सत्ता के केंद्रित हो जाने के खतरे

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पूरे भारत में चल रहे लॉकडाउन की तुलना 2016 के मुद्रा के अवमूल्यन से की जा रही है। और इसका तर्क समझ में आता है। प्रधानमंत्री द्वारा की गई राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा अचानक लिया गया निर्णय था। इसका समाज में जबर्दस्त असर पड़ेगा विशेषकर गरीबों पर। शासन करने की यह शैली जीएसटी के लागू किए जाने के दौरान भी साफ थी। यह सरकार में सर्वोच्च स्तर पर सत्ता के केंद्रित हो जाने को उसी तरह दर्शाता है जैसा कि इंदिरा गांधी के दौरान हो गया था। लेकिन 1970 में सरकार की कार्यप्रणाली की तुलना में वर्तमान व्यवस्था में राज्य ही सिकुड़ता नजर आता है।’’

क्रिस्टोफर जफरलॉटउत्सव शाह,  इंडियन एक्सप्रेस, 30 मार्च, 2020

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 24 मार्च को देशके नाम उद्बोधन जिसमें 21 दिन के लॉक डाउन की घोषणा की गई थी ऐसा कार्यक्रम था जो भारत के टीवी के इतिहास में सबसे ज्यादा देखा गया। जैसे ही उद्बोधन समाप्त हुआ कई दर्शक भीड़ भरे बाजारों की ओर भागे जिससे की जरूरत की चीजों को जमा कर लें। मोदी को कुछ मिनट बाद ही जनता से यह आग्रह करने वाला ट्वीट करना पड़ा कि वे घबड़ाएं नहीं।

उद्बोधन ने जिसने आश्वस्त करने की जगह लोगों में और अनिश्चितता पैदा कर दी, रणनीतिगत संवाद की असफलता का अच्छा उदाहरण है।’’

संजय बारू, इकानोमिक टाइम्स , 30 मार्च, 2020

 

अंग्रेजी के 18वीं सदी के कवि एलेक्जेंडर पोप की एक कविता की पंक्ति है: फूल्स रश इन व्हेयर एंजिल्स फीयर टु ट्रीट (मूर्ख उस ओर सरपट दौड़ते हैं जहां जाने से समझदार लोग बचते हैं।)।

कोरोना वायरस (कोविड-19) के प्रकोप से भयाक्रांत माहौल में यह पंक्ति सटीक लगती है। आगे बढऩे से पहले हमें एक बात और समझ लेनी चाहिए कि कोई भी बीमारी बिना सामाजिक संदर्भ के नहीं होती। प्रश्न यह है कि जब प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय प्रसारण में 21 दिन की देश बंदी उर्फ लॉकडाउन की घोषणा की, क्या उससे पहले उन्होंने विशेषज्ञों से ठीक से सलाह-मशविरा कर लिया था? संजय बारू ने जिस बात की ओर इशारा किया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने इतने महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर, मुख्यमंत्रियों की तो बात ही छोड़ें, यहां तक कि विशेषज्ञों से इसके विभिन्न पहलुओं पर चर्चा किए बिना देश-बंदी की घोषणा कर दी। जिन बातों पर चर्चा करना जरूरी था उनमें स्वास्थ्य व्यवस्था की क्या स्थिति है? कानून और व्यवस्था क्या होगी और सबसे बड़ी बात जिस देश में इतनी बड़ी संख्या में लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हों, उनके रहने और खाने का क्या होगा?

यहां यह याद रखना जरूरी है कि ये तीनों ही विषय राज्यों के कार्यक्षेत्र के हैं। क्या मुख्यमंत्रियों को विश्वास में नहीं लिया जाना चाहिए था?

इन बातों पर आने से पहले कुछ आधारभूत बातों को समझ लिया जाना चाहिए। पहली बात, यह बीमारी कम से कम भारत के संदर्भ में, उच्च और उच्चमध्य वर्ग की बीमारी है, जो मूलत: विदेशों से आई है। अब यह स्पष्ट है कि यह पश्चिम के रास्ते यानी खाड़ी देशों से होती हुई आई। दूसरी बात, गोकि यह अभी वैज्ञानिक स्तर पर सिद्ध नहीं हुई है पर व्यवहारिक स्तर पर देखा जा रहा है कि दक्षिणी गोलाद्र्ध में इस बीमारी की भयावहता उत्तरी गोलाद्र्ध की तुलना में कहीं कम है। इंडियन काउंसिल ऑफ मैडिकल रिसर्च (आइसीएमआर) से जुड़े डॉक्टर नरिंदर कुमार मेहरा के अनुसार भारतीय लोगों में कोविड-19 संहारक स्तर पर न पहुंचने के कई कारण हैं। जैसे कि देश की जनसंख्या में सघन माइक्रोबिएल लोड के होने से व्यापक इम्युनिटी है। भारतीय जनता का व्यापक विविधतावाले पैथोजेनों जिनमें बैक्टीरिया, पैरासाइट् और वायरस शामिल हैं जिसके कारण उनमें टी-सैल्स नामका सिस्टम बन गया है जो नए वायरसों को रोकता है। इधर प्रसिद्ध चिकित्साविज्ञान पत्रिका लेनसेट इनफेक्शन जर्नल के अनुसार इस बीमारी से होने वाली मृत्यु दर का जो अनुमान अब तक लागाया जा रहा था यह उससे कहीं कम होगा। पत्रिका के अनुसार जिन लोगों में बीमारी है या सिद्ध नहीं हुई है उनमें मृत्यु दर 0.66 प्रतिशत है और सिर्फ उन लोगों में जिनमें बीमारी निश्चित हो चुकी है 1.38 प्रतिशत है।

चीन में बीमारी दिसंबर के प्रारंभ में पैदा हुई और जनवरी में फूट चुकी थी। देखने लायक बात यह है कि वूहान से जो चार सौ छात्र भारत आए वे सब के सब क्वारंटाइन के बाद अपने घरों को सही सलामत चले गए। तथ्य यह भी है कि आइसीएमआर की ही संस्था नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वीरोलॉजी ने जनवरी के अंत में ही एक केस को पकड़ लिया था।

भारत सरकार इस बीच सोई रही। बहुत हुआ तो गोदी मीडिया और मोदी प्रशंसक सरकार के उन करतबों से गदगद थे, जिसके तहत सरकार विदेशों से भारतीय नागरिकों को स्वदेश ला रही थी। विशेषकर मध्य व उच्च वर्ग के भारतीय मैडिकल कालेजों के असफल बच्चों के मां-बाप, जो चीन आदि में पैसे के बल पर डॉक्टरी की डिग्री हासिल कर रहे थे, विशेषकर मोदी की जयजयकार कर रहे थे और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की हाय हाय कर रहे थे। ऐसा लगता है, न सरकार और न ही उसकी नौकरशाही को जरा-सा भी आभास था कि मामला इतना संगीन है। अगर होता तो क्या यह समझ में आने वाली बात है कि जनवरी से मार्च के बीच डेढ़ लाख लोग देश में आने दिए गए। निश्चय ही ये भारतीय नागरिक थे। और यह भी निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इसमें अधिसंख्य उच्च व उच्चमध्यवर्ग का तबका था। इसका प्रमाण यह अफवाह भी है कि विदेशों से आने की पाबंदी के बावजूद कई चार्टर्ड विमान लॉक डाउन के दौरान भी भारत आते रहे। अगर ऐसा था तो साफ है कि ये वे अतिसंपन्न भारतीय थे जो योरोप या अमेरिका के नागरिक हो चुके होंगे और वहां फैलती महामारी से बचने के लिए भारत आ गए होंगे।

जहां तक सामान्य भारतीय नागरिकों का सवाल था, उनका देशके भीतरी भागों में पूर्वत आना-जाना हो रहा था (देखें : इसी अंक में प्रकाशित लेख ‘एक छोटी सी यात्राÓ)। यानी दूर-दराज की बात छोड़ें दिल्ली से लगे उत्तर प्रदेश तक में इसका कोई नामोनिशान नहीं था। अगर होता तो कम से कम रुद्रपुर से लेकर गाजियाबाद तक की 217 किलो मीटर की दूरी में लाखों आदमी इस बीमारी से पीडि़त हो चुके होते। यहां यह बात भी ध्यान रखने लायक है कि रुद्रपुर (1.54 लाख) के अलावा रामपुर (3.25 लाख), मुरादाबाद (8.9 लाख), अमरोहा (1.98 लाख) और गाजियाबाद (25 लाख की आबादी) इसके स्टेशन हैं और ये कोई छोटे शहर नहीं हैं। (इन सब शहरों की कुल आबादी 40 करोड़ से ज्यादा होती है।) इसके बाद आती है दिल्ली जिसकी अपनी आबादी ही दो करोड़ के करीब है।

यह भूला नहीं जा सकता कि यह देश चरम असमानताओं का देश है। 2009-10 के आंकड़ों के मुताबिक देश में मजदूरों की कुल संख्या 46.2 करोड़ थी। इसमें सिर्फ 2.8 प्रतिशत ही संगठित क्षेत्र में थे और 43 करोड़ असंगठित क्षेत्र में। पिछले दो दशकों की उदारीकरण की नीतियों के चलते देश में असंगठित क्षेत्र का जबर्दस्त विस्तार हुआ है। अनुमान है कि दिल्ली की आधी आबादी इसी तरह के श्रमिकों की है। यानी कुछ नहीं तो लगभग एक करोड़ असंगठित क्षेत्र के मजदूर अकेल दिल्ली में ही रहते हैं। दिल्ली का उदाहरण इसलिए जरूरी है कि जो इस महानगर में हुआ उसे पूरी दुनिया ने देखा। मान लीजिए कि इसमें से भी 25 प्रतिशत ऐसे मजदूर होंगे जो तुलनात्मक रूप से बेहतर स्थिति में हों तो भी अकेले दिल्ली में ही 75 लाख लोगों की आजीविका प्रधानमंत्री की घोषणा के साथ ही ध्वस्त हो गई थी। यह बताने की जरूरत नहीं है कि उनके साथ उनके परिवार भी भुखमरी के कगार पर पहुंच गए। बहुत ही अनुदार अनुमानों के हिसाब से भी अकेले दिल्ली में ही लगभग डेढ़ करोड़ लोग सड़क पर आ गए। अपने और अपने परिवार की जान बचाने के लिए शहर छोडऩा उनकी मजबूरी हो गया। सर्वोच्च न्यायालय में सरकार ने माना है कि पांच से छह लाख मजदूर पैदल अपने गांवों को गए। निश्चय ही यह आंकड़ा स्थिति की सही जानकारी नहीं दे रहा है।

पर सरकार और उसके एकछत्र नेता ने देश के नाम जो संदेश दिया, उसमें इस तरह की कोई चिंता ही नहीं थी। उन्होंने इन छोटी-मोटी बातों का अनुमान लगाना जरूरी ही नहीं समझा। यह भी अचानक नहीं है कि उच्च वर्ग और मध्यवर्ग ने कर्तल ध्वनि से इस देश-बंदी का स्वागत किया और ताली के बाद अगले दिन जोरदार थाली वादन भी दिया। उधर रेलवे ने अचानक ही घोषणा कर दी कि 22 तारीख को जनता कर्फू के कारण कोई भी रेल सुबह सात से रात के 10 बजे तक नहीं चलेंगी। फिर से 31 मार्च तक किया और अंतत: बढ़ाकर 14 अप्रैल तक कर दिया। रेलें देश में आनेजाने का सबसे बड़ा साधन हैं। जैसे ही देश बंदी की घोषणा हुई देश में भगदड़ मच गई। इसने क्वारंटाइन के उद्देश्य को ही अर्थहीन कर दिया क्यों कि लाखों की संख्या में लोग अपने गांवों की ओर पैदल तक चल पड़े। दूसरे शब्दों में अगर कहीं उसने इस छूत के रोग को फैलाने में मदद की। अगर रेलें चल रही होतीं और उनका सही प्रबंधन किया जाता तो बीमारी के फैलने को भी रोका जा सकता था और लोगों को बेरोजगारी के दौर में अपने गंतव्य स्थल तक पहुंचाया जा सकता था। इसके दुश्परिणाम जल्दी ही समाप्त होने वाले नहीं हैं। अब होगा यह कि मजदूरों को अपने घरों से काम की तलाश में निकलने के लिए हिम्मत जुटाने में समय लगेगा और इससे उत्पादन व अन्य कामों का पटरी पर बैठना मुश्किल रहेगा।

सरकार ने और जो अक्षम्य अनदेखियां कीं उनमें से सबसे बड़ी थी करोना वायरस के फै लने के कारणों की अनदेखी। चीन में इस रोग ने दिसंबर में महामारी का रूप ले लिया था और दुनिया भर में इसे लेकर सावधानियां बरती जाने लगीं थीं। पर हमारी कर्मठ सरकार मार्च तक सोती रही। इसका सबसे बड़ा उदाहरण दिल्ली का तबलीगी सम्मेलन है जिसमें कई देशों के लोगों ने भाग लिया। क्या यह भुलया जा सकता है कि इस कथित लॉक डाउन के दौरान ही उत्तर प्रदेश के सन्यासी मुख्यमंत्री ने लॉकडाउन के प्रतिबंधों का खुले आम उल्लंघन कर पूरे लाव लश्कर के साथ अयोध्या में राम लाला की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कर के छोड़ी। मजे की बात यह है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने, जो अपनी कर्मठता के कारण ‘छोटे मोदीÓ कहे जा सकते हैं, तबलीग को तो यह कहते हुए कोसा कि नवरात्र चल रहे हैं पर हिंदू मंदिर नहीं जा रहे हैं, लेकिन योगी के खिलाफ एक शब्द नहीं बोले। यही नहीं, उन्होंने यह हिम्मत भी नहीं की कि कहते, संकट कुल मिलाकर केंद्र की लापरवाही के कारण हुआ है जिसके पास पुलिस, सीआईडी, सीबीआई, इंटेलिजेंस ब्यूरो और रॉ है और सब कुछ वहां से एकआध किमी की दूरी पर है।

जहां तक हिम्मत का सवाल है वह तो प्रेस ने भी नहीं किया। किसी भी अखबार या समाचार चैनल ने प्रधानमंत्री के विवेकहीन निर्णय के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा। खबरें आ रही हैं कि मोदी ने पहले ही प्रेस को बुलाकर सारा प्रबंधन कर लिया था। इसी अन्योन्य सौहार्दयता का परिणाम था कि प्रधानमंत्री ने समाचारपत्रों के महत्त्व को अपने संदेशों के माध्यम से रेखांकित किया और अखबारों ने इसे पूरे-पूरे पृष्ठों पर छापा। आपातकाल में जहां इंदिरा गांधी ने प्रेसों की बिजली काट कर अखबारों को छपने से बचाया था वहां लॉकडाउन के माध्यम से उन्होंने यह सबक सीखा कि बिना अखबारों की बिजली काटे छपे-छपाए अखबारों को पाठकों तक जाने से रोका जा सकता है और वह दिल्ली में हुआ! जी दिल्ली में। हॉकरों ने अखबार बांटने ही बंद कर दिए। इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदू जैसे अखबार ने अपना दिल्ली संस्करण का मुद्रण ही रोक दिया गया।

जहां तक इस वैश्विक महामारी का सवाल है इससे पिछले दो महीने में देश में कुल 46 लोग मरे हैं और 1,614 बीमार हैं। हमारे देश की स्थिति को देखते हुए क्या यह संख्या कोई मायने रखती है? यह हैरान करने वाला है कि वर्तमान सरकार को आखिर इस बीमारी ने किस आधार पर इतना हिलाया हुआ है कि वह अपना आपा ही खो दे रही है? प्रधानमंत्री जी यह वह देश है जिसमें प्रति दिन टीबी से ही एक हजार लोग मरते हैं। निश्चय ही वह गरीबों की बीमारी है। दुर्गति का आलाम यह है कि देश में डॉक्टरों या अन्य स्वास्थ्यकर्मियों के लिए आवश्यक सुरक्षा कवच तक नहीं हैं। बाजार में मास्क और दस्ताने नहीं मिल रहे हैं। सेनेटाइजर गायब है। बीमारी के पीडि़तों के लिए जरूरी वेंटिलेटर नहीं हैं ऐसे में बीमारी के कोई कैसे रोक पाएगा? ताजा खबरों के अनुसार सरकार 24 मार्च को जाकर यह निर्णय कर पाई कि कौन-सी कंपनियां चिकित्साकर्मियों के लिए पीपीई (पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट यानी निजी बचाव कवच)बनाएंगी।

स्पष्ट है कि सरकार और उसका मुखिया अच्छी तरह जानता था कि उनके पास इतना बड़ा कदम उठाने और उसके प्रबंधन की क्षमता है ही नहीं। न ही सरकार की ओरसे कोई कोशिश नजर आई। अब सवाल है क्या यह कोई और राजनीतिक दांव है? इसका उत्तर भविष्य ही देगा।

चीन जैसे देश ने राष्ट्रव्यापी लॉक डाउन नहीं किया। योरोप के जिन देशों में लॉक डाउन है महामारी वहां अपने चरम पर है। अमेरिका में मरने वालों की संख्या 3300 हो गई थी पर वहां अभी भी लॉक डाउन नहीं किया गया था जब कि हमारे यहां मरने का सिलसिला ही लॉकडाउन के बाद सामने आया और इस संपादकीय के लिखे जाने तक न के बाराबर (45) था।

आखिर इतना ताबड़ तोड़ लॉक डाउन प्रधानमंत्री ने कौन सी चिंता के तहत किया, यह पूछा जाना चाहिए। हमारा देश पहले ही जबर्दस्त मंदी झेल रहा है। उसे देखते हुए इस तरह के किसी निर्णय को लेने से पहले कोई भी विचारवान नेता हजार बार सोचता। मूडी के अनुसार इस वर्ष भारत की विकास की दर 5.3 से घटकर 2.5 पर पहुंचने वाली है। विदेशी निवेशकों ने भारतीय शेयर बाजार से मार्च महीने में ही 150 करोड़ 90 लाख डालर निकाल लिए हैं। मोटर गाडिय़ों की मार्च में बिक्री 40 से 80 प्रतिशत गिर गई है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि संपन्न और ताकतवर लोगों को बचाने के लिए गरीबों और असहाय लोगों को दंडित किया जा रहा है?

पर हमें भूलना नहीं चाहिए यह देश चमत्कारों का देश है। हम व्यवहारिक, तार्किक और प्रगतिशील विचारों को नहीं बल्कि चमत्कारों को और अजूबों को पसंद करते हैं। हमारे आदर्श योगी, तांत्रिक, ज्योतिषी और चमत्कारी लोग हैं। ऐसे लोग जो हमें भ्रमित रख सकें, विपदाओं दैवीय नियति सिद्ध करें और यथास्थिति को बनाए रखने में सत्ताधारियों के लिए सहायक साबित हों। परम सत्य यह है कि हम परिवर्तन और आधुनिकात नहीं परंपरा चाहते हैं।

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1 Comment

  1. Sir,
    All views/facts in this editorial are genuine. Now need of the hour is to suggest immediate/urgent steps to combat this crisis.Please think about this.

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