जर्जर स्वास्थ्य सेवाएं , राम भरोसे देश

Share:
  • शैलेश

कोरोना ने एक वैश्विक महामारी (पैनडेमिक) का रूप धारण कर लिया है। प्राकृतिक आपदाओं और महामारियों से मानव समाज अपने शैशव-काल से ही लड़ता आ रहा है और उसने निरंतर अपनी गलतियों से सीखते हुए अपने आपदा-प्रबंधन ढांचे को और उन्नत किया है ताकि अगली बार समय रहते आवश्यक कदम उठा लिए जाएं और जन-धन की हानि को न्यूनतम स्तर पर ही रोक दिया जाए। लेकिन इस महामारी के प्रति दुनिया भर की शासन व्यवस्थाओं की प्रतिक्रिया ने उनकी प्राथमिकताओं, आधारभूत ढांचे और आपदाओं से निपटने की उनकी क्षमताओं पर सवाल खड़े कर दिए।

भारत में भी दशकों से जारी सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के जर्जर ढांचे पर कोरोना त्रासदी एक कहर साबित हुई है। इसने न केवल पहले से ही नोटबंदी और जीएसटी की मार झेल रही कमजोर अर्थव्यवस्था की चूलें हिला दीं, बल्कि पहले से ही सजग और तैयार न रहने के कारण सरकार के अदूरदर्शी तथा तालमेल-विहीन फैसलों ने ऐसी अफरा-तफरी मचाई जिसके कारण देश ने 1947 के बाद पहली बार इतने बड़े पैमाने पर सामूहिक विस्थापन देखा।

चीन के वुहान में दिसंबर, 2019 से ही फैल रही इस महामारी से बचने की तैयारी के लिए उपलब्ध काफी समय भारत ने गंवा दिया। शुरू में ही पता चल गया था कि यह वाइरस से फैलने वाली बीमारी है और चिकित्सा-विज्ञान में अभी तक वाइरस को मारने वाली कोई प्रभावी दवा ईजाद न होने के कारण इसके संक्रमण से बचने की व्यवस्था ही एकमात्र रास्ता है। यह इंसानों के बीच स्पर्श तथा नजदीकी संपर्क से एक-दूसरे में फैलने वाली बीमारी है तथा संक्रमण के बाद एक इंसान 14 दिनों तक बीमारी के लक्षणों के साथ या उनके बिना भी इन विषाणुओं का वाहक बना रह सकता है और अन्य लोगों को संक्रमित करता रह सकता है।

ऐसी स्थिति में अगर केवल अंतरराष्ट्रीय आवागमन पर ही जांच और अलगाव (क्वॉरेंटीन) की व्यवस्था कर ली गई होती तो हम इस स्थिति से बच सकते थे। दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अपनी समूची राजनीतिक और सांगठनिक ताकत झोंक दी थी और पूरी सरकार अपने समूचे प्रशासनिक अमले के साथ पड़ोस में घात लगाकर बैठे कोरोना से बेखबर जनवरी के पूरे महीने और शुरुआती फरवरी तक पूरी ताकत से हवा में सांप्रदायिक गर्मी भरने में लगी रही। इसी बीच 31 जनवरी को भारत में पहले कोरोना संक्रमित मरीज की पुष्टि हो चुकी थी। लेकिन व्यवस्था इसके प्रति बेपरवाह थी।

इसके बाद तो ‘अमेरिका से आया मेरा दोस्त’। हम जानते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप को उनके फ्रेंड ने ‘टेन मिलियन पीपुल’ से स्वागत कराने का वादा किया था। ध्यान रहे कि ‘हाउडी मोदी’ का अहसान चुकाने के लिए अमेरिकी चुनावों से पहले छवि चमकाने का इतने भारी तामझाम वाला ‘नमस्ते ट्रंप’ कार्यक्रम और उसके पहले उसकी रिहर्सल 24-25 फरवरी के इर्द-गिर्द हफ्तों चलती रही थी। अहमदाबाद में हवाई अड्डे से स्टेडियम के रास्ते में गरीबों की बस्ती छिपाने के लिए उठाई गई दीवार ने तो अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां भी हासिल कीं। हालत यह है कि यह दोस्त ट्रंप भी अपने देश में इस महामारी पर काबू पाने में फिसड्डी साबित हुआ है और शुरू में कोरोना के खतरे को खारिज करने के कारण कीमती वक्त जाया करने को लेकर अमेरिकी मीडिया की आलोचना झेल रहा है।

इसी बीच दिल्ली में जनवरी-फरवरी में ही गर्म की गई हवा में पार्टी के छुटभैयों ने चिन्गारियां फेंकना शुरू कर दिया था जो अंतत: दिल्ली में हुई नृशंसता के अंजाम तक पहुंचा। दिल्ली हफ्तों तक जलती रही। ध्यान रहे इस बीच कोरोना-संकट के प्रति कोई जागरुकता या अंतरराष्ट्रीय यात्रियों की सघन जांच जैसा कुछ नहीं चल रहा था। व्यावसायिक अंतरराष्ट्रीय उड़ानें 22 मार्च तक और घरेलू उड़ानें 24 मार्च तक चलती रहीं। इस बीच मार्च के दो-तीन हफ्ते मध्य प्रदेश में विधायकों की खरीद-फरोख्त और सरकार गिराने-बनाने में लग गए। सरकार गिराने में मिली सफलता के बाद मनाए गए जश्न और बाद में लखनऊ में एक गायिका के साथ सत्तातंत्र और उसकी महान विभूतियों की बेशर्म पार्टी की तस्वीरों ने बता दिया कि ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ ‘महज पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाला ही मामला था। बाद में वह गायिका भी कोरोना से संक्रमित पाई गई।

अब आते हैं स्वास्थ्य-व्यवस्था की हालत पर। कोरोना बहुत तेजी से संक्रमित होने वाली महामारी है जो बहुत कम समय में आबादी के बड़े हिस्से को अपनी चपेट में ले रही है, हालांकि संक्रमित मरीजों में मृत्युदर अन्य कई संक्रामक बीमारियों की अपेक्षा काफी कम है। फिर भी जब बड़ी आबादी इसकी चपेट में आएगी तो मरने वालों की संख्या अपने-आप बढ़ जाएगी। देश पहले से ही स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में खस्ता हाल है। स्वास्थ्य क्षेत्र अस्पताल, बेड, डॉक्टर, नर्स, फार्मासिस्ट, वार्डबॉय तथा अन्य पैरामेडिकल स्टाफ एवं चिकित्सा उपकरणों की भारी कमी से जूझ रहा है। हम जीडीपी के एक प्रतिशत से भी कम स्वास्थ्य पर खर्च कर रहे हैं, जो वैश्विक स्तर से काफी कम है। आईसीयू बेड एक लाख लोगों पर मात्र हमारे पास 1457 मरीजों पर एक एलोपैथिक डॉक्टर उपलब्ध है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक 1:1000 से काफी खराब है। इसी तरह प्रशिक्षित नर्सों की संख्या 1:675 है जो मानक के अनुसार 3:1000 होनी चाहिए। स्वास्थ्य के पूरे बुनियादी ढांचे का यही हाल है। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री की स्वास्थ्य बीमा की बहुप्रचारित आयुष्मान भारत योजना एक मजाक जैसी लगती है क्योंकि अतत: इलाज तो यही डॉक्टर और यही ढांचा करेंगे कोई बीमा पॉलिसी तो इलाज करेगी नहीं।

ऐसे स्वास्थ्य ढांचे वाले हमारे देश में जब कोरोना-संक्रमण के मामले अचानक बढऩे लगे तो पता चला कि एक तो नाममात्र की कीमत पर एक तरह से दान में दी गई जमीनों और सस्ते कर्जों पर दशकों से पाल-पोस कर बड़ा किया गया निजी क्षेत्र भाग खड़ा हुआ और उन्हीं सार्वजनिक क्षेत्र के अस्पतालों और चिकित्साकर्मियों के कंधों पर सारी जिम्मेदारी डाल दी गई जिन्हें लंबे समय से गाली दी जा रही थी। वैसे भी हमारे यहां के निजी क्षेत्र ने केवल मरीजों की जेबें हल्की करने का काम किया है और उसी के लिए सारा निवेश भी किया है। शोध के क्षेत्र में या ऐसी स्थितियों से निपटने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं रही है। अत: जो कुछ करना था, सरकारी क्षेत्र को ही करना था। लेकिन इतने भीषण संक्रामक रोग में काम करने के लिए आवश्यक सुरक्षा उपकरण सरकार के पास थे ही नहीं। ऐसे मरीजों के पास जाने के लिए सभी चिकित्साकर्मियों के पास हज्मत सूट (पीपीई यानी पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट)— बॉडी सूट, एन-95 मास्क, सर्जिकल मास्क, जूता कवर, दस्ताने, रेस्पिरेटर आदि होने चाहिए, जिनकी बेहद कमी रही। भारत के पीपीई मैन्युफैक्चररों को काफी समय तक अपने उपकरण निर्यात करने की अनुमति मिली रही। सरकारी नीति-निर्माण में तालमेल के अभाव का आलम यह था कि 31 जनवरी को इस निर्यात पर रोक लगाई गई लेकिन फिर यह रोक हटा भी ली गई। फिर बहुत आलोचना के बाद मार्च के अंतिम सप्ताह में दोबारा निर्यात पर रोक लगाई गई। इस बीच इन उपकरणों/वस्त्रों के निर्माता सरकार से देश के अंदर इस्तेमाल के उद्देश्य से इन उपकरणों के लिए मानक तय करने तथा दिशानिर्देश जारी करने का अनुरोध करते रहे लेकिन ढिलाई का आलम यह था कि लगभग दो महीने बाद 24 मार्च को स्वास्थ्य मंत्रालय ने ये मानक जारी किए, तब तक देश में 536 कोरोना मरीजों की पुष्टि हो चुकी थी।

इस बीच में देशभर में 22 मार्च को ‘जनता कफ्र्यू’ लगाने की अपील प्रधानमंत्री ने की तथा शाम पांच बजे ताली और थाली बजाकर डॉक्टरों को उनकी बहादुरी के लिए धन्यवाद ज्ञापित करने को कहा। डॉक्टर और पैरा मेडिकल स्टाफ विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर और विभिन्न कैंपेनों के माध्यम से चिल्लाता रहा कि हमारी जान जोखिम में डाली जा रही है और बिना सुरक्षा उपकरणों के इन मरीजों का इलाज करना आत्महत्या जैसा होगा लेकिन उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हुई और प्रधानमंत्री द्वारा अभिव्यक्त भावना के उलट वर्षों से काफी लगन से तैयार किए जा रहे भीड़तंत्र ने इसे डॉक्टरों को धन्यवाद ज्ञापन की जगह ताली-थाली-घंटा-घडिय़ाल-शंख बजा कर कोरोना भगाने का मोदी जी द्वारा तैयार मंत्र मान लिया और शाम पांच बजे के समय विश्व एक गंभीर अवसर को एक विराट प्रहसन में बदलने का साक्षी बना। यहां तक कि कानपुर तथा पीलीभीत के जिलाधिकारी और एसपी तक ने ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ को धता बताते हुए घंटे-घडिय़ाल और शंख बजाती हुई उत्सवधर्मी भीड़ का नेतृत्व किया।

जब उपयोगी समय पहले ही गंवा दिया गया था तो जाहिर है कि अचानक महसूस हुआ होगा कि अब तो पानी सर ऊपर हो चुका है। तो प्रधानमंत्री जी फिर से टीवी पर प्रकट होते हैं और काफी गंभीरता से इस ‘जनता कफ्र्यूÓ को 21 दिन के लॉकडाउन के रूप में आगे बढ़ाने का निर्णय सुनाते हैं और बताते हैं कि ”यह कफ्र्यू ही होगा।” फिर क्या था? एक झटके के साथ सारी सामाजिक और आर्थिक गतिविधियां ठप कर दी गईं। जो जहां पर था वहीं पर रोक दिया गया। शायद अदूरदर्शी नीति-निर्माताओं की कल्पना में भी वे करोड़ों लोग नहीं आए जो अपने घरों से हजारों-हजार किलोमीटर दूर रह कर रोज कुंआ खोद कर रोज पानी पीते हैं। पिछले कुछ दशकों में बेलगाम होती जा रही कॉरपोरेट पूंजी और और उसके दबाव में सिकुड़ते जा रहे श्रम-कानूनों ने उन्हें एक गैर-जरूरी और अकिंचन भीड़ बना कर ठेका-प्रथा के रहमो-करम पर छोड़ दिया है। वे हमारी तथाकथित सभ्यता की दरारों में बेनाम, बेआवाज और अदृश्य जिंदगी जीते हुए चुपचाप एक संवेदनहीन समाज की पालकी ढोते रहते हैं। एक मनमाने निर्णय के साथ एक झटके में उन्हें उन दरारों से भी बेदखल कर दिया जाता है और जब वे बाहर आते हैं तो उन पर कफ्र्यू तोडऩे और कोरोना फैलाने का इल्जाम लगने लगता है।

इस पूरी निर्णय-प्रक्रिया में कहीं कोई तालमेल नहीं है। केंद्र तथा विभिन्न राज्य सरकारों ने उनके रहने, खाने-पीने या उनकी जांच का कोई प्रबंध नहीं किया न आपस में कोई सहमति बनाई। पुलिस ने उनके साथ ‘कफ्र्यू जैसा ही’ व्यवहार किया। जो सरकार कोरोना के मरीजों को अभी हाल तक हवाई जहाजों से भर-भर कर ला रही थी और समुचित जांच भी नहीं करा रही थी उसी ने उनसे उनकी बसें और ट्रेनें भी छीन लीं। नतीजतन ये लोग सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर अपने गांवों तक अपनी गृहस्थी अपने कंधों और सर पे लादे अपनी पत्नी और मासूम बच्चों के साथ पैदल ही निकल पड़े। इस बीच सरकार ने अपने घरों में मध्यवर्ग के मनोरंजन के लिए दूरदर्शन पर 1990 के दशक के लोकप्रिय सीरियल ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ चलवा दिए। (ध्यान रहे कि यह दशक ही भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता और पुनरुत्थान के उभार, मंदिर आंदोलन के जोर पकडऩे और नई आर्थिक नीति के रूप में उदारीकरण, निजीकरण वैश्वीकरण की त्रयी द्वारा लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा को विस्थापित करने का दशक रहा है। इन सारे रुझानों को वैचारिक संबल देने में इन पौराणिक आख्यानों ने भी अपनी भूमिका निभायी ही थी।)

तो एक तरफ एक केंद्रीय मंत्री अपने विशालकाय ड्राइंग रूम में एक विशाल डिजिटल टीवी स्क्रीन पर ‘रामायणÓ देखते हुए अपनी तस्वीर ट्विटर पर साझा करते हुए पूछ रहे थे कि ”मैं तो ‘रामायण’ का आनंद ले रहा हूं, क्या आप भी? ” तो वहीं लाखों मेहनतकश लोग सड़कों पर और बहुत सारे पुलिस की मार से बचने के लिए रेल की पटरियों के किनारे-किनारे लहू-लुहान पैरों के साथ अपने मासूम बच्चों को घसीटते हुए सैकड़ों किलोमीटर के विस्थापन पर निकल पड़े थे। ऐसा नहीं था कि गांवों में वे बहुत समृद्धि छोड़ कर आए थे, बल्कि यहां, शहर की लंबी अनिश्चितता और नजरों में परायेपन के बीच गुमनाम मौत के खतरे से वे भागना चाहते थे। आजादी के इतने वर्षों में भी सत्ता और समाज उनके प्रति अनचाहेपन और बेगानेपन की भावना से मुक्त नहीं हो पाया था। उनकी अहमियत अभी भी उच्च वर्ग और उसके वैचारिक अनुचर बन चुके मध्य वर्ग की सत्ता की सीढ़ी और उसकी विलासिता के विशालकाय तंत्र के गुमनाम पुर्जे से ज्यादा कुछ नहीं थी। कोरोना लाने में इन लोगों की कोई भूमिका नहीं थी लेकिन पांच सितारा मीडिया हाउसों में बैठे पत्रकार, सुविधाभोगी मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा और प्रशासनिक अमला इन्हें ऐसी ही हिकारत भरी नजरों से देख रहा था जैसे यही कोरोना का कारण हों।

अभी भी भारत में कोरोना के प्रभाव और तीव्रता का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है। बहुतों की राय है कि भारतीय लोगों की जेनेटिक बनावट और विपरीत परिस्थितियों में अनुकूलन की क्षमता और इससे विकसित इम्यूनिटी के कारण शायद कोरोना यहां ज्यादा खतरनाक न साबित हो। हमारी यह सदिच्छा पूरी हो! नहीं तो हमारे स्वास्थ्य ढांचे की स्थिति को देखते हुए यहां कोरोना दुनिया के अन्य देशों से ज्यादा नुकसान पहुंचा देगा। कोरोना-संक्रमण की गंभीर अवस्थाओं से निपटने के लिए वेंटिलेटर अनिवार्य हैं, जिनकी हमारे यहां भीषण कमी है।

एक तो यहां पिछले वर्षों की घटनाओं के कारण सांख्यिकीय आंकड़ों पर भरोसा करना मुश्किल है, दूसरे सरकार में विभिन्न स्तरों पर लोगों में एक मूर्खतापूर्ण अहंकार दिखाई देता है जिससे वे विरोधी विचारों वालों से अछूत जैसा व्यवहार करते हैं। किसी से राय लेना या मानना इनके इगो को चोट पहुंचाता है। इनकी इसी प्रवृत्ति ने बुद्धिजीवी शब्द को गाली में तब्दील कर दिया है। यह प्रवृत्ति इन्हें विचार-विमर्श तथा तालमेल से दूर कर देती है। आंकड़ों में हेरफेर के कारण भविष्य के अनुसंधानों की राह भी कठिन हो सकती है।

अभी देश में कोरोना-संक्रमण को जांचने वाली किटों का बहुत अभाव है जिसके कारण मरीजों की सही संख्या पता चलना काफी मुश्किल है। चीन ने अपने यहां लॉकडाउन के द्वारा नियंत्रण किया किंतु दक्षिण कोरिया के मॉडल की दुनिया में काफी प्रशंसा हुई जिसने बड़े पैमाने पर सघन जांच के माध्यम से रोगियों को चिन्हित किया और लॉकडाउन का सहारा लिए बिना उसने अपने यहां कोरोना से जंग जीती। वहां सबसे कम मौतें हुईं। ज्यादा टेस्ट-किटों का उत्पादन करके भारत भी दक्षिण कोरिया का रास्ता अपनाए, यह ज्यादा ठीक होगा।

भारत में आपदा-प्रबंधन का एक प्रभावी ढांचा तैयार किया जाना जरूरी है। वर्तमान महामारी ने वर्तमान ढांचे की कमजोरी और प्रभावहीनता को उजागर कर दिया है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण दुनिया के पारिस्थितिकी-तंत्र में जटिल बदलाव आ रहे हैं। अत: भविष्य में कई अन्य प्राकृतिक आपदाओं व महामारियों का विस्फोट हो सकता है। सतर्कता और त्वरित कार्रवाई द्वारा ही हम नुकसान को कम कर सकते हैं। इस आपदा के कारण स्पेन ने अपने यहां निजी अस्पतालों तथा स्वास्थ्य प्रदाताओं को सार्वजनिक नियंत्रण में लाने का कड़ा कदम उठाया है। पूरी दुनिया में निजी स्वास्थ्य सेवाओं की कलई खुल गई है। भारत में भी एकसमान, सार्वजनिक तथा सार्वभौमिक स्वास्थ्य ढांचे की मांग उठने लगी है, इसके लिए एक व्यापक अभियान चलाया जाना चाहिए। जब दुनिया पूंजी और महामारियों के लिए ग्लोबल विलेज बन चुकी है तो स्वास्थ्य तथा लोक कल्याणकारी व्यवस्थाओं के लिए भी विश्व-पंचायत में एक वैश्विक ढांचा स्थापित किया जाना चाहिए। विश्व-पंचायत की भूमिका को और बढ़ाने की जरूरत है ताकि देशों की सीमाओं के गैर-जरूरी तनावों को कम करके हथियारों की होड़ समाप्त कराई जाए और इसमें लगने वाले धन को दुनिया के शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में लगाया जाए।

पूंजी के अतिसंचय की होड़ में प्रकृति को अपूरणीय क्षति हो रही है। पृथ्वी से जैव-विविधता का भीषण नुकसान हो रहा है। इससे मौसम में अकल्पनीय परिवर्तन देखे जा रहे हैं साथ ही प्राकृतिक आपदाएं भी विकराल रूप लेने लगी हैं। पृथ्वी जीवन के योग्य बनी रहे इसके लिए आवश्यक है कि पूरी दुनिया में मुनाफे की हवस के खिलाफ मजबूती से आवाज उठाई जाए।

हमारे देश में पहले से ही लडख़ड़ा रही अर्थव्यवस्था के लिए कोरोना महामारी एक बड़ा धक्का साबित होगी, लेकिन हो सकता है कि आर्थिक मोर्चे पर सरकार की नाकामी का ठीकरा कोरोना के सर पर फूट जाए और यह सरकार के लिए बिल्ली के भाग्य से ठींका टूटने जैसा साबित हो। लेकिन सेवाओं के समाजीकरण की मांग के लिए आवाज उठाने के लिए परिस्थितियां अनुकूल बन रही हैं। ऐसी मांग पूरी तरह से कॉरपोरेट हितों के लिए समर्पित व्यवस्था को निश्चित रूप से विचलित करेगी।

लॉकडाउन ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली की जरूरत को भी जेरे बहस लाया है। कालाबाजारी और जमाखोरी चरम पर है। दैनंदिन उपयोग वाली तमाम वस्तुओं की हर घर तक पहुंच की कोई प्रणाली न होने के कारण घरों में कैद लोग भारी मुसीबत का सामना कर रहे हैं। गरीब लोगों की और भी दुर्दशा है। इतनी बड़ी आबादी को बाजार के रहमो-करम पर नहीं छोड़ा जा सकता। सामान्य समय के लिए उपलब्ध और सक्रिय ढांचे को ही आपदा के समय भी इस्तेमाल किया जा सकता है नहीं तो इसी तरह की मुसीबतें पेश आती हैं।

समयांतर अप्रैल, 2020

Visits: 247

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*