हिंसा की गतिकी और दिल्ली के दंगे

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फरवरी के अंतिम सप्ताह में दिल्ली में जो हुआ वह किसी तरह से अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता। अगर किसी रूप में वह अप्रत्याशित था तो सिर्फ अपने ‘समयÓ के लिए। वैसे भी फरवरी दिल्ली के लिए खासा घटनाओं से भरा महीना साबित हुआ है। केंद्र में तथाकथित भाजपाई चाणक्य के अलावा धनुर्धर मोदी की भी छत्रछाया थी, जिन्होंने कुछ ही महीने पहले फिर से केंद्रीय सरकार की कमान संभाली थी और इस बीच एक के बाद एक कई राज्यों में हुई हार के बावजूद, जिसने मोदी और भाजपा के कथित जादू के खुमार को थोड़ा ठंडा कर दिया था, मोदी ने पिछली बार से ज्यादा सीटें हासिल की थीं। पर दिल्ली राजधानी थी और उसका नियंत्रण प्रतिष्ठा का सवाल था। वैसे भी आम आदमी पार्टी (आप) महाबली भाजपा के आगे क्या थी? एक छोटा-मोटा कृंतक प्राणी, जिसने एक घुड़की में इधर-उधर कहीं बिल में घुस जाना था। पर नतीजा क्या हुआ? चैपलिन की किसी मूक फिल्म की तरह एक सींखची गिट्टक से आदमी ने इस महाबली को ऐसा दांव मारा कि वह चारों खाने चित हो गया।

यह अमित शाह की नहीं बल्कि वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हार है, जिनकी सहमति के बिना सरकार ही नहीं बल्कि पार्टी में भी पत्ता तक नहीं हिलता। दूसरे शब्दों में वर्तमान सरकार की लगभग हर नीति के लिए सिर्फ वही जिम्मेदार हैं। यह किसी से छिपा भी नहीं है कि वर्तमान सरकार किसी भी रूप में सामूहिक नेतृत्व का उदाहरण पेश नहीं करती है। चूंकि हर सफलता का सेहरा – सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर पुलवामा और 370 तक का -उनकी पगड़ी, जिसका मोदी चुन हुए अवसरों पर ही इस्तेमाल करते हैं, में बंधता है तो फिर असफलता ने कहां जाना चाहिए? इसलिए अगर अभी नहीं आया है तो भी जल्दी ही, भाजपा ही नहीं बल्कि संघ की भी समझ में आ जाएगा कि यह कोई बहुत स्वस्थ स्थिति नहीं है। यों भी कि संसद की इस पाली के खत्म होते न होते उनके सिर इतनी जवाबदेही हो जाएगी कि वह दीनदयाल उपाध्याय मार्ग दिल्ली से लेकर नागपुर तक के लिए बोझ बन जाएंगे। अपने पिछले कार्यकाल में उन्होंने तात्कालिक राजनीतिक लाभ के चक्कर मेंं नोटबंदी जैसी जो गलती की और जिसे जीएसटी के त्रुटिपूर्ण कार्यान्वयन ने ऐसा घातक बना दिया कि देश की अर्थव्यवस्था आज भी उससे लडख़ड़ा रही है। उधर दुनिया भर में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण आई मंदी के कारण जगह-जगह जो आर्थिक नाकेबंदी शुरू हुई है उसने सोने में सुहागे का काम किया है। स्पष्ट है कि बढ़ती बेरोजगारी और सरकारी नौकरियों के सिमटते जाने ने मंदी को और बढ़ा दिया है। ऐसे कोई आसार नहीं हैं कि निकट भविष्य में स्थितियों में सुधार हो पाएगा।

एक बहुत ही चलताऊ अंग्रेजी कहावत है, ‘ए मैन इज नोन बाई द कंपनी ही कीप्सÓ। यानी आदमी अपने संगियों (संघियों नहीं) के कारण जाना जाता है। मोदी की लोकप्रियता चाहे जो हो बुद्धिजीवियों से उनका छत्तीस का आंकड़ा है। वह बुद्धिजीवियों से मिलना तौहीन समझते हैं क्यों कि बुद्धिजीवियों पर उनकी लोकप्रियता का आतंक नहीं चलता। इसका कारण चाहे जो हो, नतीजा सामने है। उनके साथ किसी भी क्षेत्र की उत्कृष्टतम प्रतिभा जुड़ी हुई नहीं है। हालत यह है कि रघुराम राजन और उर्जित पटेल जैसे मध्यमार्गी विशेषज्ञों तक ने उनके साथ रहने से की जगह स्कूल-कॉलेजों में सर छिपाना बेहतर समझा।

इस स्तंभ में यह एक बार फिर दोहराया जा रहा है कि भारत एक विशाल देश है। मोदी का अनुभव क्षेत्र सिर्फ गुजरात तक सीमित रहा है। और गुजरात उत्तर प्रदेश के भी तीसरे हिस्से के बराबर है। नतीजा यह है कि उन्हें कहीं से भी सही या कम से कम सटीक सलाह नहीं मिलती। आज की दुनिया कई गुना जटिल है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से आप आज के न तो अपने समाज और न ही दूसरों के समाज को समझ सकते हैं। यह तथ्य आत्महीनता से ग्रस्त आम हिंदू को भरमाने और चुनाव जीतने के लिए मुफीद हो सकते हैं पर हैं अर्थहीन। यह अचानक नहीं है कि अमेरिका और ब्रिटेन की प्रगति का एक बड़ा कारण वहां विश्व की हर तरह की प्रतिभा का स्वागत किया जाना है। कम से कम अमेरिका तो आज तक वही कर रहा है और हम हैं कि लोगों को सिर्फ नागरिकता के कानूनी आधार पर बाहर कर देना चाहते हैं। खैर ये सब लंबी बातें हैं। असली बात यह है कि केंद्र की मोदी सरकार के ऐन नाक के नीचे पैसा, कार्यकर्ता और भुजबल की इफरात के बावजूद दिल्ली में भाजपा धूल धूसरित हो गई। तो क्या यह केंद्र की सरकार पर बट्टा नहीं है? असल में दिक्कत यह है कि मोदी सरकार की असफलता के दूरगामी परिणाम होना लाजमी हैं। ये असफलताएं उनकी निजी असफलता नहीं है। निजी रूप से तो वह एक सफल आदमी हैं। हों भी क्यों नहीं, आखिर कितने चायवाले के बच्चे प्रधानमंत्री पद पर पहुंचते हैं। पर उनकी असफलता उनके राजनीतिक कौशल और दूरदृष्टि की है और इससे दिक्कत देश और समाज को है।

इसलिए दिल्ली में जो हुआ है वह पानी के नाक से भी ऊपर पहुंच जाने का प्रमाण है। इसमें शक नहीं है कि नरेंद्र मोदी के उत्थान में गुजरात के दंगों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और अक्सर ही सांप्रदायिक दंगे भाजपा के लिए लाभप्रद साबित होते हैं। पर इस सब के बावजूद ऐसे समय जब दुनिया के सबसे ताकतवर देश का राष्ट्रपति शहर में हो इस पैमाने पर दंगा होना कि जिसमें चालीस के करीब लोग मारे जाएं, कोई सहज बात नहीं है। इसलिए यह भी अचानक नहीं है कि दुनिया के मीडिया, उस पर भी विशेषकर अमेरिकी मीडिया में, भारत में ट्रंप की यात्रा की उपलब्धियां तो दब गईं पर दिल्ली के दंगों में सरकार की असफलता प्रबल तरीके से सामने आई। मोदी की अमेरिका में छवि मजबूत करने की मंशा दबी की दबी रह गई। लोग मोटेरा की सवा लाख की ट्रंप की जयजयकार करती भीड़ कहीं पृष्ठभूमि में चली गई और जो संदेश अमेरिका सहित सारी दुनिया में पहुंचा वह था मोदी सरकारी प्रशासनिक असफलता और सांप्रदायिक झुकाव का जिसे उनके दल के छुटभईय्यों ने उघाडऩे में कसर नहीं छोड़ी। वैसे भी अगर देश की राजधानी में तीन दिन तक अहर्निश दंगे चलते रहें, हजारों करोड़ की संपत्ति आग की भेंट चढ़ जाए, सैकड़ों लोग घायल हों और 50 के करीब लोग मारे जाएं तो यह सब क्या कहलाएगा?

वैसे भी यह तब हो रहा है, जबकि पुलिस व्यवस्था केंद्र के हाथ में है। पर हमें भूलना नहीं चाहिए कि चाहे जितनी भी बारूद बिछी हो उसे पलीता लगाने का काम भाजपा नेताओं ने ही किया है। आप से ऐन चुनाव से पहले भाजपा में गए और चुनाव हारे हुए कपिल मिश्रा ही नहीं बल्कि केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर और सांसद प्रवेश वर्मा के गालियों से लैस बंदूक चलाने के अह्वान निंदनीय ही नहीं अपराधिक भी थे। आखिर प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष चुप क्यों हैं? गलती स्वीकार न करने का रवैया अव्यवहारिक ही नहीं बल्कि गैर लोकतांत्रिक और अपराधिक भी है।

दूसरे शब्दों में पिछले दो महीने से दिल्ली में लगातार सांप्रदायिक शब्दावली में आरोप प्रत्यारोपों का जो आदन-प्रदान हो रहा था, वह सबके सामने था। भाजपा के शीर्ष नेताओं ने इसे रोकने की जरा भी कोशिश नहीं की। सांप्रदायिकता को कार्य में परिणित करने वाले तथाकथित नेता लोग नहीं होते। उसे कार्यरूप में परिणित करने वाले कोई और होते हैं। अपनी हार से बिलबिलाए मिश्रा ने दो बार उस इलाके में जाकर जिस तरह की आक्रामक और भड़काऊ भाषा का प्रयोग किया उसके बाद और क्या होना था!

दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, जिनका रातों-रात तबादला कर दिया गया है, का यह सवाल वाजिब था कि आखिर पुलिस ने इतने दिन से इन कथित नेताओं के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की?

अब पुलिस की बात करते हैं। 27 फरवरी के इंडियन एक्सप्रेस में दीपांकर घोष की ‘वायोलेंस इज डाउन, कॉप प्रेजेंस अप: ‘ऊपर से ऑर्डर आ गयाÓ शीर्षक रिपोर्ट ध्यान देने लायक है। रिपोर्ट के अनुसार जब संवाददाता ने गोकुलपुरी के एक सिपाही से पूछा कि आखिर रातों-रात क्या हो गया है? तो उसका सीधा-सा उत्तर था: ”ऊपर से आर्डर आ गया रात को। अब सब शांत है।ÓÓ

क्या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश महोदय के सवाल का जवाब इसी से नहीं जुड़ा है? सच भी यह है कि दिल्ली में पुलिस जो केंद्र के अंतर्गत है वह पिछले छह वर्षों से इसी तरह का व्यवहार कर रही है। इसी माह महिलाओं के एक कॉलेज में जब शोहदों ने धावा बोला और बदतमीजियां कीं तो पुलिस ने उनके खिलाफ तब तक कार्रवाई नहीं की जब तक ‘ऊपर से ऑर्डरÓ नहीं आ गया। इससे पहले इसी महीने जनेवि में या जामिया में जो हुआ उसको लेकर अब तक कुछ नहीं हुआ है। क्यों? स्पष्ट है कि ‘ऊपर से आदेशÓ नहीं आया। कहने का तात्पर्य यह है कि वर्तमान केंद्रीय सरकार ने पुलिस को कानून और व्यवस्था बनाए रखने वाली एक एजेंसी की जगह अपना निजी चाकर बना लिया है। उसकी स्वायत्तता खत्म कर दी गई है और वह एक संवेदना विहीन मशीन में बदल गई है। स्वायत्तता विहीन संस्थाएं अपने उर्जा और स्वस्फूर्तता खो देती हैं। आज की दिल्ली पुलिस उसका उदाहरण है।

इसके बाद यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि यमुनापार में तीन दिन तक जो होता रहा वह क्यों हुआ। निश्चय ही वहां बाहर के दंगाई पहुंचे थे और यह भी स्वयं सिद्ध है कि अगर वे भाजपा की ओर से भेजे नहीं गए थे तो भी इस दल के समर्थक थे और भाजपा के नेताओं के पहले से ही दिए जा रहे गैरजिम्मेदाराना और भड़काऊ भाषणों से प्रेरित तो थे ही। दूसरी ओर दूसरे पक्ष का उतना ही उग्र वर्ग इस तरह की किसी भी स्थिति के लिए तैयार था। पुलिस चूंकि पिछले छह वर्ष में ‘ऑर्डरÓ के इंतजार में रहने की आदी हो चुकी है, उसे समझ ही नहीं आया, कब क्या करना चाहिए।

पूर्वी दिल्ली की घटनाएं इस नगर राज्य के प्रशासनिक ढांचे को भी लेकर गंभीर प्रश्न उठाती हैं। स्पष्ट है कि यहां की कानून व्यवस्था चूंकि केंद्र के पास है और उसकी अपनी जिम्मेदारियां हैं, जो ज्यादा अहम हैं इसलिए वह इस छोटे से राज्य की ओर समुचित ध्यान नहीं दे पाता। इसका एक सबक यह है कि दिल्ली में कानून-व्यवस्था को राज्य सरकार को सौंपी जाए और सिर्फ उस क्षेत्र की सुरक्षा व्यवस्था केंद्र के पास रहे जहां सरकार और उसके कार्यालय स्थित हैं।

राष्ट्रीय नेतृत्व का दीवालियापन यह है कि दंगाग्रस्त क्षेत्र में केंद्रीय प्रतिनिधि के रूप में जनता को आश्वस्त करने कोई केंद्रीय मंत्री नहीं गया बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को भेजा गया जिसका काम मूलत: विदेशी सुरक्षा से संबंधित है। आखिर गृहमंत्री या प्रधानमंत्री क्यों नहीं गए? केंद्रीय सरकार के मुख्यालय से 10 किमी की दूरी पर इतने जबरदस्त दंगे हुए जो तीन दिन चलते रहे जिसमें लगभग 50 लोग मारे गए हजारों लोग घायल हुए, क्या यह छोटी बात है? प्रधान मंत्री लिट्टी चोखा खाने दिल्ली हाट जा सकते हैं पर लाखों की संख्या में पीडि़त जनता को आश्वासन देने नहीं जा सकते? चलो गृहमंत्री ही चले जाते आखिर यह उनके विभाग का मसला था, वह क्या कर रहे हैं?

इसे कैसे समझा और देखा जाए? क्या यह किसी डर की वजह से हो रहा है या फिर यह किसी बड़ी राजनीतिक घटना का पूर्व संकेत है? अथवा जनता को डराने के लिए एक ऐसे व्यक्ति को भेजा गया जो जीवन भर पुलिस अधिकारी रहा है।

भाजपा को और उसकी केंद्र की सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली में हिंसा की ऐसी घटनाएं 36 साल बाद लौटी हैं। ये अचानक नहीं आईं। ये बरास्ता हापुड़, जयपुर और मुजफ्फरनगर आईं हैं। इंडियन एक्सप्रेस के 27 तारीख के संपादकीयमें लिखा है: ”जैसा कि नजर आता है देशभर में सीएए विरोधी आंदोलन पूरी तरह से कानूनी दायरे में और शांतिपूर्ण हैं, दिल्ली में मई में मोदी सरकार की वापसी के बाद के आठ महीनों में मरने वालों की संख्या 50 से ऊपर पहुंच गई है (नवीनतम आंकड़ों के हिसाब से अब यह 75 होनी चाहिए – सं.) और यह कई गंभीर सवाल उठाती है जिन पर तत्काल ध्यान दिया जाना चाहिए।ÓÓ

हिंसा का गतिविज्ञान यह है कि अगर इसे जल्दी नहीं रोका गया तो फिर इसे नियंत्रित करना मुश्किल हो जाता है। विगत छह वर्षों के शासन में भाजपा ने बबूल को खूब पनपने दिया है। हिंसा और अराजकता भस्मासुर हैं वे हर हालत में लौट कर अपने जनक के पास आते हैं।

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