विपदा ने सिखायी नरमी

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  • हरीश खरे

 

नरेंद्र मोदी के स्वाधीनता दिवस के भाषण को उनकी ही कसौटी पर कसें तो पाते हैं कि इस बार उन्हें इसमें कुछ ज्यादा मेहनत करनी पड़ी। एक अरब से ज्यादा जनता के ‘सपनोंÓ और ‘इच्छाशक्ति’ की रचनात्मक और उपचारात्मक ताकत का आह्वान करने में वह अतिरंजना का शिकार हो गए।

देश के सबसे भव्य सिंहासन लाल किले के मंच पर खड़े नरेंद्र मोदी इस स्वतंत्रता दिवस पर संयत दिख रहे थे। पिछले साल इसी दिन ताजा हासिल चुनावी जनादेश की आभा में 370 का तमगा अपने पहलू में दबाए वह दमक रहे थे। बीते एक साल के दौरान उनकी निगहबानी में बुरी तरह ठोकर खाकर गिरे इस अस्थिर देश की हकीकत से इस बार गाफि़ल रहना प्रधानमंत्री के लिए जाहिर है संभव नहीं रहा होगा।

इस 15 अगस्त को नरेंद्र मोदी जिस भारत के समक्ष खड़े थे, वह एक जबरदस्त आश्वासन की दरकार में था कि देश सुरक्षित और सक्षम हाथों में है। एक विदेशी ताकत हमारी सीमा में घुस आई थी। चैन की नींद में सोया देश अचानक घबरा कर उठा तो उसने पाया कि यथास्थिति को बहाल करने में हमारा नेतृत्व और फौजी जनरल बहुत कुछ नहीं कर पा रहे हैं। ऐसा लगा गोया 2014 से पहले की अशांत हवाओं में पूरे देश का दम घुट रहा हो।

इस स्वतंत्रता दिवस को यह धरती एक अदृश्य दुश्मन के हाथों भी तबाह है। एक जानलेवा वायरस जो जाने का नाम नहीं लेता। प्रधानमंत्री ने मार्च में महाभारत से जुमला उधार लेकर 21 दिनों में निर्णायक जीत का वादा कर दिया था। एक बार फिर उनकी बात खोखली साबित हुई। इसके उलट भारत आज कोरोना संक्रमित मरीजों के मामले में दुनिया में तीसरे स्थान पर पहुंच चुका है, केवल अमेरिका और ब्राजील हमसे आगे हैं। आज का भारत आर्थिक बदइंतजामी, हादसे और बेकसी का शिकार है। बहुत लंबा वक्त हुआ जब ऐसी पीड़ा यहां देखी गई थी। उन लाखों भारतीयों की अगर कोई बात नहीं कर रहा या करना नहीं चाह रहा, जिन्हें जबरन उनके गांवों की ओर धकेल दिया गया था तो इसका श्रेय कोरोना वायरस को जाता है जिसकी प्यास अभी बुझी नहीं है।

स्वतंत्रता दिवस से केवल दस दिन पहले प्रधानमंत्री अयोध्या के शिलान्यास समारोह में शामिल हुए थे। उनकी शिरकत ने देश के 20 करोड़ मुस्लिम नागरिकों को शक में डाल दिया था कि क्या भारत अंतत: अपने सेकुलर वादों और संकल्पों से मुंह मोड़ रहा है।

इन्हीं घटनाओं से मिलकर वह व्यापक संदर्भ बनता है जिसमें स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री का किरदार अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण हो उठता है, चूंकि कोरोना वायरस महामारी की आड़ में उन्होंने लोकतांत्रिक जवाबदेही की किसी भी बाध्यता से खुद को किलेबंद कर लिया था।

प्रधानमंत्री के पास विकल्प थे : वह देश में मौजूद दरारों को और चौड़ा कर सकते थे, थोड़ा और नीचे उतरते, अपने जनाधार में संकीर्ण भावनाओं को और भड़काते या फिर कुछ भूल सुधार कर लेते। वह बेशक समझ रहे होंगे कि इस स्वतंत्रता दिवस पर बहुत कुछ दांव पर लगा था; उनकी सरकार के इकबाल पर गंभीर संदेह खड़े हो चुके थे और यह भी कि क्या उनकी सरपरस्ती में अब प्रेरक तत्व चुक गया है। यह देश खास तौर पर उनसे यह सुनना चाह रहा था कि क्या वह अपने नेतृत्व के सामान में कुछ बदलाव लाने में समर्थ हैं या नहीं।

आखिर में उन्होंने वही किया जो वह सबसे कुशलता से कर सकते थे : जुमलों के जखीरे में गहरे उतरकर बुरी तरह पस्त हिम्मत एक देश के उत्साह को बढ़ाना। उन्हें खुद उनकी ही कसौटी पर कसें तो हम पाते हैं कि इस बार उन्हें इसमें कुछ ज्यादा मेहनत करनी पड़ी। एक अरब से ज्यादा जनता के ‘सपनों’ और ‘इच्छाशक्ति’ की रचनात्मक और उपचारात्मक ताकत का आवाहन करने में वह अतिरंजना का शिकार हो गए। सदमे में पड़े देश को कुछ उम्मीद तो बंधानी ही थी, सो उन्होंने कह डाला कि कोरोना वायरस के तीन टीकों पर काम चल रहा है और वे आने ही वाले हैं।

लाल किले के मंच से मोदी जी ने ज्यादा वक्त अपनी सरकार की नीतियों और पहलों को बढ़ा-चढ़ा कर बताने में ही दिया, जैसा कि दोनों सदनों के संयुक्त सत्र में राष्ट्रपति के संबोधन के बाद प्रधानमंत्री अकसर अंत में किया करते हैं।

इन ‘उपलब्धियोंÓ को गिनाने में उनका स्वर काफी संयत था, जो इस बात की स्वीकार्यता था कि नारेबाजी से राजकाज नहीं चलता और अब भी ईंट से ईंट जोडऩे का बुनियादी काम बाकी है। ये छह साल तो केवल सुर्खियों के प्रबंधन में चले गए हैं। राजकाज बेशक तमाम भड़कीले आयोजनों से बहुत आगे की चीज है।

अपना गाल बजाने की यह हरकत तो प्रत्याशित थी ही, लेकिन इतना ही अहम वे बातें थीं जो प्रधानमंत्री ने नहीं कहीं। अव्वल तो हिंदुत्व का विजयोल्लास गायब रहा। उनके कई प्रशंसक इसी बात से सकते में होंगे कि उन्होंने नेहरूवादी गणराज्य की मौत का फतवा नहीं दिया; न ही उन्होंने हिंदू राजनीतिक समुदाय के जन्म का ऐलान किया। हो सकता है अगली चुनावी जंग के लिए उन्होंने अपना बारूद बचा लिया हो, लेकिन फिलहाल स्थिति यह है कि अल्पसंख्यकों को अस्वीकृत या अनचाहा महसूस नहीं होने दिया गया है। अनावश्यक सदमे से इस गणराज्य को बख्श दिया गया है।

चीन और पाकिस्तान का उनके भाषण में कोई जिक्र नहीं आया। इन छह वर्षों में देश को एक अज्ञात भय और जहरीले राष्ट्रवाद की खुराक पर पाला-पोसा गया है। चुनाव में इसके फायदे भी हुए हैं, लेकिन अब जाकर शायद इस बात का महीन अहसास हो कि चीनियों ने प्रधानमंत्री से निपटना सीख लिया है। प्रधानमंत्री इस बात को समझ गए होंगे कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ निजी कूटनीतिक कवायदों में उनके अतिरिक्त निवेश के चलते चीनी अब उनकी थाह ले चुके हैं और इसी के चलते देश को चीन के हाथों सैन्य शर्मिंदगी उठानी पड़ी है। अब गीदड़ भभकी शांत पड़ चुकी है।

समय-समय पर ‘राष्ट्रीय गौरव’ के आह्वान और हमारे सैनिकों के नियमित साहसगान को छोड़ दें तो ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी की सरकार अब इतना तो सुनिश्चित कर रही है कि टीवी चैनलों पर चीन के साथ टकराव का माहौल न बनने पाए। ”एलओसी टु एलएसी’’ का जुमला मोदी के लड़ाकू जनाधार को भले संतुष्ट न कर पाए, लेकिन प्रधानमंत्री के नेतृत्व का नया पैमाना अब यथार्थ और संतुलन के नए रास्ते पर टिके रहना होगा।

तीसरा महत्त्वपूर्ण काम उन्होंने घर में बैठे मध्यवर्ग के साथ अपने रिश्ते दुरुस्त करके किया। मध्यवर्ग को संबोधित इस भाषण में यह अहसास निहित था कि मंदिर का मुद्दा हो या योगी आदित्यनाथ की तर्ज वाला अराजक राजकाज और न्याय, इनकी अतिरिक्त खुराक हिंदू पेशेवर मध्यवर्ग को असहज कर सकती है जो दरअसल मनमोहन सिंह का जनाधार हुआ करता था और कांग्रेस से जिसके अलगाव ने ही नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के बतौर सम्मान दिलवाया है।

चुनावी गुणा-गणित से पार नरेंद्र मोदी की सरकार को यह समझना होगा कि ‘आत्मनिर्भर भारत’ की भव्य परियोजना जरूरी वैश्विक कौशल और प्रतिभाओं के बगैर हासिल नहीं की जा सकती और यह मध्यवर्ग से ही मिलेगा। इसलिए मध्यवर्ग को लुभाया जाना एक बड़ा सुधार है क्योंकि अब तक हिंदुत्व के झंडाबरदारों ने काफी गर्व के साथ उच्च शिक्षा और शोध के संस्थानों को बरबाद किया है। अब लगता है कि नरेंद्र मोदी को चाहने वाली भीड़ ‘हारवर्ड बनाम हार्डवर्क’ के जुमले के पीछे झूठ को महसूस कर पा रही है। मध्यवर्ग की मानसिकता को पकड़े बिना ‘न्यू इंडिया’ का नारा रूढ़ हो जाएगा।

नरेंद्र मोदी किसी उकसाने वाले नायक की भांति अपने नारों और आग्रहों को इतनी कुशलता से लोगों पर थोपते हैं जैसे लगता है कि वह सीधे राष्ट्र की कल्पना से निकल कर आया हो। छह साल के कार्यकाल के बाद हालांकि उनके पास अब ऐसे दुश्मन नहीं बचे हैं जिनसने निपटाना हो या पालतू बनाना हो। इसलिए अब वे पिछली सरकारों के किए या अनकिए का बहाना नहीं बना सकते।

अब सारा दारोमदार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऊपर है कि वह गृहयुद्ध के मुहाने पर खड़े और डूबती अर्थव्यवस्था वाले इस देश को कैसे उबारें। छह साल के बाद यह देश इतना हक तो कमा ही चुका है कि उनसे कह सके कि वह अपने भीतर गहरे पैठी उग्रता से बाहर आवें और एक राजनीतिक दल के नेता से ज्यादा बड़ा बनें। इशारा तो उन्होंने कर ही दिया है।

 

अनु.: अभिषेक श्रीवास्तव

साभार : हिंदू,   समयांतर, सितंबर 2020

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