सांच बराबर ‘पाप’ नहीं

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– शैलेश

 

फैक्ट चेकिंग वेबसाइट ‘ऑल्ट न्यूज’ के साथ बदले की भावना के साथ किया जा रहा सत्ता का बर्ताव कोई अलग-थलग मामला नहीं है। देश में सत्य उजागर करने वाले, सत्य के लिए लडऩे वाले, सरकारी नीतियों-योजनाओं का विरोध करने वाले, विरोध में लिखने-बोलने वाले, समाज, देश और अर्थव्यवस्था के किसी प्रगतिशील ढांचे का सपना पालने वाले लाखों लोगों का मनोबल तोडऩे के लिए रोज-ब-रोज यही खेल खेला जा रहा है।

ऑल्ट न्यूज ने समय-समय पर ऐसे कई तथ्य उजागर किए हैं जिनसे सरकार कई बार राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दुविधा में पड़ी है और उसे शर्मिंदगी उठानी पड़ी है। इस बार तो सत्ताधारी पार्टी की एक प्रवक्ता द्वारा एक न्यूज चैनल पर बहस के दौरान, आदतन दिये गए सांप्रदायिक घृणा से भरे हुए एक बयान पर ऑल्ट न्यूज के सह संस्थापक जुबैर अहमद के एक ट्वीट के माध्यम से अनेक देशों की निगाह पड़ गयी और प्रतिक्रिया में अनेक देशों ने या तो भारत के राजदूतों को तलब किया अथवा कड़ी प्रतिक्रिया और चेतावनी दी जिसके कारण सरकार को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा। ऐसे में हर बार की तरह सत्ता प्रतिष्ठान का चोटिल अहंकार अपने फन फैलाकर किसी भी कीमत हर प्रतिरोध को डंस लेने को बेताब हो उठा। प्रतिरोध-मुक्त भारत ही उनका लक्ष्य है।

फिर क्या था! अक्सर बड़े-बड़े मामलों में भी आंख मूंदे पड़ी रहने वाली दिल्ली पुलिस एक संदिग्ध ट्विटर हैंडिल द्वारा वर्षों पहले की गयी जुबैर अहमद के एक ट्वीट की गुमनाम सी शिकायत पर अचानक जाग उठी। फटाफट गिरफ्तारी की गयी और उसके बाद तो ईडी-पुलिस-आयकर-सीबीआई-न्यायपालिका वाले चिर-परिचित तिलिस्मी तहखाने में घेर कर शिकार करने वाला सत्ता प्रतिष्ठान का पसंदीदा खेल शुरू हो गया। यहां तक कि राष्ट्रीय छवि बनाने को आतुर बुलडोजर प्रदेश, उत्तर प्रदेश, की पूरी सरकारी मशीनरी इस उद्देश्य को पूरा करने के काम में लगा दी गयी। किसी भी कीमत पर जुबैर अहमद को जमानत न मिले, और हर समय सतही और बेबुनियाद ही सही, आरोपों का एक पुलिंदा ऐसा तैयार रखा जाए कि उन्हें जेल में ही एडिय़ां रगडऩे को मजबूर कर दिया जाए, और सत्ता की मंशा के खिलाफ लिखने-पढऩे और सर उठाने की सोचने वालों का भी मनोबल तोड़ दिया जाए।

लेकिन यह कोई मात्र सामाजिक और सांस्कृतिक खेल नहीं है, बल्कि इसके पीछे देश के सभी आर्थिक संसाधनों पर कब्जे और वर्चस्व की गहरी साजिश चल रही है, जिसे समझा जाना बेहद जरूरी है।

पतित और सड़ चुकी सामंती मूल्य-मान्यताओं के परित्यक्त कूड़ेदान में अंकुरित हुई, और वहीं से खाद-पानी पा रही दलित-स्त्री-अल्पसंख्यक विरोधी पुरातनपंथी शक्तियों से गठजोड़ करके कॉरपोरेट शक्तियां अपने एकाधिकारी अश्वमेध यज्ञ के अभियान में जुटी हुई हैं। वे आकाश से पाताल तक, पानी से पहाड़ तक, खेतों से खदानों तक, कोयले से प्लेटिनम तक, शिक्षा से स्पेक्ट्रम तक, मीडिया से मंडियों तक, हर चीज पर कब्जा कर लेने के लिए बदहवासी की हद तक उतावली हो उठी हैं।

इन कॉरपोरेट शक्तियों ने अपनी जड़ें जमाने के लिए संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में अंतर्निहित दरारों को अपना प्रवेश द्वार बना लिया है। भारत के किसी ऐसे काल्पनिक गौरवशाली अतीत, जिसमें खास करके दलितों और स्त्रियों को ‘उनकी औकात’ में रखा जा सके, को वापस लाने का सपना पाल रहे उच्च वर्णवर्चस्ववादी और राजे-रजवाड़ों का दुमछल्ला रहे, सांप्रदायिक घृणा के मल से लथपथ संगठनों की हाशिये पर चल रही राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं में इन कॉरपोरेट घरानों को अपने सपनों का ध्वजवाहक मिल गया। उन्होंने अकूत पैसा बहा कर, वितृष्णा पैदा करने वाले इनके घृणा-विकृत चेहरे का रंग-रोगन किया, इनसे निकल रही उबकाई पैदा करने वाली नापाक सोच की दुर्गंध को ढेर सारा इत्र-फुलेल उंड़ेल कर ढका और 4जी के उडऩ खटोले पर सवार करके इनकी इस फर्जी इमेज को निर्विकल्प की तरह पेश किया।

छवि-निर्माण की इस महा परियोजना के लिए दुनिया की सबसे महंगी कन्सल्टेंसी फर्म के साथ अनुबंध किया गया और देश-विदेश से महंगे से महंगे रणनीतिकारों की पूरी फौज लगा दी गयी। नयी आर्थिक नीति के रथ पर सवार होकर घर-घर में घुसपैठ कर चुके इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के सैकड़ों प्रतिष्ठानों को कॉरपोरेट घरानों ने खरीद लिया और उन सभी को राग-दरबारी गाने पर लगा दिया गया। लोकतंत्र का चौथा पाया कहा जाने वाले मीडिया का बड़ा हिस्सा सरकार से सवाल पूछने की बजाय सवाल पूछने वालों से सवाल पूछ-पूछ कर उनकी मॉब लिंचिंग का प्लेटफॉर्म बना दिया गया।

नोटबंदी के माध्यम से न केवल देश भर में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को बरबाद करके बड़ी कॉरपोरेट पूंजी के विस्तार का मार्ग प्रशस्त किया गया, बल्कि विपक्षी पार्टियों की आर्थिक कमर तोड़ दी गयी। इसके साथ ही चुनावी फंडिंग के लिए इलेक्टोरल बॉण्ड को अनिवार्य बना करके विपक्षी पार्टियों को चंदा देने वालों की जानकारी सरकार की पहुंच में होने के नाते इन चंदादाताओं के ऊपर सरकार द्वारा ईडी, आयकर विभाग और सीबीआई के माध्यम से नकेल कस कर यह और ज्यादा सुनिश्चित कर लिया गया कि विपक्षी पार्टियां नए चंदे से महरूम रहें। परिणाम यह हुआ कि पार्टियों को मिलने वाले कुल चंदे में सत्ताधारी पार्टी का हिस्सा अब 95 प्रतिशत हो गया है। इस तरह से कॉरपोरेट घरानों ने ‘विपक्ष-मुक्त भारत’ की पटकथा लिख कर देश में चुनावी लोकतंत्र के परिधान में सत्तासीन तानाशाही, यानि ‘इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी’ की भूमिका तैयार कर लिया ताकि उनका अश्वमेध का अश्व बिना किसी चुनौती के सरपट दौड़ता जाए।

दूसरी तरफ, सत्ताधारी पार्टी के देश भर में नए सिरे से बने कार्यालय अपनी भव्यता और साज-सज्जा में कॉरपोरेट कार्यालयों को मात देने लगे। इन कार्यालयों में कंप्यूटर और आईटी सेक्टर के नव-बेरोजगारों की भारी फौज में से हजारों युवाओं को ठीक-ठाक वेतन पर रोजगार मिला। यह रोजगार था झूठ फैलाने का। एक-एक कर्मचारी ने सोशल मीडिया पर सैकड़ों फर्जी एकाउंट और आईडी बनाया हुआ है। हर आईडी की फ्रेंडलिस्ट में हजारों लोग जोड़ लिये गए हैं। वे नए-नए लोगों की तलाश करके उन्हें फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजते रहते हैं। इस तरह से हर कर्मचारी अपने सीनियर झूठ-निर्माताओं से प्राप्त सामग्री को पलक झपकते ही लाखों लोगों तक पहुंचा देता है। और सारे कर्मचारियों की कुल मिलाकर पहुंच करोड़ों लोगों तक होती है। यह सेना हर समय इस बात के लिए भी मुस्तैद रखी जाती है कि कहीं भी सत्ताधारी पार्टी, सरकार और उससे जुड़े लोगों और योजनाओं के खिलाफ कुछ भी लिखा या बोला न जाए। ऐसा लिखने-बोलने वाले सभी लोगों को ये लोग निरंतर निशाना बनाये रखते हैं, और उनका मनोबल तोडऩे के लिए मूर्तिभंजन से लेकर गाली-गलौज तक, हर स्तर पर उतर जाते हैं। यही ट्रोल आर्मी है।

इस ट्रोल आर्मी को कंटेंट, यानि सामग्री गढऩे के लिए पार्टी ने ऊंची तनख्वाहों पर हजारों विशेषज्ञों को नियुक्त किया हुआ है। ये लोग दिन-रात अल्पसंख्यकों के खिलाफ, विपक्षी पार्टियों और उनके नेताओं के खिलाफ, सरकार और उसकी योजनाओं का विरोध करने और उनके स्याह पक्षों को लिख-बोल कर उजागर करने वालों और जनांदोलनों में सक्रिय, खास करके वामपंथी रुझान वाले, प्रगतिशील ऐक्टिविस्टों, पत्रकारों, लेखकों, बुद्धिजीवियों की छवि खराब करने वाले फेक न्यूज और कथाएं-अंतर्कथाएं गढ़ते रहते हैं। एक झूठ को हजारों बार बोल कर सच जैसा बना देने वाली इन अफवाहों के माध्यम से वे बहुसंख्यक समाज के बीच सरकारी नीतियों-योजनाओं के इन विरोधियों की छवि समाज-विरोधी, बहुसंख्यकों के धर्म-विरोधी, उनके देवी-देवताओं का अपमान करने वाले और राष्ट्रविरोधी के रूप में चित्रित करने में लगे रहते हैं।

सत्ताधारी दल द्वारा चलाया जा रहे, कॉरपोरेट प्रायोजित, झूठ फैलाने के इस विराट कारोबार ने भारतीय समाज को तहस-नहस करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। ये लोग लगातार एक गुस्सैल समाज निर्मित कर रहे हैं, पेट्रोल की तरह, एक चिनगारी पाते ही धधक उठने को तैयार समाज। पूरा सत्ता प्रतिष्ठान संगठित तौर पर, न केवल अल्पसंख्यकों के खिलाफ, बल्कि सभी प्रगतिशील ऐक्टिविस्टों, लेखकों, बुद्धिजीवियों के खिलाफ जनमानस तैयार करने में लगा है। नतीजतन, ऐसे सभी लोगों में भी लगातार दबा हुआ गुस्सा और बेबसी की भावना बढ़ रही है। न्याय पाने की उम्मीदें धूमिल पड़ती जाने से, खास करके अल्पसंख्यक समुदाय के एक छोटे से हिस्से में बढ़ रहा मोहभंग उनके भीतर कट्टर सांप्रदायिक और आतंकवादी संगठनों की घुसपैठ का रास्ता बन सकता है। यह बात भारतीय समाज की लिहाज से भले ही अत्यंत भयावह आशंका हो, लेकिन खून से सिंचाई और लाशों की खाद से चुनावी फसल काटने वाले सत्ता लोलुपों के लिए इस माध्यम से बहुसंख्यक वोटों के और ज्यादा ध्रुवीकरण की उम्मीदें और प्रबल हो उठती हैं।

ऑल्ट न्यूज जैसी फैक्ट चेकिंग साइटें अक्सर मूल तथ्यों, फोटोग्राफों और वीडियोज को खोज कर सामने लाती रहती हैं और उनके माध्यम से इन झूठों और अफवाहों को उजागर करती रहती हैं। हलांकि इनके पीछे कोई संगठित समर्थन न होने के कारण इनका पाठक समुदाय इतना सीमित रहता है, और इनकी व्याप्ति इतनी कम होती है कि इनके द्वारा उजागर किए गए तथ्य अक्सर झूठ की इस विराट, सहस्रमुखी महामशीन को कुछ खास नुकसान नहीं पहुंचा पाते। यों भी, कहा जाता है कि जब तक सत्य अपने जूते पहन रहा होता है, उतनी देर में झूठ आधी दुनिया लांघ चुका होता है। फिर भी कभी-कभी इनके तथ्य सत्ता को तिलमिला देने के लिए पर्याप्त होते हैं। इस बार ऑल्ट न्यूज और जुबैर अहमद के खिलाफ कार्रवाई इसी की प्रतिक्रिया है।

लेकिन इस बात के प्रति बार-बार आगाह होते रहना बेहद जरूरी है कि सर्वोच्च न्यायालय से जुबैर अहमद को मिली राहत से देश में न्याय के राज्य की स्थापना की उम्मीद न पाल बैठें। न ही इस पूरे मामले को हम कहीं दलित-स्त्री-अल्पसंख्यक विरोध के मामले तक सीमित समझ बैठें। दरअसल कॉरपोरेट शक्तियां इतना बेहिसाब पैसा इस काम के लिए नहीं बहा सकतीं। यह तो उनके लिए संसदीय राजनीति के दायरे में राजनीतिक ताकत अर्जित करने का साधन मात्र है। उनकी निगाह तो देश के सभी संसाधनों पर पूर्ण एकाधिकार पर लगी हुई है। देश और समाज के भविष्य के प्रति चिंतित सभी लोगों को अपनी रणनीति इसी तथ्य के मद्देनजर बनानी होगी।

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