जैसे व्यक्तित्वों का उभार हुआ। इसी दौरान अमेरिकी शासन डलेस (जॉन फास्टर डलेस, ’50 के दशक में अपने कम्युनिस्ट विरोध के लिए कुख्यात अमेरिकी राज्य-सचिव) के कट्टरवाद से केनेडी के ‘उदार’ साम्राज्यवाद में, दूसरे शब्दों में कोरिया से वियतनाम में, रूपांतरित हुआ। आगे चलकर ‘विखंडनवाद’ के उभार से ब्लूम को काफी पीड़ा हुई, लेकिन वह इसका समुचित विरोध न कर सका; क्योंकि, लेखक के मुताबिक, सैद्धांतिक प्रश्नों का सामना करने की उसकी तैयारी पर्याप्त नहीं थी।

वियतनाम युद्ध के विरोध में अमेरिका में जो जन-ज्वार उठा, वह इसे कोई साम्राज्यवाद-विरोधी स्वरूप देने में असफल रहा। उसकी चेतना बस इतनी ही थी कि अमेरिकी सेना को वियतनाम से बुला लेने के बाद वह शांत पड़ गई। लेकिन इससे हरकत में आई सामाजिक शक्तियों ने नारीवाद और ब्लैक आंदोलन (हिंदी में इसके लिए ‘ अश्वेत’ चलता है जो कि पूरी तरह भ्रामक शब्द है। किसी बेहतर विकल्प के अभाव में मैं मूल शब्द ‘ब्लैक’ का इस्तेमाल करना उचित समझता हूं) के क्षेत्र में नए मुकाम तय किए। अमरीकी रैडिकलवाद का गठन इन तत्वों के साथ हुआ है।

इस दौरान अमेरिकी अकादमिक जगत ने पहली बार नस्ल और लिंगभेद के सवालों का सामना किया। पहली बार इस बात की तरफ उनका ध्यान गया कि उनका अब तक का अध्ययन दुनिया के कितने छोटे से हिस्से, योरोप और उत्तरी अमेरिका तक सीमित था। इस अहसास से उन्होंने एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका पर जब दृष्टि डाली, तो ‘तीसरी दुनिया का साहित्य’ नामक एक नई श्रेणी को जन्म दिया। 60 के दशक में एशिया और योरोप के विकसित शिक्षा केंद्रों को हिला देने वाले छात्र-आंदोलनों के साथ-साथ चीन की सांस्कृतिक क्रांति (1966-76) ने भी तीसरी दुनिया नामक नई श्रेणी को स्थापित करने में भूमिका निभाई।

इस प्रकार रैडिकलवाद के तीन चेहरे उभरे – ब्लैक, नारी और तीसरी दुनिया। वह कहते हैं – ”किसी भी रैडिकलवाद के सामने, चाहे वह ब्लैक हो, नारीवादी हो, या तीसरी दुनियावादी हो, सबसे बुनियादी और निरंतर बना रहने वाला खतरा उसका बुर्जुआकरण है। इस तरह के रैडिकल आंदोलन जिन तीन शीर्षक-संकेतों के अंतर्गत पूरी तरह से समेट लिए गए, के हैं— तीसरी दुनियावादी राष्ट्रवाद, सारतत्ववाद (एसेंशियलिज्म), और बिखराव और टूट-फूट के मौजूदा फैशनेबल सिद्धांत, जैसे- ”विषय की मृत्यु’’ (डेथ आफ सब्जेक्ट)। यानी एक तरफ तो सुविचारित विशिष्टता और स्थानीयतावाद की राजनीति और दूसरी तरफ, जैसा कि कुछ उत्तरसंरचनावादी मानते हैं, सामाजिक की मृत्यु, विषय की स्थिर स्थितियों की असंभाव्यता, यानी राजनीति मात्र की ही मृत्यु। हाल के वर्षों में तीसरी दुनियावादी विचार के उत्तरसंरचनावाद के साथ मेलजोल के कई प्रयास सामने आए हैं।‘’ (वही, पृष्ठ-64-5)

यहां ‘सब्जेक्ट’ के पर्याय के रूप में मैंने ‘विषय’ का चुनाव किया है, लेकिन इसका वास्तविक अर्थ इसके साथ ‘मरने वाली’ ‘सामाजिक’ और ‘राजनीतिक’ जैसी श्रेणियों के साथ इसे रखने से प्रकट होता है। दूसरे शब्दों में, ‘डेथ ऑफ सब्जेक्ट’ का अर्थ है, जनता और उसके लिए सोचने और काम करने वाले बौद्धिक कार्यकर्ता की मौत। उत्तरसंरचनावाद की अपनी राजनीति का तकाजा भी यही है।

ऐजाज अहमद के अनुसार ’70 के दशक के अंत तक आते-आते उपनिकेशवाद विरोधी क्रांतियों की आंधी थम गई और इसकी समाजवादी धारा को घेरने और काबू करने में साम्राज्यवाद सफल हुआ। ’80 के दशक में इसीलिए राष्ट्रीय बुर्जुआ की अगुवाई में उत्तरऔपनिकेशिक राष्ट्रवाद मजबूत हुआ, जिसने तीसरी दुनियावाद की नींव डाली। ’80 के दशक के परवर्ती वर्षों में ऐसे अवांगार्द सिद्धांतकार सामने आए, जिन्होंने घोषणा की कि राष्ट्रवाद की आलोचना करने के लिए उत्तर संरचनावाद और विखंडनवाद मजबूत वैचारिक स्थितियां हैं। एडवर्ड सईद ने रंजीत गुहा और सबाल्टर्न इतिहास की पूरी परियोजना को उत्तरसंरचनावादी माना है।

यहां फूको की कुछ मान्यताओं पर गौर करना होगा, जो उत्तरसंरचनावाद के एक प्रमुख प्रेरक विचारक हैं-एक, जो भी खुद को ‘तथ्य’ बताता है, वह विमर्श द्वारा प्रस्तावित ‘सत्य-प्रभाव’ (ट्रुथ-इफेक्ट) है। दो, जो भी ‘शक्ति’ का प्रतिरोध करने का दावा करता है, वह खुद ‘शक्ति’ बन जाता है। बकौल ऐजाज अहमद, इसके बाद ‘सिद्धांत’ के लिए ‘प्रभावों’ को गिनने और उसे निगलने के अलावा कोई काम नहीं बचता। यह खुद विचारों का बाजार बन जाता है, जहां ‘सिद्धांत’ का किसी उपयोगशुदा माल की तरह थोक में उत्पादन और आपूर्ति होती है।

फ्रेडरिक जेम्सन के एक निबंध ‘थर्ड वल्र्ड लिटेरचर इन द एरा ऑफ मल्टीनेशनल कैपिटलिज्म’ के फुटनोट में तीसरी दुनिया के संज्ञानात्मक सौंदर्यशास्त्र की शब्दावली के प्रयोग पर सवाल खड़े करते हुए ऐजाज अहमद कहते हैं कि योरोप या अमेरिका का शायद ही कोई ऐसा लेखक होगा, जो कथित तीसरी दुनिया की कोई भाषा जानता हो। इन देशों की भाषाओं से अंग्रेजी अनुवाद भी अपवादस्वरूप ही हो पाता है। ऐसे में इन देशों के अंग्रेजी में लिखने वाले लेखक अनायास इनके प्रतिनिधि का दर्जा पा लेते हैं, जैसा कि सलमान रुश्दी और एडवर्ड सईद के मामले में हुआ है। इसके अलावा फ्रेडरिक जेम्सन की अपनी वैचारिकी में तीसरी दुनिया और पहली दुनिया एक दूसरे के बायनरी विपरीत हैं। तीसरी दुनिया को वह उपनिकेशवाद और साम्राज्यवाद के ‘अनुभव’ के आधार पर परिभाषित करते हैं, राष्ट्रवाद जिसकी अनिवार्य परिणति है। इसके बाद उनका प्रसिद्ध सूत्र आता है- तीसरी दुनिया की सभी रचनाओं को आवश्यक रूप से राष्ट्रीय रूपक की तरह पढ़ा जाना चाहिए। इस प्रकार इन तीनों का समीकरण अविभाज्य है।

उल्लेखनीय है कि जेम्सन के अनुसार पहली दुनिया पूंजीवादी राज्यों का समूह है, और दूसरी दुनिया समाजवादी राज्यों का। तीसरी दुनिया में शेष बचे हुए देश हैं, जिनकी विशेषता उपनिकेशवाद और साम्राज्यवाद का उसका ‘अनुभव’ है। ऐजाज अहमद की आपत्ति यह है कि इस वर्गीकरण की पहली दो श्रेणियां मानवीय प्रयासों का परिणाम हैं, जबकि तीसरी श्रेणी केवल निष्क्रिय भोक्ता होने की स्थिति को व्यक्त करती है। भारत का उदाहरण देकर वह बताते हैं कि उसमें पहली और दूसरी दुनिया के कई देशों से अधिक मात्रा में पूंजीवादी विकास भी हुआ है, और समाजवादी विकास भी। इससे मिलती-जुलती स्थिति ब्राजील, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों की भी है। इसलिए इन्हें पहली दुनिया का बायनरी विपरीत बताना वास्तविकता से मेल नहीं खाता। उनका कहना है कि तीसरी दुनिया के सामने दो ही विकल्प हैं, राष्ट्रवाद या अमरीकी उत्तर आधुनिक संस्कृति। ऐजाज अहमद का प्रश्न है कि उनके सामने दूसरी दुनिया में शामिल होने का विकल्प क्यों नहीं हो सकता। वह जेम्सन को याद दिलाते हैं कि तीसरी दुनिया के वही राष्ट्र अमरीकी साम्राज्यवाद का प्रतिरोध कर सके, जिन्होंने समाजवाद की राह चुनी। बाकी राष्ट्रवादियों को अमेरिकी संस्कृति से जुडऩे में वक्त नहीं लगा। अगर मानव समाजों की व्याख्या उत्पादन संबंधों के बजाय अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्व के ‘अनुभवों’ के आधार पर की जाएगी और उन्हें पूंजीवाद और समाजवाद के बीच संघर्ष के बाहर हमेशा के लिए त्रिशंकु की तरह लटकने के लिए छोड़ दिया जाएगा, उनके बीच एकता और संघर्ष के अन्य बिंदुओं की जगह राष्ट्रीय उत्पीडऩ का अनुभव ही उन्हें एकताबद्ध करेगा, तो के इतिहास के निष्क्रिय शिकार के रूप में देखे जाने को अभिशप्त होंगे।

 

तीसरी दुनिया’ में ‘तीसरे’ का अभिप्राय

इस बहस को आगे बढ़ाते हुए ऐजाज अहमद एक वैकल्पिक तर्क देते हैं – मान कर देखें कि हम तीन दुनियाओं में नहीं बल्कि एक ही दुनिया में रहते हैं, जिसमें पूंजीवाद और समाजवाद के बीच युद्ध छिड़ा हुआ है। कहीं पूंजीवाद जीतता है, जिसे जेम्सन पहली दुनिया कहते हैं; तो कहीं समाजवाद जीतता है, जिसे वह दूसरी दुनिया कहते हैं; और जहां अभी पलड़ा किसी के पक्ष में निर्णायक तौर पर नहीं झुका है, उसे तीसरी दुनिया कहते हैं। यह विचार दुनिया की अधिक यथार्थवादी समझ देता है। इस दृष्टि से सोचने पर राष्ट्रवाद पर अतिरिक्त जोर देने की जरूरत नहीं रह जाती और न ही राष्ट्रीय रूपक की कोई खास अहमियत होती है।

दूसरी तरफ जेम्सन का विचार है कि औद्योगिक समाजों में ‘व्यक्तिगत’ और ‘सामाजिक’ का पूर्ण विलगाव हो जाता है और पूर्व औद्योगिक समाजों में व्यक्तिगत और सामूहिक के तत्व परस्पर घुले-मिले होते हैं। इसीलिए तीसरी दुनिया के देशों की कथाओं में व्यक्तिगत के साथ सामूहिकता के कुछ आशय भी सम्मिलित हो जाते हैं। इसे ही उन्होंने राष्ट्रीय रूपक होने का कारण माना है। ऐजाज अहमद इस बात के लिए उनको आड़े हाथों लेते हैं कि के अपनी धारणाएं बहुत जल्दी-जल्दी बदलते हैं। ‘सामूहिक’ और ‘राष्ट्रीय’ में बहुत बड़ा फर्क है। 19वीं और 20वीं सदी के भारत की अनेक कथा-रचनाओं का हवाला देकर उन्होंने बताया कि के कतई राष्ट्रीय रूपक नहीं हैं। इनमें मिर्जा हादी रुसवा की उमराव जान अदा  मोहम्मद हुसैन आजाद, इंशा अल्ला खां इत्यादि 19वीं सदी के बड़े लेखकों से लेकर 20 वीं सदी के उपन्यासकार अब्दुल्ला हुसैन भी शामिल हैं।

इस संबंध में कहने की बात यह है कि बहस में अगर कोई पक्ष अपनी बात का स्पष्टीकरण दे, तो उसे ‘फेस वैल्यू’ पर लेना चाहिए, और यथासंभव स्वीकार करना चाहिए, बशर्ते उसे येन-केन-प्रकारेण हराने की मंशा न हो। क्योंकि इसके बगैर इस बात की संभावना बनी रहती है कि आप अपने प्रतिपक्ष के विचारों के किसी हीनतर पक्ष से बहस करते रहे जाएं, और अपने हिसाब से उससे सुर्खरू भी हो जाएं; लेकिन वास्तव में उस बहस से कुछ भी नहीं बदलता। इस बहस में भी फ्रेडरिक जेम्सन की बात को ऐजाज अहमद तोड़ते-मरोड़ते हुए प्रतीत होते हैं। जैसे, उन्होंने जेम्सन पर परोक्ष रूप से ईसाइयत की परंपरा को रूपक के माध्यम से पुनर्जीवित करने का आरोप लगा दिया है, क्योंकि मध्यकाल में एलिगरी या रूपक का इस्तेमाल धार्मिक बोधकथाओं को प्रस्तुत करने के लिए बहुतायत से किया जाता था, जिसके विरुद्ध 19वीं सदी के अंग्रेजी साहित्य में विद्रोह हुआ और सेक्युलर परंपरा की स्थापना हुई थी। अब यह कुछ ऐसी ही बात है जैसे आज हिंदी में कोई रूपक की बात करे, तो उस पर पंचतंत्र या पुराणों की परंपरा को पुनर्जीवित करने का आरोप लगा दिया जाए। बीसवीं सदी में भी अंग्रेजी साहित्य में रूपक-आधारित बेहतरीन कृतियों की रचना हुई है। अल्बैर कामू का प्लेग और जार्ज ऑरकेल का एनिमल फार्म  इनमें खासतौर पर उल्लेखनीय हैं।

फिलहाल हमारा विषय 19वीं और 20वीं सदी का हिंदी-उर्दू साहित्य है, तो इसमें से बहुत चुने हुए दो-तीन रचनाकारों के माध्यम से रूपक की अहमियत पर बात की जाएगी।

 

हिंदी-उर्दू साहित्य में ‘रूपकों’ की प्रवृत्ति

सबसे पहले ऐजाज अहमद के प्रिय शायर मिर्जा गालिब को लेते हैं। उनकी शायरी के बेशतर हिस्से को बतौर राष्ट्रीय रूपक ही समझ जा सकता है। मसलन उनकी ये मशहूर गजल देखें:

गुल-ए-नगमा हूं पर्दा-ए-साज

मैं हूं अपनी शिकस्त की आवाज

यह महज किसी आशिक की आवाज नहीं है, एक पराजित और विनष्ट होती हुई सभ्यता की भी आवाज है। इस शेर को अगर केवल रवायती मुहावरे में समझने की कोशिश करेंगे तो कोई घिसा-पिटा अर्थ भले ही हाथ लग जाए, इसका वास्तविक वैभव हमसे दूर ही रह जाएगा। अगला शेर देखें:

हूं गिरफ्तार-ए-उल्फत-ए-सय्याद

वरना बाकी है ताकत-ए-परवाज

यहां बात और खुल जाती है। ये जो शिकारी है, जिसने हमें कैद कर रखा है, हम दरअसल उसके सम्मोहन में उलझ गए हैं। वरना उडऩे की ताकत अभी खत्म नहीं हुई है। हम भारतीय लोग 19वीं सदी में ब्रिटिश मान-मूल्यों से ऐसे ही सम्मोहित हो गए थे। आज भी औपनिकेशिक विरासत हमारे ऊपर सवार है, क्योंकि राजनीतिक रूप से हम भले ही आजाद हो गए, लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर आज भी ब्रिटिश-अमेरिकी संस्कृति के दीवाने हैं। इसीलिए ज्ञान के किसी भी क्षेत्र में हम कोई मौलिक काम कर पाने में असमर्थ हो चुके हैं।

गालिब की एक अपेक्षाकृत कम उद्धृत की गई गजल के चंद शेर हैं-

गुलशन में बंदोबस्त बरंगे-दिगर है आज

कुमरी का तौक हल्का-ए-बेरूने-दर है आज

आता है एक पारा-ए-दिल हर फुगां के साथ

तारे-नफस कमंदे-शिकारे-असर है आज

अय आफियत किनारा कर अय इंतिजाम चल

सैलाबे-गिरिया दर पै-ए-दीवारो-दर है आज

पहले शेर का आशय है कि बगीचे का इंतजाम आज दूसरे ढंग का हो गया है। पहले जो फंदा चिडिय़ा के गले के इर्द-गिर्द था, अब वह दरवाजे का दायरा बन गया है। ऊपरी तौर पर तो चिडिय़ा अपना गीत गाने के लिए आजाद है, लेकिन यह आजादी एक बड़े कैदखाने के अंदर की आजादी है। आबो-हवा में उन्मुक्तता की जगह घुटन भर गई है, और पूरा माहौल प्रदूषित हो गया है। यह फर्क शासक-वर्गीय कठोरता और उदारता का है। 19वीं सदी में अंग्रेजों ने इन हथकंडों का बखूबी इस्तेमाल किया था। हमारे मौजूदा शासक भी अक्सर इसका स्वांग भरते दिख जाते हैं। यहां दूसरे (दिगर) ढंग के ‘इंतजाम’ की बात में व्यंग्य और विडंबना है। अव्वल तो वह पहले से अलग है नहीं, और फिर उसे आजाद करने वाला समझा जा रहा है, जबकि वह गुलामी ही को और गहराई देता है।

दूसरे शेर में इसी परिस्थिति से उपजी मन:स्थिति का बयान है। इस स्थिति में हर कराह के साथ दिल का एक टुकड़ा बाहर आ जाता है। इससे प्रभावित व्यक्ति की सांस का हर तार मानो कमान बन गया है, जिससे छूटने वाला तीर उसके दिल में पैबस्त हो जाता है।

तीसरे शेर में भी इसी तकलीफदेह सचाई पर प्रतिक्रिया व्यक्त की है- ऐ दिल की शांति तू अपनी राह ले और ऐ व्यवस्था तू चलती रह। आंसुओं की बाढ़ आज घर-बार को ढहा देने पर उतारू है। व्यवस्था यानी वही ‘नया बंदोबस्त’। उसे चलते रहना है, क्योंकि कोई और विकल्प नहीं है; लेकिन उसके साथ शांति का बने रह पाना नामुमकिन है। अशांति होकर रहेगी। दुख के इस पहाड़ का मुकाबला आंसुओं की नदी में आई बाढ़ ही कर सकती है। यही बाढ़ अन्याय पर आधारित इस घर की दीवारों को ढहाने में कामयाब हो सकती है।

इस विषय पर बहुत विस्तार से बात की जा सकती है, लेकिन यहां नमूने के रूप में ही कुछ चीजें प्रस्तुत की जा रही हैं। बीसवीं सदी के हिंदी कवि मुक्तिबोध की कविता ‘ब्रह्मराक्षस’ की ये अंतिम पंक्तियां हैं:

पिस गया वह भीतरी/औ’ बाहरी दो कठिन पाटों बीच, / ऐसी ट्रैजेडी है नीच!!

बावड़ी में वह स्वयं /पागल प्रतीकों में निरंतर कह रहा /वह कोठरी में किस तरह / अपना गणित करता रहा/ औ’ मर गया../ वह सघन झाड़ी के कंटीले/ तम-विवर में/ मरे पक्षी-सा/ बिदा ही हो गया/वह ज्योति अनजानी सदा को सो गई /यह क्यों हुआ!/क्यों यह हुआ!!

मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य/होना चाहता/ जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,

उसकी केदना का स्रोत/ संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक/ पहुंचा सकूं।

यहां ‘ब्रह्मराक्षस’ नाम का यह पात्र ज्ञान के लिए उन्मुख भारतीय परंपरा का ही रूपक है, जो आंतरिक स्तर पर सामंती और बाहरी स्तर पर औपनिवेशिक, दो कठिन पाटों के बीच पिस कर खत्म हो जाता है। (इस पंक्ति में कुछ आपत्ति है, अभी तक की व्याख्या इससे अलग है, कृपया देख लें)

ऐजाज अहमद ने जिन रचनाकारों का नाम अपने मत के समर्थन में लिया है, उनमें बीसवीं सदी के ही अब्दुल्ला हुसैन भी हैं। क्लासिक का दर्जा रखने वाले उनके उपन्यास उदास नस्लें  को वर्षों तक मैं विश्वविद्यालय की कक्षाओं में पढ़ाता रहा हूं और ये दावे के साथ कह सकता हूं कि राष्ट्रीय रूपक के तौर पर पढ़े बगैर इस उपन्यास में आने वाले घटनाक्रमों – 1857 के विद्रोह में एक सरकारी कर्मचारी रोशन अली खां के हाथों कर्नल जानसन की जान बचने, फिर इस सेवा के बदले ब्रिटिश सरकार से मिली जमीन पर ‘रोशनपुर’ के बसने, उस नए बसे गांव में रोशन अली खां का अपने मुगल दोस्त मिर्जा मुहम्मद बेग को रहने के लिए आमंत्रित करने, मुहम्मद बेग का अच्छी खासी जमींदारी के बावजूद शौकिया लोहे की शिल्पकारी करने, उनकी मौत के बाद उनके बेटे नियाज बेग को इसी शिल्पकारी के कारण राजद्रोह के आरोप में जेल जाने, और उसके बेटे नईम का अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की जंग में शामिल होने जैसे प्रसंगों की कोई सार्थक व्याख्या नहीं हो सकती। यह आम तौर पर समूची 19वीं सदी में और खास तौर पर ’57 के विद्रोह के दमन के बाद अंग्रेजों के हाथों अपने वफादार लोगों के माध्यम से पुनर्गठित हिंदुस्तान की कथा है।

रोशनपुर इसी नए हिंदुस्तान का रूपक है। इसकी अपनी प्रभुत्वशाली परंपरा अंग्रेजों के एहसानमंद और उनकी दी हुई जागीरों और वजीफों पर पलने वालों की है, तो दूसरी वास्तविक भारतीयता की परंपरा भी है, जो इससे बेनियाज होकर अपनी मेहनत से सच्चे हिंदुस्तानी की तरह जीने वाले लोगों के जीवन में दिखती है। इसकी नुमाइंदगी मुगल परिवार करता है। शिल्पकारी का शौक एक ऐसा सूत्र है, जो उन्हें भारतीयता से जोड़ता है। हमारे देश में शास्त्रज्ञान का उतना ही महत्व रहा है, जितना कि कला-कौशल का। अपने काम में दक्ष कोई किसान, कोई शिल्पकार, कोई जुलाहा, कोई राजमिस्त्री, या कोई कातिब किसी विद्वान से कम नहीं समझा जाता था। यह अंग्रेजों की बनाई हुई व्यवस्था थी, जिसमें केवल औपचारिक शिक्षा को मान्यता मिली, और बाकी सबको अशिक्षित और अज्ञानी मान लिया गया। रोशनपुर का यह मुगल परिवार शिल्पकारी में दक्ष है। आगे चलकर मुहम्मद बेग का बेटा नियाज बेग लोहे की खूबसूरत बंदूकें बनाने लगता है, जिसे पुलिस की चेतावनी के बावजूद नहीं छोड़ता और राजद्रोह के आरोप में तेरह साल की सजा काटता है। ध्यान रहे कि हिंदुस्तान के लोगों के हथियार रखने के हक को ब्रिटिश सरकार ने ही छीना था। आज जिस लाइसेंस प्रणाली को हम स्वाभाविक समझते हैं, वह गुलाम देशों की ही खासियत है, जो अब तक चली आई है। बहरहाल, आगे चलकर ये दोनों परंपराएं परस्पर घुलती-मिलती भी हैं, आजादी के लिए लड़ती हैं, और अपनी राष्ट्रीय नियति में साझेदारी करती हैं।

कहने का आशय यह कि रूपक एक शैली है, जिसमें आधुनिक युग के अनुरूप भी रचनाकर्म होता है। उस पर मध्ययुग का ठप्पा लगा देना उचित नहीं है। जेम्सन ने जिस संदर्भ में कहा है कि पूर्व-औद्योगिक समाजों में व्यक्तिगत कथा में सामूहिक कथा शामिल होती है, वह समझ में आने वाली बात है। पूर्व-आधुनिक परंपराओं में व्यक्तिगत की चेतना नहीं होती, बल्कि समूह के अंश के रूप में ही व्यक्ति के अस्तित्व की चरितार्थता संभव होती है। यही समाज उपनिवेशवाद से लड़ाई के दौरान अपने अंदर एक नई, राष्ट्रीय पहचान विकसित करता है। विकसित औद्योगिक समाज बनने तक उसकी चेतना में नई व पुरानी दोनों प्रकार की सामूहिकताएं सक्रिय रहती हैं। लेकिन उपनिकेशवाद-विरोधी और साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना उसे लगातार आधुनिक दिशा में उन्मुख करती है। इसी पृष्ठभूमि में जेम्सन तीसरी दुनिया की रचनाओं को राष्ट्रीय रूपक के बतौर ‘पढऩे’ की वकालत करते हैं। ध्यान दें, कि के ऐसा ‘लिखने’ का आग्रह नहीं कर रहे हैं। सिर्फ पढऩे के आग्रह में यह निहित है कि पुरानी सामूहिकताओं के नजरिए से लिखी हुई रचनाओं में भी नई सामूहिकता यानी राष्ट्र के आग्रह स्वाभाविक रूप से शामिल होंगे। अब क्योंकि यह नई चीज है और सबसे मूल्यवान भी, इसलिए हमें चाहिए कि पढ़ते समय इसके प्रति विशेष रूप से सचेत हों, अन्यथा हम इसकी पहचान करने से चूक सकते हैं।

नव-स्वाधीन देशों का ‘राष्ट्रवाद’ और त्रिशंकु स्थिति

इस बहस का केंद्रीय मुद्दा यह है कि जो देश उपनिकेशवाद से मुक्त हुए हैं उन्हें समाजवाद में संक्रमण का संभावित उम्मीदवार माना जाए या साम्राज्यवाद से जूझते राष्ट्रवाद के रूप में देखा जाए। ऐजाज अहमद के विश्लेषण से ऐसा लगता है कि एक बार औपनिकेशिक गुलामी से मुक्त होने के बाद उन्हें कथित तौर पर पूंजीवादी पहली या समाजवादी दूसरी दुनिया के अंग के रूप में अपनी भूमिका तय कर लेनी चाहिए, वरना के तीसरी दुनिया की त्रिशंकु नियति को ही प्राप्त होंगे। इस मान्यता के पीछे जो सबसे बड़ी वजह दिखती है, वह यह कि राष्ट्रवाद को के व्यवहारत: राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में चलने वाला विचार ही मानते हैं, सैद्धांतिक गुंजाइशें चाहे जो हों। यानी, तीसरी दुनिया में राष्ट्रवाद के होने का एकमात्र अर्थ है कि वहां सर्वहारा वर्ग पूंजीपति का अनुगामी है, और समाजवाद के लिए संघर्ष नहीं हो पा रहा है।

गौरतलब है कि यह सारा विश्लेषण उन्होंने तब किया, जब चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में जनता के लोकतांत्रिक गणतंत्र की स्थापना हो चुकी थी, पूंजीवाद के राहियों (कैपिटलिस्ट रोडर्स) के विरुद्ध दस साल तक ‘सांस्कृतिक क्रांति’ चलाने के बाद उसे वापस ले लिया गया था; और माओ ने कहा था कि यह पूंजीवाद और समाजवाद के बीच संघर्ष की संक्रमणकालीन स्थिति है। यह संघर्ष लंबा चलेगा और अंत में कौन जीतेगा, यह अभी से नहीं कहा जा सकता। रूस समेत जिन देशों में समाजवाद आया उनमें से कोई विकसित पूंजीवादी देश (जैसी कि माक्र्स ने कल्पना की थी) नहीं था। पिछड़ी हुई उत्पादन पद्धतियों वाले समाज में क्रांतियां संपन्न हुईं। रूस में 1917 की ‘अक्टूबर क्रांतिÓ के सिर्फ एक साल के अंदर लेनिन ‘नई आर्थिक नीतिÓ लेकर आए; जिसमें पूंजीवादी उत्पादन संबंधों को एक स्तर पर पुनस्र्थापित किया गया, ताकि उत्पादक शक्तियों के विकास में मदद मिल सके। उस दौर के समाजवाद को इसीलिए ‘राजकीय पूंजीवादÓ और ‘पूंजीपति के बगैर पूंजीवादÓ कहा गया। समाजवाद की पहचान बन चुका नारा ‘सबसे उसकी क्षमता के अनुसार और सबको उसके काम के अनुसारÓ पूंजीवादी लूट और शोषण के विरुद्ध अवश्य है, लेकिन अधिक मूल्य के आधार पर पूंजी के संचय के विरुद्ध नहीं है। खुद ऐजाज अहमद के विश्लेषण में एक जगह यह सच्चाई झलक जाती है, जब वह लेनिन की छोटे बुर्जुआ वर्ग के लिए जगह बनाने वाली नई आर्थिक नीति को पलटने और ‘नियंत्रित अर्थव्यवस्थाÓ की नीति अपनाने के स्तालिन के रवैये को ‘विकृतिÓ कहते हैं – ”बदले में इसका नतीजा यह हुआ कि स्तालिनीय नौकरशाहीवाद की सबसे बुरी संभावनाएं सामने आईं, जिन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर न केवल विरोध को दबा दिया, बल्कि अर्थव्यवस्था में व्यापक विकृतियों को जन्म दिया; जिसमें भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद में पतन भी शामिल था। असहनीय बाहरी दबाव, और नियंत्रित अर्थव्यवस्था, जिसे स्तालिन-शासन ने नई आर्थिक नीति को हटाकर लागू किया और बाद में पूर्व-मध्य यूरोप के कैमकान देशों तक पर थोप दिया था, और जो समाजवादी निर्माण का मॉडल बन गया था, के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं थी। कहना मुश्किल था कि बाहरी दबाव ने आंतरिक विकृतियों को किस हद तक निर्धारित किया।‘’ (वही, पृष्ठ- 22-3)

दूसरी बात यह कि जेम्सन के सूत्रीकरण में यह निहित है कि तीसरी दुनिया का सीधा संघर्ष साम्राज्यवाद से है। लेकिन इस समीकरण को बायनरी विपरीत का मामला बताकर ऐजाज अहमद खारिज कर देते हैं, क्योंकि तीसरी दुनिया को साम्राज्यवाद या राष्ट्रवाद में से एक विकल्प चुनना पड़ता है। वह मानते हैं कि समाजवाद का सीधा संघर्ष साम्राज्यवाद से है और तीसरी दुनिया भी उस संघर्ष में शामिल है, यानी मूल लड़ाई समाजवाद बनाम पूंजीवाद है। उन्हें ऐतराज है कि इस सिद्धांत में समाजवाद को साम्राज्यवाद के विकल्प के रूप में क्यों नहीं रखा गया है। ध्यान दें कि साम्राज्यवाद से सीधे टकराव में अगर कामयाबी नहीं मिलेगी, तो तीसरी दुनिया के देशों को उसका अंग बनना ही पड़ेगा। इसे अलग से कहने की भी जरूरत नहीं है। लेकिन अगर संघर्ष में कामयाबी मिलेगी तो जाहिर है कि देश के अंदर की समाजवादी प्रवृत्तियां मजबूत होंगी। ऐसी स्थिति में त्रिशंकु बनने की आशंका उचित नहीं है।

ऐसा लगता है कि ऐजाज अहमद यह कल्पना ही नहीं करते कि मजदूर वर्ग कभी राष्ट्रवाद का चैंपियन बन सकता है। साम्राज्यवाद के युग में राष्ट्रीय पूंजी के लिए यह संभव ही नहीं है कि वह राष्ट्रीय हितों के लिए समझौताहीन संघर्ष कर सके। हर जगह उसे जनता के अधिकारों में कटौती करनी पड़ेगी, राष्ट्रवाद की जगह अंधराष्ट्रवाद लागू करना पड़ेगा, और साम्राज्यवाद को अधिक से अधिक छूट देते हुए अपनी जनता की मुश्कें कसने का काम करना होगा। इसी परिस्थिति में किसी देश के अंदर की समाजवादी शक्तियां मजबूत होती हैं और राष्ट्रवाद तथा जनतंत्र के संघर्ष की अगुवाई करती हैं। पिछड़े हुए विकासशील देशों के समाजवादी दिशा अपनाने का यही वास्तविक तरीका है, ऐजाज अहमद जिसकी अनदेखी करते हैं।

एक और बात जिसके लिए उन्होंने जेम्सन को आड़े हाथों लिया है कि वह राष्ट्रों को उत्पादन प्रणाली के आधार पर नहीं, अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्व के संबंधों के ‘अनुभवÓ के आधार पर वर्गीकृत कर रहे हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी भी नव-स्वतंत्र देश के इतिहास में उपनिकेशवाद और साम्राज्यवाद के ‘अनुभवÓ का अर्थ कोई संकेदनात्मक अनुभूति नहीं है। इसका सीधा संबंध उत्पादन प्रणाली, उत्पादन संबंध, स्वामित्व और वितरण के तरीकों से होता है। उपनिकेशवाद का अनुभव भारत जैसे देश में पुरानी उत्पादन प्रणाली के विनाश, संरक्षणवादी नीतियों के माध्यम से देश को कच्चे माल की मंडी में बदलना, भूमि संबंधों में बदलाव, देश के नियम कानून में बदलाव, शिक्षा, प्रशासन और राजनीतिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन आदि के रूप में दिखाई पड़ता है। यानी, किसी पिछड़े हुए उत्पादन संबंध वाले नव-स्वतंत्र देश के लिए उपनिकेशवाद का ‘अनुभव’ ‘अंतरराष्ट्रीय प्रभुत्व संबंध’ का अध्ययन नहीं है। यह उत्पादन संबंधों का ही अध्ययन है।

असल में, ऐजाज अहमद के अध्ययन से गुजरते हुए यह महसूस होता है कि वह शासन सत्ता में बैठी शक्तियों, उनके मंतव्यों, और स्वार्थों को अनुपातविहीन ढंग से अधिक महत्व देते हैं, और वैकल्पिक प्रवृत्तियों पर कम ध्यान देते हैं। इसे एक किस्म की गैर-द्वंद्वात्मकता या मेटाफीजिकल रवैया भी कह सकते हैं। ऊपर हमने संरचनावाद और उत्तरसंरचनावाद के प्रसंग में भी देखा था, जिसमें उन्होंने अमेरिकी अकादमिक जगत में प्रभावी होने वाली इन प्रवृत्तियों के कालखंडों को बिल्कुल यांत्रिक ढंग से तत्कालीन अमरीकी सत्ताओं की नीतियों की अनुकृति बता दिया था। अगर कोई साहित्यिक ‘सिद्धांत’ सत्ता-प्रतिष्ठान के राजनीतिक लक्ष्यों की संगति में हो, तब भी उसका विश्लेषण करके यह दिखाना चाहिए कि उसका कौन-सा मानदंड किस प्रकार कला की दुनिया में उन प्रवृत्तियों का समर्थन करता है, जो सत्ता की सेवा करती हैं; न कि यह बताते चले जाना कि देखिए जब कट्टर सत्ता थी, तब ‘ए’ का वर्चस्व था, और जब उदार सत्ता आई, तो ‘बी’ का समय आ गया।

उनके विश्लेषण में यह रुझान समाजवाद के संघर्ष का वर्णन करते हुए भी दिखती है। वह सोवियत संघ के नेतृत्व में बने कथित समाजवादी ब्लॉक की नीतियों को खासतौर पर उन नव-स्वतंत्र देशों के मुख्य संघर्षों में निर्णायक भूमिका निभाते हुए पाते हैं। एक वक्तव्य देखें – ”एशिया, अफ्रीका और मध्यपूर्व के वियतनाम, लाओस, कंबोडिया जैसे देशों में, उसी प्रकार जैसे दक्षिण अफ्रीका की सभी पुर्तगाली उपनिकेशों में जो उन वर्षों के दौरान मुक्त हुए थे, अरब जगत में जब मिस्र की सेनाओं ने 1973 में सूएज नहर/स्केज नहर पार किया, तब फिलिस्तीन के हाथों में, और अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के हाथों में भी दक्षिण अफ्रीका की मुक्ति के लिए अनेक प्रकार के हथियार थे। के व्यापक रूप से सोवियत हथियार थे।‘’ (वही, पृष्ठ 291)

यहां प्रसंग एडवर्ड सईद के एक कथन का है, जिसमें वह पूर्व के देशों के राजनीतिक रूप से हथियारबंद होने का उल्लेख करते हैं। ऐजाज अहमद यह कहते हुए भी कि सईद ने आलंकारिक ढंग से हथियार का प्रयोग किया है, जिस तरह का विवरण दिया है, उससे सचमुच एशिया, अफ्रीका और मध्यपूर्व में सोवियत हथियारों की निर्णायकता का मिथक ही स्थापित होता है।

 

भारत में सोवियत संघ की भूमिका

भारत और सोवियत संबंधों में जनता की भूमिका के हिसाब से सोवियत नेतृत्व की व्यक्ति-पूजा की हदों को छूता हुआ यह वर्णन देखें – ”सोवियत संघ का मामला उन कुछ महीनों में और जटिल हो गया था। सम्मेलन अप्रैल में हुआ, और जैसा कि मैंने पहले कहा, उसी वर्ष फरवरी से अच्छी खासी सोवियत सहायता शुरू हो गई थी। (दस लाख टन वार्षिक उत्पादन वाला एक प्रस्तावित इस्पात कारखाना) नेहरू ने तब जून में सोवियत संघ का दौरा किया। ख्रुश्चेव और बुल्गानिन, दोनों उसी वर्ष जाड़ों में भारत आए। उनकी यात्रा का समापन कलकत्ता में हुआ, जहां उनके स्वागत में बीस लाख लोग बाहर आए। जिस रफ्तार और पैमाने पर यह पुनर्मिलन हो रहा था वह अनपेक्षित था। कलकत्ता की सड़कें नेहरू के नियंत्रण से बाहर जा चुकी थीं। लेकिन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम कुछ ऐसा था कि नेहरू दोनों देशों के बीच संबंधों को सामान्य करना चाहते थे। दिसंबर में उनकी यात्रा के अंत में वह ख्रुश्चेव-बुल्गानिन टीम से यह ठोस स्वीकृति चाहते थे कि सोवियत संघ ने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को कोई वित्तीय सहायता नहीं दी है और के उनसे आगे भी कोई खास रिश्ता नहीं रखेंगे। नेहरू भाकपा के साथ अच्छे-बुरे चाहे जिस तरह से पेश आएं, सोवियत संघ को उससे कोई मतलब नहीं होगा। ऊपर उद्धृत वाक्य इस्पात कारखाने और उन लाखों लोगों के बीच अवस्थित है, जो सोवियत नेताओं का स्वागत करने आए थे।‘’ (वही, पृष्ठ- 300)

यहां 1955 के बांडुंग सम्मेलन में नेहरू के वक्तव्य के एक वाक्य का उल्लेख है-”हम न कम्युनिस्ट शिक्षाओं से सहमत हैं, न कम्युनिस्ट विरोधी शिक्षाओं से, क्योंकि दोनों गलत सिद्धांतों पर आधारित हैं।‘’ इस वाक्य की व्याख्या ऐजाज अहमद ने कई पेज में की है। इस्पात कारखाने की वार्षिक क्षमता और ‘स्वागत करने आई जनता’ का अनुपात भी गौरतलब है। ऐसा लगता है कि कोई प्रशस्तिगायन चल रहा है, जिसमें एक तरफ तो महान नेता बहुत बड़ी सौगात लेकर आया है, और दूसरी तरफ जनता उसके स्वागत में इस कदर उमड़ पड़ी है कि उसके अपने शासक के भी हाथ-पांव फूल गए हैं। समाजवादी देशों के कथित ब्लॉक के महिमामंडन का एक और उदाहरण देखें – ”1949 में चीनी क्रांति की विजय ने – दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान लाल सेना की पूर्वमध्य योरोप के पिछड़े इलाकों में बढ़त से भी अधिक – समाजवादी देशों के ब्लॉक के उभार को सुनिश्चित किया।…सुकर्णों के अधीन इंडोनेशिया में कम्युनिस्ट पार्टी की जबरदस्त बढ़त, कथित हक (एचएके) विद्रोह की पराजय के बावजूद फिलीपींस के कम्युनिस्ट आंदोलन की निरंतरता, केरल में पहली चुनी हुई सरकार, दक्षिण योरोप में कम्युनिस्ट पार्टियों की कानूनी और गैरकानूनी, दोनों ही रूपों में मजबूत उपस्थिति और ऐसे ही अनेक घटनाक्रमों से (इराक, सूडान, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका में) पता चला कि समाजवादी अभियान भी बढ़त पर है।ÓÓ (वही, पृष्ठ- 19)

 

साम्यवाद का फैलता प्रभाव-क्षेत्र और नव-स्वाधीन देशों की स्थिति

समाजवाद के पक्ष में यह आग्रह तो प्रशंसनीय है, लेकिन इस ओजस्वी शैली के अपने खतरे भी हैं। इसमें कई बार उस आंतरिक संगति का ही खयाल नहीं रह जाता, जिसे दूसरों के मामले में ऐजाज अहमद जरूरी मानते हैं। ख्रुश्चेव के नेतृत्व में सोवियत संघ अपना अंतरराष्ट्रीय समर्थन बढ़ाने के लिए नव-स्वतंत्र देशों के कम्युनिस्ट आंदोलन को लेकर वहां के शासक वर्ग से कैसी सौदेबाजी में लगा हुआ था, यह हम नेहरू के हवाले से देख चुके हैं। इसी से मिलता-जुलता मामला मिस्र के नासिर का भी है, जो सोवियत संघ से हाथ मिलाकर देश के अंदर के प्रगतिशील क्रांतिकारी तत्वों का निर्ममतापूर्वक सफाया करने में सफल रहे थे (वही, पृष्ठ- 304 और 307)।

तीसरी दुनिया के राष्ट्रवादियों में तीसरा महत्वपूर्ण नाम सुकर्णों का है जिनका उल्लेख पहले भी आ चुका है। उसकी एक वैकल्पिक प्रस्तुति भी देख लें- ”…सुकर्णों इंडोनेशिया में रूस और चीन के बाद दुनिया की सबसे बड़ी और गहन रूप से माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी के मुकाबले एक राष्ट्रवादी सरकार चला रहे थे। चाऊ एन लाई ने सुकर्णों शैली के इंडोनेशियाई राष्ट्रवाद के साथ साझेदारी की घोषणा की। इसके नतीजे में एक विकेकहीन शांति कायम हुई, जो शांतिपूर्ण रास्ते से इंडोनेशियाई साम्यवाद के आगमन और सुकर्णों के साथ संयुक्त मोर्चा का संकेत दे रही थी। आखिरकार, उसका अंत किसी भी तख्तापलट में होने वाले दुनिया के सबसे बड़े कम्युनिस्ट-जनसंहार में हुआ। यह चीनी दिशानिर्देश और सुकर्णों पर पूरी तरह से निर्भर होने का नतीजा था कि इंडोनेशियाई कम्युनिस्ट पार्टी संभावित सैन्यविद्रोह को अनदेखा करती चली गई, जो सीधे उसकी आंखों में घूर रहा था। इस तख्तापलट ने सुकर्णों के साथ-साथ कम्युनिस्ट पार्टी के पांच लाख लोगों का भी सफाया कर दिया था।‘’ (वही, पृष्ठ- 303-4)

इससे पहले हमने सुकर्णों के अधीन इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी को अभूतपूर्व बढ़त लेते हुए पाकर लेखक को राहत की सांस लेते देखा था। लेकिन यहां चीनी नेता को सुकर्णों के साथ संयुक्त मोर्चे की तरफदारी करने का दोषी माना गया, क्योंकि सैन्यविद्रोह ने कम्युनिस्टों का सफाया कर दिया। इस विद्रोह के शिकार सुकर्णों खुद भी हुए थे। सवाल यह है कि अगर कम्युनिस्ट पार्टी इस खतरे को नहीं भांप सकी, तो इसकी जिम्मेदारी चाऊ एन लाई पर कैसे आ सकती है। लेकिन यही ऐजाज अहमद के चिंतन की विशेषता है। वह नेता और उनके समर्थकों को चरवाहे और भेड़ों के रूप में देखते हैं। चरवाहे ने इशारा किया और भेड़ें एक-एक करके कुएं में गिरती चली गईं, तो इसमें बेचारी भेड़ों का क्या कसूर?

इस चिंतन प्रक्रिया का एक और नमूना किताब में इसी प्रसंग में हम तब देखते हैं जब तीसरी दुनिया के राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद विरोध का पर्दाफाश करने के लिए बड़ी मेहनत से वह यह दिखाते हैं कि नेहरू, नासिर और सुकर्णों परिस्थितियों के दबाव में विवश होकर इस रास्ते पर आए थे। उनका कोई स्वाभाविक लगाव इन आदर्शों से नहीं था। अगर इस बात को ठीक वैसा ही मान लें, जैसा कि वह बताते हैं, तो भी इससे उनकी अपेक्षा से उल्टी बात साबित होती है। अगर नेहरू, नासिर और सुकर्णों अपनी इच्छा के विपरीत परिस्थितियों के दबाव में तीसरी दुनिया के प्रतिनिधि बन रहे थे, तो यह उस विचार की ऐतिहासिक आवश्यकता का प्रमाण है। किसी व्यक्ति की इच्छा-अनिच्छा का इतिहास के विकासक्रम में क्या महत्व है, इसे लेकर ऐजाज अहमद काफी हद तक रूमानी नजरिया अपनाते हुए प्रतीत होते हैं।

बहरहाल, लाख टके का सवाल यह है कि तीसरी दुनिया की अवधारणा के प्रति उनकी इतनी सख्त नापसंदगी की वास्तविक वजह क्या है, जो उन्हें इतने सारे सबूत जुटाने पर बाध्य करती है। किताब में इसकी तलाश करते हुए किसी पाठक का ध्यान जब निम्न अंश पर जाता है तो उसे इसका कुछ सुराग मिलता है- ”पहली बात यह है कि दूसरे महायुद्ध के बाद समाजवादी राज्यों का एक व्यवस्थित ढांचा अस्तित्व में आ गया था। अब इसके बारे में कहा जाता था कि यह पूंजीवादी व्यवस्था से प्रतियोगिता करने और यहां तक कि उसे उखाड़ फेंकने में सक्षम है। दूसरे, एटमी और थर्मोन्यूक्लियर हथियारों की खोज ने इन दोनों के बीच युद्ध को असंभव बना दिया था। इसलिए प्रतियोगिता शांतिपूर्ण ही हो सकती थी। तीसरे, उन्हीं युद्धोपरांत वर्षों में एशिया और अफ्रीका में बड़ी संख्या में स्वतंत्र राज्य अस्तित्व में आ चुके थे। अगर ये अल्पविकसित मगर संप्रभु राज्य अमेरिका के बजाय सोवियत संघ के सैन्य नहीं तो कम से कम आर्थिक स्तर पर ही सहयोगी बन जाएं, तो आर्थिक शक्ति का वैश्विक संतुलन समाजवादी राज्यों के पक्ष में झुक सकता है, और एक प्रतिद्वंदी के तौर पर पूंजीवाद का शांतिपूर्ण प्रतियोगिता में खात्मा हो सकता है। इसलिए, इन नव-स्वतंत्र देशों के मजदूर-वर्ग का काम अपने-अपने राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के राज्य पर पूंजीवादी और समाजवादी गुटों के बीच सैन्य रूप से तटस्थ रहने और आर्थिक रूप से पूंजीवादी व्यवस्था के बजाय समाजवादी व्यवस्था के साथ जुडऩे का दबाव डालना था… इन सब में प्रमुख बात यह थी कि पूंजीवाद और समाजवाद के बीच संघर्ष को शांतिपूर्ण ढंग से पूंजीवादी पहली दुनिया और समाजवादी दूसरी दुनिया के बीच चलाया जाना चाहिए। तीसरी दुनिया की किसी भी सत्ता का प्रगतिशील चरित्र उसकी विदेश नीति और वाह्य संबंधों से निर्धारित होता है।‘’ (वही, पृष्ठ- 305)

यहां असंदिग्ध शब्दों में ख्रुश्चेव के शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, और शांतिपूर्ण प्रतियोगिता के माध्यम से पूंजीवाद से समाजवाद में शांतिपूर्ण संक्रमण के संशोधनवादी विचारों का ब्यौरा दिया गया है। इस प्रस्तुति का स्वर भी निर्विवाद रूप से अनुशंसात्मक है। ऐजाज अहमद ने खुद माना था कि दूसरे महायुद्ध के बाद उपनिकेशवाद के पुराने रूपों के खात्मे का एक अनपेक्षित परिणाम यह हुआ कि अमेरिका की अगुवाई में पूंजीवाद के केंद्रीकरण और उसका वैश्विक फैलाव अभूतपूर्व स्तर पर पहुंच गया – ”पूंजीवादी ढांचे में हुए वि-उपनिकेशीकरण के अनेक अंतर्विरोधी परिणामों में से एक यह था कि इसने पूंजी के सभी क्षेत्रों को एक एकीकृत बाजार के अंतर्गत ला दिया, जो अमेरिका जैसी उच्चतम साम्राज्यवादी शक्ति के पूरी तरह अधीन था।‘’ (वही पृष्ठ- 21)

जाहिर है, ऐसी स्थिति में इन नव-स्वतंत्र देशों के साथ पूरी दुनिया के गरीब और पिछड़े हुए देश नव-उपनिकेशवाद की गिरफ्त में जाने लगे। ऐसे में शांतिपूर्ण प्रतियोगिता और संक्रमण की नीति के बहाने संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से अमेरिका के साथ मिलकर दुनिया की चौधराहट करने की ख्रुश्चेव की मंशा किसके हक में जाने वाली थी, यह बहस ’60 और ’70 के दशक में चलकर खत्म हो चुकी है। लेकिन ऐजाज अहमद ने इसे एक बार फिर उठाया है। ऐसे में उनके विचारों की थोड़ी और जांच-परख जरूरी है, ताकि उनका ठीक-ठीक आकलन किया जा सके।

तीसरी दुनिया के विचार की प्रामाणिकता के संदर्भ में उपरोक्त सोवियत नीति के विकल्प के रूप में लेखक ने चीनी विचार को रखा है। उस पर भी एक नजर डाल लेते हैं, ताकि उसके मंतव्यों की सही जानकारी मिल सके – ”तीन दुनियाओं के सिद्धांत की वास्तविक प्रतिष्ठा, हर हाल में, चीनी सांस्कृतिक क्रांति के दौरान ही कायम हुई, जब दुनिया की परिभाषा को बदला गया। पहली दुनिया में अब केवल दो समान रूप से खतरनाक साम्राज्यी शक्तियां संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ थे। दूसरी दुनिया का गठन अन्य औद्योगीकृत देशों से मिलकर हुआ जिन्हें दुनिया की दो महाशक्तियों सोवियत संघ और अमेरिका के साम्राज्यवाद के विरुद्ध संभावित सहयोगियों के रूप में देखा जाता था। तीसरी दुनिया में व्यापक रूप से कृषि आधारित और गरीब देश आते थे, जो मिलकर दुनिया के गांवों का निर्माण करते थे और जिन्हें अमेरिका और सोवियत संघ नामक शहरों को घेरकर नेस्तनाबूद कर देना था। खास बात यह है कि चीन अब भी तीसरी दुनिया में ही आता था। निश्चित रूप से कुछ समय बाद ही सोवियत संघ को फासिस्ट घोषित किया गया, जिसके विरुद्ध अमेरिका भी फासीवाद विरोधी संघर्ष में सहयोगी हो सकता था। यहां यह उल्लेखनीय है कि इस ”सिद्धांतÓÓ के सोवियत संस्करण ने अपने आंशिक सत्य और अवसरवादी भटकावों के कारण दुनिया के अधिकांश रैडिकल दिमागों को आकर्षित करने में कामयाबी नहीं पाई। जबकि सोवियत विरोध का रूप बनाए हर तरह के कम्युनिस्ट विरोध ने, और यहां तक कि माओवादी विचारधारा के सबसे कल्पनाशील रूपों के साथ ’60 के दशक के उत्तरार्ध और उसके बाद के दौर में परिसरों के रैडिकल तत्वों को प्रभावित करने में कामयाब रहे। तीन दुनियाओं के सिद्धांत के चीनी संस्करण ने सबसे व्यापक रूप से वैश्विक मान्यता प्राप्त की।‘’ (वही, पृष्ठ- 306)

इस अंश से दो बातें साफ जाहिर होती हैं। एक तो यह कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नजरिए के प्रति लेखक की तीव्र अरुचि है और वह इसे छुपाना भी नहीं चाहता। दूसरे, सोवियत संघ के सिद्धांत के बारे में वह बहुत ही अफसोस के साथ बताता है कि वह लोगों के दिमाग में घर करने में कामयाब नहीं रहा।

बहरहाल, ये विवरण एक चीज का तो पुख्ता प्रमाण हैं कि ‘सिद्धांत’ के ‘चीनी संस्करण’ को ऐजाज अहमद ’60 के दशक में पाए जाने वाले रंगबिरंगे कम्युनिस्ट-विरोधियों और परिसरों के कथित रैडिकल तत्वों के इक_ा होने की वजह मानते हैं, जिन्होंने आगे चलकर तीसरी दुनिया जैसे सिद्धांत को विकसित किया। स्वाभाविक रूप से इस विश्लेषण से यह पता चलता है कि वह सोवियत संस्करण के साथ हैं, हालांकि उसमें सचाई आंशिक है और अवसरवाद भी है। वास्तव में ख्रुश्चेव के बदनाम संशोधनवादी विचारों को आंशिक रूप से सच कहना और उस पर अवसरवादी भटकाव का आरोप लगाना उसकी प्रशंसा करने के तुल्य है, क्योंकि इसका अर्थ होता है कि सिद्धांत में सचाई थी, लेकिन उसके व्यवहार में कुछ चूक हो गई है। कोई भी सिद्धांत संपूर्ण सत्य नहीं होता। उसमें सत्य का कोई न कोई अंश ही होता है जो व्यवहार में अच्छी तरह लागू करने पर मजबूत होता चला जाता है और उसके दूसरे अंश भी उसके साथ जुड़े होने के कारण क्रमश: विकसित होते चलते हैं। अगर उसका कोई हिस्सा उस सचाई के प्रतिकूल है, तो वह उसी अनुपात में अप्रासंगिक और निस्तेज हो जाता है। इस तरह से किसी सिद्धांत का कोई पहलू विकसित होकर उसका प्रतिनिधि बन जाता है, और स्वयं सिद्धांत का रूप धारण कर लेता है। वैसे ही जैसे आग आंशिक होने के बावजूद अनुकूल परिस्थिति में पूरी क्षमता से प्रकट हो सकती है।

 

ख्रुश्चेव का ‘संशोधनवादी’ नजरिया और सोवियत कम्युनिज्म का पतन

इस प्रकार सोवियत संशोधनवाद में ‘आंशिक सच्चाई’ होने का मतलब उसमें ‘सच्चाई’ का होना है, ‘आंशिक’ शब्द वहां महत्वहीन है। वैसे भी पूरी किताब में जगह-जगह जिस प्रकार ख्रुश्चेव के दौर की सोवियत नीतियों का महिमामंडन हुआ है, यह बात बिना शक कही जा सकती है कि ऐजाज अहमद शांतिपूर्ण प्रतियोगिता के माध्यम से समाजवाद में शांतिपूर्ण संक्रमण के सिद्धांत में कम से कम ‘आंशिक रूप से’ तो अवश्य ही यकीन रखते थे। कहने का आशय यह कि ’60 के दशक में ख्रुश्चेव के संशोधनवादी नजरिए के विरुद्ध माओ के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने जो संघर्ष चलाया, उसे ऐजाज अहमद पूरी दुनिया के पैमाने पर कम्युनिस्ट विरोधी ध्रुवीकरण करने वाले एक विनाशकारी अभियान के रूप में देखते हैं। इसके विरुद्ध सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व दृढ़ और संगत संघर्ष नहीं चला सका, इसलिए उत्तरोत्तर कमजोर होता चला गया और आखिरकार नष्ट हो गया।

अब हमारे सामने प्रश्न यह उठता है कि ख्रुश्चेव के ये महान विचार आखिर किस परंपरा की देन हैं। उनकी अनुवांशिकता की कोई खोज लेखक ने की है, या नहीं। सौभाग्य से उसकी पहचान किताब में मौजूद है, जिसके सहारे ऐजाज अहमद की पक्षधरता और प्रतिबद्धता की शिनाख्त भी बखूबी की जा सकती है – ”दूसरे शब्दों में, साम्राज्यवादी दबाव की निरंतरता और उसके संभावित विस्तार की आड़ में मैं उन तत्वों के महत्व को कम नहीं करना चाहता, जिन्होंने प्राथमिक रूप से खुद कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में जड़ जमायी हुई थी। बाहरी स्थितियों ने उन्हें द्वितीयक रूप से ही प्रभावित किया है। उदाहरण के लिए यह मुख्यत: विचारणीय है कि अंतरराष्ट्रीय समाजवाद अपने दो महान विभाजनों को दुरुस्त (रेक्टिफाई) करने में अक्षम सिद्ध हुआ। पहला बंटवारा बोल्शेविक क्रांति के दौरान कम्युनिज्म और सामाजिक जनवाद के बीच हुआ था और दूसरा 1960 के दशक के शुरुआती वर्षों में चीन और रूस के बीच। इनके चलते सामाजिक जनवाद की दक्षिणपंथी दिशा तय हुई और साथ ही पहले बोल्शेविक और फिर माओवादी वैचारिक स्थितियां और कठोर होती गईं। साम्राज्यवादी दबाव की ही तरह इसके असर से भी अनेक कम्युनिस्ट व्यवस्थाओं का बिखराव और विलोप तक हो गया। यह भी कहा जा सकता है कि 1989 की पूर्ण साम्राज्यवादी विजय, 1956 के हंगरी, 1968 के चेकोस्लोवाकिया, और सोवियत संघ के अंदर ख्रुश्चेव के सुधारों के अंत से जुड़ा था।ÓÓ (वही, पृष्ठ- 23)

इस तरह हम पाते हैं कि सोवियत संघ और चीन का ’60 के दशक में हुआ उपरोक्त विभाजन बोल्शेविक और मेन्शेविक के विभाजन के समतुल्य है। हालांकि अब तक किसी ने ख्रुश्चेव में मेन्शेविक की तलाश नहीं की थी, लेकिन निस्संदेह, ख्रुश्चेव मेन्शेविकों की तरह ही वर्ग-सहयोग के रास्ते पर थे और माओ बोल्शेविकों की तरह वर्ग-संघर्ष के रास्ते पर। मानो दोनों घटनाओं के बीच आधी शताब्दी का अंतर यह बताने के लिए काफी न हो, के वैचारिक कठोरता का ठीकरा ‘पहलेÓ बोल्शेविकों, और ‘बाद में’ चीनियों पर फोड़ते हैं।

इस वक्तव्य के बारे में और कुछ भी कहने से पहले यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि बंटवारे के चलते सामाजिक जनवाद की दक्षिणपंथी दिशा नहीं तय हुई थी, बल्कि उसके दक्षिणपंथियों को तीखे वैचारिक संघर्ष के माध्यम से अलग-थलग करके उन्हें अपनी नियति का सामना करने के लिए छोड़ दिया गया था। अपने सारतत्व में यह निहायत यथास्थितिवादी तर्क है, जिसका सामना हमें आज भी अपने देश में बहुतायत से करना पड़ता है। यह बहस मत कीजिए, उनकी आलोचना मत कीजिए, संयुक्त मोर्चे के दौर में वैचारिक संघर्ष से दूर रहिए, इस तरह तो हम अपनी पूरी परंपरा ही दुश्मनों के हवाले कर देंगे, सबकी आलोचना करेंगे तो हमारे पास बचेगा क्या, वगैरह वगैरह।

अपनी सर्वश्रेष्ठ स्थिति में यह विचार पराजयवाद की देन है, और उससे कमतर स्थिति में अवसरवाद की। यहां तक कि कोई गद्दार भी इस तरह का तर्क देकर जनता के दुश्मनों और उनके कारकूनों की राह निष्कंटक करने का दावा कर सकता है। सच तो यह है कि अगर कोई व्यक्ति या प्रवृत्ति अपनी आलोचना के कारण पाला बदलती है, तो यह मान लेना चाहिए कि वह मूल रूप से उसी पक्ष के लिए बनी थी और किसी न किसी बहाने उसे उधर जाना ही था। आप उसे उसके बहाने से कभी वंचित नहीं कर सकते। हमारे देश के मार्क्सवादियों में पाए जाने वाले पराजयवाद की ऐसी अभिव्यक्तियां आजकल खूब दिखाई पड़ती हैं। उनके बीच ऐजाज अहमद की असाधारण प्रतिष्ठा की एक वजह यह विचार भी हो सकता है।

 

लेखक का नजरिया

इस वक्तव्य के अंतिम वाक्य पर गौर करें। इसमें हंगरी और चेकोस्लोवाकिया पर क्रमश:1956 और 1968 में हुए सोवियत संघ के सैन्य हमलों का उल्लेख है; लेकिन यह साफ नहीं होता कि ये हमले गलत थे, इसलिए 1989 की पराजय का कारण बने, या फिर कोई और बात थी। मसलन, किसी को यह भी लग सकता है कि के हमले तो ठीक थे, मगर अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर सके, और सोवियत संघ की पूर्ण पराजय की वजह बने। खासतौर पर तब जब 1956 का हमला लेखक के सर्वकालिक फेवरिट ख्रुश्चेव के ही आदेश पर हुआ था। मसले को और जटिल करते हुए वह उसी वाक्य में लिखते हैं कि यह पराजय सोवियत संघ के अंदर ख्रुश्चेव के सुधारों के अंत से जुड़ी हुई थी। इससे एक बात तो यह समझ में आती है कि अगर इन सुधारों का अंत न होता, तो उपरोक्त बंटवारों के परिणामों को सुधारा जा सकता था, और 1989 की पूर्ण पराजय से भी बचा जा सकता था। यानी सारा दारोमदार आंतरिक सुधारों पर था। तो क्या आंतरिक और बाहरी नीतियों में इतना बड़ा फासला होता है? आंतरिक नीति असफल हो गई, इसलिए पराजय हुई; और बाहरी हमला सफल हो गया, इसलिए भी पराजित होना पड़ा।

कहने का आशय यह कि ऐजाज अहमद की जैसी छवि पहले से बनी हुई थी, वह इस किताब को पढऩे के बाद टूट जाती है। दोनों बंटवारों के बारे में, खासतौर पर बोल्शेविक-मेन्शेविक विभाजन के बारे में उनकी मेन्शेविक-समर्थक राय के अभिप्राय बेहद संगीन और दूरगामी हैं। उस घटना के लगभग एक शताब्दी के बाद, जब सोवियत संघ का अस्तित्व भी नहीं बचा था, इस मसले को उठाने का एकमात्र अर्थ है कि आने वाले समय में ऐसी कोई संभावना आने पर इसके दुहराव से बचा जा सके। बीसवीं सदी के कम्युनिस्ट आंदोलन में लेनिन और माओ की भूमिका को काले रंग में पेंट करके, मेन्शेविकों और ख्रुश्चेव की धारा का झंडाबरदार बनने का आशय है कि भविष्य में वर्ग-संघर्ष की विचारधारा को हमेशा के लिए छोड़ देने की वकालत करना। भारत के संदर्भ में यह ‘वर्णाश्रमवाद’ समेत हर तरह के कुलीनतावाद को वॉकओवर देने के समतुल्य है। इसलिए, अपने देश के आम लोगों के भविष्य में विश्वास रखने वाले हर व्यक्ति को चाहिए कि इस विचार को निर्णायक ढंग से ठुकरा दे और इसके प्रस्तावकों के प्रति किसी प्रकार के भ्रम की संभावना कोभी खत्म कर दे।

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