विदेशी विश्वविद्यालयों का दुःस्वप्नं

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– हेतु भारद्वाज

पिछले दिनों भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बड़ी सुखद घोषणा की कि शीघ्र ही भारत में विश्व के श्रेष्ठतम पांच सौ विश्वविद्यालयों के परिसर खुल जाएंगे। यह हम सबके लिए गर्व की बात है या शर्म की इसका निर्णय तो बाद में होता रहेगा, फिलहाल तो यही लगता है कि भारतीय उच्च शिक्षा के क्षेत्र में युगांतकारी परिवर्तन दस्तक दे रहे हैं। आश्चर्य होता है कि एक ओर हम विश्व गुरु बनने को आतुर हैं तो दूसरी ओर हम विदेशी चीजों को अपने देश में आमंत्रित कर रहे हैं। विदेशों से आने वाले ये विश्वविद्यालय निश्चय ही निवेश की दृष्टि से भारत में अपने पैर पसारेंगे। निवेश के मूल में लाभ की आकांक्षा विन्यस्त रहती है। फिर ये परिसर भारतीय जनता के लिए किस प्रकार लाभकारी हो सकते हैं, इस पर विचार करना जरूरी है?

गाहे-ब-गाहे हम पश्चिमी शिक्षा पद्धति को भारत में लादने के लिए मैकाले को दोषी ठहराते रहते हैं। मैकाले ने जिस शिक्षा पद्धति का सूत्रपात किया उसका काम ब्रिटिश सरकार के हित साधना था। और मैकाले अपने लक्ष्य में पूरी तरह सफल रहा। जिस शिक्षा पद्धति के माध्यम से मैकाले ने हमें मानसिक रूप से पराधीन बनाया, उसका बोझ हम अब भी ढो रहे हैं। देश में अभी भी एक ऐसा वर्ग सक्रिय है, जो इस पद्धति को जीवित रखना चाहता है ताकि भारतीय जनता पर उस वर्ग का वर्चस्व बना रहे।

हम भूल जाते हैं- गांधीजी ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की मुहिम चलाई थी। गांधी जी स्वयं अपने देश के लिए स्वदेशी शिक्षा पद्धति लागू करना चाहते थे जिसका नाम उन्होंने ‘बुनियादी शिक्षाÓ दिया था। उन्होंने उन पब्लिक स्कूलों का भी विरोध किया था जो राजाओं और रजवाड़ों के बेटों के लिए खोले गए थे तथा जिनके लिए अध्यापक भी विदेश से बुलाए जाते थे।

भाजपा सरकार के आह्वान पर जो विश्वविद्यालय अपने परिसर भारत में खोलने वाले हैं, उनके बारे में कुछ सवाल स्वभाविक रूप से सामने आ जाते हैं- क्या ये विश्वविद्यालय भारत की आवश्यकताओं के अनुकूल पाठ्यक्रम लागू करेंगे? या वे अपनी इच्छा से अपने पाठ्यक्रम अपनाएंगे? क्या इन परिसरों में पढ़ाने वाले अध्यापक विदेश से आएंगे या इनमें भारतीय अध्यापकों को भी पढ़ाने का अवसर मिलेगा? इन विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषाएं होंगी या भारतीय भाषाएं? इन परिसरों में शैक्षिक वातावरण भारतीय संस्कृति के अनुरूप होगा या वे विदेशी परिवेश को ही यहां साकार करेंगे? और भी बहुत सारे प्रश्न उठेंगे लेकिन यहां कुछ बातों पर विचार कर लेना आवश्यक है-

शिक्षाविद् धर्मपाल (द ब्यूटिपुऊल ट्री) का मानना कि अंग्रेजों के आने से पहले भारत के पास अपनी एक समृद्ध और व्यवस्थित शिक्षा पद्धति थी, जिसका ध्वंस ब्रिटिश सरकार ने किया। क्या भाजपा सरकार इन विदेशी विश्वविद्यालयों के द्वारा हमारी परंपरागत शिक्षा पद्धति को पुनर्जीवित करने का साहस दिखाएगी? क्या सरकार इन विश्वविद्यालयों को गांधी जी के विचारों के अनुकूल शिक्षा देने पर बाध्य कर सकेगी?

यहां एक और बात सामने आती है- यह माना जाता है कि भारत में शिक्षा प्राप्त लोग, जो विदेशों में जाते हैं, टैक्नोलोजी, स्वास्थ्य-शिक्षा, प्रबन्धन शिक्षा आदि क्षेत्रों में सर्वश्रेष्ठ सिद्ध होते हैं। माना तो यह भी जाता है कि सिलिकान वैली पर भारतीय शिक्षितों का अधिकार है। नासा में शोधकार्य कर रहे वैज्ञानिकों में भारतीयों की संख्या पर्याप्त है। जब भारत के विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त कर युवक-युवतियां विदेशों में अपनी मेधा का कमाल दिखा रहे हैं, तो नए विदेशी विश्वविद्यालय यहां आकर क्या करेंगे?

हमारे देशवासी जो भारतीय विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त कर विदेशी भूमि पर अपनी धाक जमाए हुए हैं और यह हाल तो तब है जब भारत के विश्वविद्यालय बदहाल हैं।

उनमें न समय पर योग्य शिक्षकों की नियुक्तियां हो पा रही हैं और न उनकी अत:व्यवस्था (इन्फ्रास्ट्रक्चर) अराजकता से मुक्त हो पा रही है। भारत के हर तीसरे विश्वविद्यालय का कुलपति किसी न किसी तरह के भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जा रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। भारतीय विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति गुणवत्ता के आधार पर नहीं हो रही। बहुत दिन नहीं हुए जब जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर में एक ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति हुई जिस पर पहले से ही रिश्वत लेने, हत्या करने, यौन उत्पीडऩ करने जैसे अनेक आरोप थे। अखबार में उनकी नियुक्ति के बाद इन आरोपों की खूब चर्चा हुई। किंतु उन्होंने कुलपति के रूप में अपना कार्यकाल सकुशल पूरा किया। इतना ही नहीं कुछ दिन बाद उन्हें दयानंद विश्वविद्यालय, अजमेर में कुलपति नियुक्त कर दिया गया और उन्हें तभी इस पद से हटाया गया जब उन्हें एक निजी संस्था के मालिक से संलग्नता (एफीलिएशन) के एवज में रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ा गया। यह एक आश्चर्यजनक घटना थी कि वह व्यक्ति किसकी कृपा के बल पर दो-दो विश्वविद्यालयों में कुलपति नियुक्त हो सका?

ये तो हाल ही की बात है कि मोहनलाल सुखाडिय़ा विश्वविद्यालय, उदयपुर में नियुक्त कुलपति पर अनेक आरोप लगते रहे लेकिन प्रशासन की आंख तब खुली जब उन्होंने एक अविश्वसनीय कारनामा कर दिखाया। उन्हें गुरुकुल योजना के अंतर्गत सीकर में एक निजी विश्वविद्यालय खोलने की जांच के लिए संयोजक नियुक्त किया गया। उन्होंने और उनके साथ समिति के सदस्यों ने बिना एक बार भी सीकर गए और बिना तथ्यों का भौतिक सत्यापन किए सीकर में विश्वविद्यालय खोलने की अनुमति की अनुशंसा कर दी। इस घोटाले के खिलाफ जब राजस्थान विधानसभा में आवाजें उठीं तो प्रशासन की नींद खुली। कुलपति और समिति के सदस्यों को निलम्बित कर दिया गया। इन लोगों को इस अपराध के लिए क्या सजा मिली, किसी को पता नहीं? क्या इस अपराध के लिए कुलपति महोदय का निलम्बित होना या सेवा से मुक्ति पर्याप्त सजा थी? इतना जरूर हुआ कि कुलपति महोदय राजस्थान से अपने मूल प्रदेश उत्तर प्रदेश चले गए। वह कुलपति तो अपराधी था ही पर जिन्होंने उसकी रक्षा की, उनका तो बाल-बांका भी नहीं हुआ। अनेक बार ऐसा होता है कि विश्वविद्यालयों में किसी घोटाले के खिलाफ जांच समिति बनती है और जांच समिति जांच करती है और कुछ महत्वपूर्ण लोगों को दोषी पाती है। वह दोषी लोगों के विरुद्ध कार्यवाही की अनुशंसा करती है, लेकिन उस जांच को दबा दिया जाता है और दोषियों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं होती। न दोषियों को दण्ड मिलता है और न जांच की अनुशंसाओं पर कोई कार्यवाही होती है। यह सवाल कोई नहीं उठाता कि वह जांच बैठायी ही क्यों करायी गई?

हाल ही में राजस्थान तकनीकी विश्वविद्यालय, कोटा के एक प्रोफेसर लड़कियों के यौन शोषण के अपराध में पकड़े गए। उनके साथ दलाली का काम करने वाले उनके एक छात्र व छात्रा भी अभी जेल में हैं। जब पुलिस उनके कमरे की तलाशी लेने गई तो पता चला कि विश्वविद्यालय का संचालन तो उनके कमरे से ही हो रहा था। इस भ्रष्टाचार की परिणति क्या होगी अभी कुछ नहीं कहा जा सकता? पर यह चुपचाप होता रहा और लोग चुप रहे?

इस तरह की घटनाएं भारतीय विश्वविद्यालयों के परिसरों में घटित होना आम बात है। यह हाल तो उन विश्वविद्यालयों का है जो या तो केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं या राज्य सरकारों द्वारा चलाए जाते हैं। अब जरा उन निजी विश्वविद्यालयों की तरफ नजर डालते हैं जो पैसे के बल पर कुकुरमुत्ते की तरह पूरे देश में उग आए हैं। उनके परिसर आधुनिक सुख-सुविधाओं से सगिात हैं तथा उनके भवन भव्य और आलीशान हैं। उनके मालिक ही उनके प्रधान (पहले वे कुलपति कहलाते थे अब चेयरपरसन) हैं। उनकी शैक्षिक योग्यता क्या है इस ओर कोई ध्यान नहीं देता। इन विश्वविद्यालयों में किस प्रकार की शिक्षा दी जाती है, यह पता लगाना भी मुश्किल बात है। किंतु अखबारों में छपने वाले उनके बड़े-बड़े और आकर्षक विज्ञापन उनकी गुणवत्ता की झूठी घोषणा जरूर करते हैं। उन विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों से शुल्क आदि के नाम पर कितना पैसे लेकर शोषण किया जाता है, यह कोई नहीं जानता? इन विश्वविद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों को कितना वेतन मिलता है, यह भी किसी को पता नहीं? बेरोजगारी के दौर में शिक्षकों का जो शोषण हो रहा है उसका उत्तरदायी कौन है? निश्चय ही इन विश्वविद्यालयों में कार्यरत सभी शिक्षक यू.जी.सी. द्वारा निर्धारित योग्यताएं रखते हैं किंतु शायद ही किसी अध्यापक को यू.जी.सी. द्वारा निर्धारित वेतनमान मिलता हो?

किंतु इन शिक्षकों की वेदना को सुनने वाला प्रशासन में भी कोई नहीं है। मालिक तो बने ही शोषण के लिए हैं, जिनका काम परिसरों को भव्य व दिव्य बनाए रखना और मनचाहा पैसा वसूल करना है। इन विश्वविद्यालयों की अकादमिक स्थिति क्या है? इसकी झूठी सच्ची जानकारी इनके विज्ञापनों से ही मिल सकती है। जाहिर तौर पर ये विश्वविद्यालय किसी भी विषय में पीएच.डी. की डिग्री तक दे देते हैं। ”जब यह है कि जयपुर के एक पांच सितारा निजी विश्वविद्यालय में वैकल्पिक विषय के रूप में हिंदी विषय स्नातक स्तर पर भी नहीं है किंतु वह हिंदी में पीएच.डी. करवाते हैं। क्या कभी ये जांच हुई कि इस विश्वविद्यालय के पास हिंदी में शोध करवाने लायक कितनी सुविधाऐं हैं? किंतु उनके मालिकों के संबंध इतने ऊंचे लोगों तक हैं कि कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

इस बदहाली भरे माहौल में भाजपा सरकार विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसर भारत में ला रही है तो उनका और वर्तमान विश्वविद्यालयों का क्या हाल होगा इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है? यदि इन विश्वविद्यालय के कुलपति बाहर आए तो वह इस देश का क्या भला करेंगे? वर्तमान कुलपतियों का बदहाल हमारे सामने है। यू.जी.सी. ने यह तय कर दिया है कि जिस व्यक्ति को प्रोफेसर के रूप में दस साल का शिक्षण अनुभव है, वही कुलपति हो सकता है। कॅरिअर एडवांस योजना के लागू होने के बाद विश्वविद्यालय में किसी भी तरह घुस जाने वाला व्यक्ति प्रोफेसर होने के लिए अभिशप्त है। यहां जो भी पंक्ति में खड़ा है, प्रोफेसर बन जाएगा और दस साल का अनुभव होते ही वह कुलपति के रूप में हर प्रकार की तिकड़म से कुलपति का पद पाने में सक्षम हो जाएगा। वह कुलपति के रूप में अपने विश्वविद्यालय को कोई अकादमिक नेतृत्व प्रदान कर सकेगा इसमें पूरा संदेह है?

इसलिए प्रधानमंत्री और भाजपा सरकार को चाहिए कि विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में लाने से पहले वर्तमान में बदहाली झेल रहे इन विश्वविद्यालयों का तो कुछ कायाकल्प कर ले। अकादमिक भ्रष्टाचार की नई दुकानें खोलने से पहले पुरानी दुकानों की विधिवत मरम्मत जरूरी है। सपने देखना बुरा नहीं है, पर यहां हर सपना एक दु:स्वप्न में बदल जाता है। हमें इन दु:स्वप्नों से अपनी शिक्षा को तो बचाने का प्रयास करना ही चाहिए।

वैसे भी शिक्षण संस्थाओं की संख्या बढ़ाने से तो शिक्षा की गुणवत्ता का विकास सम्भव नहीं है। राजस्थान में केवल विधायकों को प्रसन्न करने के लिए छोटे-छोटे स्थानों पर कॉलेज खोल दिए गए हैं। ये ऐसे कॉलेज हैं जिनके पास न अपने भवन हैं, न अपनी प्रयोगशालाएं है, न पुस्तकालय हैं, न खेल के मैदान हैं, न जरूरी अध्यापक हैं फिर भी सरकार गर्व करती रहती है कि उसने उच्च शिक्षा का बहुत विकास किया है। इस संख्यात्मक विकास का क्या अर्थ है?

उधर शिक्षा के क्षेत्र में नकल माफियाओं तथा प्रश्न पत्र लीक माफियाओं का तंत्र जिस तरह विकसित हुआ है उसने प्रदेशों में कार्यरत लोक सेवा आयोगों, माध्यमिक शिक्षा परिषदों तथा विश्वविद्यालयों की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। राजस्थान में 4 साल में कीरब 10 बार प्रश्न पत्र आउट हो चुके हैं। भले मुख्यमंत्री कहें कि इन माफियाओं में उनके मंत्री तथा अधिकारी शामिल नहीं है, किंतु इस तरह के बयानों से कुछ होने वाला नहीं है। रीट की परीक्षा हुई थी- यह पहला अवसर था जब राजस्थान की जनता ने परीक्षार्थियों की सुविधा के लिए भोजन, पानी, ठहरने की सुविधाओं की व्यवस्था अपने आप की, क्योंकि परीक्षार्थियों की संख्या अधिक होने के कारण उन्हें परीक्षा केंद्र दूर-दूर मिले थे। प्रदेश की जनता ने युवकों की पूरी सहायता की, यह उसकी संवेदनशीलता थी। पर प्रश्नपत्र आउट करने वाले तंत्र ने जनता की संवेदनशीलता पर पानी फेर दिया। उस घोटाले में तो मंत्रियों तथा अधिकारियों के नाम भी आये, कुछ गिरफ्तारियां भी हुई और कुछ अधिकारी बरखास्त या निलंबित किए गए। पर सब कुछ दब गया क्योंकि समर्थ लोग उसमें लिप्त थे। शासन को रीट की परीक्षा दुबारा करानी पड़ी।

विदेशी विश्वविद्यालयों के आगमन के बाद कहीं इन माफियाओं का तंत्र राष्ट्रीय से अंतरराष्ट्रीय न हो जाए, यह सम्भावना तो है ही और प्रशासन के समक्ष और भी भयानक समस्याएं आ सकती है। क्या इन सवालों पर पहले से विचार करना जरूरी नहीं है? शिक्षण संस्थाओं की संख्याओं के बढऩे के साथ दु:स्वप्नों की संख्या भी बढ़ेगी, हमें यह नहीं भूलना चाहिए। हम अपने युवकों को इन दु:स्वप्नों से कब तक दण्डित करेंगे?

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