लिबास में ढकी मंशाएं

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  • संपादकीय

प्रतिकात्मकता वैसे तो संवाद और संचार का अंग है, इसलिए सर्वव्याप्त है पर जहां तक राजनीति का सवाल है वह इसे किस तरह इस्तेमाल करती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसका चरित्र क्या है। वैसे भी राज्य की परिकल्पना प्रतीकों से अटी पड़ी है। लोकतंत्रों में जहां मतदाता को रिझाना महत्त्वपूर्ण होता है, स्वप्नों और अपेक्षाओं के रसायन से भरी प्रतिकात्मकता का बोलबाला समझ में आने वाला है। यह प्रतिकात्मकता स्वर्णिम विगत और अपेक्षित भविष्य के सपनों का ऐसा रसायन होती हैं जिसका अक्सर तर्क और यथार्थ से कोई लेना देना नहीं होता। पर जो शासितों से होनेवाली प्रतिबद्धता की अपरिहार्य मांग को आसान और सह्य बनाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

यद्यपि प्रतिकात्मकता सत्ता हासिल करने या उस पर बने रहने के असंख्य टोटकों में अंतिम नहीं बल्कि उनमें से एक है, पर यह सबसे प्रभावशाली और मोहक है। इसलिए कि यह एक झंडे, एक वाक्य, एक प्रतीक चिह्न (एंब्लम), एक प्रतिमा, एक टोपी या एक साफे में प्रह््रासित (रिड्यूस्ड) कर उसका संप्रेषण के लिए एक उपकरण या अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करती है। यानी यथार्थ का पर्याय बना देती है।

यद्यपि सर्वमान्य धारणा है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में जनता सामाजिक और राजनीतिक चेतना के स्तर पर सचेत होती है, तभी तो वह अपनी सरकार का चुनाव करती है। पर इसके साथ कई लेकिन-परंतु जुड़े हैं। यानी यह बात शाश्वत नहीं है। उसकी वस्तुगत स्थितियां सामाजिक-आर्थिक स्थितियों जैसे कि शिक्षा, आर्थिक स्तर, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, तुलानात्मक रूप से निष्पक्ष प्रशासन, मतदाता की चेतना, विवेक और दृष्टि को प्रभावित करते हैं।

पर अगर किसी राजनेता या सत्ता पर प्रतीकात्मकता छा जाए और बहुसंख्यक उस पर मुग्ध हो जाएं तो इसे क्या कहा जाएगा? आह्लादकारी तो संभवत: वह नहीं ही होगा।

इधर अंग्रेजी साप्ताहिक वीक में प्रकाशित लेख ‘टर्बंस एंड टेलर-मेड टेल्स’ में जवाहरलाल नेहरू और नरेंद्र मोदी की तुलना करते हुए कहा गया है कि दोनों में कई समानताएं हैं। जैसे कि दोनों को ही प्रचंड बहुमत मिला था और लोग उनके अंध भक्त थे। पर लेखक आर.प्रसन्नन का ज्यादा जोर कपड़े  पहनने के शौक की ओर है।

नेहरू जाड़ों में चूड़ीदार पायजामा कुर्ता और अचकन पहनते थे और गर्मियों में कुर्ते के ऊपर जैकेट। यह जैकेट बंडी भी कहलाता था और एक तरह से पश्चिमी सूट के साथ पहने जानेवाले जैकेट का सुधरा हुआ रूप था। एक तरह से उन्होंने भारतीय राजनेताओं के लिए वेशभूषा का मानक तय कर दिया था जो अपनी सादगी के बावजूद  विशिष्टता लिए हुए है। और उनके देहांत के लगभग छह दशक बाद, तथा मोदी की आंधी के बावजूद, वह मानक कमोबेश बना हुआ है। यह भी अचानक नहीं है कि अटलबिहारी वाजपेयी में भी राजनीतिक टीकाकार नेहरू के हावभाव की छाया ढूंढा करते थे या पाया करते थे। (अजीब संयोग है कि नेहरू की यह छाया भाजपा के ही प्रधान मंत्रियों में ढूंढी जाती है वरना प्रधानमंत्री तो और भी हुए ही हैं।)

लेखक ने विदेशों में नेहरू द्वारा पाश्चात्य वेशभूषा धारण करने को कुछ ज्यादा ही रेखांकित किया है। पर जहां तक नेहरू के विदेशों में अंग्रेजी लिबास पहनने का सवाल है, यह नहीं कहा जा सकता कि वह उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार पहना होगा। वह इंग्लैंड में पढ़ थे और एक अर्से तक उस मुल्क में रहे थे। पैंट-कोट पहनना वहां की जरूरत थी। दूसरे शब्दों में योरोपीय देशों में सूट-टाई वगैरह पहनने को न तो प्रतीकात्मकता कहा जा सकता है और न ही फैशन। पर जहां तक उनके कुर्ते पायजामे का सवाल है वे सदा सफेद हुआ करते थे। महत्वपूर्ण यह है कि वह शायद ही कभी किसी रंगीन कुर्ते में नजर आए हों। हां, अचकन या बंडी, जो जवाहर कट के नाम से भी जाना जाता है, सफेद, काले या फिर हल्के भूरे रंग का हो सकता था।

पर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का पोशाक प्रेम जग जाहिर है। आप इंटरनेट पर जाइए, तो इस पूर्व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के ‘प्रचारक’ के देसी से लेकर विदेशी तक, विभिन्न लिबासों के, चित्र देखे जा सकते हैं। सवाल हो सकता है, क्या नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से अपनी पोशाकों में परिवर्तन किया है या करते रहते हैं, वह सामान्य है? उसका किसी भी रूप में दैनंदिन जीवन से कोई संबंध हो सकता है? उदाहरण के लिए वह सूट, जिस में उनका नाम बुना हुआ था, दुनिया का कोई नेता पहन सकता है? यह बात और है कि इस पर हुई जग हंसाई के बाद मोदी ने फिर कभी वह सूट पहनने की हिम्मत नहीं की।

विगत माह की 15 तारीख को देश उन्हें लंबी पूंछवाला (लग्गे या पल्लेवाला) साफा पहने देख चुका है। पिछले छह साल से वह स्वाधीनता दिवस पर इसी तरह के अलबेले साफे पहन कर देश को संबोधित किया करते हैं। उनका पहनावा अनोखा तो होता है पर अपने आप में उसमें विचित्रता भी कम नहीं होती। क्या सामान्य जीवन में कोई व्यक्ति इतनी बड़ी पूंछवाला साफा पहन कर चल सकता है या उसे चलना चाहिए? निश्चय ही भारतीय संदर्भ में साफा-पगड़ी कुल मिलाकर पीछे छूट चुका एक पहनावा तो है ही साथ में सामंती दौर का प्रतिनिधित्व भी करता है। सच यह है कि वे सामंती घरानेभी, जो इत्तफाक से गुजरात और राजस्थान में अब भी बाकी हैं, इस वेशभूषा को छोड़ चुके हैं।

इधर विवाह-व्यवसाय ने सामंती दौर के इस पहनावे, विशेषकर लंहगों, अचकनों व साफों-पगडिय़ों के फैशन को खूब बढ़ावा दिया है। देखा जाए तो यह प्रवृत्ति भी विशेषकर हिंदू मध्य व उच्च वर्ग में आये पुनर्रुत्थानवाद से जमकर मेल खाती है।

पर हिंदू बारात अपने आप में सत्ता (पुरुष की) और शक्ति (परिवार या समाज की)का ही प्रतीक है। उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में बारात के साथ जाते और आते हुए दो विशाल झंडे (निशाण या निशान) चला करते हैं। जाते हुए लाल झंडा बारात का नेतृत्व करता है और लौटते हुए सफेद।

इतना ही नहीं, बारात के साथ परंपरागत पहनावे में तलवार और ढाल लिए योद्धाओं का भी एक दल होता है जो एक दूसरे पर तलवार भांजता चलता है। इस प्रतीकात्मकता को परिभाषित किया जाए तो बारात लेकर जाना युद्ध यानी वधु को तलवार के दम पर हासिल करने के अभियान में जाने का प्रतीक और लौटकर आना वधु को जीतने तथा उसके परिवार की हार के साथ ही हासिल शांति को दर्शाता है। स्पष्ट है कि पगड़ी उसी सामंती मानसिकता का द्योतक है। बहुत संभव है इस तरह की परंपराएं और जगह भी होंगी। जो भी हो शादी की असमान्यता कुछ हद तक ही सही समझ में आती है, फिर भी यह नहीं भुलाया जा सकता कि वह समाज विशेष की सांस्कृतिक परंपराओं और आर्थिक स्थिति को भी दर्शाती है। यह कहना भी जरूरी नहीं है कि भारतीय परिवारिक संस्था मूलत: सामंतवादी है और स्त्री दमन का सबसे बड़ा हथियार है।

फिलहाल महत्वपूर्ण यह है कि हमारी पोशाकों के मानदंड क्या होने चाहिए? आधुनिक डिजाइन का मूल आधार उनकी व्यवहारिकता है। कम से कम कपड़े में ऐसे पहनावों को तैयार करना जो पहननेवाले के व्यक्तित्व को निखारने और अभिव्यक्त करने का काम तो करें ही शरीर की गत्यात्मकता को, बढ़ाएं नहीं तो भी, उन्हें बाधित करने का काम तो न करें।

वस्त्रों में छिपा संदेश

नेहरू की बात करते हुए यह याद आना लाजमी है कि समान्यत: भारतीय नेताओं के वस्त्रों में एक संदेश हुआ करता था, जिसका संबंध जनता से था। यानी सरलता और व्यवहारिकता। इसका चरम वैसे तो गांधी हैं, पर नेहरू के पहनावे में आदर्शवादिता के साथ व्यवहारिकता स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है जब कि गांधी के पहनावे में एक तरह का विरोध है, जो राजनीतिक वक्तव्य है। यह कि वह समाज के सबसे गरीब व्यक्ति से  अपनी अभिन्नता दिखलाना चाहते हैं। वह नेता, दूसरे शब्दों में शासक, और समाज के सबसे नीचले पायदान पर घिसट रहे आदमी के साथ अपना जुड़ाव सिद्ध कर रहे होते हैं। विरोध का यह तरीका बलिदान तो हो सकता है पर है असामान्य क्योंकि इसे सामान्य तौर पर अपनाना कठिन है। लेकिन इसकी निष्ठा या मंशा पर शंका नहीं की जा सकती।

निश्चय ही मोदी अपने पहनावे और चाल ढाल से शक्ति और ऊर्जा का नाटकीय संचार करते हैं, जिसमें भव्यता, चमक और विशिष्टता का समावेश होता है। सवाल है इस का राजनीतिक संदेश कुल मिला कर क्या हो सकता है?

इस भव्यता और नाटकीयता के साथ जो मूल तत्व जुड़ा है वह है उसका विगत से संबंध। यह पोशाक उनके बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध के सौराष्ट्र या फिर राजस्थान के किसी रजवाड़े का शासक होने का ज्यादा आभास देती है बनिस्बत कि एक आधुनिक लोकतंत्र के सबसे बड़े नेता होने के।

महत्वपूर्ण संभवत: यह भी है कि नरेंद्र मोदी जिस देश के प्रधानमंत्री हैं क्या वह उस की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं? जिस देश में कुछ ही महीने पहले के वे दृश्य जब करोड़ों बदहवास लोग भूख और गरीबी की मार से बचने के लिए जान बचाते भागते नजर आ रहे थे, एक दु:स्वप्न की तरह हर संवेदनशील भारतीय का पीछा कर रहे थे। जिस देश में करोड़ों लोगों को आजादी के 74 वर्ष बाद भी दो जून की रोटी नहीं मिलती। जहां लोग बीमारी और बेरोजगारी से हताश हो आत्महत्या करने पर उतारू हैं, वहां उन राजनीतिक नेताओं के तेवर, उनकी कम से कम सार्वजनिक मुद्रा किस तरह की होनी चाहिए? वहां के सर्वोच्च नेता के हावभाव से क्या उम्मीद की जानी चाहिए? उन सब लोगों के प्रति जो इस तरह की वेशभूषा पहनना तो रहा दूर, कल्पना तक नहीं कर सकते। सामंती मूल्य, कम से कम वेशभूषा के मामले में, आधुनिक मूल्य नहीं हैं। समाज उन्हें बहुत पीछे छोड़ आया है।

नरेंद्र मोदी का सामंती लिबास में अवतरित होना आधुनिकता से जरा भी मेल नहीं खाता है। क्या हम सामंती दौर में लौटना चाहते हैं? या हमारे संकटों का समाधान किसी भी रूप में वहां ढूंढा जा सकता है? क्या यह भुलाया जा सकता है कि परंपराओं ने हमारे समाज को किस तरह का निर्मम, आततायी और अमानवीय बनाए रखने में मदद की है? किस तरह क्या भुलाया जा सकता है कि गुलामी के लंबे दौर का बड़ा कारण हमारा सामाजिक और आर्थिक ठहराव रहा है? आज देश आधुनिक होने के लिए छटपटा रहा है। बिना वैचारिक परिवर्तन के सामाजिक परिवर्तन संभव है? क्या हमारे व्यवहार, हमारे सोच में यह कहीं प्रतिबिंबित हो रहा है? आखिर हम कहां पहुंचना चाहते हैं?

यह वह देश है जहां अभी भी करोड़ों लोगों को दो समय की रोटी नसीब नहीं है। महामारी ने इसकी विकरालता को चरम पर पहुंचा दिया है। इसके उद्योग धंधे चौपट हो चुके हैं। बेरोजगारी अब मात्र निम्न वर्गों तक सीमित नहीं रही है, बल्कि मध्यवर्ग भी उसकी चपेट से ध्वस्त होने के कगार पर है। उसकी आर्थिक क्षमता के क्षरण की गति हर दिन दोगुनी तेजी से छीजती नजर आ रही है। ठीक है कि यह महामारी के कारण है, पर कोई भी महामारी दैवीय प्रकोप नहीं बल्कि मानव निर्मित होती है। यह ऐतिहासिक सत्य है। (देखें: पूंजीवादी लोभ का फल, समयांतर, अगस्त, 20) ।

दिल्ली में जीएसटी काउंसिल की मीटिंग में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने 26 अगस्त को कहा कि ”इस वर्ष हम असामान्य स्थिति का सामना कर रहे हैं। हम दैवीय हस्तक्षेप देख रहे हैं जिसमें और सिकुडऩे की संभावना है।‘’ कोरोना महामारी और लॉकडाउन के कारण देश की जीएसटी से होनेवाली आय में जबर्दस्त कमी आई है और वित्तीय वर्ष 2021 के लिए 2.35 लाख करोड़ की कमी होने वाली है। परिणामों का अनुमान लगाया जा सकता है: केंद्र और राज्य सरकारों के पास पैसा न होना, परिणाम स्वरूप जो भी और जैसी भी विकास की गतिविधियां थीं, उनका बंद होना या उनका घट जाना तो है ही। यह इस बात का भी संकेत है कि अर्थव्यवस्था में मंदी और तेज होगी क्यों कि केंद्र व राज्य सरकारों का विकास व कल्याण कार्यों में खर्च न कर पाना, स्थिति की गंभीरता को बढ़ाएगा ही।

आज भारत दुनिया के महामारी से ग्रस्त देशों के शीर्ष पर पहुंचने को है। सरकार की असफलता को अब दैवीय आपदा कह कर जिम्मेदारी से हाथ झाडऩे की कोशिश शुरू हो चुकी है और नियति घोषित कर आगे बढऩे का रास्ता साफ किया जा रहा है, ट्रंप के अमेरिका की तरह: जिन्हें मरना है वे तो मरेंगे ही। अब सरकार उस पर बात नहीं करना चाहती। नीट और जीइई की परीक्षाओं को, शिक्षा में विकराल हो चुके निजी हितों को बचाने के अलाव, स्थिति को हर हाल में जनता को स्वीकार करने का दबाव बनाने के लिए, किसी भी कीमत पर, आयोजित कर देने की कोशिश इस का चरम उदाहरण है।

क्या यह सब मंदिर और सामंतवाद के लौटने से टाला जा सकता है? या वहां इसका उपचार मिल सकता है?

इस पर भी प्रतिकात्मकता का अपना महत्व तो है ही। उन लोगों के लिए जिनके हित जातिवाद जैसे अमानवीय मूल्यों से जुड़े हैं। शायद यह हमारी नियति है कि हमारा अवतारों पर अटल विश्वास है।

इसलिए प्रतीकात्मकता उस बड़ी आड़ का संकेत है, जो लंबी पूंछवाला साफा ही नहीं, साष्टांग प्रणाम, मंदिर निर्माण, धार्मिक असहिष्णुता (बहुसंख्यकों के धर्म की विजय?)और आक्रामकता (कथित विदेशियों के खिलाफ)– आर्थिक मोर्चे पर, सैनिक मोर्चे पर, बेरोजगारी के मोर्चे पर असफलताएं, महामारी के मोर्चे पर असहायता व चकराहट, सब को ढकने का काम कर रही है।

समयांतर, सितंबर 2020

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