ऐतिहासिक धार्मिक-सांस्कृतिक इमारतों के प्रति नजरिया क्या हो?

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– सिद्धार्थ

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ऐसी याचिकाओं को सुनने की निचली अदालतों के अधिकार की स्वीकृति ने ऐतिहासिक धार्मिक-सांस्कृतिक स्थलों के संदर्भ में एक नई बहस और संघर्ष को जन्म दे दिया है, जिनके बारे में यह माना जाता था कि इस तरह की बहसों और संघर्षों का पटाक्षेप 1991 के पूजा स्थल कानून ने कर दिया है।

सोलहवीं- सत्रहवीं शताब्दी के वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा के शाही ईदगाह मस्जिद पर कुछ हिंदुओं की दाकेदारी और इस दाकेदारी की याचिकाओं को अदालतों द्वारा स्वीकार करना और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ऐसी याचिकाओं को सुनने की निचली अदालतों के अधिकार की स्वीकृति ने ऐतिहासिक धार्मिक-सांस्कृतिक स्थलों के संदर्भ में एक नई बहस और संघर्ष को जन्म दे दिया है, जिनके बारे में यह माना जाता था कि इस तरह की बहसों और संघर्षों का पटाक्षेप 1991 के पूजा स्थल कानून ने कर दिया है। 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की सरकार पूजा स्थल कानून लेकर आई थी। इस कानून के मुताबिक, 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। अगर कोई ऐसा करने की कोशिश करता है, तो उसे एक से तीन साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है। अयोध्या का मामला (बाबरी मस्जिद और रामजन्मभूमि विवाद) उस समय कोर्ट में था, इसलिए उसे इस कानून से अलग रखा गया था।

इस कानून की धारा-2 कहती है कि अगर 15 अगस्त, 1947 तक मौजूद किसी धार्मिक स्थल के चरित्र में बदलाव को लेकर कोई याचिका या अन्य कार्यवाही किसी अदालत, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकरण में लंबित है, तो उसे बंद कर दिया जाएगा। वहीं, कानून की धारा-3 किसी पूजा स्थल को पूरी तरह या आंशिक रूप से किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में बदलने पर रोक लगाती है। यहां तक कि अधिनियम की धारा-3 किसी भी धार्मिक संप्रदाय के पूजा स्थल के पूर्ण या आंशिक रूप से रूपांतरण को एक अलग धार्मिक संप्रदाय के पूजा स्थल या एक ही धार्मिक संप्रदाय के एक अलग खंड में बदलने पर रोक लगाती है। धारा-4(1) कहती है कि 15 अगस्त, 1947 को किसी पूजा स्थल का जो चरित्र था उसे वैसा ही बनाए रखना होगा। वहीं धारा-4(2) और इसके प्रावधान उन मुकदमों, अपीलों और कानूनी कार्यवाही को रोकने की बात करते हैं जो पूजा स्थल कानून के लागू होने की तिथि पर लंबित थे। इसके साथ ही यह धारा किसी नए मामले को दायर करने पर भी रोक लगाती है। इस कानून की धारा-5 कहती है कि पूजा स्थल कानून राम जन्मभूमि से जुड़े मुकदमों पर लागू नहीं होगा। बाबरी मस्जिद और रामजन्मभूमि विवाद पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम 1991 का जिक्र करते हुए स्पष्ट कहा था कि अगर किसी धार्मिक स्थल का विवाद इससे पहले किसी अदालत में चल रहा होगा तो भी उसके स्वरूप में परिवर्तन संभव नहीं होगा।

लेकिन ज्ञानवापी मस्जिद पर सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी ने स्वयं ही नए विवादों के लिए जमीन मुहैया करा दिया। ज्ञानवापी मस्जिद पर अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ”पूजा स्थल अधिनियम 1991 के तहत किसी पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र का पता लगाना प्रतिबंधित नहीं है।‘’ न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा की पीठ ने ज्ञानवापी मस्जिद विवाद की सुनवाई के दौरान टिप्पणी करते हुए कहा कि उसने 2019 के अयोध्या फैसले में पूजा स्थल अधिनियम के प्रावधानों पर गौर किया है तथा धारा-3 पूजा स्थल का धार्मिक चरित्र सुनिश्चित करने पर स्पष्ट तौर पर रोक नहीं लगाती है। पीठ ने कहा, ”हमने अयोध्या फैसले में इन प्रावधानों पर चर्चा की है। धर्म स्थल का धार्मिक चरित्र तय करना स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित नहीं है।‘’ न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यहां तक कह दिया कि ”मान लीजिए कि एक ही परिसर में अगियारी (पारसी अग्नि मंदिर) और क्रॉस हो, तो क्या अगियारी की मौजूदगी क्रॉस को अगियारी बनने देती है? क्या क्रॉस की मौजूदगी उस परिसर को ईसाइयों का पूजास्थल बनने दे सकती है?’’

ऐतिहासिक धार्मिक स्थलों के धार्मिक चरित्र को तय करने की अदालतों को इजाजत देकर उच्चतम न्यायालय ने 1991 के पूजा स्थल (विशेष कानून) कानून और 2019 के अपने ही फैसले की बुनियादी मंशा को उलट दिया है और पूरे देश में ऐतिहासिक धार्मिक-सांस्कृतिक स्थलों के चरित्र निर्धारण के लिए आंदोलनों और याचिकाओं का दरवाजा खोल दिया है। उच्चतम न्यायालय ने यह कहकर की इतिहास के धार्मिक स्थलों के चरित्र निर्धारण  करने का अधिकार अदालतों को है और 1991 का पूजा स्थल कानून और 2019 की उच्चतम न्यायालय की इसकी व्याख्या धार्मिक स्थलों के चरित्र निर्धारण पर रोक नहीं लगाते हैं, धार्मिक स्थलों पर दाकेदारी और उनके चरित्र निर्धारण के लिए विवादों और संघर्षों का पिटारा खोल दिया है।

कृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मामले में याचिका दायर की गई है और उसे अदालत ने स्वीकार कर लिया। याचिका में कहा गया था कि शाही ईदगाह मस्जिद कृष्ण जन्मभूमि के ऊपर बनी है, इसलिए उसे हटाया जाना चाहिए। याचिका कृष्ण जन्मभूमि के 13.37 एकड़ भूमि को अतिक्रमण मुक्त कराने को लेकर लगाई गई है। इस्लामी ढांचों और प्रथाओं के खिलाफ दायर याचिकाओं में सबसे ताजा वह है जिसमें मांग की गई है कि ताजमहल के नीचे खुदाई करके पता लगाया जाए कि पहले वह एक मंदिर तो नहीं था। दिल्ली के कुतुबमीनार को भी नहीं बख्शा गया है। देश के विभिन्न हिस्सों में मस्जिदों को मंदिर कहने और उन्हें हिंदुओं को सौंपने की मांगों की बाढ़ आ गई है। भाजपा और आरएसएस के अन्य आनुषांगिक संगठन इस स्थिति का इस्तेमाल धार्मिक नफरत फैलाने और ध्रुवीकरण तेज करने के लिए कर रहे हैं और कॉरपोरेट मीडिया का बड़ा हिस्सा उनका साथ दे रहा है। पूरे देश में इसके आधार पर एक विषाक्त वातावरण तैयार किया जा रहा है।

 

कौन कहां से आया?

भारत का लिखित इतिहास करीब पांच हजार वर्षों (सिंधु लिपि से आज तक) का है।  इन पांच हजार वर्षों में कितने राज्य-साम्राज्य कायम हुए और एक के बाद कितने शासक हुए इसकी अभी पूरी तरह से गणना भी नहीं हो पाई है। पूरे भारत के अलग-अलग हिस्सों में शासन करने वाले राजा, सम्राट और शहंशाह अलग-अलग धर्मों के अनुयाई थे। इसमें कुछ आज जिसे भौगोलिक तौर पर भारतीय उपमहाद्वीप कहते हैं, उसमें पैदा हुए थे, कुछ यूनान से आए थे, कुछ मध्य एशिया (ईरान, इराक, मंगोलिया, आदि) से और कुछ एशिया के अन्य हिस्सों से।

कुछ के पास अपना कोई विशिष्ट धर्म नहीं था, तो उन्होंने भारतीय धर्मों (विशेषकर बौद्ध और हिंदू) को अपना लिया। मध्यकाल में आने वाले आक्रणकारी योद्धाओं के बड़े हिस्से के पास इस्लाम जैसा सुव्यवस्थित धर्म था। साम्राज्यों की स्थापना और उनके विघटन के साथ ही शासकों के धर्मों का भी विस्तार और विघटन होता रहा। एक लंबे समय तक भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से पर बौद्ध धर्मानुयायी शासकों का शासन रहा, जिस दौरान पूरे भारतीय उपमहाद्वीप और उसके बाहर भी बड़े पैमाने पर बौद्ध विहारों और बुद्ध की प्रतिमाओं का निर्माण हुआ। जिसके निशान आज भी अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और भारत के विभिन्न हिस्सों में पाए जाते हैं। इस बात के पुरातात्विक साक्ष्य मौजूद हैं कि बौद्ध धर्म स्थलों और सांस्कृतिक स्थलों को बड़े पैमाने पर हिंदू धर्मानुयायी राजाओं ने तोड़ा और हिंदू धर्माधिकारियों (जिसमें आदि शंकराचार्य भी शामिल हैं) ने उन्हें हिंदू धर्मस्थलों का रूप दिया। राहुल सांकृत्यायन ने कहा है कि ”बद्रीनाथ की मूर्ति पद्मासन भूमिस्पर्श मुद्रायुक्त बुद्ध की है, इसमें कोई संदेह नही है’’ (स्रोत-उद्धृत गुणाकर मुले, महापंडित राहुल सांकृत्यायन (जीवन और कृतित्व) नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, पृ. 136)। बद्रीनाथ हिंदुओं के चारधाम में से एक है। यहां की बुद्ध मूर्ति को आदि विष्णु का रूप दे दिया गया। यहां का मुख्य पुजारी सिर्फ केरल का नंबूदरी ब्राह्मण हो सकता है। सैकड़ों नहीं, हजारों नहीं, बल्कि लाखों बुद्ध की मूर्तियों को हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों में तब्दील कर दिया गया है यानी बौद्ध स्थलों पर ब्राह्मण धर्मावलंबियों (जिसे आजकल हिंदू धर्म कहा जाता है) ने कब्जा जमा लिया, इसके पुरातात्विक साक्ष्य निरंतर मिलते रहे हैं और अभी भी मिल रहे हैं। यहां तक कि बोधगया के महाबोधि मंदिर पर भी ब्राह्मणों ने कब्जा कर लिया था। दुनिया भर के बौद्ध अनुयायियों के लंबे संघर्ष के बाद वह पवित्र स्थान बौद्ध अनुयायियों (14 जनवरी, 1953) को मिल पाया। आम तौर पर स्वीकृत एक मिथक है कि नालंदा विश्वविद्यालय और उसके पुस्तकालय को बख्तियार खिलजी ने जलाया और नष्ट किया था। डी. एन. झा ने तिब्बती बौद्ध धर्मग्रंथ ‘परासम-जोन-संग’ को उद्धृत करते हुए बताया है कि हिंदू अंध श्रद्धालुओं द्वारा नालंदा के पुस्तकालय को जलाया गया था। (स्रोतहिंदू पहचान की खोज, पृ.38, डी.एन. झा) उनके इस मत की पुष्टि इतिहासकार बी.एन.एस. यादव भी करते हैं, उन्होंने लिखा है कि, ”आमतौर पर यह माना जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय को बख्तियार खिलजी ने नष्ट किया था, जबकि उसे हिंदुओं ने नष्ट किया था।‘’ इतिहासकार डी.आर.पाटिल को उद्धृत करते हुए वह लिखते हैं कि ”उसे (नालंदा विश्वविद्यालय) शैवों (हिंदुओं) ने बर्बाद किया।‘’ (स्रोत, एंटीक्केरियन रिमेंन्स ऑफ बिहार, 1963, पृ.304) इस संदर्भ में आर.एस. शर्मा और के. एम. श्रीमाली ने भी विस्तार से विचार किया है ( कम्प्रिहेंसिव हिस्ट्री ऑफ इंडिया, खंड, भाग-2 (ए. डी. 985-1206) आगामी अध्याय ङ्गङ्गङ्ग (ड्ढ) ‘बुद्धिज्म फुटनोट्स’ 79-82।)

न केवल बौद्ध धम्म के धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्थलों को हिंदुत्ववादियों ने नष्ट किया, उसके साथ ही बड़े पैमाने पर जैन धर्म स्थलों और मूर्तियों को हिंदुत्वादियों ने तोड़ा और उन्हें हिंदू धर्मस्थलों का रूप दिया। असल में डी.एन. झा प्राचीनकालीन और पूर्व-मध्यकालीन इतिहास को ब्राह्मण-श्रमण विचारों-परंपराओं के संघर्ष के रूप में देखते हैं और साक्ष्यों के आधार पर यह स्थापित करते हैं कि ब्राह्मणवादियों ने बड़े पैमाने पर बौद्ध मठों, स्तूपों और ग्रंथों को नष्ट किया और बौद्ध भिक्षुओं की बड़े पैमाने पर हत्या की। नालंदा विश्वविद्यालय और पुस्तकालय को जलाया जाना भी इस प्रक्रिया का हिस्सा था। ब्राह्मणों और श्रमणों के बीच संघर्ष का क्या रूप था। इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध वैयाकरण पंतजलि (द्वितीय शताब्दी) लिखते हैं कि, ”श्रमण और ब्राह्मण एक दूसरे के शाश्वत शत्रु (विरोध: शाश्वतिक:) हैं, उनका विरोध वैसे ही है, जैसे सांप और नेवले के बीच। (उद्धृत डी.एन.झा, पृ. 34, हिंदू पहचान की खोज)

यह शत्रुता लंबे समय तक जारी रही है और बड़े पैमाने पर बौद्धों-जैनों और श्रमण पंरपरा के अन्य वाहकों के खिलाफ ब्राह्मणवादियों द्वारा हिंसा जारी रही। यह हिंसा न केवल श्रमण विचारों के वाहकों के खिलाफ हुई, इसके साथ वैदिक-ब्राह्मणवादी परंपरा के विभिन्न संप्रदायों के बीच भी व्यापक हिंसा हुई, जिसमें वैष्णवों और शैवों के बीच हिंसा भी शामिल है। अपनी किताब ‘हिंदू पहचान की खोज’ में डी.एन. झा श्रमणों के खिलाफ ब्राह्मणवादियों की व्यापक हिंसा के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। वह लिखते है कि ”बौद्ध रचना दिव्यावदान (तीसरी शताब्दी) में पुष्यमित्र शुंग को बौद्धों का बहुत बड़ा उत्पीड़क बताया गया है : वह चार गुना सेना के साथ बौद्धों के विरुद्ध निकल पड़ता है, स्तूपों को नष्ट करता है, बौद्ध विहारों को जला देता है और शाकल (सियालकोट) तक भिक्षुओं की हत्या करता जाता है और जहां वह प्रत्येक श्रमण के सिर के लिए एक सौ दीनार के ईनाम की घोषणा करता है।‘’ (दिव्यावदान, सं. ई. बी. कोकेल और आर.ए.मील, कैम्ब्रिज, 1886, पृ.433-34)

डी.एन. झा लिखते हैं कि बौद्धों और जैनियों के विरुद्ध शैव तथा वैष्णव अभियान सिर्फ जहरीले शब्दों तक सीमित नहीं थे। ह्यूआन सांग को उद्धृत करते हुए वह लिखते हैं कि ”हर्षवर्धन के समकालीन गौड़ राजा शशांक ने बुद्ध की मूर्ति हटाई थी। यह भी बताते हैं कि शिवभक्त हूण शासक मिहिरकुल ने 1600 बौद्ध स्तूपों और मठों को नष्ट किया तथा हजारों बौद्ध भिक्षुओं तथा सामान्य जनों की हत्या की।‘’ (सैमुअल बील, सीयू : बुद्धिस्ट रिकार्ड्स ऑफ वस्टर्न वर्ल्ड, दिल्ली, 1969, पृ.171-72, उद्धृत डी.एन. झा) कश्मीर में बौद्धों के दमन का महत्वपूर्ण प्रमाण राजा क्षेमगुप्त (950-58) के शासन में मिलता है। उन्होंने श्रीनगर में स्थित बौद्ध विहार जयेंद्र विहार नष्ट करके उसकी सामग्री का प्रयोग श्रेमगौरीश्वर के निर्माण के लिए किया। (राजतरंगिणी ऑफ कल्हण, 1.140-144, उद्धृत डी. एन. झा) ”उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में नष्ट किए गए सैंतालिस किलेबंद नगर के अवशेष मिले हैं, जो वास्तव में बौद्ध नगर थे और जिन्हें ब्राह्मणवादियों ने बौद्धवाद पर अपनी जीत की खुशी में आग लगाकर बर्बाद किया था।‘’ (उद्धृत, डी. एन. झा, सोसायटी एंड कल्चर इन नॉर्दन इंडिया इन ट्केल्थ सेंचुरी, इलाहाबाद, 1973, पृ.436) वर्ल्ड

बौद्ध बनाम वैष्णव

बौद्धों के प्रति ब्राह्मणवादियों में किस कदर नफरत थी, इसका एक बड़ा उदाहरण देते हुए डी.एन. झा लिखते हैं कि दक्षिण भारत में तेरहवीं शताब्दी के एक अल्वार ग्रंथ के अनुसार वैष्णव कवि-संत तिरुमण्कई ने नागपट्टिनम में एक स्तूप से बुद्ध की एक बड़ी सोने की मूर्ति चुराई और उसे पिघलाकर एक अन्य मंदिर में प्रयुक्त किया, कहा गया कि वह मंदिर बनाने का आदेश स्वयं भगवान विष्णु ने उन्हें दिया था। (रिचर्ड एव. डेविस, लाइव्स ऑफ इमेजेज, प्रथम संस्करण, दिल्ली, 1999, पृ.83)। डी. एन. झा प्रमाणों के साथ यह प्रस्तुत करते हैं कि ब्राह्मणवादियों ने बौद्धों से कहीं ज्यादा जैनियों का दमन किया है।

छठवीं सदी आते-आते मंदिर धार्मिक आस्था के नहीं, राजा की शान और सम्मान के साथ-साथ वैभव के प्रतीक बन चुके थे जिन्हें तोडऩा राजा का मान-मर्दन था और धन हासिल करने का स्रोत भी। छठवीं सदी में पल्लव वंश के राजा नरसिंहवर्मन ने जब चालुक्य राज्य की राजधानी वातापी पर विजय हासिल की तो वहां का गणेश मंदिर ध्वस्त कर दिया और उसमें रखा सोना लूट लिया। पचास साल बाद चालुक्यों ने उत्तर भारत पर आक्रमण किया तो लूट कर विजय प्रतीक के रूप में गंगा और यमुना की मूर्ति ले आए। आठवीं सदी में बंगाल की सेनाओं ने कश्मीर के प्रतापी शासक ललितादित्य से बदला लेने के लिए आक्रमण किया तो वहां एक मूर्ति को विष्णु की मूर्ति समझकर तोड़ डाला। नौवीं सदी के आरम्भ में राष्ट्रकूट राजा गोविंद तृतीय ने कांचीपुरम पर कब्जा किया तो श्रीलंका का राजा इतना डर गया कि सिंहल राज्य के प्रतीक के रूप में बौद्ध मूर्तियां भिजवाई उसे जिसे गोविंद ने विजय प्रतीक के रूप में शैव मंदिरों में स्थापित किया। लगभग उसी समय पांड्य राजा श्रीमर श्रीवल्लभ ने श्रीलंका पर आक्रमण कर बुद्ध की सोने की मूर्ति को लूटकर अपने खजाने में स्थापित किया।

ग्यारहवीं सदी में चोल वंश के प्रतापी राजा राजेंद्र प्रथम ने विभिन्न राज्यों से लूटी गई मूर्तियां अपनी राजधानी में स्थापित कीं। तेरहवीं सदी में परमार राजाओं ने गुजरात में जैन मंदिरों में लूटपाट की तो 1460 में उड़ीसा के सूर्यवंशी गजपति वंश के संस्थापक कपिलेंद्र ने तमिल राज्य पर आक्रमण कर काकेरी डेल्टा के आसपास शैव और वैष्णव दोनों मंदिरों को लूटा।  (देखें रिचर्ड एम. एटन का आलेख,’टेंपल डिसक्रेशन इन इंडिया’,  फ्रंटलाइन  में 9 दिसंबर, 2000)

जब इस्लाम अनुयायी आक्रमणकारी भारत आए तो उन्होंने भी आर्थिक समृद्धि और सत्ता के प्रतीक मंदिरों को लूटा और तोड़-फोड़ भी की। ज्यादात्तर उन मंदिरों को लूटा गया, जहां अकूत दौलत थी। इसमें सोमनाथ का मंदिर भी था। जिसे मुहम्मद गजनवी ने 1024 में लूटा था। अन्य मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भी वैभव और सत्ता के प्रतीक मंदिरों को लूटा और उन्हें नष्ट किया। मुगलकाल के बड़े दौर में मंदिरों का लूटने और तोडऩे की घटनाएं नहीं दिखाई देती हैं, लेकिन औरंगजेब के शासनकाल (1658- 1707 में) में कुछ मंदिरों को तोडऩे के आदेश के प्रमाण मिलते हैं। हालांकि कई सारे मंदिरों को औरगंजेब द्वारा जमीन भी मुहैया कराने के साक्ष्य मौजूद हैं।

इस तरह हम देखते हैं कि सत्ता और वैभव के प्रतीक धार्मिक-सांस्कृतिक स्थलों को तोडऩे और उनमें से कुछ की जगह पर नए धार्मिक-सांस्कृतिक स्थल निर्मित करने की भारत में हजारों वर्षों का एक सिलसिला रहा है। जहां एक ओर हिंदू राजाओं ने बौद्ध और जैन धार्मिक स्थलों को तोड़ा, वहीं दूसरी ओर हिंदू राजाओं ने दूसरे हिंदू राजाओं के सत्ता और वैभव के प्रतीक मंदिरों को लूटा और तोड़ा। यह सिलसिला ब्रिटिश सत्ता की स्थापना के बाद बंद हुआ। भले ही भारत में ब्रिटिश सत्ता एक औपनिकेशिक सत्ता रही हो, लेकिन ऐतिहासिक धार्मिक-सांस्कृतिक स्थलों के संदर्भ में उनकी दृष्टि पूरी तरह पुनर्जागरण और आधुनिकता से प्रेरित रही है। भारत के हड़प्पा-मोहनजोदड़ो (सिंधु-घाटी सभ्यता) की खोज, खजुराहो एवं अजंता-एलोरा की गुफाओं की कलाकृतियों की खोज, अशोक के शिलालेखों की खोज, बौद्ध विहारों की खोज और अन्य बौद्ध स्थलों की खोज, ऐतिहासिक मंदिरों की खोज, मध्यकालीन धार्मिक-सांस्कृतिक स्थलों की खोज और उनका जीर्णोद्धार और संरक्षण ब्रिटिश पुरातत्वविदों ने किया। उन्होंने इन्हें मानव सभ्यता की सामूहिक विरासत मानकर भविष्य की पीढिय़ों के लिए संरक्षित किया। आज के अधिकांश ऐतिहासिक धार्मिक-सांस्कृतिक स्थल ब्रिटिश इतिहासकारों और पुरातत्वविदों की खोज हैं। आजाद भारत से यह उम्मीद की गई थी कि वह ऐतिहासिक इमारतों के प्रति मध्यकालीन नजरिए की जगह आधुनिक नजरिया अपनाएगा और चाहे किसी भी धर्म-संस्कृति से जुड़े स्थल होंगे उन्हें मानव जाति की धरोहर के रूप में जस का तस संरक्षित करेगा। काफी हद तक यह हुआ भी, लेकिन 6 दिसंबर 1992 को हिंदू कट्टपंथियों के गिरोह ने लालकृष्ण आडवानी के नेतृत्व में बाबरी मस्जिद का विध्वंस करके मध्यकालीन बर्बर कृत्यों को दोहराया। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने धार्मिक आस्था के नाम पर उसे रामजन्मभूमि घोषित करके बर्बर कृत्य पर अपनी मुहर लगा दी। उम्मीद थी कि 1991 का पूजा स्थल कानून बाबरी मस्जिद को तोडऩे जैसे बर्बर कृत्य को भारत में पुन: दोहराने पर रोक लगा देगा और किसी भी ऐतिहासिक धार्मिक-सांस्कृतिक स्थल से छेड़छाड़ नहीं की जाएगी, लेकिन उच्चतम न्यायालय द्वारा धार्मिक स्थलों के चरित्र (धार्मिक चरित्र) की पहचान करने की इजाजत ने पुन: ऐतिहासिक धार्मिक-सांस्कृतिक स्थलों के अतीत में हिंदू धर्म स्थल होने या मुस्लिम धर्म स्थल होने के विवाद और संघर्ष को फिर से जन्म दे दिया है। जिसका फायदा धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले संगठन उठाएंगे और भारत को मध्यकालीन बर्बरता की ओर ढकेलेंगे।

संपूर्ण मानव जाति और देश विशेष (भारत) के हित में यह होता कि सभी ऐतिहासिक धार्मिक-सांस्कृतिक स्थलों को मानवता की सामूहिक विरासत मानकर जस का तस संरक्षित किया जाता और उन्हें उसी रूप में भविष्य में पीढिय़ों को सौंपा जाता। यही आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण का तकाजा है और यही होना चाहिए।

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