लेखकीय प्रतिरोध की नई मिसाल

Share:

– धीरेश सैनी

लोकतांत्रिक संस्थाओं से लेकर शैक्षणिक-सांस्कृतिक क्षेत्र तक तेज हो रहे भगवाकरण के हमलों के बीच बुद्धिजीवी वर्ग के प्रतिरोध के तरीके परिस्थितियों के मुताबिक अलग-अलग हो सकते हैं। कर्नाटक में स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम का भगवाकरण किए जाने के आरोपों को लेकर चल रहे विवाद के बीच दो कन्नड़ लेखकों देवनुरु महादेव और जी. रामकृष्ण ने प्रतिरोध के रास्ते की एक नई मिसाल पेश की है। इन दोनों ने स्कूली पाठ्यक्रम में अपने पाठ शामिल करने के लिए दी गई अनुमति वापस ले ली है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अकादमिक अध्ययन के अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक मानदंडों के बजाय इतिहास-पुरातत्व, आदि को लेकर अपने मनचाहे पाठ प्रस्तुत कर विवाद खड़ा करता रहा है। अधिकतर राज्यों में भाजपा के सत्ता में आने के बाद लोकतांत्रिक संस्थाओं पर आरएसएस की पकड़ मजबूत होने और मनोनुकूल जनमत तैयार कर लेने के बाद इस तरह के अभियान तेज हुए हैं।

फि़लहाल कर्नाटक की भाजपा सरकार ने 2022-23 शैक्षणिक सत्र के लिए कक्षा 10 की कन्नड़ और सामाजिक विज्ञान की पाठ्य-पुस्तकों में रोहित चक्रतीर्थ कमेटी की संस्तुति के आधार पर जो बदलाव किए हैं, उन्हें लेकर बुद्धिजीवियों और विरोधी दलों ने शिक्षा का भगवाकरण करने का आरोप लगाया है। नए पाठ्यक्रम में आरएसएस के संस्थापक और पहले सरसंघचालक केशव बलिराम हेडगेवार का भाषण शामिल किया गया है। आरोप है कि भगत सिंह, बसवन्ना, पेरियार, नारायण गुरु व टीपू सुल्तान जैसी समाज सुधारक और ऐतिहासिक शख्सियतों से जुड़ी सामग्री या तो हटाई गई है या फिर उनमें मनचाहे बदलाव किए गए हैं। आरोप है कि एल. बसवराजू, ए. एन. मूर्ति राव, पी. लंकेश और सारा अबूबकर की रचनाएं पाठ्यक्रम से बाहर कर दी गई हैं।

कई संगठनों और राजनीतिक दलों के विरोध प्रदर्शनों के बीच सबसे प्रभावी प्रतिरोध प्रतिष्ठित उपन्यासकार और दलित बुद्धिजीवी देवनुरु महादेव और वामपंथी विचारों वाले विद्वान जी. रामकृष्ण ने दर्ज कराया है। इन दोनों ने अपनी रचनाओं को भी पाठ्यक्रम से बाहर करने के लिए कहा है। इन दोनों ने कहा है कि अगर उनकी रचनाएं पाठ्यक्रम में रहती हैं तो इसमें उनकी अनुमति शामिल न मानी जाए।

बहुत से लेखक पाठ्यक्रमों में अपनी रचनाएं शामिल कराने के लिए तरह-तरह के समझौते करते हों और जरूरी मसलों पर चुप्पी साध लेते हों तब इन प्रतिष्ठित लेखकों का यह ऐलान सुखद हैरानी पैदा करता है। इन लेखकों का निर्णय इसलिए भी आदर्श की तरह देखा जा रहा है कि सशक्त प्रतिरोध के लिए जरूरी नहीं, बड़े सामूहिक आंदोलन का इंतजार किया जाए। जैसा कि प्रेमचंद ने कहा था कि कायरता की तरह साहस भी संक्रामक होता है, ऐसे उदाहरण हर-सू बढ़ती जा रही घुटन के बीच विवेक और प्रतिरोध को प्रेरित करते हैं।

गौरतलब है कि देश में बढ़ती असहिष्णुता के विरोध में साहित्यकारों ने 2015 में साहित्य अकादेमी व दूसरे सरकारी पुरस्कारों को लौटाने का राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया था तो उसके पीछे केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध कन्नड़ विद्वान एमएम कलबुर्गी की हत्या (30 अगस्त, 2015) भी थी। उल्लेखनीय है कि एमएम कलबुर्गी, गौरी लंकेश, नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे की हत्या की वारदातों में हिंदुत्ववादी संगठनों पर आरोप लगे हैं। इन चारों में से गौरी लंकेश और एमएम कलबुर्गी का ताल्लुक कर्नाटक से ही है। जिन लेखकों को पाठ्यक्रम से हटाया गया बताया जा रहा है, उनमें शामिल पी. लंकेश हिंदुत्ववादियों के हाथों शहीद हुईं पत्रकार गौरी लंकेश के पिता हैं। कहने का आशय यह कि दक्षिण भारत का राज्य कर्नाटक धीरे-धीरे हिंदुत्व के एक मजबूत गढ़ के रूप में स्थापित हुआ है तो वहां प्रतिरोध के बौद्धिक स्वर भी मुखर रहे हैं।

गौरतलब है कि भाजपा के बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित होने के बाद भी बहुत से विश्लेषक यह दावा करते रहे थे कि इस पार्टी का मुख्य प्रभाव हिंदी पट्टी में ही है। दक्षिण या उत्तर-पूर्व के राज्यों में भाजपा का कोई असर नहीं है। ऐसा कहने वाले वही लोग थे जो भाजपा के असर का आकलन लोकसभा या विधानसभा की सीटों से करते थे जबकि भाजपा का प्रभाव उसके पितृ संगठन आरएसएस के प्रभाव से समझा जाना चाहिए था।

कर्नाटक दक्षिण भारत का पहला राज्य था जहां 2008 में भाजपा ने अपनी स्वतंत्र सरकार बनाने में कामयाबी हासिल की थी। आज उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी भाजपा की सरकारें हैं तो इसकी वजह केंद्र में उसकी सरकार की ताकत तो है ही लेकिन उससे ज्यादा आरएसएस का काम है। अविभाजित असम (जिसमें पूर्वोत्तर के अधिकतर राज्य शामिल थे) में आरएसएस के तीन प्रचार कों दादा राव परमार्थ, वसंत राव ओक और कृष्ण परांजपे ने 1946 में गुवाहाटी, डिब्रूगढ़ और शिलॉन्ग में शाखाएं शुरू कर दी थीं। महाराष्ट्र का पड़ोसी कर्नाटक में हेडगेवार और गोलवलकर की कोशिशों से आरएसएस की जड़ें इससे पहले ही पड़ चुकी थीं। हेडगेवार 1935 में कर्नाटक के इलाकों में अपने प्रमुख स्वयंसेवकों के साथ यात्रा/पथ-संचलन कर रहे थे और 1940 तक वहां संघ का आधार बन चुका था। आज की तारीख में कॉरपोरेट का सेंटर माने जाने वाले बेंगलुरू के ‘मॉडर्न यूथ’ पर भी आरएसएस की मुहिम का अच्छा-खासा असर है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले देशभर में मुद्दा बनाए गए हिजाब विवाद को इसी राज्य में खड़ा किया गया था। 1994 में हुबली के ईदगाह मैदान में तिरंगा फैलाने का ऐलान कर बड़ा बवंडर रचा गया था। इस मामले में उमा भारती को अदालत से समन भी जारी हुआ था पर बाद में केस रफा-दफा हो गया था। 2001 में इसी ईदगाह मैदान में विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल का जन्मदिन मनाने की कोशिश की गई थी। गौरक्षा, लव-जिहाद, हिजाब जैसे कोई न कोई मसला खड़ा रखकर इस राज्य का महौल हमेशा गर्म रखने की कोशिशें की जाती रही हैं।

ऐसे माहौल में देवनुरू महादेव और जी. रामकृष्ण के हस्तक्षेप का महत्व बढ़ जाता है। साहित्य अकादेमी (केंद्रीय) पुरस्कार से सम्मानित जन-बुद्धिजीवी महादेव ने कन्नड़ भाषा से जुड़े मसले को लेकर पांच लाख एक हजार रुपए की राशि का नृपतुंगा पुरस्कार लेने से मना कर दिया था। उन्होंने 1990 में लेखक कोटे से राज्यसभा जाने के प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया था। अंग्रेजी के रिटायर्ड प्रोफेसर जी. रामकृष्ण संस्कृत के भी विद्वान हैं और भगत सिंह, चेग्वेरा, योगपर्व, लोकायत दर्शन और अंतरराष्ट्रीय मसलों पर किताबें लिख चुके हैं। वह बंगलौर विश्वविद्यालय की सीनेट और एकेडेमिक काउंसिल में अध्यापकों के निर्वाचित प्रतिनिधि के तौर पर 10 साल रह चुके हैं।

Views: 169

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*