हिंदी लेखन की सीमाएं

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लेखन में, विशेषकर रचनात्मक लेखन की स्वस्फूर्तता, से इंकार नहीं किया जा सकता, जो कई मामलों में अनुभवजन्य होता है। इसलिए यह लेखन वृहत्तर सामाजिक दबाव से कहीं ज्यादा निजी अनुभवों और अक्सर एक सीमित सामाजिक संदर्भ की उपज कहा जा सकता है। यह अचानक नहीं है कि कहानी, कविता और उपन्यासों की रचना इस मामले में, एक व्यक्ति के सीमित संसार के माध्यम से, समाज के सरोकारों और यथार्थ को अभिव्यक्त करती है। दूसरे शब्दों में किसी एक व्यक्ति के अपने समाज में अपनी पहचान की कोशिश भी इसे कहा जा सकता है। स्पष्टत: उस समाज का दायरा, भावात्मक तथा सृजनात्मक रूप में ही नहीं बल्कि भौतिक रूप से भी सीमित होता है। यही रचनात्मकता सामान्यत: अभिव्यक्ति के रास्ते तलाशते हुए कृति के रूप में उपस्थित होती है।

दूसरे शब्दों में ऐसे समाजों में ज्ञान की विभिन्न धाराओं में उन विषयों पर चिंतन, मनन और अन्वेषण नहीं नजर आता जो भौतिक तौर पर हमारे चारों ओर फैली हैं और जिनका विस्तार अनंत है। हिंदी भाषा और उसके पठन पाठन तथा सृजन के संसार की ये सीमाएं छिपी नहीं हैं। आज हम जिस दुनिया में हैं, उसमें ज्ञान विज्ञान ने जो आकार और मुकाम हासिल कर लिया है उस में समाज के उन्हीं वर्गों की पहुंच है जो शिक्षा के स्तर से लेकर संसाधनों के स्तर तक सुविधा संपन्न हैं। यह अचानक नहीं है कि दुनिया ज्ञान की इस संपदा के बंटवारे में, दो दुनियाओं में विभाजित है, एक वह जो इसका सृजन और उपभोग करती है और दूसरी जो उसे सराह पाती है। उसकी आशा करती है, आह भतरती है और ललक के साथ जीती है।

पर यहां हमारा विषय और चिंता कुछ और है। वह है हिंदी में गैर साहित्यिक विषयों पर लेखन। हमें भूलना नहीं चाहिए कि हिंदी का जन्म एक ऐसे समाज में हुआ है जहां ज्ञान से समाज के अधिसंख्य हिस्से को जबरन – राजकीय, सामाजिक, धार्मिक व्यवस्थाओं द्वारा हजारों वर्षों तक वर्जित रखा गया। और जो ज्ञान, विशेषकर संस्कृत के माध्यम से रचा गया, वह अनिवार्य रूप से दर्शन, धर्मशास्त्र और ज्योतिर्विज्ञान तक सीमित रहा है। इन विषयों की वायवीयता छिपी नहीं है।

ज्योतिर्विज्ञान भी, जो थोड़ा बहुत भौतिकीय था वह भी पतित होकर फलित ज्योतिषी में सिमट कर रह गया। अगर चिकित्सा को छोड़ दें तो कृषि, शिल्प या भौतिक विज्ञान जैसे किसी भी विषय पर हमारे आचार्यों ने कलम चलाने की कोई कोशिश ही नहीं की। वैसे भी कर्मकांड की दुनिया में ही बंधे होने के कारण ये विषय उनकी समझ के बाहर थे। यह भी अचानक नहीं है कि वे वेद से आगे कुछ रच ही नहीं पाए या फिर कहना चाहिए कि यह क्षेत्र ही उनके लिए वर्जित था। जब वेद ही ‘अपौरुषेय’ हों तो फिर बचता ही क्या है। तात्पर्य यह कि भारतीय मानस में ऐसी प्रेरणा, जिज्ञासा और ललक रही ही नहीं, या कहना चाहिए उसे इस तरह की हर इच्छा से सायास दूर रखा गया कि वह हर उस प्रश्नाकुलता से बचे जो अपने आसपास की चीजों को देखने और समझने की परंपरा को बनाती हो; जो प्रश्न करने की, जांचने की, हर चीज को चुनौती देने की परंपरा हो।

कालांतर में मध्य एशियाई आक्रामकों और पश्चिम के औपनिवेशिक शासकों के संपर्क से हमने कई बातें सीखीं या उन्होंने सिखा दीं, पर उसमें भी हम एक सीमा से आगे नहीं गए। इसका जैसा प्रभाव बंग्ला और मराठी भाषा में देखने को मिलता है वैसा भी हिंदी में नहीं रहा है। क्यों, इसके उत्तर तलाशने कठिन नहीं हैं।

जो वैज्ञानिक चेतना हम अंतत: 19वीं सदी और उसके बाद पश्चिम के संपर्क से हासिल कर पाए वह भी किस तरह उच्च जातियों और वर्गों तक सीमित हुई इसका ज्वलंत उदाहरण भारतीय समाज में अंग्रेजी की उपस्थिति है। हमने इस पश्चिमी भाषा को ठीक उसी तरह इस्तेमाल किया जिस तरह से हमारे पूर्वजों ने संस्कृत के माध्यम से समाज के बड़े हिस्से को ज्ञान से वंचित रखने के लिए किया था।

अगर हिंदी या भारतीय भाषाओं में गैर साहित्यिक रचना कर्म का टोटा नजर आता है तो यह पृष्ठभूमि उसका एक सीमा तक तो उत्तर देती ही है। साथ ही एक चेतावनी भी कि फिलहाल तो हिंदी में दर्शन, विज्ञान, प्रद्यौगिकी और यहां तक कि अर्थशास्त्र और समाज विज्ञान जैसे विषयों में लेखन नजर नहीं आ रहा है, पर वह दिन दूर नहीं लगता जब भारतीय भाषाओं में सिर्फ कविता, कहानियां और हां, चुटकुले भी रह जाएंगे।

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