विचार के स्वराज की जरूरत

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– अभिषेक श्रीवास्तव

पिछले दिनों बिहार के किसी नेता ने रामचरितमानस पर एक  टिप्पिणी की थी। उस टिप्पणी ने हिंदी जगत की सुप्ति प्रेतात्मापओं को अचानक जगा दिया। दुनिया भर में जब नव वर्ष पर भविष्य की चिंताओं को लेकर विचार हो रहे थे, हिंदी जगत में अचानक तुलसीदास को खलनायक ठहराने की एक मुहिम शुरू हो गई। इसके बरअक्स रामचरितमानस के प्रतिष्ठापन का अभियान भी चल निकला। इस विभाजनकारी बहस में ठीकठाक स्थाापित लेखक भी कूद पड़े। इस विषय पर लेखकों के चुने जाने वाले पक्ष को उनकी जातिगत पहचान से जोड़ कर तौला जाने लगा। यह बहस खत्म भी नहीं हुई थी, कि हिंदी के एक पत्रकार ने एक दिन यह लिखकर बहस का एक और मोर्चा खोल दिया कि उसकी मातृभाषा हिंदी नहीं, भोजपुरी है। इस विषय पर भी हिंदी लिखने-पढऩे वाला छोटा सा बौद्धिक तबका दो विरोधी खेमों में बंट गया।

कोई यदि पूछे कि हिंदी में आजकल ज्ञान, विज्ञान और विमर्श की क्या स्थिति है, तो 2023 के शुरुआती बीस दिनों के उपर्युक्त दो उदाहरण उसे मोटी तस्वीर दिखाने के लिए पर्याप्त होंगे। प्रेमचंद ने कभी लिखा था कि ”साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है।‘’ इसका साफ मतलब यह था कि वह साहित्य से अपेक्षा कर रहे थे कि वह अपने समय की राजनीति की सीमाओं से पार जाए। आज ऐसे तमाम उदाहरण हैं जो प्रेमचंद के कहे का ठीक उलटा अक्स समाज में दिखाते हैं। आज का साहित्य, राजनीति की मशाल से रोशन हो रहा है। समकालीन राजनीति चूंकि विभाजनकारी है, तो साहित्यिक बहसें भी उसी के तय किए खांचों के हिसाब से बंटी हुई हैं। बेशक, यह मंशागत न हो, पर वैचारिक बेपरवाही या राजनीतिक रूप से खुद को सही पाले में रखने के आग्रह से प्रेरित हो सकता है। चूंकि ऐसी बहसें समकालीन राजनीतिक घटनाक्रम से प्रेरित होती हैं, लिहाजा इनसे कुछ ठोस निकल कर आने की संभावना नहीं होती है।

हिंदी के लोक दायरे में इस तरह की बहसें रह-रह कर उठती हैं और बिना किसी नतीजे पर पहुंचे ही खत्म हो जाती हैं। हर बार ऐसा होता है और हर बार हिंदी का लेखक-पाठक समाज नए-नए खेमों में बंट कर निकलता है। जोडऩे वाले विमर्श भी हिंदी में हो रहे हैं, लेकिन वे व्यक्तिगत लेखन तक सीमित हैं। समाज को जोडऩे की मंशा से हिंदी में साहित्य से इतर दूसरे क्षेत्रों में काफी कुछ लिखा जा रहा है परउनका मूल्य तात्कालिक और प्रतिक्रियाजनित है। मसलन, गांधी, नेहरू, टैगोर, सावरकर, राष्ट्रावाद, पर्यावरण, अस्मिताओं आदि पर खूब लिखा जा रहा है और बिक भी रहा है लेकिन ऐसा लेखन चुनावी राजनीति के आपद्धर्म के साथ अनिवार्यत: नत्थी जान पड़ता है। इसीलिए यह किसी विमर्श को जन्म नहीं दे पा रहा, न ही स्थापित समझदारी को किसी नई दिशा में ले जाने जितना अध्योवसायी और श्रमसाध्य है।

ऐेसे साहित्येतर लेखन में इधर के कुछ वर्षों में बेशक तेजी आयी है और कुछ किताबों को ‘बेस्ट सेलरÓ जैसे तमगे मिले हैं। कई मंचों पर हिंदी में साहित्येतर की वापसी का राग भी अलापा जा रहा है। हिंदी के प्रकाशक दावा कर रहे हैं नॉन-फिक्शन का बाजार बढ़ा है, लेकिन हिंदी में यह ‘साहित्येतरÓ न होकर मूलत: ‘कथेतरÓ है। हिंदी के सबसे बड़े प्रकाशन राजकमल की नॉन-फिक्शन सूची को देखें तो बात समझ आती है। यात्रा संस्मरण, रिपोर्ताज जैसी कथेतर विधाओं को छोड़ दें तो इतिहास, राजनीति और समाज विज्ञान के क्षेत्र में 2022 में छपने वाली अधिकतर पुस्तकें समकालीन राजनीतिक परिदृश्य पर एक प्रतिक्रिया या विश्लेषण के रूप में सामने आती हैं जो अतीत के ज्ञान के पुनरुत्पादन से ज्यादा कुछ नहीं है।

 

कुछ प्रयास

ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में गंभीर विमर्श खड़ा करने के उद्देश्य से लेखन के कुछ प्रयास बेशक हुए हैं, लेकिन छिटपुट और बिखरे हुए हैं क्योंंकि इसमें ज्यादातर काम तो अनुवाद का है। हिंदी में मौलिक विमर्श की पुस्तकों के लिए सामाजिक-राजनीतिक माहौल नहीं बन पा रहा है, हालांकि इसके प्रयास जरूर चल रहे हैं। इस संदर्भ में एक आयोजन का जिक्र उपयुक्त रहेगा। पिछले साल अगस्त में दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आंबेडकर विश्वविद्यालय के देशिक अभिलेख-अनुसंधान केंद्र (सीआरए-आइआइएलकेएस) ने राधावल्लभ त्रिपाठी का एक व्याख्यान आयोजित किया था। इस व्यारख्यान में इस प्रश्न पर विचार किया गया था कि ”क्या अट्ठारहवीं, उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में निर्मित ज्ञान-मीमांसाएं भारत के वैचारिक स्वराज या उसकी आत्मावस्थिति की सम्भावनाएं निर्मित करती हैं?’’ इस व्याख्या के बहाने विमर्श के क्षेत्र में ‘वैचारिक स्वराजÓ की कोई चार दशक बाद वापसी हुई है जो स्वागत योग्य है।

आज से कोई सौ साल पहले दार्शनिक कृष्ण चंद्र भट्टाचार्य (केसीबी) ने ‘विचार के स्वराजÓ की बात की थी, जिसे लंबे समय तक भुलाए रखा गया। काफी बाद में जाकर 1984 में इंडियन फिलॉसॉफिकल क्वालर्टरली का ‘विचार के स्वराजÓ पर केंद्रित एक अंक प्रकाशित हुआ जिसमें केसीबी की अवधारणा को चुनौती देते हुए कई लेख प्रकाशित हुए थे। उसके बाद से डी-कोलोनाइजेशन की बहस मद्धम पड़ गई। सन 2014 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार केंद्र में आने के बाद एक बार फिर ‘जड़ों की ओर लौटनेÓ और ‘दिमागों को औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त करनेÓ के नारे अकादमिक परिसरों में दिए जाने लगे।

विडंबना यह है कि इस महत्वपूर्ण व्याख्यान के आगे और पीछे हिंदी में कोई विमर्श खड़ा होना तो दूर, इसकी चर्चा तक नहीं हो सकी। ऐसी संस्थागत कोशिशें इधर बीच कुछ वर्षों में तेज हुई हैं। मसलन, फ्रांचेस्का ओर्सीनी ने ”हिंदी में अंतरराष्ट्रीयवाद’’ पर बीते दो साल में कुछ महत्वपूर्ण व्याख्यान दिए हैं। इस तरह की सारी कोशिशें हालांकि ज्ञान को राजनीति से अलग कर के देखने की कोशिश जान पड़ती हैं और मोटे तौर पर अतीतोन्मुखी हैं। जैसे, त्रिपाठी के व्याख्याान के परिचय में बताया गया था कि ‘Óआसन्न अतीत के प्रति स्मृति भ्रंश का प्रतिकारऔर स्मरणीयों की विस्मृति का प्रतिवाद इस सार विमर्श का ध्येय है।

 

भविष्योन्मुखी विमर्श का टोटा

यह स्थिति कितनी चिंताजनक है या कितनी नहीं, इसका ठीक-ठीक जवाब दे पाना मुश्किल है चूंकि भविष्योन्मुखी विमर्श का टोटा अकेले हिंदी या भारतीय भाषाओं में नहीं है। यह संकट पूरी दुनिया में बराबर है। विश्व प्रसिद्ध नेचर पत्रिका के 4 जनवरी 2023 के अंक में मैक्सा कोजलोव के नाम से एक महत्वपूर्ण अध्य्यन प्रकाशित हुआ है। यह अध्ययन कहता है कि सामाजिक विज्ञान, प्रौद्योगिकी, भौतिक विज्ञान और जीव विज्ञान जैसे क्षेत्रों में 1940 के दशक के बाद से लेकर अब तक नई दिशा देने वाले विमर्श में लगातार गिरावट आती गई है। ज्ञान के किसी क्षेत्र को कोई अध्ययन या विमर्श कितना ज्यादा झकझोर पाता है उसकी गणना के लिए शोधकर्ताओं ने सीडी सूचकांक नाम की एक प्रणाली ईजाद की थी।

इस सूचकांक में (1) से (-1) के बीच करोड़ों परचों, पुस्तकों और अध्ययनों का विश्लेषण किया गया है। किसी ज्ञान-क्षेत्र को सबसे ज्यादा चुनौती देने वाले और विमर्श को बुनियादी रूप से बदल देने वाले प्रकाशन को (1) अंक मिलते हैं जबकि इसके ठीक उलट सबसे ज्यादा उदासीन अध्ययन के लिए (-1) का नियम रखा गया है। अध्ययन ने पाया कि नब्बे के दशक से 2010 तक ज्ञान के सभी क्षेत्रों में बराबर गिरावट आयी है और सभी शून्य तक पहुंच गए हैं। सबसे ज्यादा गिरावट सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में है और सबसे कम गिरावट जीव विज्ञान में है। अध्ययन बताता है कि सन 2000 के बाद जो शब्द किताबों, परचों और शोधों में प्रयोग किए गए, वे सभी ‘सुधारÓ या ‘प्रगतिÓ की अर्थछवियां लिए हुए थे जबकि बीसवीं सदी के शुरुआती दो दशक के दौरान जो शब्द प्रयोग किए जाते थे उनमें मूलभूत बदलाव की अर्थछवि होती थी।

प्रकाशन जगत की तस्वीर भी कुछ ऐसी ही स्थिति बयां करती है। किताबों के व्यापार पर सबसे भरोसेमंद अध्ययन नील्सन का बुकस्कैन माना जाता है। इस अध्ययन में नॉन-फिक्शन को पिछले कुछ वर्षों से किताब बाजार की सबसे बड़ी श्रेणी बताया जा रहा है। पिछले अध्ययन में बताया गया था कि किताबों के समूचे व्यापार में नॉन-फिक्शन का आकारगत हिस्सा 55 प्रतिशत और मूल्यगत हिस्सा 56 प्रतिशत है। इस आंकड़े की हकीकत यह है कि ज्ञान के सभी क्षेत्रों के बीच सबसे ज्यादा बिकने वाली नॉन-फिक्शन किताब अंग्रेजी में सदगुरु के नियतिवादी उपदेश हैं। भारत में किताबों की ज्यादातर शहरी खरीदारी अब ऑनलाइन हो रही है। वहां अमेजन पर सबसे ज्यादा बिकने वाली साहित्येतर किताबों में जापानी जीवनशैली पर लिखी पुस्तक इकिगाइ है। नॉन-फिक्शन में तीन सबसे बिकाऊ श्रेणियां हैं, (1) आत्मविकास, (2) लोकप्रिय मनोविज्ञान, और (3) मस्तिष्क, शरीर और आत्मा।

उपर्युक्त परिदृश्य में सीमित रूप से विचार का एक प्रश्न यह हो सकता है कि हिंदी में साहित्येतर यानी साहित्य के अलावा ज्ञान-विज्ञान के दूसरे क्षेत्रों में विमर्शकारी लेखन क्यों नहीं हो पा रहा है। यह सवाल हालांकि नया नहीं है। समय-समय पर इसके अलग-अलग जवाब दिए जाते रहे हैं। कुछ लोग इसे आरोप मानकर सहमत नहीं होते हैं। उनका कहना है कि साहित्येतर लेखन तो पर्याप्त होता है लेकिन उसकी उपयुक्त चर्चा नहीं होती है। दोनों ही बातों के पीछे मोटे तौर से जो स्थापित धारणाएं हैं उन्हें हम बिंदुवार ऐसे रख सकते हैं: औपनिवेशीकरण से उपजे पूर्वाग्रह, पश्चिमी ज्ञान का अंधानुकरण, यूरोकेंद्रित खंडित ऐतिहासिक दृष्टि, सांप्रदायिक सोच, अज्ञान और उपेक्षाबुद्धि, प्रकाशनों के व्यावसायिक हित, हिंदी के पाठक का सांस्कृतिक संकट, नया/सोशल मीडिया, श्रुति-स्मृति पर आधारित भारत की मौखिक विचार-परंपरा, राजनीतिक रूप से सही पाले में रहने के दबाव, विश्वविद्यालयी शिक्षण और शोध की गुणवत्ता, उच्च, शिक्षा में रोजगार का संकट, सामाजिक विमर्शों में चुनावी राजनीति की केंद्रीयता/आधिक्य, इत्यादि।

विमर्श के संकट के और भी कारण संभव हैं। चूंकि यह संकट नया नहीं है और वर्षों से चला आ रहा है, तो स्वाभाविक प्रश्न बनता है कि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में हिंदी की क्या कोई अपनी विमर्शकारी परिकल्पना है? अगर हां, तो वह क्या है? क्या कोई विभाजन रेखा है कि हिंदी में साहित्येतर विमर्श कब हुआ करता था और कब से होना बंद हुआ या मद्धम पड़ा? अगर वाकई कोई दावा है कि हिंदी में साहित्येतर सृजन में तेजी आयी है, तो उससे कौन सा विमर्श गढ़ा जा रहा है? क्या इसके कोई प्रमाण हैं?

इन सवालों के जवाब अपनी-अपनी सहूलियत से दिए जा सकते हैं, लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि हिंदी में या कहें भारतीय भाषाओं में विमर्श की कोई सामूहिक चेतना या परिकल्पना को परिभाषित कर पाना आज संभव नहीं है। दार्शनिक और गणितज्ञ डीडी कोसांबी ने बरसों पहले इस सच्चाई को इन शब्दों में पकड़ा था: ”भारत में आम तौर से जो ‘सतहीÓ शोध देखा जाता है, वह दरअसल पिछड़े हुए बुर्जुआ का खास लक्षण है जो बिना परिश्रम किए या तकनीक पर पकड़ बनाए लाभ लेने की चाहत रखता है।‘’ यह बात आज भी सही जान पड़ती है।

 

भारतीय साहित्य’ की खोज

आज से तीस साल पहले एजाज अहमद ने अपनी प्रतिनिधि पुस्तजक इन थियरी में भारतीय साहित्य को एक श्रेणी के तौर पर परिभाषित करने की कोशिश की थी। निश्चित रूप से भारत में किसी भी भाषा में अगर कोई किताब लिखी जाती है तो वह कथित रूप से भारतीय साहित्य का ही अंग होगी, लेकिन यह ‘भारतीय साहित्यÓ है क्या? बहुभाषिकता और भाषाओं में सृजन के लिखित इतिहास का अभाव इसका जवाब बहुत जटिल बना देता है। यह समस्या स्वतंत्रता से पहले उतनी नहीं थी क्योंकि उस समय ‘भारतीयÓ जो भी कुछ था वह अनिवार्यत: साम्राज्यवाद-विरोध के विचार के बरअक्स था। स्वततंत्रता प्राप्ति के पचहत्तर वर्ष बाद जब प्रत्यक्षत: भारत किसी का उपनिवेश नहीं है, तो साम्राज्यवाद विरोध या वि-उपनिवेशीकरण का सवाल अप्रासंगिक हो चुका है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि भौतिक गुलामी तो अब नहीं है, लेकिन औपनिवेशीकरण अपने नए रूपों में इतना बहुआयामी और अदृश्य है कि इतने विशाल समाज की ओर से एक निर्धारित लक्ष्य की ओर अग्रसर एक समेकित प्रतिक्रिया पैदा नहीं कर पाता है।

ऐसे में एक ही भारत के भीतर, या कहें एक ही भाषा के भीतर एक साथ अलग-अलग देश-काल के दर्शन होते हैं। मसलन, हिंदी अपने आप में कोई ‘होमोजेनसÓ इकाई नहीं है। साहित्येतर भी कोई होमोजेनस इकाई नहीं है। इस हेटेरोजेनेटी को वैचारिक या सांस्कृतिक बहुलता के संदर्भ में समझे जाने पर गलती हो सकती है। यह केवल अभिरुचि/अनुशीलन आधारित सृजन/अभिव्यक्ति के स्त र पर अलहदा रूपों में सामने आता है और अपने-अपने सीमित दायरे में एक नैरेटिव गढ़ता है, जो बहुत संभव है कि किसी होमोजेनस वैचारिकी को ही पुष्ट कर रहा हो।

पिछले साल आयी साहित्येतर पुस्तककों के उदाहरण लिए जाएं, तो हम देखते हैं कि रमाशंकर सिंह ने मछुआरों या नदी पर आश्रित समुदाय के बारे में एक किताब लिखी है; शरद द्विवेदी ने किन्न रों पर एक किताब लिखी है; धर्मवीर यादव ‘गगनÓ ने पेरियार ललई सिंह पर ग्रंथावली का संपादन किया है; कमलनयन चौबेद्वारा दो भागों में संपादित दलित ज्ञान-मीमांसा; और रूपा गुप्ता की किताब जाति प्रश्न और नवजागरण पर आयी है। ये चारों किताबें प्रकारांतर से सामुदायिक पहचान की राजनीति के दायरे में समेटी जा सकती हैं गोकि ये सभी अपने-अपने क्षेत्र में जरूरी हस्तक्षेप हैं।

इसी तरह शुभनीत कौशिक की इतिहास, भाषा और राष्ट्र, हितेंद्र पटेल की पुस्तक ‘आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थÓ, मणींद्रनाथ ठाकुर की ‘ज्ञान की राजनीतिÓ, विश्वनाथ मिश्र की ‘भारतीय राष्ट्रवाद: राष्ट्रवाद का वि-औपनिवेशीकरणÓ, संदीप जोशी की ‘आज का हिंद स्वराजÓ, जैसी किताबें मोटे तौर पर हमारे ज्ञान के इतिहास और राष्ट्र के संदर्भ में समय और समाज के संकटों को संबोधित करती हैं। बहुत संभव है कि इन पुस्तकों के पीछे की प्रेरणाएं एक जैसी हों, भले इनके लेखकों का अनुशीलन विविध है। बहुत संभव है कि ऐसी ही प्रेरणाओं के चलते आजकल गांधी, नेहरू, कश्मीर और सावरकर पर थोक में कुंजीनुमा किताबों का लेखन भी हो रहा है, लेकिन वहां विद्वत प्रामाणिकता का घोर अभाव दिखता है। इस मामले में उज्जवल भट्टाचार्य की रवींद्रनाथ पर लिखी पुस्तक अलग स्थान रखती है और आज के संदर्भ में पाठक को प्रकाशित कर सकती है।

एक और स्तर पर होमोजेनस विचार हेटेरोजेनस ढंग से गढ़ा जा रहा है। यह अपने अतीत के बारे में या दूसरों से साक्षात्कार के बारे में हो रहे विपुल लेखन से समझा जा सकता है। ऐसी अधिकतर किताबें संस्मण की शक्ल में हमारे सामने आ रही हैं, जैसे कथाकार अखिलेश की अक्सि व्यक्तियों के साथ लेखक के अनुभवों के आईने में बदलते हुए समय को पकडऩे की सहूलियत यहां दिखती है। समय को पकडऩे का यह भी एक ढंग है, लेकिन ऐसा सधा हुआ लेखन कम देखने में आता है। इस श्रेणी में ज्या दातर नोस्टल्जिया प्रेरित लेखन होता है जहां केंद्र में ‘मैं’ होता है और बाकी किरदार परिधि पर होते हैं। यह हिंदी के मध्यवर्गीय लेखक का सांस्कृतिक संकट है कि उसके पास पकडऩे को अब कुछ नहीं बचा है। बहुत पीछे भी वह नहीं देख सकता क्यों कि काफी आगे निकल आया है। यह संकट खासकर पत्रकारिता पर आयी किताबों में ज्यादा दिखता है जहां लेखक कहानियों या रिपोर्टों के बीच में खुद को रखकर प्रथम पुरुष में बात करने लग जाता है, जैसे शिरीष खरे की रिपोर्टों का संकलन या किसान आंदोलन पर मनदीप पुनिया की किताब।

 

अपने-अपने हलके का विमर्श

ये सभी रचनाएं अपने-अपने तईं एक ‘मंच’ हैं, जो अपने-अपने हलके में एक विमर्श खड़ा कर रही हैं और लेखक को नायक बना रही हैं। चाहे कितना ही सीमित क्यों न हो, पर इन सब का छोटा-मोटा बाजार भी है और बाजार की उपयोगिता के हिसाब से पुरस्कार भी है। दिक्कत यह है कि इन सभी को जोडऩे वाला एक केंद्रीय उद्देश्य नदारद है। कोई एक सूत्र नहीं, कोई सेंट्रल अथॉरिटी नहीं, जिनसे ये सृजन-उद्यम संचालित होते हों। इसीलिए कहीं कोई नैरेटिव बनता नहीं दिखता। महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण विषय पर उम्दा किताब लिखने के बाद भी उसके लेखक के अंतर्मन में विमर्श की छटपटाहट बची रह जाती है। स्लावोज जिजेक इस खलिश को परंपरागत ‘मास्ट रÓ(नियंता) की अनुपस्थिति कहते हैं और आधुनिकता व उदारवाद को इसका दोषी मानते हैं।

उनके मुताबिक योरोपीय आधुनिकता ने जिस तरीके से पूरी दुनिया के ऊपर अपना उदारवादी लोकतांत्रिक ढांचा थोपा है और मनुष्य को उसके परंपरागत बंधनों से आजाद किया है, वैसे में मनुष्य के पास पकडऩे को कोई खूंटा नहीं बचा है। उसे यह अहसास दिलाया गया है कि वह आजाद है गोकि यह आजादी पूंजीवादी शक्तियों द्वारा ही नियंत्रित है पर मनुष्य को इसका भान नहीं है। इस तरह वह अकसर अपनी गुलामी के उपकरणों को अपनी मुक्ति के तरीके मान बैठता है।

बौद्धिक तबके के साथ यह संकट और गहरा है क्यों कि वह परंपरागत संरचनाओं से खुद को आधुनिकता और रेशनलिटी के चक्क र में काट चुका है। इस नई स्थिति में ‘मास्टर की वापसीÓ राष्ट्रीय दक्षिणपंथी सत्ताओं के रूप में हो रही है, और पहले से कहीं ज्यादा प्रतिशोधात्मक ढंग से वे वार कर रही हैं। ऐसी बेचैन स्थिति में अभिव्यक्तियां बहुत स्फूर्त ढंग से बिखर जा रही हैं, अवसादग्रस्त हो जा रही हैं, अतीतगामी हो जा रही हैं या फिर सत्ता के पाले में चली जा रही हैं। नए पूंजीवाद का यह नया नियंता किसी को एक-दूसरे से सटने नहीं दे रहा। अपने-अपने खित्तों में अकेले नायक खड़ा कर रहा है। अनजाने में लेखक-समीक्षक और विचारक इसका शिकार हो रहे हैं, जैसे दिलीप मंडल ने पिछले दिनों अनिल यादव की नई किताब को पिछले बीस साल की सबसे बड़ी किताब घोषित कर दिया। इस किस्म की स्व तंत्र और अकेली दिखने वाली मुनादियां दरअसल पूंजीवाद के खड़े किए सांस्कृतिक संकट की उपज हैं।

चूंकि ऐसा केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में हो रहा है, लिहाजा इसका लेना-देना वैश्विक व्यवस्था तंत्र और नतीजतन बौद्धिकता के परिदृश्य में आ रहे बदलावों के साथ है। जर्मन दार्शनिक कैथेरीन मालिबू इस परिघटना को बहुत विस्तार से समझाती हैं। पिछले साल आयी अपनी नई पुस्तक थीफ! अनार्किज्मा एंड फिलॉसफी में वह कहती हैं कि ”कह सकते हैं कि हमें छुट्टा छोड़ दिया गया है। हमें लगता है कि नई प्रौद्योगिकी हमें सशक्त बना रही है लेकिन वास्तव में हम लोग पूरी तरह नि:शक्त बना दिए गए हैं। हमें जिम्मेदार अराजकता का एक सिद्धांत गढऩा होगा। आखिर हम चाहते क्या हैं? और किस किस्म की राजनीतिक सत्ता सामाजिक न्याय की गारंटी दे पाएगी?’’

 

वैश्विक परिघटना

वह जिस जिम्मेदार अराजकता की बात करती हैं, उसके पीछे का तर्क यह है कि पूंजीवाद अब केंद्रीकरण से बहुविध मंचीय स्वरूपों (प्लेटफॉर्म कैपिटलिज्म) में बदल रहा है। पूंजीवाद के इस अराजक स्वरूप के साथ वर्तमान के अराजकतावादी आंदोलनों का घटना क्या कोई संयोग है? इन नए अराजकतावादी मॉडलों के बीच न्यूनरोबायोलॉजी, दर्शन, मनोविश्लेषण, प्रौद्योगिकी और समाज विज्ञान की क्या भूमिका हो? इसके जवाब में वह अधिभौतिक अराजकतावाद का रास्ता सुझाती हैं जो अस्तित्व के लिए संचालित/नियंत्रित किए जाने की जरूरत पर प्रश्न उठा सके और वैकल्पिक राजनीति के सवालों को एक दार्शनिक आधार दे सके, जिनकी आज पहले से कहीं ज्यादा जरूरत इस दुनिया को है।

इसका मतलब यह हुआ कि हिंदी में ज्ञान, राजनीति, इतिहास, समाजविज्ञान, सामाजिक न्याय, आंदोलन आदि पर जो अराजक लेखन हो रहा है, चूंकि वह सभी कहीं न कहीं वैकल्पिक राजनीति के प्रश्नों के साथ अनिवार्यत: जाकर जुड़ता है इसलिए इन सब को आपस में पिरोने के लिए एक दार्शनिक फ्रेमवर्क बनाना होगा। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में विमर्श के अभाव की शिकायत करने के बजाय विमर्श के लिए सैद्धांति-दार्शनिक जमीन बनानी होगी। जाहिर है, यह काम वे नहीं करेंगे जिन्हें इस सवाल का जवाब पता है कि ”किस किस्मि की राजनीतिक सत्ता सामाजिक न्याय की गारंटी दे पाएगी।‘’ चुनावी ढांचे के भीतर दलों की उलटफेर की कामना या किसी रैडिकल विचार वाले दल की सत्ता की सदिच्छा के घिसे-पिटे ढांचे से बाहर निकलना होगा। ‘मास्टर’ की अवधारणा को पूरी तरह तोडऩा होगा। जहां कोई नियंता नहीं होगा, वहीं विशुद्ध राजनीतिक अराजकतावाद पैदा होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि बौद्धिकता के क्षेत्रों में नियंत्रित करने वाले शिक्षक से लेकर प्रकाशक, लिटरेटी एजेंट, बाजार, पाठकीयता और सत्ता तक हर किसी को चुनौती देनी होगी। जिन्हें सवालों के जवाब नहीं पता हैं यानी जो अपने हितों के लिए किसी नियंता के साथ नत्थी नहीं हैं, वे ही जवाब खोजने की दिशा में कुछ कर पाएंगे। बाकी, आज नहीं तो कल इस या उस पाले में जा खड़े होंगे।

‘विचार के स्व राजÓ का जो जिक्र आरंभ में राधावल्लाभ त्रिपाठी के व्याख्यान के संदर्भ में आया था, वह मालिबू के ‘मेटाफिजिकल अनार्किज्मÓ के बहुत करीब बैठता है। हमारे यहां संकट यह है कि कृष्ण चंद्र भट्टाचार्य से लेकर रासबिहारी दास, एके कुमारस्वारमी या कपिला वात्यायन तक ‘विचार का स्वराजÓ लोक बनाम शास्त्र के खांचे में बरता गया है। आज जब दोबारा इसकी बात उछल रही है, तो वापस उसी ब्राह्मणवादी संस्कृत पाठ की ओर वापसी का आह्वान किया जा रहा है जिसे एजाज अहमद ने भारतीय साहित्य को परिभाषित करने में अपनी सबसे पहली अड़चन बताया था, जबकि वैचारिक स्वराज में अंतराष्ट्रीयतावाद के बीज खुद भट्टाचार्य के यहां इमानुएल कांट पर किए उनके काम में मौजूद थे। यहां तक कि कृष्णषमूर्ति और राजगोपालाचारी के यहां भी ये तत्व पाए जाते हैं।

इस ‘स्वराजÓ का सूत्र निश्चित तौर पर ज्ञान-विज्ञान के बौद्धिक उद्यमों को आपस में जोड़ पाने में सक्षम है बशर्ते इसकी दिशा भविष्योन्मुखी हो, प्रतिगामी नहीं। इसकी प्रेरणाएं पहले से ही समाज में मौजूद हैं, केवल भविष्य के पास जाने और उससे संवाद करने की देरी है। पिछले दिनों जामिया मिलिया के पत्रकारिता के छात्रों से संवाद का एक अवसर मिलने पर उन किताबों के बारे में पूछा गया जो वे आजकल पढ़ रहे हैं। जानना दिलचस्प होगा कि महात्मा गांधी के हिंद स्वराज से लेकर भगत सिंह की जेल डायरी, युवाल नोआ हरारी की होमोसेपियन्स, सावरकर, कश्मीर, गोडसे और ऐसे ही विषयों पर जवाब आये। दस में से सात जवाब साहित्येतर विधाओं में थे, तीन साहित्य के। उसमें भी प्रेमचंद और रेणु जैसे नाम चमके। इन छात्रों का इस बात से कोई मतलब नहीं था कि तुलसीदास ने रामचरितमानस में क्या लिखा। इनकी चिंता का विषय यह समाज है जिसमें वे जी रहे हैं और अपने कल को बेहतर बनाना चाह रहे हैं। बेहतर जीवन की आस में यही छात्र बुद्ध और इकिगाई को भी पढ़ रहे हैं।

जिधर उम्मीद है, साहित्य-सृजन और विमर्श का उधर की ओर मुंह कर लेना ही युगधर्म होना चाहिए। हिंदी में साहित्य और साहित्येतर जो कुछ भी जैसा भी रचा जा रहा है, उसके केंद्र में नई पीढ़ी को रखा जाना आज की जरूरत है। हो सकता है कि अगले कुछ समय तक राजनीति के हाथ में ही मशाल रहे और ज्ञान-विज्ञान सब उसका अनुगमन करे, लेकिन बिखरे हुए अराजक बौद्धिक उद्यमों के बीच विमर्श के स्तर पर एकजुटता कायम करने और परस्पर सहकारिता कायम करने के उद्देश्य से एक सैद्धांतिक-दार्शनिक बुनियाद का निर्माण उन सब की प्राथमिक जिम्मेरदारी है जो इस संकट को समझ रहे हैं। इसी बुनियाद पर कल की पीढ़ी संवैधानिक मूल्यों की इमारत खड़ी करेगी।

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