नदियों का विद्रोह

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– अरण्य रंजन

पर्वतीय क्षेत्रों से बाढ़ का आना एक समय तक अच्छा माना जाता था पर विगत कुछ वर्षों में इसने जो रूप ले लिया है वह पहले ही गंभीर चिंता का बनना चाहिए था जो बन नहीं पाया। ऐसा क्यों हुआ?

लाखों वर्ष पूर्व मानव शिकारी व भोजन संग्राहक बनकर जी रहा था। धीरे-धीरे उस मानव ने पशुपालन करना शुरू किया और इसके बाद उसको धरती से अन्न उगाने की विधा समझ में आई। कृषि करने के लिए नदियों के तट अधिक उपयोगी होने के कारण वह नदियों के किनारे अपनी बसाहट को बनाने लगा।

इस तरह से दुनिया की महान सभ्यताओं ने नदियों के तटों पर जन्म लिया। वह नदियों के तट ही थे जहां पर मनुष्य ने अपने वर्तमान की यात्रा आरंभ करके सभ्य होने के अर्थ को विभिन्न ढंग से परिभाषित करते हुए उसे सिद्ध भी किया। अपने लिए सुख-सुविधाओं और व्यवस्थाओं को बनाते हुए मनुष्य ने विकसित होने की अभिलाषा को निरंतर गतिमान रखा। आरभिंक बिंदु पर नदियों व प्रकृति से जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ती करने लायक निर्भरता के साम्य से प्रकृति और मनुष्य का संतुलित संबंध बना। मानव में अपनी आवश्यकताओं के बाहर जाकर जीने की इच्छा पनपने से उसका प्रकृति के साथ साम्य बिगडऩा आरंभ हुआ और प्रकृति को उपयोग करने के स्थान पर उपभोग करने की संस्कृति पैदा हुई। दुनिया भर के देशों और समाजों में उपभोग करने की संस्कृति तेजी से फलफूल रही है। उपभोग की प्रवृत्ति को पोषित करने के लिए विकास के नाम पर ऐसे कार्यों को धड़ल्ले से किया जा रहा है, जहां पर प्रकृति का दोहन उसके शोषण की पराकाष्ठा तक चला जाता है। यही वह बिंदु है जो मनुष्य को प्रकृति से दूर ले जाने में महत्वपूर्ण कारक सिद्ध हो रहा है। मनुष्य और प्रकृति का अलगाव विनाश का कारण बन रहा है। यही वजह है कि जीवनदायिनी नदियां बेरुखी का बर्ताव करके मनुष्य की मौत का कारण बन रही हैं।

बाढ़ का आना एक समय तक अच्छा माना जाता था और मैदानी क्षेत्रों के किसान बाढ़ आने का इंतजार करते थे। पर्वतीय क्षेत्रों से बाढ़ के साथ बहकर आई उपजाऊ मिट्टी खेतों की उत्पादकता को बढ़ाती थी और दो-चार दिन बाद पानी अपने पुराने रास्ते पर चला जाता था। पहाड़ों में भी बिना बड़ा नुकसान किए नदियों की बाढ़ अपने गंतव्य तक चली जाती थी। हालिया वर्षों में बाढ़ से होने वाली घटनाएं गंभीर चिंता का विषय जरूर बननी चाहिए थीं जो बन नहीं पाईं। मानसून 2023 की शुरुआत में कुल्लू हिमाचल के मनाली से लेकर मंडी और विभिन्न क्षेत्रों में आई बाढ़ भयानक तबाही के माध्यम से चेतावनी देने का प्रयास भी कर रही है। हिमाचल में बाढ़ से हुई तबाही का आंकलन समाचारपत्रों में छपी रिपोर्ट के अनुसार अब तक लगभग 80 लोगों की मौत, 100 मकान पूरी तरह से ध्वस्त एवं 350 मकान बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। प्रदेश की 1,300 से अधिक सड़कें बाधित हुई हैं। केंद्र से आई निरीक्षण टीम ने पूरे प्रदेश में 5,000 करोड़ से अधिक की क्षति का आंकलन किया है। कई जिलों से क्षति की रिपोर्ट अभी भी आ रही हैं, अनुमान है कि लगभग 8,000 करोड़ तक की क्षति हो सकती है।

उत्तराखंड में भी प्रतिवर्ष बाढ़ से जान व माल की भारी क्षति होती है। कई आपदाओं के घाव आज भी हरे हैं। केदारनाथ में हुई उस भीषण तबाही को कौन भूल सकता है। वर्ष 2013 में केदारनाथ आपदा के घाव तो पूरे देश के लोगों को सहने पड़े थे। कुल्लू जिले की पार्वती घाटी के निवासी बेलीराम नेगी आंखों देखी बताते हैं कि 48 घंटे तक लगातार मूसलाधार बारिश से पहाड़ों से निकलने वाले छोटे-बड़े सभी नाले विकराल बन गए थे और पार्वती व ब्यास जैसी बड़ी नदियों को भयावह बना रहे थे। बेलीराम नेगी हिमाचल सरकार के आपदा प्रबंधन कार्यक्रम में खोज एवं बचाव के प्रशिक्षक भी हैं। वह बताते हैं कि उनके गांव में किसी ने भी पार्वती नदी का इतना खौफनाक मंजर नहीं देखा था।

जैसे-जैसे विकास के नए आयाम बनाए जा रहे हैं उसी गति से नदियों का व्यवहार भी परिवर्तित हो रहा है।

 

बिना बारिश की बाढ़

उत्तराखंड की हेंवल घाटी में वर्ष 2017 के मई माह में रात्रि के आठ बजे विस्फोट जैसा हुआ। बहुत ज्यादा मात्रा में पानी के बहने की आवाज आने लगी। हम सभी लोग दौड़कर उस तरफ गए तो नदी का जल स्तर बहुत बढ़ा हुआ था। हालांकी कुछ देर बाद हेंवल नदी पूर्ववत अपने सामान्य जल स्तर के साथ बहने लगी। हमारे लिए आश्चर्य था कि बिना बारिश हुए लगभग 15 मिनट की बाढ़ कहां से आ गई। हेंवल के उद्गम स्थल में रहने वाले साथियों को फोन किया तो पता चला कि उन्हें बाढ़ की जानकारी तो नहीं है परंतु वहां पर कुछ देर पहले काफी तेज बरसात हुई है।

इससे पहले भी नदियों में आई बाढ़ से भीषण तबाही हुई है। चमोली जिले में बहने वाली बिरही गंगा में 9 सितंबर, 1893 को आई भयानक बाढ़ ने काफी तबाही मचाई परंतु किसी व्यक्ति के मारे जाने की सूचना नहीं है। पौड़ी गढ़वाल जिले के प्रमुख नगर सतपुली में 14 सितंबर, 1951 को नयार नदी में आई बाढ़ से 22 बस व ट्रक बह गए थे और 30 ड्राइवर व कंडक्टरों की जान गई थी। इसके अलावा किसी अन्य के मारे जाने की सूचना नहीं मिलती है।

उस समय गाडिय़ों को पार्किंग के लिए स्थान न होने के कारण नयार नदी के किनारे ही खड़ा किया जाता था। बाढ़ में बहे सभी ड्राइवर व कंडक्टर अपनी गाडिय़ों में सोये हुए थे। एक बार फिर से 20 जुलाई, 1970 को गौणा ताल टूटने से बिरही गंगा में तबाही मचाने वाली बाढ़ आई और इस बार जानमाल का नुकसान भी हुआ। इस बाढ़ में बेलाकूचि गांव पूरी तरह से बह गया एवं लगभग 70 लोगों की जान गई। इसी तरह 8 अगस्त, 1978 को भागीरथी नदी में आई बाढ़ ने उत्तरकाशी में भारी तबाही मचाई और 25 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। केदारनाथ में वर्ष 2013 में पूरी मानव समाज को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। ऐसा लगता है मानो पूंजीवाद और भौतिकता की होड़ ने हमारे हाथों में कुल्हाड़े दे दिए हैं जिससे हम उसी वृक्ष को काटने में लगे हैं, जिस पर हम बैठे हुए हैं।

पर्वतीय और वनवासी समुदाय प्रकृति के उपासक और संरक्षणकत्र्ता रहे हैं। पहाड़ों में मानव और प्रकृति का परस्पर अटूट रिश्ता रहा है। मनुष्य सदियों से प्रकृति को पोशित व संरक्षित करता आया है। बदले में अपने जीवन और आजीविका को चलाने के लिए लकड़ी, ईंधन, चारा, पानी इत्यादि प्रकृति से लेता रहा है। यह रिश्ता संस्कृति और लोक परंपराओं से सुदृढ़ हुआ। ऐतिहासिक तथ्य है कि अठारहवीं सदी की शुरुआत में अंग्रेज सरकार ने उत्तराखंड पर अपना शासन स्थापित करना प्रारंभ कर दिया, जो गोरखा शासन को हटाने के बाद सन् 1815 में केंद्रीय हिमालय को कब्जे में लेने के साथ पूरा हुआ। इससे पहले यहां के निवासी अपनी जरूरत और सुविधा के अनुसार अपने निवास को स्थापित करते और जीवन निर्वाह के लिए जंगलों से इमारती लकड़ी, ईंधन, चारा इत्यादि लेते थे। प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग को रोकने लिए सामाजिक व्यवहार थे, जो प्रकृति की बरबादी को बाधित करते थे। ब्रिटिश शासन की शुरुआत से लोगों के इन प्रकृति प्रदत्त नैसर्गिक अधिकारों को संकुचित किया जाने लगा। ब्रिटिश शासकों ने लोगों के नियंत्रण में आने वाले वन क्षेत्र में निरंतर कटौती करना शुरू कर दिया। पेड़ों से चारा पानी लेने, चरान व चुगान को सख्ती से बंद करने वाले कानूनों को लागू किया। कृषि क्षेत्र विस्तार को प्रतिबंधित कर दिया। घास की अच्छी पैदावार के लिए लोगों द्वारा जंगल में लगाई जाने वाली नियंत्रित आग पर अंकुश लगाया गया। अधिकारियों और वन रक्षकों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी की गई। ये नियम-कानून लोगों के बीच पनपने वाले असंतोष एवं प्रकृति से दूराव का कारण बने।

 

वनों का व्यवसायीकरण

मानव समाज की विशेषता है, कि वह परंपराओं, संास्कृतिक व्यवस्थाओं और समय-समय पर स्थापित मान्यताओं के आधार पर संचालित होता है। मानव समाज को चलाने वाली ये व्यवस्थाएं अधिकांश शासकों के द्वारा अपने व्यवहार और नीतियों से तय की जाती हैं। ब्रिटिश शासित उत्तराखंड और टिहरी रियासत में अंग्रेजी सरकार के प्रभाव से प्राकृतिक संसाधनों जल, जंगल और जमीन से लाभ कमाने की योजनाओं और व्यवस्थाओं की शुरुआत हुई। जंगलों पर स्थानीय लोगों के अधिकारों का संकुचन और बेतहाशा कटान होने लगा। यहां की बड़ी नदियों को पेड़ों के स्लीपरों के परिवहन का माध्यम बनाया गया। वहीं भूमि बंदोबस्त के नाम पर गरीब असहाय जनता से अनाप-शनाप टैक्सों से धन उगाही की गई। प्राकृतिक संसाधन तेजी से संपत्ति में परिवर्तित हो रहे थे।

अंग्रेजों के द्वारा शुरू किए गए लकड़ी के व्यवसाय स्थानीय धन्ना सेठों व रसूखदार लोगों तक पंहुच गए थे, और उनमें से कईयों ने अच्छी कमाई भी करी। शासक और समाज के गणमान्य समझे जाने वाले कई लोग जल, जंगल व जमीन से मुनाफा कमाकर स्थानीय निवासियों की प्रकृति को सहेजने की सोच को भी बदल रहे थे। प्रकृति से धन लाभ के लिए उसका अनावश्यक दोहन चलन में आया। आम आदमी भी प्रकृति के दोहन और संचय करने की होड़ में शामिल हो गया। चिपको और पर्यावरण संरक्षण वादी आंदोलनों ने प्रकृति को संरक्षित करने की चेतना का प्रसार किया, परंतु सरकारों और नीति नियंताओं की प्रकृति का दोहन करने की प्रवृत्ति निरंतर बढ़ती जा रही है।

नदियों के असामान्य व्यवहार का एक प्रमुख कारण राज्य सरकारों द्वारा नदियों में खनन को अपनी आय का मुख्य जरिया मान लेना भी है। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के इन दोनों ही पर्वतीय प्रदेशों में खनन सरकार का सबसे प्रिय व्यवसाय है। हाल ही में मालन नदी पर कोटद्वार व रानीपोखरी में नदी पर बने पुलों का टूटना असीमित और अवैज्ञानिक खनन का नतीजा माना जा रहा है। दोनों प्रदेशों में खनन लॉबी इतनी मजबूत है, जितनी सरकार होती है। खनन माफिया को राजनेताओं का भरपूर संरक्षण प्राप्त है। वे जब चाहे किसी को उठा लें, मार दें कोई सुनवाई होने की गुंजाइश नहीं होती है। कई सक्रिय अधिकारी अवैध खनन को रोकने में अपनी जान तक गवां चुके हैं। इस सबकी अंतहीन जांच कभी भी नतीजे पर पहुंचती नहीं दिखती है। जब तक ऐसे अवांछित तत्वों को नेताओं और सरकारों का प्रश्रय मिलता रहेगा, नदियां विद्रोह करेंगी और लोगों की जानमाल की क्षति को रोकना संभव नहीं होगा।

सामाजिक सरोकारों से जुड़े वरिष्ठ वैज्ञानिक एस पी सती नदियों में आई बाढ़ से होने वाले नुकसान की अधिकता के लिए विकास परियोजनाओं विशेषकर बांधों व सड़क के मलबे का बेतरतीब निस्तारण और नदियों के मुहाने तक बस गई बस्तियों को जिम्मेदार मानते हैं। यही बात ईरा संस्था कांगड़ा के निदेशक प्रदीप शर्मा अपने अनुभव में बताते हैं कि अतिवृष्टि के कारण नदियों के पानी में अकल्पनीय बढ़ोत्तरी हुई और नुकसान उन्हीं जगहों पर ज्यादा हुआ जहां पर निर्माण कार्य नदियों के निकट किया गया था। केदारनाथ आपदा के बाद व्यापक समझ विकसित करने के लिए श्रीनगर में आयोजित सम्मेलन में वरिष्ठ भू-वैज्ञानिक खडग़ सिहं वल्दिया ने बताया था कि नदियां अपने प्रवाह क्षेत्र को बदलती रहती हैं। लोक स्मृति बहुत कमजोर होती है वह किसी भी घटना को जल्दी से भुला देती है। उन्होंने बताया था कि पिछले 50 वर्षों में बनाई गई अधिकांश बस्तियां नदियों द्वारा लाए गए मलबे के ढेर पर बसी हुई हैं। जब नदी अपने पूराने रास्ते पर चलती है तो इन बस्तियों व निर्माण कार्यों को ही ज्यादा नुकसान होता है।

उत्तराखंड और हिमाचल दोनों ही पर्यटन के लिए जाने जाते हैं। दोनों ही प्रदेशों में रिजार्ट संस्कृति खूब लहलहा रही है। बाहर से आने वाले पर्यटकों को भी नदी किनारे निर्जन में बने रिजार्ट खूब भाते हैं। इन नदी किनारे बने रिजार्टों के द्वारा नदियों और प्राकृतिक संसाधनों का भी खूब दोहन/शोषण किया जाता है। हाल में घटित घटनाओं ने रिजार्ट संस्कृति पर बड़े सवाल खड़े किए हैं, जो प्राकृतिक और पर्यावरण के नुकसान के अलावा सांस्कृतिक और सामाजिक प्रदूषण भी फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। अंकिता भण्डारी को लोग अभी भूले नहीं हैं।

 

रिजार्टों और आश्रमों का बढ़ता कब्जा

रिजार्ट की तरह ही बहुत से आश्रमों ने नदी और उसके किनारों पर खूब कब्जे किए हैं। ऋषिकेश में परमार्थ निकेतन के सामने भगवान शिव की विशालकाय मूर्ती को गंगा नदी के बीचों बीच खड़ा किया गया है। आश्रम हों या रिजार्ट या फिर बस्तियां इन सबको प्रश्रय राजनीति और सरकारों से ही मिलता है वरना कोई कारण नहीं है कि एनजीटी के नियमों को ताक में रखकर सड़क निर्माण का मलबा नदी में फेंकना हो या नदी के तट पर क्रेशर प्लांट चलाना कभी संभव ही नहीं हो पाता।

पूरे परिदृश्य में जीवन को सतत् बनाने और स्थायित्व देने के लिए एकमात्र सुलभ विकल्प प्रकृति के साथ और उसके अनुसार जीना सीखना होगा। देश और दुनिया के सामाजिक संगठनों से जुड़े हिमालय सेवा संघ के पूर्व मंत्री मनोज पांडे कहते हैं कि हमें कदमों को पीछे की ओर मोडऩा पड़ेगा और ‘डिग्रोथ’ कथित विकास व ‘मिनिमाइजेशन’ (न्यूनतमवाद, कम से कम में गुजर) की अवधाराणाओं को व्यापक पैमाने पर प्रसारित करना पड़ेगा। ‘डीग्रोथ’ का अर्थ है पर्यावरणीय न्याय और ग्रहों की सीमाओं के भीतर सभी के लिए अच्छा जीवन सुनिश्चित करने के लिए समाज को बदलना। ‘न्यूनतमवाद’ एक उपकरण  है जो स्वतंत्रता पाने में आपकी सहायता कर सकता है। भय से मुक्ति। चिंता से मुक्ति, संकट से मुक्ति, अपराध बोध से मुक्ति, अवसाद से मुक्ति, जिस उपभोक्ता संस्कृति के इर्द-गिर्द हमने अपना जीवन बनाया है, उससे मुक्ति की बात ही ‘न्यूनतमवाद’ कहता है।

मुख्य बात यह है कि प्रकृति से मिले संसाधनों से हम अपनी आश्यकताओं की पूर्ती करें। अपनी लालसा के लिए उसके अत्यधिक दोहन और शोषण को जितनी जल्दी बंद करेंगे, उतना ही जीवन को स्थायित्व दे पाएंगे। यह बात जन-प्रतिनिधियों, ब्यूरोक्रेट्स, टेक्नोक्रेट्स व कारपोरेट्स इत्यादि को भी समझनी आवश्यक है, कि वे अपने थोड़े से मुनाफे के लिए पूरी मानवता को मौत के मुहाने पर ढकेल रहे हैं। अब समय आ गया है कि सरकारों को स्वीकारना होगा कि उनकी गलत नीतियों और विकास के नाम पर किए वे तमाम कार्य खराब बंदूक की गोली की तरह बैक फायर कर रहे हैं। विकास मानव सभ्यता का महत्वपूर्ण अंग है और इससे कोई भी इनकार नहीं करता है। विकास कैसा हो? इस पर भी बहुत बहसें, आंदोलन और कार्यवाही हुई हैं। इतना तो तय है कि विकास का पूंजीवादी माडल भस्मासुर बन गया है। विकास की इस अवधारणा को पलटकर प्रकृति के अनुरूप सोच और व्यवहार को बदले बिना हम नदियों के व्यवहार में हुए बदलावों की विभीषिका से जीवन को बचाने में कामयाब नहीं हो सकते हैं।

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