न्यायपालिका की प्रतिष्ठा का ढहना लोकतंत्र की बड़ी हार होगी

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  • रवीन्द्र एस गढ़िया

एक आम नागरिक को लगभग सारे देशों के संविधान कुछ मूलभूत अधिकारों की गारंटी करते हैं। जीवन का अधिकार, सम्मान के साथ जीने का अधिकार, अपना कारोबार-कार्य व्यापार करने, देश में कहीं भी जाने-बसने, अपनी बात कहने का अधिकार, आदि। यूं तो सरकारों से अपेक्षा की जाती है कि वे इन अधिकारों की संवैधानिक गारंटी का निर्वाह करेंगी; पर सरकार यानी सत्ता, शक्ति का केंद्रीकरण, अपनी ताकत का इस्तेमाल इन अधिकारों के मूर्तिमान होने और नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के बजाय इनके खिलाफ कर डाले तो? यहां आधुनिक समाज में सत्ता और उसके मद के मनोविज्ञान के संतुलन के लिए न्यायपालिका की व्यवस्था है। न्यायपालिका की संवैधानिक भूमिका या जरूरत कहें तो है ही इतनी कि सत्ता के नागरिक स्वतंत्रताओं और अतिक्रमण पर न्यायपालिका लगाम लगाकर नागरिकों को संविधान प्रदत्त मिले स्वतंत्रता और अधिकार की रक्षा करती है। यदि न्यायपालिका सत्ता के नागरिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं के हनन पर लगाम लगाने की अपनी भूमिका का त्याग कर दे तो न्यायपालिका के अस्तित्व के औचित्य पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाता है।

22 मार्च, 2020 को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता कफ्र्यू का एलान किया तो देश में कुल कोरोना मामले 340 थे। 25 मार्च को जब रात आठ बजे पूरे देश में संपूर्ण लॉकडाउन का एलान किया गया तो कुल कोरोना केस लगभग 640 थे। और 29 मई (इस लेख के लिखे जाने तक) को कोरोना केस लगभग 1, 65, 799 हो चुके थे।

22 मार्च को ही हमारे पड़ोसी बांग्लादेश, जिसकी आबादी 17 करोड़ के लगभग है, ने 26 मार्च से दस दिन के सार्वजनिक अवकाश और आवागमन के साधनों पर रोक का एलान किया। यानी पूरे देश को चार दिन पहले बताया गया कि चार दिन बाद लॉकडाउन होगा और इस तरह ज्यादातर लोगों को अपने गंतव्य तक सुरक्षित पहुंचने के लिए चार दिन का समय मिला।

वर्ष 2018-19 के बजट से पहले पेश आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्रवासी मजदूरों की संख्या लगभग दस करोड़ से ज्यादा है। मजदूरों के परिवारों को भी जोड़ लें तो भारत में प्रवासी मजदूरों की ही संख्या बांग्लादेश की कुल आबादी के बराबर जा पहुंचेगी। बांग्लादेश जैसे हिंदुस्तान से लगभग आठ गुना कम आबादी वाले देश को जब लॉकडाउन से पहले जनता को चार दिन की मोहलत देने की जरूरत महसूस हुई तो भारत में यह जरूरत क्यों नहीं महसूस की गई? यहां गौरतलब है कि लॉकडाउन लागू होने के बाद दो दिन और छूट देकर प्रवासी मजदूरों और अन्य लोगों को अपने ठिकाने तक पहुंचने की जरूरत भी समझी गई।

वहीं, भारत में आठ बजे की घोषणा 12 बजे रात से लागू करने की चमत्कारिक घोषणा के त्रासद नतीजों, बिलखते बच्चों, बिखरी तबाह पैदल राह जिंदगियों, रेल की पटरी पर बेसुध मजदूरों की मौतों और सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए मजदूरों की जान जाने की जिम्मेदारी लेने के लिए कोई तैयार नहीं है।

इन हालात में भारत के उच्चतम न्यायालय के सामने कई याचिकाएं आईं। मजदूरों के लिए परिवहन व्यवस्था, जान-माल की सुरक्षा के इंतजाम, आदि। ऐसी याचिकाओं के परिणाम से पूरा देश हतप्रभ हुआ। खासतौर पर अखबारों में छपी टिप्पणियों से, कि चूंकि सरकारों आदि ने भोजन आदि की व्यवस्था पहले ही कर रखी है इसलिए न्यायालय को इस मामले पर कुछ और करने या कहने की आवश्यकता नहीं। टिप्पणी, कि कोई रेल की पटरी पर सो जाए तो इसमें कोई क्या कर सकता है या मजदूरों को सड़क पर चलने से हम कैसे रोक सकते हैं। यह सब एक विचित्र निर्लिप्तता लगती है पर आगे बेपरवाह सत्ता के मद के आगे यह नतमस्तकता न्यायपालिका के अस्तित्व के औचित्य पर ही सवालिया निशान खड़े कर देती है। खतरा यह है कि न्यायपालिका की इस उदासीनता का नतीजा यह न हो कि आम लोग न्यायपालिका की जरूरत को लेकर उदासीन हो चलें। बेलगाम बहुतंत्रवादी उन्मादी सत्ता के दौर में न्यायपालिका की प्रतिष्ठा में यह क्षय लोकतंत्र के लिए बड़ी हार होगी।

आज यह बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि इस मुल्क में गरीब, लाचार, निर्दोष नागरिकों के लिए प्राणों का संकट खड़ा कर देने वाला सबसे अहमकाना फैसले के तौर पर — 8 बजे की घोषणा जानी जाएगी कि रात 12 बजे से सब बंद। 130 करोड़ लोगों की जिंदगी-कारोबार पर यूं गाज गिराई कि इसने इतिहास के जाने-माने तानाशाह तुगलकों को भी शर्मसार कर दिया। क्या मजदूरों और अन्य नागरिकों को अपने इंतजाम करने, गंतव्य तक सम्मानपूर्वक पहुंचने का मौका देने और मदद करने से लॉकडाउन बेमतलब हो जाता। बिल्कुल नहीं। हां, इतना जरूर होता कि दसियों करोड़ मेहनतकश और अन्य नागरिकों की जान पर न बन आती। ऐसा अतार्किक, मनमाना और असंवैधानिक तुगलकी फरमान किसी को नजर नहीं आया।

जहां तक उच्चतम न्यायालय का प्रश्न है तो प्रवासी मजदूरों और अन्य लोगों की मुश्किलों पर गौर करने और सरकारी ज्यादती, असंवेदनशीलता तथा बेरुखी के माहौल में बेरोजगार प्रवासी मजदूरों को उम्मीद की किरण दिखाने और मदद करने के मौके सर्वोच्च न्यायालय के पास कईं आए। तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने एक पत्र याचिका में मजदूरों की लॉकडाउन में हालत और उनके मदद के लिए निर्देशों की सर्वोच्च न्यायालय से याचना की। 13 अप्रैल को महुआ मोइत्रा की याचिका को बिना कोई वजह बताए खारिज कर दिया गया। इसी तरह जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने उच्चतम न्यायालय में केंद्र और राज्य सरकारों को लॉकडाउन के दौरान मजदूरों को न्यूनतम वेतन सुनिश्चित करने के लिए निर्देश देने के लिए याचिका लगाई। रिपोर्टों के अनुसार, न केवल भारत के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति श्री बोबड़े ने याचिका खारिज की बल्कि सवाल तक खड़ा कर दिया कि जब मजदूरों को खाना मिल रहा है तो उन्हें वेतन की जरूरत क्यों है। आखिर 21 अप्रैल को याचिका का निपटारा यह कहकर हुआ कि सरकार खुद ही याचिका में उठाए गए मसलों को देखे और उचित कदम उठाए।

21 अप्रैल को स्वामी अग्निवेश की प्रवासी मजदूरों और गरीबों की परेशानी के हल मांगती याचिका भी यह कर निपटा दी गई कि सरकार उठाए गए मसलों पर गौर करे और जरूरत समझे तो उचित कदम उठाए। अरुणा राय ने गांव लौटे मजदूरों को मनरेगा के तहत टेम्परेरी कार्ड और रोजगार देने की याचिका पर सॉलिसिटर जनरल यह कहते हैं कि जो मजूदर अभी तक हैं उन्हें 6800 रुपए दे दिए गए हैं, सर्वोच्च न्यायालय ने संतुष्टि जाहिर करते हुए मामले को लॉकडाउन खत्म होने के दो हफ्ते बाद सुनवाई के लिए लगाने के निर्देश दे दिए।

इसी तरह से अन्य मामले भी सर्वोच्च न्यायालय के सामने आए। इनमें से कुछ पर अदालत द्वारा वास्तव में काफी निर्दयतापूर्ण टिप्पणियां की गईं, जैसे कि हम मजदूरों को पैदल चलने से नहीं रोक सकते, कोई पटरी पर सो जाए तो क्या किया जा सकता है। जगदीप चोखर द्वारा दायर याचिका पर तो सर्वोच्च न्यायालय ने रेलवे के खर्च का 15 प्रतिशत मजदरों से वसूल करने पर कोई टिप्पणी या निर्देश देने की जरूरत से साफ इनकार कर दिया।

सर्वोच्च न्यायालय की हृदयहीन टिप्पणियों को जैसे उचित सम्मान के साथ नजर अंदाज करते हुए, देश के प्रदेशों में कई उच्च न्यायालयों ने अपनी संवैधानिक भूमिका के दौर के सुप्रीम कोर्ट के शर्मनाक रवैये की तरह बताया जब एडीएम जबलपुर मामले में तानाशाही के सामने घुटने टेकते हुए इमरजेंसी और नागरिक अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं का इमरजेंसी में कोई महत्त्व न होने को सही ठहराया था। इन हालात को देखते हुए यह नजरिया कि ज्यादातर विभिन्न कारणों जैसे-न्यायिक नियुक्तियों में सरकार की भूमिका, न्यायपालिका को मिलने वाले संसाधनों को तय करने का सरकार का अधिकार, न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र यानी किन मामलों को अदालतें तय कर सकती हैं और किन्हें नहीं, न्यायाधीशों की चिंता कि सरकार से टकराव न्यायपालिका के लिए संस्था के तौर पर नुकसानदेह हो सकता है और जजों की सहज मानवीय प्रवृत्ति कि शक्तिशाली साधन-संपन्न लोग उन्हें भला समझें — इनके चलते न्यायपालिका का रुख सरकार से ज्यादा भिन्न होना, सिद्धांतत: और सांस्थानिक मजबूरियों के चलते यूं ही मुश्किल होता है। तो न्यायपालिका से गैरजिम्मेदार या लापरवाह सरकार के खिलाफ खुद से पहल की उम्मीद करना लगभग बेकार है। इस मसले पर जाने-माने स्तंभकार प्रताप भानु मेहता का विश्लेषण ठीक जान पड़ता है कि — ”सबक यह है कि हम अदालतों पर भरोसा कर सकते हैं, थोड़ा ही सही लेकिन केवल तब जब हम अदालतों के बाहर जमकर पहलकदमी लें। केवल सुप्रीम कोर्ट पर फैसला करना गलत होगा। राजनीतिक चुनौती यह है कि किसी एक दल की शैतानी व्याख्या कि क्या न्यायोचित है या क्या नहीं, सहज बुद्धि न मान ली जाए। इसके लिए बीजेपी के ही तरीके का इस्तेमाल करना होगा : यानी विचारधारात्मक राजनीतिक गोलबंदी कानून के बाहर करनी होगी, नागरिकों द्वारा यह स्पष्ट संदेश देने के लिए कि भारत के नागरिक ऐसा गणतंत्र नहीं चाहते जो कि भेदभाव करता हो, भय पैदा करता हो और निकृष्टतम पशुवृत्ति से संचालित होता हो।’’

अब जो उच्चतम न्यायालय ने स्वत: हालात का संज्ञान लेकर सुनवाई की, जिसके नतीजे से बहुत आशा भी नहीं बंधती। यह किसी राजनीतिक वैचारिक गोलबंदी का नतीजा कम है। यह बेबस गरीबों, मजदूरों की मौतों, पीड़ा की अनगिनत कहानियों के बीच मूक उच्चतम न्यायालय के अस्तित्व के औचित्य पर लगे प्रश्न चिन्ह से उबरने की एक सधी हुई प्रतिक्रिया है। अगर उच्चतम न्यायालय या सत्ता प्रतिष्ठान के किसी भी अन्य संस्थान को उसकी भूमिका के नजदीक भी देखना है तो जमीन पर अवैज्ञानिक, प्रतिक्रियावादी ताकतों के मुकाबले पर्दाफाश और लोकतंत्र के मायनों को हासिल करने की सफल गोलबंदी के बिना यह मुश्किल होगा।

 

लेखक सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं।

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1 Comment

  1. BJP ne to yeh bta diya ki desh kaise chalya jata hai. Janta sirf vote de aur apne apne kaam pr lag jaye baaki kaam sarkaar pr choor de. Supreme court, high court jab suo moto na le tab desh ko bhagwaan hee chala paega.ab go modi sarkaar ne kiya ab congress bhi karegi. Kon hai kisi ko rokne vala ye to vakt hee bataega.

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