‘मत चूके चौहान’

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मुजफ्फरपुर, बिहार से यह समाचार मुख्यधारा के मीडिया में दो दिन बाद 27 मई को पहुंच पाया था। घटना 25 मई अपरान्ह के बाद की है। अपने प्राइम टाइम बुलेटिन में एनडीटीवी ने एक क्लिपिंग दिखलाई जिसमें मुश्किल से दो साल का एक बच्चा प्लेटफार्म पर लेटी अपनी मां के ऊपर पड़ी चादर से खेल रहा है। बच्चा इस बात से अनभिज्ञ है कि मां नहीं रही है। वैसे भी इतने छोटे बच्चे से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह जाने कि मौत जिंदगी के कितने समानांतर चलती है? विशेष कर गरीबों के लिए।

लगता है भारतीय शासक वर्ग अमानवीयता की हद पर पहुंच गया है। इसका प्रमाण वे रेलगाडिय़ां हैं जो श्रमिकों को लेकर 25 मई को बिहार और उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्टेशनों पर पहुंचीं। या फिर वह सदा से ही ऐसा था।

अचानक हमारे सामने जो घट रहा है उसकी विकरालता का अनुमान लगाना और उसे कोई तार्किक आधार देना लगभग असंभव-सा प्रतीत होने लगा है। यह क्यों हो रहा है? कैसे हो रहा है और इसके लिए कौन जिम्मेदार है, केंद्र सरकार, राज्य सरकारें, रेलवे, स्वास्थ्य विभाग या फिर स्वयं हम यानी हमारा समाज? आखिर कौन जवाबदेह है? कोई है तो जवाब क्यों नहीं दे रहा है?

यह कैसी विडंबना है कि जिस बीमारी को उच्च व मध्यवर्ग विदेशों से लेकर आया आज वह अपने घरों में मजे कर रहा है। और मजदूर वर्ग उसका खमियाजा भोग रहा है। बाहर तापमान 45-46 डिग्री हो गया है पर घर के अंदर 25 डिग्री ही चल रहा है। उसे न बिजली की किल्लत है न पानी की। उसके पास डायरेक्ट टु होम है, इंटरनेट है और है स्मार्ट फोन। न उसे न बैंक जाने की जरूरत है, न बाजार और न ही सिनेमा जाने की। उसके पास अमेजन है, जमाटो है, फूड पंडा है और है फ्रेश बास्केट। उसके पास गाड़ी है, नहीं तो ओला उबर की सवारी है। चाहे तो घर से काम भी कर सकता है और हां, शहर से बाहर कहीं जाना भी हुआ तो राजधानियां किस के लिए हैं? बहुत जल्दी है तो वायु मार्ग का विकल्प भी खुला है।

यह वह वर्ग है जो एसी में बैठा टीवी देख रहा है। नेटफ्लिक्स इसे मनचाही फिल्में मुहैया करवा रहा है। मैडम जी अंग्रेजी बोलने वाले रसोईयों से सीख कर नई-नई रेसिपी बना रहीं हैं। इसे न बिजली की कमी है न पानी की, अब तो बाईयां भी आने लगी हैं और सेनेटाइजर से हाथों को कीटाणु रहित कर घर चमका रही हैं। इसलिए सिर्फ एक चिंता रह गई है, अपने को बचाने की। इसलिए हवा में अब डिओडेरेंटों की खुशनुमा महक के साथ उतनी ही सफाई से सेनेंटाइजरों के कोनों से फूटती अल्कोहल की मस्त महक लहरा रही है। कोटा खत्म हो गया हो तो क्या, घर पहुंचाने की सेवा उपलब्ध है। लॉक डाउन इस तरह भर्रभराकर गिरेगा और उसके पीछे छिपा करोना किसी प्रेत की तरह उठेगा, यह तो कल्पना में कहीं था ही नहीं।

इसलिए कौन कहता है सरकार नहीं चल रही है? या कैसे कह सकता है, अच्छी नहीं चल रही है। यह सब देशभक्ति के खिलाफ है। सरकार ने उन सब को मरने से बचा लिया है ‘जिनको नहीं मरना चाहिए’ था। ‘जिनको मरना है’ उन्हें कौन रोक सकता है! यही तो वेद पुराण कहते हैं। इसलिए सब बढिय़ा है। सरकार बढिय़ा है, उसका नेता 21वीं सदी में सतयुगी देन है। अवतारी पुरुष। सब देखते रह जाते हैं वह सुमेरु उठा लेता है। चुटकियां बजाता है और हर जेब से संजीवनी वटी निकालता है। हम तालियां बजाते हैं, फिर थालियां बजाते हैं और चमत्कार हो जाता है। जहां देखो जय जयकार है। अपना देश महान है।

23 मई को अहमदाबाद से चली श्रमिक स्पेशल तीसरे दिन अपरान्ह तीन बज कर 30 मिनट पर मुजफ्फरपुर के प्लेटफार्म पर आकर लगी थी। (25-30 किमी प्रति घंटे की अद्भुत रफ्तार से) अरवीना खातून को उसके परिवार वालों ने किसी तरह उतारा था। एक रिपोर्ट के अनुसार उतरते ही उसकी मौत हो गई। यह मौत संभवत: भूख, प्यास और भयावह गर्मी से हुई थी। परिवारवालों ने उस पर एक चादर डाल दी। उसके साथ उसका डेढ़ साल का बेटा भी था। पूरी तरह मां पर निर्भर छोटा बेटा प्लेटफार्म पर पड़ी मां को उठाना चाहता था इसलिए रह-रह कर चादर खेंच रहा था। सोशल मीडिया में वायरल हुई इस क्लिपिंग ने उस दिन लोगों को झकझोर दिया था। कुछ चैनलों ने इसे अपने समाचारों में भी दिखलाया।

अगले दिन रेल मंत्रालय ने स्पष्टीकरण दिया कि मरने वाली औरत पहले से ही बीमार थी। माना बीमार थी पर सच यह है कि श्रमिक एक्सप्रेस एक एक, दो दो दिन की देरी से चल रही हैं। डिब्बे जबर्दस्त भरे हुए हैं और गर्मी अपने चरम पर है। गाडिय़ों में खाने का तो छोड़े पीने के पानी तक की सही व्यवस्था नहीं है। उसी दिन के इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक 48 घंटे में नौ मजदूरों की मौत रेलगाडिय़ों में हुई है। ये गाडिय़ां यही नहीं कि जहां तहां खड़ी कर दी जा रही थीं बल्कि इनके रास्तों को भी बदल दिया जा रहा था। न कहीं कुछ खाने को मिल रहा था और न ही पीने को। उसी दिन दिल्ली से आ रहा चार साल का एक बच्चा पटना में भूख की वजह से मरा क्यों कि माता पिता उसके लिए रास्ते के लिए कुछ नहीं ले पाये और रास्ते के किसी भी स्टेशन पर उन्हें कुछ नहीं मिल पाया।

यह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इन मजदूरों के लिए, जिनसे टिकट के पैसे वसूले गए थे, कहीं कोई चिकित्सकीय सुविधा भी नहीं थी। अगर होती तो अरवीना खातून जैसे बीमारों को वक्त पर मदद मिल जाती। या चार साल का बच्चा भूख से पटना स्टेशन में नहीं मरता। 28 तारीख की रिपोर्टों के अनुसार 48 घंटे में नौ मौतों का आंकड़ा स्थिति की गंभीरता का स्पष्ट संकेत है। झांसी में 27 मई को गोरखपुर से खाली लौटी श्रमिक एक्सप्रेस के एक डिब्बे के शौचालय में मिले मोहनलाल शर्मा के शव के साथ रेल में मरने वालों की संख्या में एक और का इजाफा हो गया था। अंतत: रेलवे ने अप्रत्यक्ष रूप से ही सही पर यह तो माना कि पहली मई से 30 मई तक यात्रा के दौरान 81 मजदूर रेलों में मरे हैं।

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरन ने एक साक्षात्कार में कहा, ”…अब स्थिति यह हो गई है कि जिस ट्रेन को कोडरमा पहुंचना है वह रांची (दो सौ किमी दक्षिण) पहुंच रही है। राज्य अचानक आने-जाने वाली ट्रेनों को संभाल नहीं पा रहे हैं।‘’ ( हिंदू, 29 मई)

29 मई को अपनी प्रेस कांफ्रेंस में रेलवे बोर्ड के चेयरमैन ने बतलाया कि हमने 3,840 ट्रेनें चलाईं जिनसे 52 लाख यात्रियों को ले जाया गया। इसे वह बड़ी उपलब्धि बता रहे हैं। भारतीय रेल की वेबसाइट में लिखा है रेल हर दिन 17 हजार तो सिर्फ  यात्री गाडिय़ां ही चलाती है। इसकी प्रति दिन यात्री ढोने की क्षमता दो करोड़ 23 लाख है। सर्वोच्च न्यायालय में दायर हलफनामे में 27 मई को रेलवे ने दावा किया कि उसने एक मई से 27 मई तक सिर्फ 83 लाख श्रमिकों को अपने गंतव्य तक पहुंचाया। वह भी किस तरह से पहुंचाया यह अब तक देश जान गया है।

सवाल हो सकता है आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? इसके पीछे क्या राजनीति हो सकती है। वैसे भी केंद्र ने मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिराने के लिए शुरू में ही लॉक डाउन लागू करने में देरी की। क्या अब भी वह इस हथियार को अन्य विपक्ष शासित सरकारों को गिराने के लिए हथियार बनाना चाह रही है, विशेषकर महाराष्ट्र या बंगाल को ध्यान में रख कर? इसके अलावा भी सरकार महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु के उद्योगपतियों के दबाव के कारण नहीं चाहती कि मजदूर अपने राज्यों को लौटें। बिजनेस स्टैंडर्ड (30 मई) के अनुसार अकेले सूरत में ही 15 लाख प्रवासी मजदूर थे इन में से 60 प्रतिशत अपने घरों को लौट चुके हैं। नजीता यह है कि 99 प्रतिशत सिंथेटिक इकाईयां बंद हो गई हैं। सूरत के हीरा उद्योग को लॉक डाउन के दो महीनों में 30 हजार करोड़ का नुकसान हो चुका है। इसलिए भी सरकार प्रयत्न कर रही है कि जितना हो सके कम से कम श्रमिकों को उनके राज्यों में पहुंचाया जाए। अगर केंद्र की यह मंशा है अथवा यह उसकी शुद्ध नाकामी है तो भी, कम से कम रेलवे मंत्री को, तत्काल इस्तीफा देना चाहिए।

 

नागरिकों को दायित्व

अब सवाल है सत्ता और सरकार जो कर रही है सो तो कर ही रही है, वे लोग क्या कर रहे हैं जो इस देश के सबसे ज्यादा पढ़ लिखे, सुविधा संपन्न और प्रभावशाली नागरिक हैं?

या ऐसा लगता है कि इन समाचारों से भारतीय समाज के इस विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग पर कुछ तात्कालिक झटके के अतिरिक्त कोई गहरा असर हुआ होगा? असल में जिस तरह से एक के बाद एक हृदय विदारक समाचार पिछले एक महीने से हर रोज देखने-सुनने को मिल रहे हैं, उसके बाद भी क्या कोई समाज चुप रह सकता है? अब तक कम से कम 170 से ज्यादा श्रमिक घरों को लौटते हुए रास्ते में मर चुके हैं। क्या समाज इस पर कोई सवाल उठा रहा है? मानवाधिकार आयोग ने प्रवासी मजदूरों के साथ रेलवे के जिस व्यवहार को ‘बर्बरता’ बतलाया है, क्या उसको लेकर कहीं कोई बेचैनी या आक्रोश दिखाई देता है?

पिछले पांच दिन से अमेरिकी से व्यापक दंगों की खबर आ रही है। एक शहर के बाद दूसरा शहर जल रहा है। कारण: मिनिसोटा में 25 मई को पुलिस ने जॉर्ज फ्लॉयड नाम के एक अश्वेत को हिरासत के दौरान मार दिया था। ध्यान देने वाली बात यह है कि यह विरोध मात्र अमेरिकी अफ्रीकी ही नहीं कर रहे हैं इसमें श्वेत भी उतनी ही बड़ी मात्रा में शामिल हैं। अमेरिका से ही इस बीच एक और समाचार है। संदेश आदान प्रदान की साइट ट्वीटर ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के एक ट्वीट पर पर्ची लगाकर यह कहते हुए उसे ढक दिया कि ‘यह हिंसा को भड़काने वाला है’। इससे पहले भी ट्वीटर ने ट्रंप के ‘मेल इन वोटिंग’ संबंधी ट्वीट को यह कहते हुए ढका था कि यह वोट के नियम का उल्लंघन है। ट्रंप बिलबिला रहे हैं पर ट्वीटर अपनी जगह अड़ा है।

 

भारतीय समाज: नैतिकता का संकट ?

अचानक ऐसा लगता है, भारतीय समाज का संकट मूलत: नैतिकता का संकट है। वह सही और गलत, न्याय और अन्याय, समानता और पक्षपात तथा लोकतंत्र व लोकतांत्रिक अधिकार जैसे मूल्यों के प्रति कोई पक्ष लेने को तैयार नहीं है। पर यह सब अचानक नहीं है। यहां उसके आधारभूत कारणों में जाने की जगह नहीं है। पर उस की अभिव्यक्ति जिस तरह से हो रही है वह हमारे समाज में गहरी पैठी विकृति का संकेत जरूर है।

अंतत: 29 मई को, लगभग सर्वव्यापी तबाही के दो महीने बाद सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं संज्ञान लेते हुए प्रवासी मजदूरों के संदर्भ में केंद्र और राज्य सरकारों को लॉकडाउन से पैदा हुए संकट से निपटने में हुई लापरवाही और कमियों की ओर ध्यान दिलाते हुए कुछ आदेश दिए। इस पर बोलते हुए महाअधिवक्ता तुषार मेहता ने जो कहा वह देखने लायक है। उन्होंने कहा:

”सरकार ने कई कदम उठाए हैं और सर्वोच्च न्यायालय पहले उनसे पूरी तरह संतुष्ट थी। लेकिन कुछ ये बातें भी हैं कि जो विपत्ति की घोषणा के मसीहा हैं वे केवल नकारत्मकता, नकारात्मकता और नकारात्मकता फैला रहे हैं। ये सब लोग सोशल मीडिया में लिखते हैं, साक्षात्कार देते हैं, जो किया जा रहा है उसे भी स्वीकार नहीं करते हैं…। ये देश के प्रति कोई सम्मान नहीं दिखला रहे हैं।“ (इंडियन एक्सप्रेस, 29 मई)। मेहता यह कहने से भी नहीं चूके कि देश के कुछ ”उच्च न्यायालय समानांतर सरकार चला रहे हैं।”

तुषार मेहता क्या कह रहे हैं? यह न कि सरकार की आलोचना करना देश के प्रति असम्मान बरतना है? यानी देशद्रोह है! उच्च न्यायालयों पर इस तरह का हमला इससे पहले कभी नहीं सुना गया है। इस समय देश के 19 उच्च न्यायालयों में कोविड से संबंधित जनहित याचिकाओं पर सुनवाई हो रही है। तुषार मेहता का व्यक्तव्य एक कानूनी अधिकारी का नहीं बल्कि राजनीतिक नेता का है। क्या किसी लोकतंत्र में इससे ज्यादा स्तब्ध करने वाली कोई चीज हो सकती है?

पटना उच्च न्यायालय ने 27 मई को सोशल मीडिया में वायरल हुए उस वीडियो का, जिसमें एक बच्चा अपनी मरी मां पर पड़ी चादर से खेल रहा था, स्वयं संज्ञान लेते हुए कहा कि ”यह स्तब्ध करने वाला और दुर्भाग्यपूर्ण है।’’ मुख्य न्यायाधीश संजय कारोल और न्यायाधीश एस कुमार ने एक समाचार का नोटिस लेते हुए कहा, ”संवैधानिक नियम 226 के अपने अधिकार के तहत इस मामले में हमारा हस्तक्षेप जरूरी है।’’ (उपरोक्त)

यह किसी से छिपा नहीं है, और रह रह कर कहा जा रहा है कि आजादी के बाद के भारत का यह सबसे बड़ा मानवीय विस्थापन का संकट है। लोग जिस तरह से भटक रहे हैं और मर रहे हैं वह किसी भी आजाद देश के लिए कलंक है। क्या सत्ताधारियों को यह सब देखते हुए शर्म नहीं आनी चाहिए?

28 मई का ही समाचार है कि शासक दल भाजपा नरेंद्र मोदी के दूसरी बार जीत कर सत्ता में आने की पहली वर्षगांठ के अवसर पर अगले महीने देशभर में पूरे माह अभियान चलाएगा। इस दौरान देश के हर जिले में डिजिटल रैलियों का भी आयोजन किया जाएगा। अगले दिन नरेंद्र मोदी ने लोकसभा के चुनावों में हुई अपनी लगातार दूसरी जीत के अवसर पर देश की जनता को लिखे पत्र में कहा: ”हम अपना वर्तमान भी खुद तय करेंगे और अपना भविष्य भी। हम आगे बढ़ेंगे, हम प्रगतिपथ पर दौड़ेंगे, हम विजयी होंगे।’’

अगर देश अपने वर्तमान को सही समझ पा रहा है तो निश्चित है कि उसका भविष्य उज्जवल होगा। ढाई महीने के लॉकडाउन के बाद 28 मई की हमारी उपलब्धि यह थी कि हमने कम सके कम कोरोना पीडि़तों की संख्या में चीन को, जहां से यह शुरू हुआ था, पछाड़ दिया था। अब इस बीमारी से दुनिया के सबसे बुरी तरह से ग्रस्त देशों में हमारा नंबर नौवां हो गया था। जैसे जैसे आंकड़ा बढ़ रहा था, आंकड़ों का खेल भी उतना ही बढ़ रहा था। इसी की आड़ में लॉक डाउन हट रहा है।

इसमें कैसे शंका हो सकती है कि आज जो हो रहा है उसका संबंध नरेंद्र मोदी के नेतृत्व से तो है ही। वह नहीं होते तो हमने अमेरिका के डोनाल्ड ट्रंप और ब्राजील के जेयर बोल्सोनारो को पीछे नहीं छोड़ दिया होता?

भाजपा को मौका चूकना नहीं चाहिए!

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