एक छोटी-सी यात्रा का बड़ा-सा सवाल

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कोरोना की छाया में की गई अपनी यात्रा पर  पंकज बिष्ट

 

ट्रेन टाइम पर थी। जैसा कि इधर हो रहा है।

सिर्फ छह मिनट देर से, इंटरनेट देख युवामित्र पुष्पराज ने बतलाया था। काल को अनंत मानने वालों के लिए छह मिनट कोई मायने रखता है, भला! मुझे याद आया कि फासिज्म को लेकर इटली में एक व्यंग्य भी था, ट्रेनें समय पर चल रही हैं। यहां भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। जहां तक बाकी आधुनिक सुविधाओं का सवाल है, वे वैसे ही लडख़ड़ा रही थीं जैसे कि शेष भारत में। डिब्बों का संकेत देने वाले इलेक्ट्रॉनिक बोर्ड मुंह लटकाए थे। नतीजा ट्रेन के आते ही लपकते हुए और पीछे की ओर जाना पड़ा। गनीमत थी कि डिब्बों में नंबर स्पष्ट थे। इसी तरह के कारण बतलाते नजर आते हैं कि मीटर गेज से एक आध दशक पहले ब्रॉड गेज हुए इस रुद्रपुर स्टेशन का आधारभूत ढांचा वैसा ही है औपनिवेशिक दौर वाला पर आधा 21वीं सदी की चाल चल रहा है।

बतलाया जाता है कुमाऊं के चंद राजाओं ने इस कस्बे को चार सौ साल पहले बसाया था, जाड़ा काटने के लिए। रुद्रपुर इधर बड़े शहर में बदल गया है। मेरे देखते यह एक ऊंघता-सा कस्बा जिस गति से बढ़ा है उसके लिए अंग्रेजी मुहावरा मजेदार है ‘ब्रेक नेक स्पीड’- यानी ‘गर्दन-तोड़ गति’। 57-58 की बात है तब स्टेशन पर मिट्टी के तेल के लैंपपोस्ट हुआ करते थे। तब मुझे यहां से गुजरने का मौका मिला था ट्रेन से। कुछ सरकारी दफ्तर थे और शायद विकास वगैरह के कुछ प्रशिक्षण के केंद्र भी। सबके सब अंग्रेजी दौर के। इस मैटामॉर्फोसिस का श्रेय जाता है उदारवाद को। नारायण दत्त तिवारी ने, जब उन्हें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से आगे बढ़ कर उत्तरांचल उर्फ उत्तराखंड का मुख्यमंत्री (सन् 2002) बनने का सौभाग्य मिला, इस पहाड़ी प्रदेश को ‘औद्योगिकृत करने में उन्होंने देर नहीं लगाई। इसी प्रक्रिया ने, इस अनजान-से, इतिहास के खड्डे में पड़े, कस्बे को निर्णायक रूप से आधुनिक कर दिया। तिवारी ने यहां से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर छह दशक पहले अमेरिकी सहयोग से स्थापित भारत के सबसे बड़े कृषि विश्वविद्यालय की एक तिहाई जमीन छीन कर मिट्टी के मोल उद्योगों के सुपुर्द कर दी। वैसे यहां यह बता देना गैरवाजिब नहीं होगा कि इस विश्वविद्यालय ने भारत की हरित क्रांति में निर्णायक भूमिका निभाई थी। खैर, पर ऐसा भी नहीं है कि यह सब उन्होंने मुफ्त में किया हो। विश्वविद्यालय को एक रुपया प्रति वर्ग मीटर की आलीशान दर से मुआवजा दिया गया। यहां उद्योग आए भी। और आते भी क्यों नहीं उन्हें हर किस्म की सुविधाएं दी जा रही थीं जैसे कि सस्ती जमीन, उदार ऋण और सबसे बड़ी बात उत्पादन कर में छूट। वह विशेष छूट जो उनके माल को सस्ता कर देती है और प्रतिद्वंद्विता में आसानी हो जाती है। यह बात और है कि यह किसकी और किस कीमत पर होता है। वैसे इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कर की यह छूट एक निश्चित अवधि के लिए होती है और जैसे ही वह पूरी होती है, कंपनियां बोरिया-बिस्तर बांध लेती हैं, पर हां सस्ती जमीन को घेरे रहती हैं। इसलिए यहां बंद कंपनियों और नई खुलने वाली कंपनियों में मुकाबला बना रहता है।

इस औद्योगीकरण ने यहां कई देसी-विदेशी कंपनियों को अपनी फैक्टरियां लगाने को प्रेरित किया और देखते-देखते रुद्रपुर ऐतिहासिक नगर से ऐसे औद्योगिक नगर में परिवर्तित हो गया जहां कंपनियों का आना-जाना लगा रहता है। और जैसा कि होना था, पूंजी के उदार और मजदूरी के असुरक्षित बाजार के चलते यहां डिग्री-डिप्लोमा होल्डरों की भीड़ मंडराने लगी जो आठ-नौ हजार से लेकर 10-12 हजार तक की पगार पर बिना किसी सुविधा या सुरक्षा के आठ से दस घंटे खटने को तैयार रहती है। कामगारों का यहां से जाना भी उसी गति से रहता है क्योंकि शायद ही कोई नौकरी स्थायी हो। शायद ही किसी को पता हो कि अगले महीने क्या हो सकता है? कब कौन-सी कंपनी बोरिया-बिस्तर बांध कर चल दे। हां, जमीन पर बोर्ड मुस्तैदी से जमा रहता है। इधर की मंदी ने रही-सही कसर पूरी कर दी है।

पर मैं रुद्रपुर नहीं आया था। बल्कि बरास्ता रुद्रपुर इस बार भी दिनेशपुर आया था, जो अगर मैं गलत नहीं कह रहा हूं तो छोटा-सा शरणार्थी कस्बा है। इसके बाशिंदे मुख्यत: बंगाली और पंजाबी हैं। मेरे यहां आने की कहानी के दो कारण हैं। पहला है पुराने मित्र पलाश विश्वास, बांग्ला में बिस्वास, जो जाने-माने हिंदी लेखक के अलावा पत्रकार हैं। वह हिंदी के कई अखबारों से जुड़े रहे हैं और जनसत्ता कोलकाता से रिटायर होने के बाद अब अपने गांव बसंतीपुर चले आए हैं। यह गांव दिनेशपुर से लगभग तीन किमी की दूरी पर है।

दूसरे सज्जन हैं युवा पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता रूपेश कुमार सिंह। सच यह है कि मेरी यह दिनेशपुर की दूसरी यात्रा थी। जब मैं पहली बार यहां आया था कोई चार-पांच साल पहले तब पलाश यहां नहीं थे। पलाश आजकल यहां से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका प्रेरणा अंशु के कार्यकारी संपादक हैं। पिछले 32 वर्षों से प्रकाशित होने वाली इस पत्रिका के संस्थापक संपादक प्रताप सिंह मास्साब थे। उन्होंने अपना जीवन एक अध्यापक के रूप में बरेली में शिशु शिक्षा मंदिर से शुरू किया और तबादला होने पर यहां आए थे। पर जल्दी ही वह विचारधारात्मक असहमतियों के कारण उससे अलग हो गए और उन्होंने यहां अपने बलबूते ‘समाजोत्थान’ नामक स्कूल की शुरुआत की, जो आज फलफूल रहा है। यह स्कूल उनके सरोकारों का भी संकेत है। उनका देहांत दो वर्ष पहले कैंसर से हो गया था। अपनी पिछली यात्रा के दौरान मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य मिला था। तब भी समारोह प्रेरणाअंशु की स्थापना दिवस का ही था।

पत्रिका के वर्तमान संपादक रूपेश उनके पुत्र हैं। बड़े जीवट के व्यक्ति हैं, उनकी विशेषता यह है कि वह स्वयं को पूरे उत्तराखंड से जोड़कर देखते हैं और संभवत: तराई के साथ-साथ हर पहाड़ी राजनीतिक और सामाजिक गतिविधि में भी उतने ही उत्साह से भाग लेते हैं। यह समारोह इस मायने में महत्त्वपूर्ण होता है कि वह कई स्थानीय लेखकों, पत्रकारों और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं को तो जुटाते ही हैं किसी ज्वलंत सामाजिक-राजनीतिक मुद्दे पर खुली चर्चा भी करवाते हैं। इस बार का विषय था ‘राजनीति अर्थव्यवस्था व साहित्य में कहां हैं गांव और किसानÓ। लेखक और माले के नेता इंद्रेश मैखुरी से पहला साक्षात्कार यहीं हुआ। मैं उन्हें अर्से से जानता हूं और वह समयांतर के लिए लिखते रहे हैं, यह पाठकों को बताने की जरूरत नहीं है, पर मिलना नहीं हुआ था। इसके साथ यह बात भी नोट करने लायक है कि वहां उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के संस्थापक पीसी तिवारी, युवा कवि अनलि कार्की और फिल्मकार राजीव कुमार जैसे लोग भी थे, जिनसे वर्षों में मुलाकात हो पाती है।

पर यहां पहली बार एक विशेष व्यक्ति से मुलाकात हुई जो कृषि वैज्ञानिक और गोविंद बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैं। राजेश प्रताप सिंह का उत्तराखंड की कृषि के बारे में जैसा ज्ञान है वह आंखें खोलने वाला है। उन्होंने अपने व्याख्यान में बतलाया कि उत्तराखंड में स्थानीय फसलों को खत्मकर बिना सोचे-समझे बाहरी फसलों को थोपने ने राज्य के पहाड़ी इलाकों को उजाडऩे में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। नेतृत्व ही दृष्टिहीनता और नासमझी की इसमें मुख्य भूमिका रही है। यह भी मेरे लिए कम प्रसन्नता की बात नहीं है कि वह पिछले दो दशक से समयांतर के नियमित पाठक हैं।

दिनेशपुर जहां बसा है वह असल में आजादी तक तराई का जंगल हुआ करता था। बस्तियां अक्सर अपने में मानव सभ्यता का इतिहास या कहिए उसके विकास के सभी प्रमाणों को लिए होती हैं। यह बात और है कि वर्तमान अक्सर इन्हें, अपनी सक्रियता और समकालीनता के दबावों के कारण, सामने नहीं आने देता। पर चीजों को जरा-सा कुरेदिये कि जानकारियां आपको इतिहास के मालखाने के दरवाजे पर ला खड़ा करने में देर नहीं लगातीं।

तराई के घनघोर जंगलों के बीच छिपे, कुमाऊं के पिछले चार सौ वर्षों के ठहरे हुए विगत को, कुछ देर को भुला दें तो जीवंतता से भरा और मंथर गति से चलता दिनेशपुर भारत की आजादी के सात दशक पूर्व के रक्तरंजित इतिहास के अलावा उसकी सामाजिक संरचना की विसंगतियों और कुटिलताओं के परिणाम के तौर पर हमारे सामने खड़ा नजर आता है। यहां औपनिवेशिक भारत, जिसको भारतीय बर्जुआजी ‘भारत माताÓ के रूप में हासिल करना चाहती थी, पर वह उनके हाथ तीन टुकड़ों के रूप में आई थी, के उन दो छोरों के हैं, जो अपने भूगोल में शब्दश: पूर्व और पश्चिम के हिस्से हैं।

पलाश का गांव बसंतीपुर इस दिनेशपुर से पांच किमी की दूरी पर पश्चिम, यानी कार्बेट पार्क, की ओर है। पलाश से पूछें तो वह बतलाएंगे कि हमारा गांव असल में कार्बेट पार्क का ही हिस्सा था। पहाड़ी तराई के मलेरिया से लगभग उतना ही घबराते थे जितना कि आज दुनिया कोरोना से बदहवास है। पलाश का परिवार यहां शरणार्थी के रूप में पूर्वी बंगाल के खुलना जिले से आया था। इसके अलावा जैसोर और दीनाजपुर से भी लोग यहां आए थे। यहां के कई गांवों के नाम, वही नाम वाले हैं, जहां से  इनके आज के निवासी बेदखल होकर शरणार्थी बने थे। कुल मिलाकर इस इलाके को, जहां आजकल साल में तीन से चार तक धान की फसलें होती हैं, जरखेज इन्हीं लोगों ने बनाया है। पलाश के परिवार का इस जगह से कितना गहरा नाता है, इसका अंदाजा इस बात से लग जाता है कि उनके गांव का नाम उनकी माता जी के ही नाम पर बसंतीपुर है। उनके पिता पुलिन बिस्वास स्वतंत्रता सेनानी थे और बंगाल के दलितों के बड़े नेताओं में थे। वह अंत तक भारत विभाजन का विरोध करते रहे थे।

पलाश का कहना है, और इसके प्रमाण हैं, कि बंगाल का विभाजन, वहां का मुसलमान नहीं बल्कि उच्च वर्णों के हिंदू चाहते थे। इसलिए कि पहली संयुक्त बंगाल की सरकार में दलितों और मुसलमानों का गठबंधन था और सवर्णों की भूमिका उसमें हाशिये की थी। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय से लेकर श्यामाप्रसाद मुखर्जी तक के योगदान की वह याद दिलाते हैं। बंगाल का विभाजन हुआ ही इसलिए ताकि उच्च वर्णों के हाथ में सत्ता आ जाए और बंगाल का वह हिस्सा, जो आज भारत का पश्चिम बंगाल प्रांत है, उस पर उच्चवर्ण प्रभुत्व विगत सात दशकों में कभी कमजोर नहीं हुआ है। सत्ता वहां चाहे कांग्रेस के हाथ में रही हो, कम्युनिस्टों के हाथ में रही हो या फिर तृणमूल के, जातीय संरचना में जरा भी झोल नहीं आया।

तीन दशक से कुछ ज्यादा ही समय तक कम्युनिस्टों द्वारा शासित रहे इस राज्य में आज अगर भाजपा जोर मारती नजर आ रही है तो वह भी अचानक तो नहीं है! इसे आप माक्र्सवाद की असफलता नहीं बल्कि जातिवाद की विजय के रूप में देख सकते हैं जो किसी अजस्त्र विषधारा की तरह पूरे भारतीय समाज में किसी अंत:सलिला की तरह चलती रहती है। ‘भद्रलोक’ अपनी जड़ों की ओर लौट रहा है?

पलाश का असंतोष समझ में आने वाला है। अपनी जड़ों से बलात उखाड़ दिया जाना कितना पीड़ाजनक हो सकता है इसे वे लोग ही समझ सकते हैं जो इस यंत्रणा, अपमान और उपेक्षा से गुजरे हों। तब तो यह और भी अधिक यंत्रणा का कारण बनता है जब आप वर्णव्यवस्था के चौथे पायदान पर हों।

इसके बावजूद सच यह है कि इन शरणार्थियों ने इस भूमि को बदल दिया है। दिनेशपुर आज एक उभरता हुआ खातापीता कस्बा है जिसमें निर्माणाधीन कोठियां और बंगले बता रहे हैं कि यहां के निवासी अपना विगत कंधे पर नहीं लादे हैं।

मेरी वापसी अगले ही दिन थी।

आप एक रात में क्या जान सकते हैं। मेरी जानकारी कुल मिलाकर कोई बहुत गहरी नहीं है। मौका मिला तो फिर कभी थोड़ा समय निकाल कर आऊंगा। भारत के सबसे बड़े दानदाता अजीम प्रेमजी फाउंडेशन ने यहां एक भव्य स्कूल और उसके साथ शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण केंद्र और गेस्ट हाउस बनाया हुआ है। यहीं दूसरी मंजिल पर जिस कमरे में मैं था उसमें मेरे साथ दो युवा और थे। एक थे हमारे दिल्ली के पड़ोसी नोएडा निवासी आकाश नागर जो साप्ताहिक संडे पोस्ट से जुड़े हैं और उत्तराखंड की राजनीति के ‘विशेषज्ञ’ हैं। दूसरे पुराने परिचित पत्रकार और एक्टिविस्ट पुष्पराज, जिनके गांव मैं राजेंद्र यादव के साथ गया था। वह दिनकर के गांव के निवासी ही नहीं बल्कि उसी बिरादरी से हैं, जो बेगूसराय जिले में है।

आकाश नागर अत्यंत सरल और सेवाभावी हैं। जबसे मैं रुद्रपुर उतरा उन्होंने मुझे अपना सामान छूने नहीं दिया। न कोई बर्तन उठाने दिया। यह मेरे लिए खासा असहज करने वाला अनुभव था। ऐसा तो मेरे साथ मेरे बच्चे भी नहीं करते। चूंकि गाड़ी बस आने ही वाली थी और ज्योत्स्ना और बच्चे मुझसे लगातार पूछ रहे थे कि आप सावधानी बरत रहे हैं या नहीं, मुझे याद आया कि मेरे पास एक मास्क है जिसे इस यात्रा के लिए विशेषकर खरीदा गया है, पर जिसका मैंने अभी तक इस्तेमाल नहीं किया है, क्योंकि कोई और भी नहीं कर रहा था। मुझे मजाक सूझा, जो मैं अक्सर ज्योत्स्ना से करता रहता हूं। आप समझ जाएंगे कि मैं कैसे मजाक किसकी कीमत पर करता हूं।

मैंने अपना मोबाइल पुष्पराज को देते हुए कहा कि मेरा एक फोटो खेंच दो उसे दिल्ली भेजना है। मैंने मास्क निकाला और प्लेटफार्म पर ही पहन लिया। पुष्पराज ने फोटो खेंच दिया। और मैंने फोटो ज्योत्स्ना को ‘हेयर आई एम डब्ली सेफ’  लिखकर भेज दिया। उन्होंने दो अंगूठे दिखाते हुए जवाब में लिखा: ‘वेरी गुड’।

गाड़ी के आने पर जब हमने डिब्बा देखा तो पाया कि मेरा आरक्षण दूसरे दर्जे में है। मेरे दोनों युवा साथी इस बात से क्षुब्ध हो गए। मैंने उनसे कहा, कोई बात नहीं कुछ घंटे की बात है इसलिए खास परेशानी नहीं है। वैसे भी मैं सड़क मार्ग से  रास्ते की भीड़ के कारण नहीं जाना चाहता था। पुष्पराज का आग्रह था कि हम एसी चेयरकार में चलकर सहायक से बात करें। मुझे ये सब झंझट लगा। दूसरा, डर यह था कि बेमतलब कहीं इस चक्कर में गाड़ी ही हाथ से न निकल जाए।

मेरी बेचैनी के कई कारण थे। सबसे पहला बढ़ते कोरोना वायरस का डर, ज्योत्स्ना के अकेले होने की चिंता और उस किताब की चिंता जो पिछले दो महीने से मेरे कारण छपने से रुकी हुई है। मैं हर हालत में उसे इसी माह समाप्त कर देना चाहता था क्योंकि उसके बाद अप्रैल के समयांतर का काम भी था। इस तरह से मेरे पास सिर्फ चार दिन का समय था जिसे में किसी भी तरह गंवाना नहीं चाहता था। मैं आया भी बड़े दबाव में ही था।

मैंने उन्हें समझाया भी कि जो होना था सो हो गया, बात आगे न बढ़ाएं। लेकिन जिसकी शंका थी, वही हुआ। पर वह बाद में।

गाड़ी ने इस बीच लगभग दो घंटे की यात्रा पूरी कर ली थी और अब रामपुर आने ही वाला था। डिब्बे में जिस तरह की स्थिति थी मुझे लगा इससे बेहतर क्या हो सकता है! ऐसी कोई गर्मी भी नहीं थी। इसके अलावा कुछ सीटें खाली भी थीं।

पर रामपुर में जो भीड़ घुसी उससे सीटें ही नहीं बल्कि सीटों के बीच के रास्ते में भी यात्री खड़े हो गए। यानी रिजर्वड-अनरिजर्वड सब बराबर हो चुका था। दाड़ीवाले आदमी, बुर्केवाली औरतें बता रहीं थीं कि अधिसंख्य यात्री मुसलमान हैं। कहा नहीं जा सकता था कि भीड़ दिल्ली की है या रास्ते में उतर जाएगी। आगे मुरादाबाद और अमरोहा ऐसे शहर हैं जिनमें मुस्लिम जनसंख्या खासी मात्रा में है। गाड़ी का गाजियाबाद से पहले अमरोहा ही स्टैंड है।

हमारी तीन सीटों की पंक्ति में से एक सीट खाली थी। एक आदमी उसमें आकर बैठ गया। पर थोड़ी ही देर में वह उठा और आगे की ओर चल दिया। असल में टीटी आ रहा था। जैसे ही टीटी आगे निकल गया वह फिर से वापस आ गया। तब समझ में आया कि वह बिना रिजर्वेशन वाला है। गाड़ी तब तक आगे निकल चुकी थी। मेंहदी से रंगे बालों वाला मझली उम्र का वह आदमी रोज आने-जाने वाला लग रहा था, मुझे मन ही मन हंसी भी आई कि देखो रेल में यात्रा करना हर दिन की जीवित रहने की जुगाड़ का हिस्सा है। सामने ही एक महिला अपनी ढाई-तीन साल की बच्ची को पैरों से सटाए खड़ी हो चुकी थी। वह औरत सिंदूर-विंदूर लगाए थी; हो सकता है पति भी आसपास हो; मुरादाबाद ज्यादा दूर नहीं था पर आगे जाना हो तो! तब तक उस आदमी ने बच्ची की मां को अपने पास बैठा लिया। इस तरह से हम चार लोग तीन की सीट पर जम गए।

तभी वह फोन आया, जो मेरी मूर्खता का प्रमाण था; फोन रूपेश का था। उन्होंने माथा पीटने वाले स्वर में कहा, आप सेकेंड क्लास में क्यों जा रहे हैं! आपका टिकट तो एसी का है! कैसे? उन्होंने समझाया कि मैंने आपको सुबह ही कहा था कि आपका एसी का टिकट कनफर्म हो चुका है। आप वहीं जाइए। दूसरा टिकट तो सिर्फ इमेरजेंसी के लिए था!

ठीक है, मैंने कहा और मैं हंस पड़ा। हल्द्वानी से आ रहे आदमी ने, मामला क्या है वाले अंदाज में, मेरी तरफ देखा। मैंने अपनी मूर्खता के बारे में बतला दिया। भूरे बालों वाले ने मसले को लपक लिया। बोला, ”अरे… अरे… अरे आप क्यों बैठे हैं, चले जाइए। बीच में से निकल जाइएगा। ट्रेन इंटरलिंक्ड है।‘’ मैंने कहा भीड़ है। वह बोला, ”यह तो रोज का मामला है। निकल जाइए। लोग जाने देंगे। एसी का डिब्बा दो डिब्बों के बाद ही है।’’

मुझे आगे की ओर जाना था। मैंने बैग वहीं छोड़कर उठते हुए कहा, बैग मुरादाबाद ले लूंगा। किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी? जैसे ही मैंने दूसरे डिब्बे में घुसने की कोशिश की, भीड़ को देखकर छक्के छूट गए। मैं बैरंग लौटा और यह कहता हुआ कि मुरादाबाद ही बदलूंगा, वापस अपनी जगह पर बैठ गया। रामपुर से चढ़े आदमी ने मुझे फिर ललकारा, ”अरे यह तो रोज की बात है। लोग आपको जाने देते।‘’ वह मेरी बेवजह की नफासत से थोड़ा खिन्न लग रहा था। उसकी बात गलत नहीं थी। हॉकर बेधड़क चिप्स आदि के पैकेटों से लेकर लंच तक बेचते घूम रहे थे।

मैंने पूछा, मुरादाबाद कितनी दूर है! ‘’आता ही होगा’’, उसने आश्वस्त किया। मैं अपनी जगह पर बैठ गया। अचानक मुझे लगा, अपनी मां से चिपकी बच्ची मुझे रह-रह कर घूर रही है। पर यह कोई नई बात नहीं थी। छोटे बच्चे अक्सर मुझे घूरा करते हैं। मेरी दाढ़ी के कारण। पहले, जब काली थी, डरकर रोने भी लगते थे या मुंह छिपा लेते थे। हो सकता है उस बच्ची को मेरा बेमतलब आना-जाना नहीं सुहा रहा हो। खैर मुरादाबाद में डिब्बे से उतरते हुए मैंने सहयात्री से कहा, अगर सीट नहीं मिली तो लौटूंगा और जोड़ा, मेरी जगह इसे बैठा लेना; मेरा तात्पर्य  बच्ची और उसकी मां से था। बच्ची अपने सांवले रंग और चमकीली उत्सुक आंखों के कारण बहुत प्यारी थी।

डिब्बे में जब मैं अपनी सीट पर पहुंचा वहां एक युवती बैठी मिली। मेरे यह कहने पर कि सीट मेरी है वह बोली पर मुझे तो अलॉट की है। फिर उसने कहा कि आप उस सीट पर बैठ जाइए वह टीटी की ही है अभी आ जाएगा। मैंने टीटी को प्लेटफार्म पर ही पकडऩा बेहतर समझा। टीटी को जब मैंने टिकट दिखाया तो वह बोला, ”आप कहां रह गए थे!’’ मैंने यों ही बहाना किया, ”पीछे!’’ इस पर उसने कहा, ”सौभाग्य है सीट खाली है। आजकल भीड़ कम है कोरोना की वजह से। आप की सीट मैंने किसी और को दे दी है। अब आप फलां नंबर पर बैठ जाइए।‘’

जैसा उसने निर्देश किया, मैं अपनी किस्मत की जय जयकार करता सीट पर बैठ गया। तब तक गाड़ी को दिल्ली की ओर दौड़ते आधा घंटा तो ही चुका होगा। बाहरी हवा-पानी से अपनी चारदीवारी में सुरक्षित डिब्बे के सम्मानजनक माहौल में मैं इतना संतुष्ट हुआ कि बाकी सब भूल गया। तब याद आया कि रामपुर से ही पेशाब लगी हुई है पर वहां दूसरे कारण थे कि जाने की हिम्मत नहीं हो पाई थी।

पेशाब के बाद जैसे ही मैंने हाथ धोने के लिए वाश बेसिन की ओर मुंह किया, देखा कि मेरे मुंह पर पट्टी यानी मॉस्क लगा है। वही, जिसे मैंने फोटो खेंचने के लिए रुद्रपुर के स्टेशन पर पहना था। अचानक याद आने लगा। मां से लिपटी वह चमकीली बेचैन आंखों वाली बच्ची जो मुझे कनखियों से रह-रहकर  देख रही थी।

मेरी दाड़ी मास्क से छिपी हुई थी! वहां एक नई बात और थी : वाश बेसिन पर रखी सेनेटाइजर की छोटी-सी शीशी।

मैंने मॉस्क उतार कर जेब में रख लिया। सेनेटाइजर की कुछ बूंदें हाथों में मलीं और सीट पर आकर बैठ गया। दिल्ली आने तक बैठा ही रहा। स्टेशन से बाहर निकल कर भी मेरी हिम्मत नहीं हुई कि दोबारा मास्क पहन लूं।

वैसे भी मुझे टैक्सी मिलने में देर नहीं हुई।

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