शब्द और संदर्भ

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भाषा किसी भी समाज के सांस्कृतिक ही नहीं बल्कि भौतिक विकास का भी मापदंड होती है। दूसरे शब्दों में, किसी भी भाषा का विकास और उसकी उत्कृष्टता का सीधा संबंध उस समाज के बहुमुखी विकास पर निर्भर करता है, जो उसका प्रयोग करती है। यह जांच करना अपने आप में कम रोचक नहीं होना चाहिए कि पिछले कम-से-कम दो सौ वर्षों में भारतीय समाज और उसकी भाषाओं ने कितने नए शब्दों का निर्माण किया होगा? निश्चय ही इसका उत्तर निराशाजनक होगा।

दूसरी ओर, इस दौरान विदेशी, खासकर योरोपीय भाषाओं के हजारों शब्द भारतीय भाषाओं का हिस्सा बने हैं। नए शब्दों और अभिव्यक्ति के नए रूपों की तलाश वास्तव में तब होती है जब कोई समाज ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नए कदम बढ़ा रहा हो। विचार और विमर्श के नए मानदंड स्थापित कर रहा हो और इस तरह नए सामाजिक मूल्य पैदा हो रहे हों, जिन्हें अभिव्यक्त करने के लिए नए शब्दों का और भाषा के नए रूपों का निर्माण हो रहा हो।

भारतीय समाज मूलत: परंपरागत रहा है, इसलिए इसने पश्चिम के संपर्क में आने के बावजूद समाज को प्रगतिशील विचारों और बदलावों से हर चंद बचाए रखने की कोशिश की। इसके कारण इतर भी हो सकते हैं जिनमें सबसे अहम जातिवाद है और जो समाज के एक वर्ग को अपार विशेषाधिकार देता आ रहा था। इस्लाम, जिसे जाति व्यवस्था पहले ही कमोबेश आत्मसात (कोऑप्ट) कर चुकी थी, इस व्यवस्था को कमजोर करने में लगभग नाकाम रहा है। इसके अलावा इस्लाम, विशेषकर भारतीय इस्लाम के बड़े पैमाने पर हिंदू धर्म और समाज के संपर्क में आने तथा धर्मांतरण होने के बाद से, स्वयं भी अपनी प्रगतिशील ऊर्जा खो चुका था।

पश्चिमी विचारों ने भारतीय समाज में जो सेंध अंतत: लगाई उसके पीछे मात्र धार्मिक विचार नहीं थे, बल्कि वह तकनीकी क्रांति थी जिसने जीवन और भौतिक वस्तुओं के प्रति हमारे नजरिए को भी बदल दिया था और पूरी दुनिया को अपने प्रभाव में ले लिया था। इसमें शंका नहीं कि जातिवाद ने इस बदलाव को जिस तरह से अपनाया वह कम शातिराना नहीं था, पर लोकतंत्र, संसद और सरकार यानी प्रशासनतंत्र का आधुनिक स्वरूप उसी की देन रहा।

शिक्षा इस क्रम में कम महत्वपूर्ण नहीं रही, विशेषकर सार्वजनिक शिक्षा, जिसने ज्ञान को उच्च जातियों के चंगुल से एक हद तक ही सही, मुक्त किया और वह एक जाति विशेष की बपौती नहीं रही। यह बात और है कि आधुनिक ज्ञान का जनतांत्रिकरण आंशिक ही रहा और आज जिस तरह का आंतरिक संघर्ष शिक्षा, ज्ञान और सत्ता के लोकतांत्रिकरण के खिलाफ चल रहा है वह कई मामलों में असामाजिक और प्रतिगामी रूप ले चुका है। पर ये वृहत्तर मसले हैं।

फिलहाल विवाद पर लौटें।

इधर, एक शब्द को लेकर संसद में जिस तरह का विवाद चल रहा है वह भारतीय समाज की इसी सामान्य स्थिति का द्योतक है। एक सांसद ने नई राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को ‘राष्ट्रपत्नी’ कह दिया। उसके बाद जो हंगामा हुआ वह कई दिन तक थमने को नहीं आया।

असल में पति और पत्नी के शब्द, फिलहाल संस्कृत की बात न करें तो, अपने रूढ़ अर्थ में हिंदी में विवाहित दंपति के पुरुष और स्त्री के लिए इस्तेमाल होते हैं। दूसरी ओर, पति शब्द ज्यादा व्यापक अर्थों में प्रयोग में लिया जाता है। मालिक या अंग्रेजी में कहें तो ‘ओनर’ के अर्थ में भी, जैसे कि पूंजीपति, लखपति, उद्योगपति, आदि-आदि।

इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि ‘पति’ वास्तव में ‘मालिक’ या ‘ओनर’ के अर्थ में ही अपना विस्तार पाता है। सिर्फ ‘पति’ यानी ‘दूल्हा’, ‘हस्बैंड ‘ यानी पुरुष, सिर्फ एक स्त्री विशेष से जुड़ा माना जाता है। सत्य यह है कि हिंदू व्यवस्था में पुरुषों को एक से अधिक स्त्रियों का पति, दूसरे अर्थ में मालिक होने का अधिकार था, जिसे आजादी के कई साल बाद किया गया। इसलिए यह सही है कि स्त्री-पुरुष संबंध के परिप्रेक्ष्य में यह आज, विशेषकर पश्चिमी या कहिए ईसाई परंपरा के प्रभाव से, समानता के अर्थों में प्रयोग होने या समझा जाने लगा है। पर दिक्कत यह है कि अपने रूढ़ अर्थों में यह बदला नहीं है और इस मूल अर्थ में भी इसका व्यापक प्रयोग चलन में है।

चूंकि एक स्त्री एक पुरुष हमारी परंपरा का हिस्सा नहीं रहा है, इसलिए ‘पति’ शब्द के प्रति हमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगता है। सत्य यह है कि भारत में बहुविवाह प्रथा 1956 में खत्म हुई और दुनिया के अंतिम हिंदू राष्ट्र नेपाल में तो यह कुछ ही दशक पहले ही खत्म हो पाई। सच तो यह है कि इस ‘पति’ संस्था का ही दुष्परिणाम था कि सती जैसी   बर्बर प्रथा भारत में 19वीं सदी के तीसरे दशक में प्रतिबंधित हुई और वह भी अंग्रेजों के प्रभाव तथा सक्रिय समर्थन के कारण।

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति आज भी पुरुषों से निम्न ही चली आ रही है। हाल का एक समाचार, यद्यपि यह चरम उदाहरण कहा जाएगा, पर संयोग है कि उसी दिन प्रकाशित हुआ जिस दिन ‘पति’ और ‘पत्नी’ शब्दों के इस्तेमाल से भारतीय संसद हिली हुई थी। पर अगले दिन राष्ट्राध्यक्ष के लिए इस्तेमाल होने वाले शब्द को लेकर मीडिया व प्रेस भरा हुआ था, एक छोटा समाचार जो हमारे समाज में स्त्रियों की विकट स्थिति पर है, प्रकाश डालता है, कम से कम दिल्ली के तो सिर्फ एक  अंग्रेजी अखबार में था।

समाचार था कि देश की राजधानी से कुछ ही दूर उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर नगर में अदालत ने मनोज बंसल नाम के एक आदमी को आजीवन कैद की सजा सुनाई। इस आदमी ने अपनी पत्नी को मिट्टी का तेल डाल कर 14 जून, 2016 में इसलिए जला दिया था क्योंकि वह बेटे का गर्भधारण नहीं कर पा रही थी। उसकी दो बेटियां थीं जो उस समय क्रमश:12 और 14 वर्ष की थीं। उन्होंने स्वयं को एक कमरे में बंद कर लिया था और एक खिड़की से अपनी मां को मिट्टी का तेल डाल कर जलाए जाने को देखा। कहानी का और भी भयावह पक्ष यह है कि उस औरत को छह गर्भपातों को झेलना पड़ा था। यानी भ्रूण की बार बार जांच करवाई जाती थी। समाचार के अनुसार, उस अपराधी के परिवार के लगभग सभी सदस्य इसमें भागीदार थे, जिनको सजा होनी बाकी है। कहानी वैसे यह भी है कि इस न्याय के लिए बेटियों को, तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को, अपने खून से लिखा पत्र भेज कर न्याय की भीख मांगनी पड़ी थी।

यह समाचार हमारे समाज के लिए किसी कलंक से कम नहीं है, पर उससे भी कहीं ज्यादा यह हमारी वर्तमान व्यवस्था और सरोकारों की कलई खोलता है। मोटे तौर पर समाज का मानसिक पिछड़ापन, बेटियों के प्रति भेदभाव, पीडि़त स्त्रियों के लिए सामान्यत: किसी भी मदद की कोई व्यवस्था न होना, कानून और न्याय व्यवस्था की तटस्थता, छोटे-छोटे शहरों और कस्बों तक में लिंग निर्धारण की व्यवस्था प्रतिबंधित होने के बावजूद फैल रही है।

संसद में यह मामला उठा ही नहीं। वैसे भी संसद चल ही नहीं रही थी। पर जब हम राष्ट्रपति के रूप में भारतीय स्त्रियों की गरिमा को लेकर इतने चिंतित हों कि कई दिनों तक संसद ही न चले, तो यह घटना अपनी व्यापकता में भारतीय स्त्रियों के सम्मान, गरिमा और अस्तित्व के सवालों को लेकर कई प्रश्न एक साथ उठाती है। और स्पष्ट कर देती है कि भारतीय समाज आज भी निर्ममता की हद तक अनुदार है।

अंत में, चूंकि इस विवाद से जुड़ा एक और पक्ष है, वह यह कि हमने एक बेहतर पर बाहरी राजनीतिक व्यवस्था अपनाई जो लोकतांत्रिक थी, पर इसकी हमारे देश में संस्थागत या सांस्कृतिक कोई परंपरा कभी नहीं रही थी, इसलिए जो नए शब्द अपनाए गए वे अनुवाद के माध्यम से, बिना सोचे-समझे, लगभग हड़बड़ी में, संस्कृत को आधार बना कर गढ़ लिए गए। इस टकसाली हिंदीकरण का ही परिणाम है कि हमने ‘प्रेजिडेंट’ शब्द के लिए राष्ट्रपति तो बना दिया, पर कभी यह नहीं सोचा कि अगर कोई स्त्री इस पद पर बैठी तो इस सीमित संदर्भ वाले शब्द का अर्थभ्रष्ट भी हो सकता है। चूं कि ‘पति’ शब्द का व्यापक अर्थ में प्रयोग होता है इसलिए वह रूढ़ नहीं रहा, पर ‘पत्नी’ शब्द का अर्थ सीमित है, नतीजा यह कि यह शब्द आजादी के 75 वर्ष बाद झगड़े का कारण बन रहा है। यह भी कम चकित करने वाला नहीं है कि ‘पत्नी’ को इतना हीन क्यों माना जाता है कि पुरुष ही नहीं बल्कि  स्त्री सांसद भी इसका विरोध करने में पीछे नहीं रहीं। इससे पति होने की श्रेष्ठता स्वयं ही प्रमाणित हो गई। आश्चर्य यह है कि इस विवाद में महिला सांसदों ने बढ़-चढ़कर भागीदारी तो की पर यह मांग नहीं कि कोई ऐसा दूसरा शब्द इस पदनाम के लिए चुना जाए जो लैंगिक पहचान से परे हो, जैसे कि राष्ट्राध्यक्ष।

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