18वीं सदी की राजभक्ति और 21वीं सदी में नजीर?

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अवमानना के  कानून पर  रवींद्र एस. गढिय़ा

 वमानना के सजा योग्य अपराध होने का इतिहास बताता है कि पहले इंग्लैंड में राजा खुद न्याय करता था। बाद मैं राजा ने न्याय का काम कुछ न्यायाधीशों को अपने प्रतिनिधि के तौर पर सौंपा। तो न्यायाधीशों की निंदा, राजा की निंदा मानी गई और इसलिए दंडनीय हुई। ऐतिहासिक रूप से और जन्म से, अवमानना के अपराध का औचित्य राजा और राज के प्रति जनता के रवैये को प्रभावित करने को लेकर है और न्यायपालिका का खुद को अपमानित महसूस करने का कोई सवाल नहीं है। 

उच्चतम न्यायालय की न्यायमूर्ति अरुण  मिश्रा की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने अधिवक्ता प्रशांत भूषण को न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया। इसलिए कि खंडपीठ ने पाया कि –

”पूरी तरह से देखने बे बाद हमारी दृष्टि में कथित ट्वीट उच्चतम न्यायालय के संस्थान और मुख्य न्यायमूर्ति के संस्थान की गरिमा (डिगनिटी) और प्राधिकार (अथॉरिटी) को नुकसान (अंडरमाइन) पहुंचाता है और सीधे कानून की महिमा (मैजेस्टी) को आघात पहुंचाता है।

कथित दो ट्वीट में से पहले ट्वीट में प्रशांत भूषण ने एक तरफ कोरोना और शारीरिक दूरी के चलते उच्चतम न्यायालय में कई मामलों की सुनवाई न हो पाने से जनता के न्याय पाने के अधिकार पर असर पडऩे पर और ऐसी स्थिति में मुख्य न्यायाधीश के भाजपा नेता की अमेरिकी सुपरबाइक का बिना मास्क या दूरी बनाए हुए, आनंद लेने पर ध्यान आकर्षित किया था।

दूसरे ट्वीट में अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने पिछले छ: साल में बिना किसी आधिकारिक आपातकाल के भारत में लोकतंत्र के विनाश और उच्चतम न्यायालय के पिछले चार मुख्य न्यायमूर्तियों की इसमें भूमिका को रेखांकित किया।

इन दो ट्वीटों के चलते प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी पाने के क्रम में जो तर्क या विचार प्रक्रिया है उस पर कोई टिप्पणी करने से पहले नजर डाल लेना बेहतर है। यूं तो उच्चतम न्यायालय का फैसला 108 पन्नों का है और इसे न्यायालय की वेबसाइट पर पढ़ा जा सकता है, पर फैसले की प्रतिनिधि विचार-तर्क प्रक्रिया के तौर पर उच्चतम न्यायालय के अपने शब्दों में देख लेना भी एक उचित अनुभव होगा। तो कुछ पैरे यूं उद्धृत हैं:

”71. जैसा कि इस न्यायालय ने अपने कई पूर्व फैसलों में माना है, जिनका उद्धरण पहले दिया गया है, भारतीय न्यायपालिका न के वल एक स्तंभ है जिस पर भारतीय लोकतंत्र टिका है बल्कि केंद्रीय स्तंभ है। कानून का राज भारतीय संवैधानिक लोकतंत्र की आधारशिला है। नागरिकों का न्यायिक व्यवस्था में विश्वास, आस्था और भरोसा, कानून के राज के अस्तित्व की आवश्यक पूर्ति है। संवैधानिक लोकतंत्र की बुनियाद हिलाने की कोशिश को पूरी ताकत से दबाया (डेल्ट वीद आयरन हैंड) जाना चाहिए। यह ट्वीट संवैधानिक लोकतंत्र के केंद्रीय स्तंभ की बुनियाद को हिला कर रख देता है। यह ट्वीट लगभग ऐसा आभास देता है कि उच्चतम न्यायालय जो कि देश की सबसे बड़ी अदालत है, इसने पिछले छह साल में भारतीय लोकतंत्र के विनाश में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इसमें कोई शक नहीं कि यह ट्वीट न्यायपालिका पर जनता के विश्वास को हिला कर रख देता है। हम ट्वीट के पहले हिस्से के सच होने न होने पर नहीं जाना चाहते क्योंकि हम इस प्रक्रिया को राजनीतिक बहस का मंच नहीं बनाना चाहते। हमारा सरोकार केवल न्यायिक प्रशासन के संस्थान को नुक्सान पहुंचाने की कोशिश से है। हमारी नजर में, यह ट्वीट उच्चतम न्यायालय और मुख्य न्यायमूर्ति की संस्था की गरिमा और प्राधिकार को चोट पहुंचाता है और न्याय की महिमा (मैजेस्टी) पर आघात करता है।

  1. देश के नागरिक भारतीय न्यायपालिका का बहुत सम्मान करते हैं। जब नागरिक को कहीं न्याय नहीं मिलता तो न्यायपालिका आखरी उम्मीद होती है। सुप्रीम कोर्ट पर हमले से न केवल आम वादकारी उच्चतम न्यायालय पर विश्वास खोने की ओर जा सकता है बल्कि देश के अन्य न्यायाधीशों के दिमाग भी उच्चतम न्यायालय पर विश्वास खोने की ओर जा सकते हैं। अन्य न्यायाधीशों के दिमाग में यह बात भी आ सकती है कि वे दुर्भावनापूर्ण हमलों से सुरक्षित नहीं हैं क्योंकि उच्चतम न्यायालय ही अपने आप को दुर्भावनापूर्ण आरोपों से नहीं बना पा रहा है। ऐसे में व्यापक जनहित को देखते हुए देश की उच्चतम न्यायिक संस्था पर ऐसे हमलों से सख्ती से निपटा जाना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि न्यायाधीशों या न्यायिक प्रशासन के मामलों में न्यायालयों को उदार होना चाहिए। लेकिन यह उदारता इस हद तक नहीं हो सकती कि यह न्यायपलिका की बुनियाद पर दुर्भावनापूर्ण, अपमानजनक, नपे-तुले हमलों के सामने कमजोरी बन जाए और लोकतंत्र की बुनियाद को ही नुकसान पहुंचा दे।
  2. भारतीय संविधान ने संवैधानिक अदालतों को इस देश में एक खास भूमिका दी है। उच्चतम न्यायालय देश के नागरिकों के मूलभूत अधिकारों की रक्षक है और लोकतंत्र के अन्य स्तंभों कार्यपालिका और विधायिका को उनकी संवैधानिक सीमाओं में रखने की जिम्मेदारी भी वहन करती है अगर न्यायिक संस्थान पर आमजन के विश्वास को हिलाने के लिए कोई हमला किया जाता है तो इससे सख्ती से निपटना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं, कि कई मामलों में भी उदार और उद्दात्त रवैया अपनाए जहां उसकी कार्य, प्रणाली की सख्त अनुचित आलोचना की गई हो, बशर्ते ऐसी आलोचना वास्तव में सुधार के इरादे से की गई हो। लेकिन जहां कोई सोचे-समझे तरीके से न्याय व्यवस्था में भरोसे को चोट पहुंचाने की दिशा में परिणाम चाहता हो और दुर्भावनापूर्ण हमलों से उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों का मनोबल गिराना चाहता हो, तो जो भी बिना झुके, डरे, निष्पक्ष तौर पर न्याय करना चाहता हो, उसे मजबूती से खड़ा होना होगा। अगर ऐसे हमले से जरुरी सख्ती से नहीं निपटा गया, तो इससे दुनिया के देशों के सामने देश की प्रतिष्ठा और सम्मान को ठेस पहुंचेगी। निर्भय और निष्पक्ष अदालतें स्वस्थ लोकतंत्र बनाए रखती हैं और उन पर विश्वास को दुर्भावनापूर्ण हमलों से कम नहीं होने दिया जा सकता। जैसे कि न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने ‘एस. मुलगांवकर मामले में अपने फैसले में कहा, जिसको कि श्री दुष्यंत दवे, ने उद्धरित किया है, कि यदि न्यायाधीश या न्यायाधीशों पर अपमानजक, हमलावर, धमकी भरा, दुर्भावनापूर्ण हद के पार हो, कानून के मजबूत हाथों को जनहित और जनता को न्याय के लिए, उस पर प्रहार करना चाहिए जो कि कानून के राज की सर्वोच्चता पर उसके उद्गम और धारा को प्रदूषित कर, प्रहार करता है।
  3. अपने संक्षेप में मामले सुनने के अधिकार का इस्तेमाल करना न्यायालय के लिए किसी न्यायाधीश की गरिमा और सम्मान को व्यक्तिगत तौर पर रेखांकित करने के लिए जरूरी नहीं है, जिस पर कि व्यक्तिगत तौर पर अपमानजनक हमला किया गया हो, बल्कि यह न्याय और न्यायिक प्रशासन की महिमा को बरकरार रखने के लिए जरूरी है। लोगों का न्यायपालिका की निर्भयतापूर्वक, निष्पक्ष फैसले देने की क्षमता पर विश्वास और भरोसा, न्यायपालिका की बुनियाद है। जब लोगों में न्यायपालिका के काम के प्रति अविश्वास पैदा कर, न्यायपालिका के प्राधिकार के प्रति असंतोष और नाराजगी पैदा की जाती है तो इससे न्यायपालिका की बुनियाद क्षतिग्रस्त होनी लगती है। अवमानना के आरोपी संख्या 1 ने न केवल एक या दो न्यायाधीशों पर दुर्भावनापूर्ण अपमानजनक हमला किया है बल्कि पूरे उच्चतम न्यायालय की पिछले छ: साल की कार्रवाई पर किया है। ऐसा हमला जो कि इस न्यायालय के प्राधिकार के प्रति असंतोष और नाराजगी पैदा करता है, इसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने ”नेशनल लॉयर्स कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल ट्रांसपेरेंसी एंड रिफॉम्र्स एंड अदर्स वर्सेज यूनियन ऑफ इंडिया एंड अदर्स’’ और ‘विजय कुर्ले व अन्यÓ मामले में उन वकीलों के खिलाफ मामले का स्वत: संज्ञान लिया जिन्होंने विभिन्न न्यायाधीशों पर दुर्भावनापूर्ण अपमानजनक हमले किए। यहां आरोपी ने पूरे उच्चतम न्यायालय के संस्थान को अपमानित करने का प्रयास किया है। हम फायदे के लिए न्यायमूर्ति विल्मोट के आर बनाम आल्मन मामले में उनके कथनों को उद्धृत कर सकते हैं जो 1765 में आए थे –

”…जब भी व्यक्तियों की कानून के प्रति निष्ठा बुनियादी तौर पर हिल जाती है तो यह न्याय के लिए सबसे घातक और खतरनाक अवरोध है और मेरी राय में किसी और अवरोध के मुकाबले इस अवरोध के सबसे जल्दी तुरंत निदान की आवश्यकता है, निजी व्यक्तियों के तौर पर न्यायाधीशों के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि वो राजा के न्याय के जनता तक पहुंचने का जरिया है।‘’

  1. ट्वीट तोड़ मरोड़ कर पेश किए तथ्यों पर आधारित हैं और हमारी राय में ये ‘आपराधिक अवमानना का अपराध करना दिखाते हैं।‘’

 

न्यायालय का तर्क क्रम

ऊपर उच्चतम न्यायालय के विचार/तर्क क्रम को न्यायालय के शब्दों में ही यूं उद्धृत किया है, राय बनाने के लिए सीधे न्यायालय के फैसले को देखने की जहमत उठाना कभी-कभी सभी के लिए मुश्किल होता है। दूसरा ये पांच पैरे बड़ी बेबाकी से फैसले का तर्क/विचार-क्रम और असलियत दिखाते हैं। इस विचार प्रक्रिया पर टिप्पणी से पहले इसका सार या सांराश यूं किया जा सकता है।

  1. पैरा 71 में मूलत: तर्क यह है कि जनता का अदालतों पर भरोसा, आस्था, विश्वास कानून का राज बनाए रखने के लिए जरूरी है। कानून का राज संवैधानिक लोकतंत्र का आधार है। इसलिए प्रशांत भूषण के ट्वीट से क्योंकि अदालतों पर जनता के विश्वास, भरोसे, आस्था के कम होने की संभावना है इसलिए ट्वीट से भारतीय संवैधानिक लोकतंत्र की बुनियाद यानी ‘कानून का राज’ हिल गया है।

रही पिछले छ: साल में लोकतंत्र को क्षति या इसमें उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधिशों की भूमिका की बात तो इसकी तथ्य परक पड़ताल या सुनवाई की जरुरत को न्यायलय ने राजनीतिक बहस का अखाड़ा बनने से बचने के नाम पर पूरी तरह खारिज कर दिया।

  1. पैरा 72 में फिर वही कि नागरिक उच्चतम न्यायालय की बहुत इज्जत करते हैं और अदालतें न्याय की आखिरी उम्मीद हैं। दुर्भावनापूर्ण अपमानजनक ट्वीट से जनता का विश्वास कम होगा। देश के अन्य जज सोचेंगे कि जब उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश दुर्भावनापूर्ण हमलों से खुद को नहीं बचा पा रहे तो वे खुद को कैसे बचाएंगे।
  2. पैरा 73 में फिर यही कि उच्चतम न्यायालय नागरिकों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा करता है और विधायिका, कार्यपालिका को भी संवैधानिक हदों में रखता है। दुर्भावनापूर्ण अपमानजनक आरोपों से जनता का विश्वास टूटेगा। ऐसा होने से देश का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सम्मान कम होगा।
  3. जनता के न्यायालयों पर भरोसे, आस्था को चोट नहीं पहुंचने दी जा सकती। सन् 1765 के न्यायमूर्ति विल्मोट को उद्धृत करने से तो तस्वीर एकदम स्पष्ट है। विल्मोट साहब कहते हैं कि जनता का न्यायालय पर विश्वास कम होना न्यायाधीशों के दृष्टिकोण से कोई खतरा नहीं है, असली खतरा तो यह है कि न्यायाधीश तो केवल राजा की तरफ से न्याय कर रहे हैं। तो विश्वास दरअसल राजा पर कम होता है और यह सबसे बड़ा खतरा है।

अब हिन्दुस्तान के संदर्भ में विल्मोट की बात से क्या समझें कि दरअसल बात न्यायाधीशों की नहीं, प्रशांत भूषण खतरा इसलिए हैं कि जनता के सरकार पर भरोसे की कोई आंच न आ जाए? विल्मोट की अठारहवीं सदी की राजभक्ति, 21वीं सदी में भारतीय उच्चतम न्यायालय में नजीर का काम करती नजर आने से जनता का अदालतों पर भरोसा कितना मजबूत होगा, कहना मुश्किल है।

अवमानना के सजा योग्य अपराध होने का इतिहास बताता है कि पहले इंग्लैंड में राजा खुद न्याय करता था। बाद मैं राजा ने न्याय का काम कुछ न्यायाधीशों को अपने प्रतिनिधि के तौर सौंपा। तो न्यायाधीशों की निंदा, राजा की निंदा मानी गई और इसलिए दंडनीय हुई। तो ऐतिहासिक रूप से और जन्म से, अवमानना के अपराध का औचित्य राजा और राज के प्रति जनता के रवैये को प्रभावित करने को लेकर है और न्यायपालिका का खुद को अपमानित महसूस करने का कोई सवाल नहीं था। न्यायमूर्ति अरुण मिश्र के विचारक्रम को देखें तो बार-बार जनता का विश्वास, लोकतंत्र, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश के सम्मान आदि का काफी जिक्र है। प्रशांत भूषण लोकतंत्र के लिए बड़े  खतरे के तौर पर देखे गए लेकिन पिछले छ: साल में लोकतंत्र का क्षय हुआ या नहीं इसकी पड़ताल राजनीतिक मामला बताकर करने की जरुरत नहीं समझी गई।

 

अवमानना की सीमाएं और निर्थकता

कमाल यह है कि इसी फैसले में न्यायमूर्ति उच्चतम न्यायालय के ‘बरदकांत मिश्रÓ मामले में संविधान पीठ के फैसले का जिक्र करते हुए बताते हैं, न्यायालय के प्राधिकार के मायने, न्यायालय की किसी को मजबूर करने की ताकत नहीं बल्कि उसके कार्य, कार्यप्रणाली के चलते मिलने वाला वह मान सम्मान है जो लोग स्वत: देते हैं। इस समझदारी का एक मतलब यह भी है कि न्यायालय का प्राधिकार और नैतिक प्राधिकार उसके फैसलों और कार्यप्रणाली पर निर्भर है और किसी के कुछ कहने-सुनने पर नहीं। यूं कहें तो मान-सम्मान यदि न्यायालय के अपने फैसलों, कार्यप्रणाली पर निर्भर है तो मान-सम्मान में कमी अवमानना का स्रोत भी न्यायालय की अपनी कार्यप्रणाली और फैसलें ही होंगे। प्रशांत भूषण के कहने सुनने से अवमानना संभव नहीं।

अब चूंकि भारतीय न्यायिक व्यवस्था में  अवमानना की अवधारणा और कानून ब्रिटिश विरासत हैं। तो यह जानना काम का है कि ब्रिटेन में सन 2012 में लॉ कमीशन ने एक रिपोर्ट जारी की जिसमें विस्तार से अवमानना के कानून को सिरे से ही औचित्यहीन, निरर्थक और दरअसल गैर लोकतांत्रिक बताकर इसे खत्म करने की सिफारिश की गई। ब्रिटेन में 2013 में अवमानना के कानून को समाप्त कर दिया गया है। प्रशांत भूषण मामले में उच्चतम न्यायालय के तर्क हम देख चुके, इन तर्क, विचार प्रक्रिया के संदर्भ में ब्रिटिश लॉ कमीशन की सन 2012 की रिपोर्ट भी देखना उचित होगा क्योंकि यह रिपोर्ट ऐसे ही तर्कों की पड़ताल करती है। यह रिपोर्ट व्यापक विचार-विमर्श के बाद जारी हुई, ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स में रखी गई और प्रकाशित की गई।

इस रिपोर्ट के अनुसार (स्कैंडलाइजिंग द कोर्ट) न्यायालय को अपमानित करना/अवमानना के अपराध को पूरे तौर पर खत्म करने के लिए व्यापक विचार-विमर्श के बाद निम्न आधार पाए गए।

 

ब्रिटिश लॉ कमीशन की 2012 की रिपोर्ट

  1. अभिव्यक्ति की स्वंत्रता जरूरी है। इसे व्यक्ति के आत्मिक विकास व दूसरों के विकास में मदद मिलती है। विभिन्न विचारों के टकराव के बीच सत्य तक पहुंचने की संभावना ज्यादा है।
  2. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की, राज करने वालों की खामियों और गलतियों को, उजागर करने में बड़ी भूमिका है।
  3. निष्पक्ष होने और सब आपको निष्पक्ष कहें, इनके बीच फर्क है। यदि अदालतें कुछ गलत करती हैं तो जनता को यह भी जानने का अधिकार है। अवमानना का अपराध न्यायिक गलतियों पर परदा डालता है, यह जनता के सामने आना चाहिए।
  4. अनुचित आलोचना या गलत तथ्यों के आधार पर आलोचना पर भी रोक नहीं होनी चाहिए, नहीं तो इसका असर यह होगा कि ऐसे प्रतिबंध या डर की वजह से उचित अलोचना की राह में रुकावट खड़ी होगी।
  5. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कही गई बहुत सी बातें निरर्थक या हानिकारक हो सकती हैं, पर इन्हें बर्दाश्त करना होगा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कुछ कीमत चुकानी पड़ती है।
  6. अनुचित आलोचना कहकर प्रतिबंध लगाने से यह संदेह ज्यादा मजबूत होता है कि आलोचना सही है, और यह कि जो लोग सत्ता में हैं वे कुछ छिपाना चाहते हैं।
  7. जिस समाज में अपनी राय रखने में डर या रुकावटें होती हैं, वहां अंदर ही अंदर असंतोष पनपता है जो आगे चलकर समाज को अस्थिर कर सकता है।
  8. व्यावहारिक तौर पर भी बहुत सा गाली-गलौज या अभद्र-अनुचित बयान दिन रात इंटरनेट पर प्रकाशित होता रहता है। इनकी अभद्रता या भाषा की वजह से कोई भी पाठक इन्हें गंभीरता में नहीं लेता।
  9. जहां भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं तो आरोप लगाने वाले को सजा देने से जनता का भरोसा मजबूत नहीं होता बल्कि यह धारणा मजबूत होती है कि जरूर कुछ छिपाया जा रहा है। जरूरी हो तो साफ-साफ ऐसे आरोप कैसे गलत हैं इसका पूरा खुलासा जनता के समक्ष करना चाहिए।
  10. अवमानना की कार्रवाई से जनता का विश्वास बढऩे की बजाए यह धारणा मजबूत होती है कि न्यायाधीश आपस में एक दूसरे की तरफदारी और बचाव कर रहे हैं और सच्चाई छिपा रहे हैं।
  11. यूं भी अवमानना उस जमाने की अवधारणा है जब राजा और राजकीय अधिकारियों के रुतबे को विशेष तौर पर सम्मान देना, सलाम बजाना जरूरी जाना जाता था, बदलते समय और लोकतंत्र में ऐसे रुतबे और जबरिया मर्जी हो न हो सलाम बजाने के रवैये की कोई जगह नहीं है।
  12. ब्रिटेन में अदालतों ने विभिन्न विषम परिस्थितियों, बयानों, आरोपों, मजाक बनाए जाने, जजों को बेवकूफ-बूढ़े तक कहे जाने के बाद भी 1931 के बाद कभी अवमानना के कानून का इस्तेमाल नहीं किया। यह कानून यूं भी लुप्त प्राय है।
  13. अवमानना के कानून को बनाए रखने से कोई लाभ नहीं। यह समाज में आलोचना, अभिव्यक्ति को कुंद करता है और इससे न्यायपालिका की प्रतिष्ठा जनता की नजरों में और कम होती है।

ब्रिटिश लॉ कमीशन की रिपोर्ट के आलोक में प्रशांत भूषण मामले के फैसले को देखें तो यह लगता है कि जनता के विश्वास को ज्यादा नुक्सान ट्वीट के बजाए इस फैसले से होने की संभावना है।

अंत में मैं प्रशांत भूषण मामले का फैसला वाली खंडपीठ के प्रति अखंड, सम्मान श्रद्धा और विश्वास व्यक्त करते हुए आगे ऐसे मौके आने पर उम्मीद करता हूं कि न्यायपालिका पर जनता के विश्वास को मजबूत करने के लिए, आने वाले समय में उच्चतम न्यायालय जरू अवमानना की सामंती, आलोकतांत्रिक अवधारणा और कानून को पूरे तौर पर समाप्त करने की सिफारिश और मांग जरूर करेगी।

लेखक सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं।

समयांतर, सितंबर 2020

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