जरूरत नागरिक संहिता की है!

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– रंगनायकम्मा

शादी, तलाक, गोद लेने और संपत्ति पर अधिकार मिलने जैसे कई मायनों में, अलग-अलग धर्मों के रीति-रिवाज और नियम अलग-अलग हैं! क्यों? ऐसा क्यों है कि वे लोग जो भारत में धर्म और जाति की समानता का उपदेश देते हैं, आमदनी के अंतर के मसले को छूते ही नहीं हैं, जो कि लोगों की रोजी-रोटी का स्रोत है?

 

अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने एक सभा में कहा, ”आप मुझे बताइए, एक घर में परिवार के एक सदस्य के लिए एक कानून हो, परिवार के दूसरे सदस्य के लिए दूसरा कानून हो, तो क्या वो घर चल पाएगा? कभी भी चल पाएगा क्या?’’ पिछले कई दिनों से यह खबर चर्चा का विषय बनी हुई है! पार्टी कार्यकर्ताओं को दिए गए अपने भाषण में मोदी ने सभी धर्मों के लोगों को समान नागरिक बनाने के लिए ‘समान नागरिक संहिता’ (यू.सी.सी.) लागू किए जाने के महत्व पर जोर दिया। हम सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं कि मोदी ने पांच राज्यों में होने वाले आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए ही यह प्रवचन दिया होगा। यह भाषण दरअसल  हिंदू मतदाताओं को भाजपा के पीछे लामबंद करने का एक प्रयास ही है क्योंकि ये लोग जानते हैं इन्हें मुस्लिमों के वोट नहीं मिलने वाले। कुछ विपक्षी दल एकदम सही आलोचना कर रहे हैं कि मोदी की इस चाल का उद्देश्य देश के लोगों को नागरिक मानना नहीं बल्कि उन्हें हिंदू और मुसलमान में विभाजित करना है।

समान नागरिक संहिता के अच्छे और बुरे पक्ष पर चर्चा करने से पहले, हमें इसके बारे में बुनियादी जानकारी हासिल कर लेनी चाहिए। बेशक, सिर्फ किसी एक देश के ही नहीं, बल्कि इस पूरी दुनिया के सभी नागरिकों के व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन को नियंत्रित करने के लिए लिंग, क्षेत्र, धर्म और जाति के भेद से परे, एक समान कानून (संहिता) आवश्यक है! उदाहरण के लिए, किन्हीं एक या दो विशेष धर्मों में एक पुरुष कई महिलाओं के साथ शादी कर सकता है! किसी अन्य धर्म में तलाक पाना न सिर्फ महिलाओं के लिए ही, बल्कि पुरुषों के लिए भी कठिन है और लगभग असंभव है! सभी धर्मों में स्त्रियों और पुरुषों के लिए संपत्ति कानून अलग-अलग होते हैं! एक पुरुष की नजर में स्त्री की हैसियत कम ही होती है! इसी तरह, महिला की नजर में पुरुष का औहदा ऊंचा होता है! यानी शादी, तलाक, गोद लेने और संपत्ति पर अधिकार मिलने जैसे कई मायनों में, अलग-अलग धर्मों के रीति-रिवाज और नियम अलग-अलग हैं! क्यों? ऐसा क्यों है कि वे लोग जो भारत में धर्म और जाति की समानता का उपदेश देते हैं, आमदनी के अंतर के मसले को छूते ही नहीं हैं, जो कि लोगों की रोजी-रोटी का स्रोत है?

भारत का संविधान ‘समान नागरिक संहिता’ की जरूरत बताता है। हालांकि, यह इसे लागू किए जाने के लिए आवश्यक उचित परिस्थितियों के बारे में नहीं बताता! एक ओर तो संविधान नागरिकों को अपने-अपने धर्मों के रीति-रिवाजों का पालन करने के अधिकार को मान्यता देता है और  दूसरी ओर, संविधान सुझाव देता है कि सभी नागरिकों की धार्मिक मतभिन्नताओं के बावजूद, उनके व्यक्तिगत और घरेलू जीवन को नियंत्रित करने वाली एक समान संहिता होनी चाहिए! कितना चतुर है संविधान! एक तो ‘मौलिक’ अधिकार है, और दूसरा सिर्फ एक ‘सुझाव’ है! कोई सुझाव कभी कानून नहीं हो सकता! अब तक, समान नागरिक संहिता सिर्फ एक सुझाव बना रहा; हालिया कोशिशें इसे एक कानून बना देने की हैं।

भाजपा कार्यकर्ताओं ने जरूर मोदी से तर्क सहित सवाल किया होगा, ”हुजूर, आप इस बात पर जोर देते हैं कि सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता के नाम पर एक जैसा कानून होना चाहिए। हालांकि, यह संहिता सिर्फ व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन से ही संबंधित है, है न? लेकिन सभी नागरिकों के आर्थिक हालात तो एक समान नहीं हैं!’’ ‘आर्थिक हालात’ का तात्पर्य करेंसी नोटों की उपलब्धता से नहीं है। इसका मतलब है श्रम करना और उत्पादन संबंधी गतिविधियों में शामिल होना। कुछ नागरिक अकूत संपत्ति के मालिक हैं, जबकि अनेकों के पास हाड़तोड़ परिश्रम करने के अलावा कोई चारा नहीं है। देश में कितनी जमीन उपलब्ध है? क्या यह जमीन सभी नागरिकों की साझा संपत्ति है? क्या कारखानों में उत्पादों का अंबार लगाने वाले मजदूरों की स्थिति एक समान है? सभी किस्म के यातायात के साधन बनाने और चलाने तथा करोड़ों-करोड़ रुपयों के ढेर लगाने के पीछे कौन लोग हैं? और इन यातायात के साधनों पर मालिकाना किसका है? संपत्ति पर अधिकार का आधार क्या है? सबसे निचली जातियों से आने वाले सफाईकर्मी, जो शौचालय साफ करते हैं, उनका किन संपत्तियों पर मालिकाना हक होता है? क्या उत्पादन गतिविधियों में चौबीसों घंटों खटने वाले हमारे देश के मजदूरों की सुख-सुविधाएं समान हैं? क्या पुरुष भी बच्चों के पालन-पोषण और बुजुर्गों की सेवा जैसे घरेलू काम करने में समान रूप से भागीदारी करते हैं? कामगार लोग बौद्धिक और शारीरिक श्रमिकों के रूप में बंटे हुए हैं। जब नागरिकों द्वारा किए जा रहे कामों की प्रकृति ही समान नहीं है, तब क्या नागरिक समान हो सकते हैं?

आर्थिक असमानताओं को अच्छी तरह से समझ लेने के बाद, हमें मोदी जैसे नेताओं के सामने क्या सवाल रखना चाहिए? ”क्या खेतों, कारखानों और परिवहन के क्षेत्र में तमाम किस्म के श्रम करते हुए दिन-रात खटने वाले नागरिकों और उन नागरिकों के बीच कोई समानता है, जो ऐसा कोई श्रम नहीं करते? ऐसा सवाल उठाए बिना, क्या हमें शादी, तलाक, गोद लेने, या ऐसे ही अन्य मामलों में समान कानून के बारे में सोचना चाहिए? ‘’हे, महानुभाव, जब नागरिकों के अधिकार ही सार्वभौमिक और समान नहीं हैं, तब आप समान नागरिक संहिता पर महाउपदेश क्यों दे रहे हैं?’’ क्या इस देश के लोग मोदी से इस तरह सवाल नहीं पूछ सकते? ऐसे सवाल उन लोगों के मन में नहीं आते जो चुनाव के रंग में डूबे हुए हैं और जो अपने नेताओं के व्यक्तित्व पर बलिहार हुए जाते हैं!

एक समान नागरिक संहिता कब संभव होगी? सिर्फ तब, जब एक ‘समान आर्थिक संहिता’ का अस्तित्व होगा! समान आर्थिक संहिता का मतलब होगा एक ऐसा कानून जो मानव अस्तित्व का आधार तय करने वाली खेती योग्य भूमि, खदानों, जंगलों, उद्योगों और परिवहन के साधनों को सभी नागरिकों की साझा संपत्ति, या अन्य शब्दों में कहें तो ”सामाजिक संपत्ति’’ बना दे। जो कानून ऐसे ऐसी साझा संपत्ति पर जोर दे, वही समान आर्थिक संहिता है। समान आर्थिक संहिता एक ऐसी व्यवस्था है जो इस बात पर जोर देती है कि बच्चों, बूढ़ों और बीमारों को छोड़कर सभी पुरुष और स्त्रियां विभिन्न मूल्यों की उत्पादन गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी निभाएं! सिर्फ ऐसी ही कोई व्यवस्था समान नागरिक संहिता की ओर ले जा सकती है!

जहां कोई राज्य श्रम के शोषण को बढ़ावा देता है, वहां अतार्किक धार्मिक रीति-रिवाज लोगों के जीवन को निर्देशित करते हैं! जब तक असमान श्रम विभाजन से पैदा हुई जाति व्यवस्था मौजूद है, तब तक सभी जाति के नागरिकों को जाति पर आधारित परंपराएं और रीति-रिवाज अपने वश में किए रहेंगी। एक ऐसे समाज में, जहां भयानक गरीबी व्याप्त हो और एक सामूहिक आर्थिक व्यवस्था का अभाव हो, वहां महिलाओं को मनोरंजन के साधन की तरह खरीदने-बेचने जैसे धंधे उभरते हैं और प्रचलित भी हो जाते हैं। क्या समान नागरिक संहिता से धर्म, जाति और वेश्यावृत्ति जैसे पेशे विलुप्त हो जाएंगे? यह सच है कि मौजूदा असमानताओं में सुधार लाने से कुछ मन तो बहल जाएगा। किंतु एक ऐसे समाज में, जहां आमूल-चूल और बुनियादी बदलावों की तत्काल आवश्यकता है, क्या किस्तों में किए जाने वाले सुधार कायम रह सकेंगे?

प्रधानमंत्री के करुण हृदय ने कराहते हुए कहा, ”समान नागरिक संहिता का विरोध करने वाले लोग मुस्लिम बेटियों और पिछड़ी ‘पसमांदा’ मुस्लिम जातियों के साथ विश्वासघात कर रहे हैं!’’ तो क्या बिलकिस बानो और अन्य मुस्लिम महिलाओं का यौन उत्पीडऩ करने वाले अपराधियों को रिहा करना मुस्लिम बेटियों के साथ विश्वासघात नहीं है?

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