पराकाष्ठा से पराभव तक

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– रामशरण जोशी

 

सविनय अवज्ञा नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार है। वह अपने इस अधिकार को अपना मनुष्यत्व खोकर ही छोड़ सकता है। सविनय अवज्ञा का परिणाम कभी भी अराजकता में नहीं हो सकता।‘

(महात्मा गांधी, यंग इंडिया, 5.1.22)

 

जनसमूहों का विद्रोह वास्तव में मानवता का एक नई, असाधारण व्यवस्था की ओर संक्रमण हो सकता है, परंतु यह उसकी नियति का धवंस भी हो सकता है। हमारे पास प्रगति की वास्तविकता का खंडन करने की आवश्यकता तो अवश्य है कि यह प्रगति सुरक्षित है; बल्कि यह समझ लेना उचित होगा कि प्रगति या विकास अवनति या ह्रास की आशंका के बिना संभव नहीं होता।‘’ (खोसे ओतेरगा ईगास्सेत, जनसमूहों का विद्रोह, पृ.97)

 

श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में जनविद्रोह और नेतृत्व परिवर्तन के मंचित नाटक में ‘क्लामेक्सÓ आया जरूर, लेकिन संसदीय नाटकीयता ने इसे फिर धड़ाम से आरंभिक दृश्य में पहुंचा दिया है और इन पंक्तियों के लिखे जाने तक परिवर्तन-पटकथा यथावत ही थी। सारांश में, हुआ यह कि नेपथ्य में भगोड़े राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे और बड़े भाई प्रधानमंत्री महेंद्र राजपक्षे की जनविरोधी राजनीतिक शक्ति से लैस कार्यवाहक राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे को 20 जुलाई के चुनाव में 134 मतों से विजयी घोषित कर दिया गया, जबकि उनके दोनों विरोधी डल्लस अल्हापेरुमा (मत – 82 ) और वामपंथी नेता अनुरा दिसानायके (मत -3) को अप्रत्याशित शिकस्त मिली। इसमें पेंच यह है कि पूर्व बर्खास्त प्रधानमंत्री महेंद्र राजपक्षे के बाद उनके छोटे भाई, भगोड़े राष्ट्रपति, राजपक्षे ने उन्हें जनविरोध के बीच विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई थी। लेकिन, जब राष्ट्रपति स्वयं ही राजधानी कोलंबो से सेना के विमान में अपने ही देश से चुपचाप पलायन कर गए तब प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे ने खुद को कार्यवाहक राष्ट्रपति घोषित कर दिया।

भगोड़ा राष्ट्रपति पहले माले द्वीप गया। वहां उसे टिकने नहीं दिया गया। राजनीतिक शरण नहीं मिलने पर उसने सिंगापुर का रुख किया। निजी पर्यटक की हैसियत से राजपक्षे को आने दिया गया। इसके बाद उसने राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दिया और संसद के स्पीकर ने नए राष्ट्रपति के चुनाव के लिए 20 जुलाई घोषित की।

भगोड़े और बर्खास्त प्रधानमंत्री महेंद्र राजपक्षे ने किसी अज्ञात स्थान पर शरण ले रखी है। उसको भगाने में जलसेना ने मदद की थी, जबकि गोटबाया के पलायन में थलसेना की एक टुकड़ी ने मदद की थी, जिसकी पुष्टि बाद में वायुसेना ने की। (इसलिए सेना के वर्ग चरित्र को समझा जाना चाहिए। यह अलग से सार्विक बहस तलब मुद्दा है।) कोलंबो में यह भी अफवाह फैली थी कि गोटबाया को भगाने में भारत ने नेपथ्य में मदद की थी। लेकिन भारत ने इन अफवाहों का तत्काल खंडन भी किया। इन अफवाहों की पृष्ठभूमि में संभवतया गोटबाया के एक बर्खास्त अधिकारी का यह कथन रहा हो कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इशारे पर राष्ट्रपति गोटबाया अडाणी को श्रीलंका में अमूक ठेका दिलवाना चाहते थे। यह बात उन्होंने उससे कही थी। अगले दिन दोनों देशों में हंगामा मच गया था। उक्त अधिकारी ने तुरंत ही अपने कथन को यह कह कर वापस ले लिया कि उसकी मनोदशा ठीक नहीं थी। उसने भावावेश में यह बात कही थी जो कि सही नहीं है।

इस प्रसंग में फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति का चौंकाने वाला एक कथन जरूर याद आ रहा है। चार साल पहले फ्रांस के साथ रफाल सौदे के समय भी वहां के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांकोसिस होलांदे ने 2018 में कथित खुलासा किया था कि प्रधानमंत्री मोदी अनिल अंबानी के रिलायंस डिफेंस को सौदा दिलवाना चाहते हैं। हालांकि भारत सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति के उक्त विवादास्पद कथन का अविलंब ही खंडन कर दिया था। फिर भी विपक्ष में कथन को लेकर उंगलियां उठती रहीं थीं। सच क्या है, यह तो इतिहास ही बतलाएगा।

लेकिन भारत द्वारा राष्ट्रपति-निर्वाचन को प्रभावित करने की अफवाहें भी जोरों पर फैलती रहीं हैं। प्रचार था कि भारत अपने हितों को ध्यान में रख कर राष्ट्रपति के चुनाव को प्रभावित कर रहा है। इस प्रचार के बीच कोलंबो स्थित भारतीय उच्चायोग ने 20 जुलाई को ही सख्ती के साथ इन अफवाहों का खंडन भी किया और कहा कि भारत हमेशा श्रीलंका की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के साथ खड़ा है।

विद्रोह के दबाव में मंचित नेतृत्व परिवर्तन के नाटक का सबसे दिलचस्प दृश्य यह रहा जब दिनेश गुणवर्दन को 22 जुलाई को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। नए प्रधानमंत्री को भी राजपक्षे परिवार का करीबी माना जाता है। लेकिन उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि वामपंथी मानी जाती है। तेहत्तर वर्षीय गुणवर्दन ट्रोट्स्कीस्टि बहुसंख्यक राष्ट्रवादी महाजना एकसाथ पेरमुना (एमइपी) के नेता हैं। शासक दल श्रीलंका पोडजाना पेरमुना के साथ भी इस पार्टी का गठबंधन है। 1948 के स्वतंत्रता आंदोलन में गुणवर्दन के पिता ने भाग लिया था। उन्हें तब श्रीलंका के वामपंथी समाजवादी आंदोलन का प्रमुख नेता माना जाता था। विडंबना यह है कि आजादी के बाद दिनेश गुणवर्दन की सत्ता यात्रा राजपक्षे परिवार के साथ जा मिली। जाहिर है, नए प्रधानमंत्री का दो दशकों तक निरंकुशता के साथ हुकूमत करने वाले कलंकित राजपक्षे परिवार के साथ पूरी तरह से तलाक हो गया हो, इसे लेकर लंका के विद्रोहियों के दिमागों में शंकाएं बैठी हुई हैं। शंकाएं बिल्कुल निर्मूल हों, ऐसा भी नहीं है क्योंकि शिखर के नवनिर्वाचित नेतृत्व राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, दोनों का ही रिश्ता भगोड़े राजपक्षे परिवार से रहा है। विद्रोहियों की धारणा है कि यह ‘प्रॉक्सीÓ से राजपक्षे परिवार की हुकूमत की वापसी’ हुई है। इस धारणा को निराधार भी नहीं कहा जा सकता है।

वैसे भी पहले से ही खबरें सुखिऱ्यों में थीं कि अपदस्थ राष्टपति गोटबाया राजपक्षे सिंगापुर से श्रीलंका लौट सकता है क्योंकि उसके अनुकल राजनीतिक माहौल तैयार हो चुका है. सत्ता के घोड़े पर सवार नए राष्टपति रणसिंघे और प्रधानमंत्री गुणवर्दने, दोनों को ही राजपक्षे का कृपापात्र मन जाता है। कहा जाता है कि दोनों की जीत में राजपक्षे की भूमिका थी। इस परिदृश्य में राजपक्षे अपने परिवार के साथ लौटा भी तो सुरक्षित ही रहेगा। लेकिन कोलंबो की स्थिति आज भी धुंधली है। कुछ भी हो सकता है। यदि जनविद्रोह का बड़े पैमाने पर फिर से विस्फोट होता है तो राज्य द्वारा जनता पर आतंक का कहर बरपा ने में भी देर नहीं लगेगी!

इस विद्रोह के संक्रमण काल में जाहिरा तौर पर भारत का रुख श्रीलंका की जनता के साथ निरंतर रहा है। लेकिन, कूटनीति के कई स्तर होते हैं, ट्रैक-2 डिप्लोमेसी अलग होती है। इस संक्रमण काल में कूटनीति का कौन-सा स्तर सक्रिय रहा है, कहना मुश्किल है। नेपथ्य में कई पांसे फेंके जाते हैं, कई प्यादे सामने लाए जाते हैं, कौन-सा प्यादा बादशाह बनेगा और कौन किसको शह-मात देगा, इस चाल की पटकथा तो भविष्य की कोख में छुपी है।

 

राजपक्षे परिवार का चेहरा

यह सच जरूर है कि श्रीलंका की राजसत्ता के एकाधिकारपति राजपक्षे परिवार के विरुद्ध मार्च में जन आंदोलन शुरू हुआ था, जोकि धीरे-धीरे ‘जनविद्रोहÓ में बदलता चला गया। इन साढ़े चार महीनों में शांतिपूर्वक आंदोलन में कई मोड़ आए, हिंसा हुई, लोग मारे गए, इमरजेंसी लगी और शिखर पर जमे बदनाम दोनों भाइयों की सत्ता-जुगलबंदी के खिलाफ लाखों श्रीलंकावासी सड़कों पर उतर आए। इन विद्रोहियों ने पहले महेंद्र राजपक्षे को अपना निशाना बनाया, उसका आवास जला दिया गया और इस्तीफा देने और नौसेना की सहायता से भागने के लिए विवश कर दिया। वह और उसका परिवार जान बचाकर भागा। उसके बाद विद्रोहियों के निशाने पर भगोड़ा राष्ट्रपति गोटबाया था। वह भी भागा और उसके राष्ट्रपति भवन पर जनता ने कब्जा कर लिया। राष्ट्रपति की अय्याश जीवन शैली को देखा, पलंगों पर नाच किया व स्विमिंग पूल का आनंद लिया और रसोईघर का स्वाद चखा। जनता और शिखर जनप्रतिनिधि की जीवन शैलियों के मध्य फैली बर्बर विषमता की नुमाइश उभरी। टीवी पर इन दृश्यों ने इस लेखक को रोमानिया के भगोड़े राष्ट्रपति निकोलाई चाउचेक्सकू की विलासिता लदी जीवन शैली की याद ताजा करा दी; जब विद्रोही राष्ट्रपति के विशाल भवन में घुसे तो बाथरूम में नलों व कमोट को भी स्वर्णजडि़त पाया। इस दृश्य से विलासिता की सीमाओं का अंदाजा लगाया जा सकता है। हालांकि, अंतत: भगोड़ा राष्ट्रपति और उसका परिवार गुस्साई भीड़ की हिंसा का शिकार हो गया। यह एक ऐसे राष्ट्रपति का हिंसक अंत था जो कि समाजवादी रोमानिया का राष्ट्रपति था। 1990 के दशक में पूर्वी योरोप के देशों में समाजवादी सत्ताओं के पतन के साथ ही रोमानिया में भी चाउचेक्सकू-सत्ता का अंत हो गया। राजपक्षे परिवार ने भी श्रीलंका की राजसत्ता पर भाई-भतीजावाद की मोटी चमड़ी चढ़ा रखी थी; सत्ता के अहम बुर्जों पर राजपक्षे परिवार के सदस्य ही काबिज थे; मंत्री और उच्च हाकिम थे; अधिकांश चहते जन आक्रोश और इस्तीफे की भेंट चढ़ गए।

 

विकल्पहीनता और उत्पीडि़त जनता

इसी परिदृश्य में ‘क्लाइमेक्स एंटी-क्लाइमेक्स’ में क्यों बदला, इसे जानना ठीक रहेगा। याद दिला दिया जाए कि आक्रोशित जनता ने विक्रमसिंघे से भी प्रधानमंत्री और कार्यवाहक राष्ट्रपति पद से इस्तीफे की मांग की थी। जनता की नजर में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति विक्रमसिंघे शुरू से ही विवादास्पद रहे हैं और उन्हें राजपक्षे-सत्ता का केवल विस्तार मात्र माना जाता है। उन्हें इस खानदान के हितों के चौकीदार के रूप में देखा जाता है। इसलिए विद्रोही जनता ने उनके निजी खूबसूरत निवास को भी आग की भेंट कर दिया था। लेकिन विक्रमसिंघे अपना इस्तीफा नहीं देने पर अंत तक अड़े रहे और दलील दी कि श्रीलंका को फासीवादी शक्तियों के हवाले नहीं किया जा सकता। उन्होंने जनविद्रोह पर विचारधारा का मुल्लमा चढ़ाने की कोशिश की। उनका यह बयान आत्मकवच से अधिक कुछ नहीं था, क्योंकि राजपक्षे वंश की अधिनायकवादी और जनविरोधी नीतियों के कारण ही जनता सड़कों पर उतरी थी। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के आवासों पर जनता की चढ़ाई को देखते हुए वाशिंगटन में व्हाइट हाउस की घटना ताजा हो जाती है। दुनिया के सर्शक्तिमान शासक यानी पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के निवास स्थान – व्हाइट हाउस पर आक्रोशित अश्वेत जनता ने चढ़ाई कर दी थी। सुरक्षा कर्मियों द्वारा भूतल में राष्ट्रपति और परिवार के सदस्यों को छुपाना पड़ा। जब विद्रोह की चेतना से लैस होकर जनता आक्रोशित हो जाती है तब वह अपने या विरोधी के जीवन की परवाह नहीं करती है। वह अपने ध्येय के प्रति प्रतिबद्ध रहती है। फ्रेंज फेनन की प्रसिद्ध पुस्तक रेचिड ऑफ द अर्थ की भूमिका में दार्शनिक ज्यां पाल सात्र सटीक ही कहते हैं कि जब किसान शस्त्र उठाता है तो यह उसकी मानवता का सबूत है। गांधीजी के कथन के संदर्भ में सोचें तो विद्रोह में जनता की कहीं अंतर्निहित संवेदनशीलता व मानवता रहती है। याद रखें, आंदोलन, सत्याग्रह, विद्रोह और क्रांति जनता के शौक या आमोद-प्रमोद के साधन नहीं होते हैं। जब विकल्पहीनता उत्पीडि़त जनता को दबोचने लगती है तब प्रतिरोध के ये तमाम माध्यम विकल्प के रूप में जनचेतना में क्रमवार अंकुरित होने लगते हैं। श्रीलंका की जनता भी इस अंकुरण-प्रक्रिया से गुजरी है।

जब श्रीलंका में जिंदगियों से जीने की बुनियादी जरूरतें या शर्तें गायब होने लगीं तब जनता ने सत्ता-नेतृत्व में बदलाव का रास्ता चुना। यह रास्ता नेतृत्व परिवर्तन तक सीमित था, इसके एजेंडे पर व्यवस्था परिवर्तन नहीं था। सत्ता प्रतिष्ठान में तात्कालिक या त्वरित परिवर्तन और व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन में बुनियादी फर्क होता है; पहले का संबंध राज्य के चरित्र को यथावत रखते हुए सतह पर वैकल्पिक परिवर्तन करने तक सीमित रहता है, ताकि तात्कालिक राहतों के माध्यम से जन विद्रोह का शमन हो सके यानी राज्य और जनता के बीच पैने होते अंतर्विरोधों को भौंतरा किया जा सके(आमतौर पर ऐसा ही करती हैं राजसत्ताएं।); दूसरे की दिशा राज्य के चरित्र में आमूलचूल परिवर्तन की ओर जाती है अर्थात अंतर्विरोधों का तर्कपूर्ण समाधान। संक्षेप में, दोनों माध्यमों का संबंध राज्य द्वारा संचालित ‘राजनीतिक आर्थिकीÓ से है। श्रीलंका की राजनीतिक आर्थिकी जनवादी नहीं रही है, याराना पूंजीवादी और वैश्विक कॉरपोरेट पूंजीमुखी रही है। देश के राजनीतिक वर्ग ने अत्यंत सीमित वर्ग के हितों का संरक्षण व सम्पोषण किया और स्वदेशी हितों को तिलांजली दी। नतीजतन, कृषि संकट गहराया, घरेलू उद्योग-धंधे मंदे पडऩे लगे, चाय उत्पादन उद्योग में मंदी छाने लगी, पर्यटन उद्योग गिरने लगा, आयात-निर्यात का संतुलन गड़बड़ाने लगा, बेरोजगारी चीखने लगी और विदेशी कर्ज का बोझ असहनीय होता गया। विदेशी मुद्रा भंडार सिकुडऩे लगा। जीवन रक्षक दवाइयां और ईंधन खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा की किल्लत होने लगी। पेट्रोल पंपों पर मीलों लंबी वाहनों की कतार लगने लगी। एक समय के भोजन पर जीवन पलने लगा। इस गिरावट से मुद्रास्फीति का विस्फोट हुआ और जन असंतोष का सैलाब उमड़ पड़ा।

 

पहले भी जनसैलाब फूटे हैं

श्रीलंका में जन-सैलाब पहली दफा फूटा हो, ऐसा भी नहीं है। 1971 के अप्रैल मास में जनता विमुक्ति पैरामुना (माक्र्सवादी-लेनिनवादी) ने देश के 90 से ज्यादा थानों पर कब्जा कर लिया था। उस समय सत्ता का नेतृत्व श्रीमावो भंडारनायके कर रहीं थीं। उनकी सरकार इस सशस्त्र विद्रोह से घिरने लगी थी। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तत्काल वायुसेना की सीमित सहायता के माध्यम से भंडारनायके-सरकार को संकट से उभारा था। याद रहे, भारत में भी उस समय नक्सलबाड़ी आंदोलन की आहटें सुनाई देने लगीं थीं। इसके बाद भी श्रीलंका में समय-समय पर आंदोलन हुए हैं। दो करोड़ 21 लाख आबादी वाले इस द्वीप राष्ट्र में लंबे समय तक बहुसंख्यक सिंहलियों (करीब 74 प्रतिशत) और जाफना केंद्रित तमिलों (करीब15-16 प्रतिशत) के बीच बरसों तक गृह युद्ध की स्थिति बनी रही है; वेल्लूपिल्लई प्रभाकरण के नेतृत्व (1984 -2009) में लिबरेशन टाइगर ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) तमिलों के लिए स्वतंत्र देश के लिए सशस्त्र संघर्ष करता रहा है; तत्कालीन रक्षा सचिव गोटबाया राजपक्षे ने संघर्षरत तमिलों को बर्बरतापूर्वक कुचला और इस नाजीवादी हिंसक कृत्य के लिए अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में राजपक्षे के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज है। लेकिन इसी आधार पर वह सिंहलियों का हीरो बन कर प्रकारांतर से राष्ट्रपति भी बना। अंतत: उसे परिवार समेत देश से भागना भी पड़ा।

 

जातीय राजनीति का खेल

वास्तव में श्रीलंका के राजनीतिक वर्ग (पोलिटिकल क्लास) ने जातीय राजनीति को जम कर भुनाया है; बहुसंख्यक सिंहली समुदाय, अल्पसंख्यक तमिल और मुस्लिम समुदाय (करीब नौ प्रतिशत) के बीच हमेशा द्वंद्व रहा है। तीनों परस्पर तुष्टिकरण के आरोप सरकार पर जड़ते रहे हैं। तीनों समुदाय अपने-अपने धर्म व पूजास्थल (बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म और इस्लाम) को संकटग्रस्त बताते रहे हैं। पोलिटिकल क्लास ने इन अंतर्विरोधों का भरपूर फायदा उठाया। इस प्रतिस्पद्र्धा में राजपक्षे परिवार और उनकी पार्टी – श्रीलंका पोडजाना पेरमुना (एसएलपीपी) अग्रणी रहे। राष्ट्रपति पद के चुनाव में इसी पार्टी के समर्थन से विक्रमसिंघे बाजी मार सके। इसीलिए जनता उनसे पद छोडऩे की मांग पर अड़ी हुई है।

 

बहुसंख्यकवाद, आक्रामक चरमवाद और राजपक्षे परिवार

सत्ता पाने और उस पर काबिज रहने के लिए गोटबाया राजपक्षे ने तो शांतिप्रिय बौद्ध धर्म को आक्रामक चरमवाद में भी बदल डाला और चरम राष्ट्रवादी बोदू बाला सेना ने भगोड़े राष्ट्रपति का समर्थन भी किया था। बहुसंख्यकवाद के राजनीतिक अश्व पर सवार होकर राजपक्षे भ्राता सत्ता प्रतिष्ठान पर चढ़ाई करते रहे और अल्पसंख्यक समुदायों को दबाते भी रहे; भंते,पंडित और मुल्ला को कभी एक नहीं होने दिया गया। तीनों समुदायों को भयग्रस्त रखा। तीनों ही एक दूसरे के सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक शत्रु बने रहे। तीनों धर्मों के समुदायों के बीच पारस्परिक संबंधों को समझने के लिए भारत के हिंदू-मुस्लिम समुदायों के संबंध-परिदृश्य पर नजर दौड़ाई जा सकती है। भारत में भी हिंदू धर्म या इस्लाम खतरे में है के नारे लगाए जाते हैं। पिछले दिनों एक बेहद बेबुनियाद खतरनाक नारा: ‘देश का शासन संविधान से चलेगा, शरीयत से नहीं, सनातन धर्म से चलेगा’ उछाला गया था। जाहिर है ऐसे नारों का असली मकसद धर्म- मजहब के आधार पर समुदायों के ध्रुवीकरण और वोटों की फसल काटने का होता है। निश्चित ही ऐसी शक्तियां अपने मिशन में कामयाब भी हो रही हैं। सारांश में, इस दृष्टि से दोनों पड़ोसी देशों के परिदृश्यों में काफी समानता है।

इतिहास साक्षी है भूख की ज्वाला में तख्तो ताज भी अछूते नहीं रहे हैं, भस्म हो गए हैं। इसकी गवाही 18वीं सदी की फ्रांसिसी क्रांति, 1917 की रूसी क्रांति, 1949 की चीनी क्रांति जैसी युगांतकारी घटनाएं देंगी। पेट की आग कृत्रिम विभाजक दीवारों को जला कर राख कर देती हैं। चेतनायुक्त भावनाएं प्रतिरोध के नए रिश्तों और माध्यमों को जन्म देती हैं; श्रीलंका के चारों प्रमुख समुदाय (सिंहली,तमिल हिंदू, मुस्लिम, ईसाई) एक ही कनात तले गोलबंद हुए; संघर्ष पथ पर निकल पड़े और सत्ता के शिखर राष्ट्रपति भवन पर कब्जा करके ही दम लिया। इस भवन में दाखिल होने वाला पहला विद्रोही तमिल था और शयन कक्ष, किचन, स्वींमिंग पूल का आनंद लेने वाले चारों समुदाय के प्रतिरोधी थे। प्रतिरोध की साझी संस्कृति की छटा चारों ओर छितराई हुई थी।

इस प्रतिरोध की विशेषता यह रही है कि ‘बहुसंख्यकवाद बनाम अल्पसंख्यकवाद जंग’ तात्कालिक रूप से समाप्त दिखाई दे रही है। यदि इस जंग का अंत हमेशा के लिए हो जाता है तो श्रीलंका में नई पॉलिटिकल क्लास अस्तित्व में आएगी। वैसे नए राष्ट्रपति ने अपने प्रथम संबोधन में इसके संकेत दिए हैं। वास्तव में जनविद्रोह चंद नेताओं या परिवारों के खिलाफ नहीं है, वरन देश की संपूर्ण राजनीतिक संस्कृति के विरुद्ध है। यदि राजपक्षे वंश के अंत के बाद वैसा ही दूसरा वंश फिर से सत्ता में आ जाता है, तो शासन शैली में गुणात्मक परिवर्तन की संभावनाएं धूमिल पड़ जाएंगी। प्रतिरोधी जन चाहते हैं कि ऐसी पॉलिटिकल क्लास (सत्ता पक्ष व विपक्ष) राजनीति में सक्रिय रहे जो लोकतांत्रिक और ईमानदारी के साथ जन आकांक्षाओं के प्रति उत्तरदायी रहे।

इस पत्रकार-लेखक ने एक समय श्रीलंका को कई दफे कवर किया है; जाफना और कोलंबो के घटनाचक्र की रिपोर्टिंग की है; कोलंबो में राजीव गांधी पर राइफल के बट से हमले के अवसर पर भी प्रेस पार्टी का सदस्य था; जनता ने इंडियन पीस कीपिंग फोर्स को कभी पसंद नहीं किया था। श्रीलंकाई बेहद संवेदनशील और स्वाभिमानी होते हैं। हालांकि श्रीलंका के समाज में भी भारतीय समाज जैसी बुराइयां और विषमताएं हैं, जातिगत वैमनष्य है – ऊंच-नीच का भाव है। जब एल. रणसिंघे प्रेमदास देश के तीसरे राष्ट्रपति बने थे तब देश में शोर मच गया था। हालांकि उससे पहले वह देश के प्रधानमंत्री के पद पर भी रह चुके थे। वह राजीव गांधी-जयवर्धने शांति समझौता (जुलाई, 1987) के विरुद्ध थे जिसके तहत भारत ने अपनी ‘इंडियन पीस कीपिंग फोर्स’ को श्रीलंका भेजा था, जिसे दोनों बहुसंख्य सिंहली और स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत तमिल टाइगरों ने नामंजूर कर दिया था। लेकिन जब जयवर्धने के बाद प्रेमदासा प्रधानमंत्री से राष्ट्रपति बने तो लोगों ने उनकी निचली जाति की पृष्ठभूमि को उछाला था। इस घटना के साथ ही श्रीलंका की जातिगत संरचना व पूर्वाग्रह भी उजागर हो गए। और अंतत:, एक मानव बम के विस्फोट में 1 मई, 1993 को राष्ट्रपति प्रेमदासा की हत्या हो गई। बौद्ध धर्म के शासक-उपासक हिंसा के कटघरे में खड़े हो गए! राजीव गांधी की हत्या, गोकि भारत में 21 मई, 1991 को हुई पर इसे तमिल ईलम समर्थक मानव बम ने अंजाम दिया था।

 

दक्षिण एशिया और जन विद्रोह

उत्तर औपनिवेशिक दक्षिण एशिया के देशों में जन विद्रोह की दास्तान अजीब है। इन देशों में आंदोलन हुए, जन विद्रोह हुए और लोकतांत्रिक एवं जनवादी क्रांतियां भी हुई हैं, लेकिन कालांतर में ‘क्लाइमेक्स’ ‘एंटी क्लाइमेक्स’ परिणित हुआ है। मिसाल के तौर पर, अफगानिस्तान में 1973 में तत्कालीन सोवियत संघ के समर्थन से स्थानीय प्रगतिशील तत्वों ने मोहम्मद जाहिर शाह की बादशाहत का खात्मा किया; सोवियत सेनाएं भी वहां पहुंचीं; सामाजिक सुधारों के साथ-साथ कृषि व भूमि सुधार हुए; सामंती संबंधों का आधुनिकीकरण करने कोशिशें हुईं; शिक्षा का प्रसार किया गया और आधुनिक औद्योगिक गतिविधियां जन्म लेने लगीं।

अमेरिका को यह सब रास नहीं आया और कट्टरपंथी स्थानीय एवं पाकिस्तानी तालिबान के सहयोग से वहां की प्रगतिशील नजीबुल्लाह सरकार को उखाड़ फैंका गया। सोवियत सेनाएं भी वहां से जा चुकी थीं। कुछ समय बाद नरमपंथी इस्लामी मुजाहिदीनों की सरकार का भी पतन हो गया। कट्टरपंथी तालिबान सत्ता में आ गए। ओसामा-बिन-लादेन की तंजीम अल कायदा का समर्थन मिला। दुनियाभर के कट्टरपंथियों और आतंकवादियों की पनाहगाह बन गया अफगानिस्तान। फिर अमेरिका ने अफगानिस्तान पर चढ़ाई की और तालीबान-शासन का अंत किया। करीब 18-19 साल तक अमेरिका समर्थित सरकारें वहां आती-जाती रहीं। आधुनिकता और लोकतंत्र की बयारें भी चलीं। स्त्रियों को आजादी मिली। लेकिन 2021 में तालिबान की उभरती शक्ति के दबाव में अमेरिकी लौटे, तालिबान-हुकूमत की वापसी हो गई और अफगानिस्तान को फिर से मध्ययुगीन खंदकों में धकेल दिया गया; स्त्रियों को बुनियादी अधिकारों से बेदखल कर दिया; शिक्षा व रोजगार छीन लिए गए और बहुसंख्यक सुन्नीवाद व उग्र इस्लामवाद का शासन कायम हो गया। अर्थात पिछले पचास-साठ वर्षों में इस देश ने जितना लंबा सफर तय किया, आज सिफर पर लौट आया; परिवर्तन का नाटक ‘क्लाइमेक्सÓ पर पहुंच कर ‘एंटी-क्लाइमेक्सÓ का शिकार हो गया।

पड़ोसी देश पाकिस्तान को लें। पांचवें दशक के मध्य से लेकर जुलाई 2022 तक यह देश सच्चे आधुनिक लोकतंत्र के इंतजार में ही है। इस देश में ‘प्रॉक्सी’ (पर्दे के पीछे) से फौज का ही शासन है। निर्वाचित सरकारें सेना की सनकों पर नाचती हैं। सेना की पसंद-नापसंद पर प्रधानमंत्री रखे-हटाए जाते हैं; बेनजीर भुट्टो, नवाज शरीफ, शौकत अजीज, गिलानी, इमरान खान, शहबाज शरीफ, आदि। इस देश में भी नेतृत्व परिवर्तन के लिए लाहौर या पेशावर से इस्लामाबाद तक लंबे-लंबे मार्च निकले हैं। प्रधानमंत्री बदले भी जाते हैं, लेकिन कुछ समय बाद अवाम ठगा-सा महसूस करने लगता है। पाकिस्तान में एक जुमला खूब प्रचलित है: वह हैतीहरे अ का (यानी आर्मी+ अमेरिका+अल्लाह) की रजामंदी से ही देश में पत्ता हिल सकता है या टूट सकता है। दिलचस्प यह है कि आधुनिक लोकतांत्रिक- गणतांत्रिक राष्ट्रों की बुनियाद – ‘अवाम’ नेतृत्व परिवर्तन की प्रक्रिया में सिरे से गायब रहती है। सारांश में, बदलाव का सैलाब तो उमड़ता है, लेकिन एंटी-क्लाइमेक्स का शिकार हो जाता है।

दूर क्यों जाएं? नेपाल को ही देख लें। वहां तो व्यवस्था परिवर्तन के लिए सशस्त्र संघर्ष चला था। माक्र्सवादी विचारधारा से यह संघर्ष प्रेरित था, संचालित था लेनिनवादी-माओवादी नेतृत्व से। 2008 में सशस्त्र क्रांति हुई भी और वहां की राजशाही को उखाड़ फेंका गया। कुछ वर्ष शासन में भी रहीं ये क्रांतिकारी शक्तियां। लेकिन क्या इस क्रांति से नेपाल राष्ट्र राज्य का चरित्र बदला? उत्पादन संबंध बदले? सामंती मानस और पूंजीवादी सत्ता ध्वस्त हुईं? समाजवादी संस्कृति व संबंध विकसित हो सके? वर्तमान परिदृश्य में, परिवर्तनधर्मी साम्यवादी शक्तियां राजसत्ता से निष्कासित कर दी गई हैं। वही परंपरावादी-पूंजीवादी राजनीति का वर्चस्व राजसत्ता पर कायम हो गया है। इस लेखक को याद है, 2008 में ही प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक रणधीर सिंह ने टिप्पणी की थी कि इस क्रांति से नेपाल में समाजवादी व्यवस्था स्थापित हो ही जाएगी, यह जरूरी नहीं है। देखना यह है कि नई क्रांतिकारी शक्तियां राज्य के चरित्र और उत्पादन संबंधों को कितना बदल पाती हैं! उनकी शंकाएं सही निकलीं- क्लाइमेक्स जरूर आया, लेकिन एंटी-क्लाइमेक्स ने उसे हाशिये पर धकेल दिया है, यानी क्रांति की उपलब्धियों को!

 

म्यांमार: हाल बेहाल

अब आते हैं म्यांमार पर। दक्षिण पूर्व एशिया के इस पड़ोसी देश में क्या नहीं चल रहा है? हिंसा का राज है, लोग भूख और गोली से मर रहे हैं। इस बौद्ध धर्मप्रधान देश में दशकों से फौजी शासन रहा है। 1962 से फौजी शासन के विरुद्ध कई लोकतांत्रिक आंदोलन, विद्रोह हुए, हजारों बर्मावासी मारे भी गए। फौज को भारी अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय दबाव के बाद 2015 में बहुदलीय चुनाव भी कराने पड़े। एक दशक से अधिक समय तक नजरबंद सू कुई के नेतृत्व में उनकी पार्टी सत्ता में आई भी। शांति के नोबेल पुरस्कार से वह नवाजी भी गईं। लेकिन, नेपथ्य में सेना ही शक्तिशाली बनी रही। संसद में उसका ही दबदबा बना रहा। अब सेना को ‘प्रॉक्सी सत्ता नहीं, प्रत्यक्ष सत्ता’ चाहिए थी। उसने अपने सभी मुखौटे उतार कर 2021 में फिर जनता द्वारा निर्वाचित सरकार के खिलाफ बगावत कर दी। सू कुई और उनके प्रमुख साथियों को गिरफ्तार कर जेलों में ठूंस दिया गया है। भ्रष्टाचार के अनेक मामले उन पर लाद दिए गए।

जनता सड़कों पर उत्तर चुकी है। सैंकड़ों लोग मर भी चुके हैं। अब इस देश में फौजी शासन के विरुद्ध जनता सशस्त्र प्रतिरोध की तैयारी कर रही है, जिसमें ग्रामीण और शहरी समाज के सभी वर्गों के लोग शिरकत कर रहे हैं। दक्षिण अमेरिकी देशों की तर्ज पर एक प्रकार से छापामार जंग लड़ी जा रही है। इसका पटाक्षेप कैसा होगा, कहना मुश्किल है। लेकिन, करीब 70 वर्ष पहले आजाद हुए इस देश में जन आंदोलन व विद्रोह के अनेक क्लाइमेक्स और एंटी क्लाइमेक्स आते रहे हैं। करीब साढ़े पांच करोड़ की आबादी का यह देश आजादी के समय से ही सुखांत-दुखांत के बीच झूलता आ रहा है। यहां भी फौज धर्म और बहुसंख्यकवाद का बेखौफ-बेलौस इस्तेमाल करती आ रही है। पिछले दिनों हजारों की संख्या में रोहिंग्या मुसलमानों का फौजी संरक्षण में नरसंहार किया गया। इन मुसलमानों ने भारत और बांग्लादेश में शरण ली। बांग्लादेश ने तो इन विस्थापितों के लिए विशाल शिविर बस्ती भी बसा दी है।

सारांश यह है कि दक्षिण एशियाई देशों में परिवर्तन व प्रतिरोध की बयारें निरंतर बहती हैं। इनका क्लाइमेक्स भी आता है। लेकिन इस क्षेत्र की पॉलिटिकल क्लास हद दर्जे की धूर्त-शातिर-शकुनि वंशज जायी है। बहुसंख्यकवाद, धर्म-मजहब, जातिवाद, जातीयत, धार्मिक प्रतीकों-बिम्बों-उपमाओं-लक्षणों-पौराणिक कथा साहित्य, नायक-नायिकाओं या कुल मिलकर बर्बर अतीतवाद के शस्त्रों से लैस होकर यह क्लास जनता का चीरहरण करती रहती है, धृतराष्ट्र बना रहता है चैतन्य वर्ग। ऐसा लगता है, दक्षिण एशिया की जनता शकुनि-जयचंद-मीर जाफर के दौर में अस्तित्व रक्षा के लिए संघर्षरत है और उत्कर्ष काल कॉरपोरेट पूंजी द्वारा सिंचित पॉलीटिकल दलाल क्लास (कंप्राडोर क्लास) का है!

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