लड़ाई महत्वपूर्ण है, हार जीत नही

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– यूसुफ किरमानी

 

नरेंद्र मोदी, संघ और भाजपा के लिए कन्याकुमारी से लेकर श्रीनगर तक भारत जोड़ो यात्रा एक चुभन बन गई। क्योंकि 7 सितंबर, 2022 को जब यात्रा शुरू हुई थी तो भाजपा के नजूमियों ने ऐलान किया था कि यह यात्रा एक हफ्ते में ही खत्म हो जाएगी। उनकी भविष्यवाणी के हिसाब से राहुल गांधी उस समय तक भारतीय राजनीति के पप्पू थे। लेकिन जब 30 जनवरी, 2023 को यह यात्रा खत्म हुई तो मोदी, संघ और भाजपा को अपनी गलती का एहसास हो गया कि राहुल को रोक पाना अब नामुमकिन होगा। बहरहाल, रोकना तो है ही। भाजपा ने राहुल गांधी के खिलाफ राजनीतिक युद्ध की घोषणा कर दी।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी को सूरत की अदालत से दो साल की सजा और अगले ही दिन लोकसभा की सदस्यता से अयोग्य ठहराए जाने की घटना ने एक ऐसी असाधारण राजनीतिक परिस्थिति की ओर इशारा किया है, जिस पर संजीदा तरीके से विचार किया जाना जरूरी है। हमारा विषय 2024 का चुनाव या विपक्षी एकता नहीं है। हमारा विषय उन परिस्थितियों को लेकर चंद सवालों से जुड़ा है, जिनका जवाब तलाशने की कोशिश की जाएगी। ये सवाल हैं- क्या राहुल गांधी को मोदी, भाजपा और आरएसएस बड़े खतरे के रूप में मान रहे हैं? क्या जिस हिंदू समय की कल्पना संघ और भाजपा ने की है, उसमें किसी व्यवधान ने उसे बेचैन कर दिया है? क्या भारत इजरायलीकरण की तरफ बढ़ रहा है? इजराइल पर सबसे बाद में बात होगी।

नरेंद्र मोदी या भाजपा पिछले करीब दस वर्षों से केंद्र की सत्ता में हैं। लोकसभा के दो चुनाव 2014 और 2019 और कई विधानसभा चुनाव जीतने के बाद संघ और भाजपा इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि हिंदुत्व के तमाम लक्ष्य हासिल करने के बावजूद वे अभी तक जनता की मानसिकता को उस तरह नहीं बदल पाए जैसा 1925 से उनका लक्ष्य रहा है। 2014 से अब तक जिसे हम लोग हिंदू समय के रूप में प्रतिपादित कर रहे हैं, उस हिंदू समय में भारत जोड़ो यात्रा ने पानी फेरने का काम किया। संघ और भाजपा जिस जन मानसिकता को हिंदू समय में बदला हुआ महसूस कर रहे थे, उन्होंने पाया कि महज 3,300 किलोमीटर की एक पैदल यात्रा में जो भारत सामने आया, वह इस हिंदू समय में चौंकाने वाला है। वह आगे चलकर चुनौती भी देगा। कुल नतीजा यह हासिल हुआ कि राहुल गांधी जैसा नेता और भारत जोड़ो यात्रा जैसे कार्यक्रम, उसके लक्ष्य में अभी भी बाधा हैं।

नरेंद्र मोदी, संघ और भाजपा के लिए कन्याकुमारी से लेकर श्रीनगर तक भारत जोड़ो यात्रा एक चुभन बन गई। क्योंकि 7 सितंबर 2022 को जब यात्रा शुरू हुई थी तो भाजपा के नजूमियों ने ऐलान किया था कि यह यात्रा एक हफ्ते में ही खत्म हो जाएगी। उनकी भविष्यवाणी के हिसाब से राहुल गांधी उस समय तक भारतीय राजनीति के पप्पू थे। लेकिन जब 30 जनवरी, 2023 को यह यात्रा खत्म हुई तो मोदी, संघ और भाजपा को अपनी गलती का एहसास हो गया कि राहुल को रोक पाना अब नामुमकिन होगा। बहरहाल, रोकना तो है ही। भाजपा ने राहुल गांधी के खिलाफ राजनीतिक युद्ध की घोषणा कर दी। भारत जोड़ो यात्रा जब बीच में दिसंबर 2022 में दिल्ली पहुंची थी और लाल किले पर राहुल का जो भाषण हुआ था, उसमें अडाणी-अंबानी के जरिए मोदी पर सीधा हमला और आरएसएस के भारत को धार्मिक आधार पर बांटने की साजिश की बात प्रमुख थी।

राहुल गांधी ने जब तमिलनाडु के कन्याकुमारी से यात्रा शुरू की थी और जब यात्रा ने केरल में प्रवेश किया तो उसी समय से अडाणी-अंबानी और संघ उनकी मिसाइल के निशाने पर रहे। 24 जनवरी, 2023 को जब हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट के जरिए भारत को बताया गया कि अडानी नामक धनकुबेर ने कैसे मोदी सरकार की छत्रछाया में धोखाधड़ी से दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में दूसरा स्थान बना लिया है। तो पहली बार राहुल के आरोपों की पुष्टि कोई अंतरराष्ट्रीय रिसर्च फर्म कर रही थी। फिर 6 फरवरी 2023 को राहुल के लोकसभा में भाषण ने मोदी की चिंता को बढ़ा दिया। मोदी, संघ और भाजपा ने यह मान लिया था कि इस हिंदू समय में भारत के लोगों की मानसिकता बदल चुकी है और वे 2024 का चुनाव जीतने के बाद एक दलीय प्रणाली लाकर भारत को पूरी तरह हिंदू राष्ट्र में बदल देंगे। लेकिन राहुल गांधी और उनकी भारत जोड़ो यात्रा ने सब कुछ बदल कर रख दिया है।

मोदी और उनके मातृ संगठन को पहली बार भारत की धर्मनिरपेक्ष मानसिकता से चुनौती नहीं मिली है। जिस मानसिकता को वह बदला हुआ महसूस कर रहे थे, उसे उन्हीं के हिंदू समय में पप्पू कहे जाने वाले राजनेता ने पटकनी देने की कोशिश की है। मोदी, संघ और भाजपा अतीत से सीखने को तैयार नहीं हैं। संघ के लक्ष्य में लंबे समय तक भारत की आजादी का आंदोलन बाधा रहा। हिंदू-मुसलमान मिलकर आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। जनता कांग्रेस को अंगीकार कर चुकी थी। उसमें धर्म ध्वजा का कहीं दूर दूर तक अता पता नहीं था। फिर हिंदू महासभा और अंग्रेज टू नेशन (दो राष्ट्र) थ्योरी लेकर आए, जिसके सब्जबाग से जिन्ना प्रभावित हुए। लेकिन वह हवा के झोंके की तरह था। काफी मुसलमान पाकिस्तान नामक नए देश में चले गए लेकिन बंटवारे के बावजूद मुसलमानों की बड़ी आबादी ने भारत को ही अपना देश चुना।

आरएसएस धार्मिक आधार पर हुए बंटवारे से खुश था लेकिन मुसलमानों की बड़ी आबादी के भारत में रुकने से नाखुश था। महात्मा गांधी की शहादत की साजिश करके बड़े पैमाने पर हिंदू-मुस्लिम दंगे की योजना बनी लेकिन हत्यारे नाथूराम गोडसे के पकड़े जाने ने सारी योजना पर पानी फेर दिया। संघ की गतिविधियां, जो उस समय हिंसक रूप ले चुकी थीं, तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को उस पर पाबंदी लगानी पड़ी।

1992 में जब संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों की कोशिश से अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिराया गया तो संघ को अपनी मंजिल करीब दिखी। लेकिन हकीकत में मंजिल दूर थी। गुजरात में 2002 में जब भयानक जनसंहार हुआ तो दो शब्द सामने आए – गुजरात प्रयोगशाला और गुजरात मॉडल। गुजरात प्रयोगशाला राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के उस प्रयोग की ओर इशारा था, जिसका सपना 1935 में संघ की स्थापना के समय देखा गया था। इस प्रयोग ने हिंदू समय की बुनियाद डाली। इसी के दम पर 2014 और 2019 का लक्ष्य हासिल हुआ।

मीडिया, न्यायपालिका, चुनाव आयोग, कार्यपालिका, केंद्रीय विश्वविद्यालय, चयन आयोग, धनकुबेर, सुरक्षा बल… यानी कोई ऐसा क्षेत्र नहीं बचा, जो हिंदू समय में प्रभावित न हुए हों। लेकिन जब अंतिम फतह की घोषणा होने वाली थी, उसमें राहुल गांधी नामक पलीता लग चुका है। बेशक 2024 का चुनाव भाजपा फिर से जीत जाए और किसी मोदी की जगह कोई योगी आ जाए, एक बात जनता के दिमाग में बैठ गई है कि उसे ठगा गया है। ऐसा क्यों कर हुआ, जब उससे कोरोना भगाने के लिए थाली-ताली बजवाई जा रही थी, जब उसे मुसलमानों से नफरत सिखाई जा रही थी तो देश का एक उद्योगपति तेजी से अमीर लोगों की सूची में चढ़ता चला जा रहा था। यह क्या जादुई करिश्मा था। सफलता की झूठी गढ़ी गई कहानियों का जल्द ही पर्दाफाश हो गया। वह भी महज राहुल गांधी के जुमले से। जिस मानसिकता को बदलने की बात संघी प्रयोगशाला के ब्लैकबोर्ड पर लिख दी गई थी, उसी मानसिकता के दिमाग में यह बैठ चुका है कि झोला उठाकर चल देने का आशय यही था कि मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं है।

देखा जाए तो 2024 का आम चुनाव जनता की इसी मानसिकता की परीक्षा साबित होगा लेकिन बदलाव में कई दशक लग जाते हैं। जरूरी नहीं कि जनता 2024 के आम चुनाव में अपनी सही मानसिकता के हिसाब से हिंदुत्व की कुर्सी को हिला दे, नतीजा आएगा, बेशक देर हो। जनता को ठगी समझ में आ गई है।

कांग्रेस और विपक्ष को अब समझ आ रहा होगा कि राहुल गांधी की छवि खराब करने पर मोदी, संघ और भाजपा क्यों आमादा हैं। राहुल को शुरुआत में करोड़ों रुपए खर्च करके पप्पू घोषित किया और कराया गया। अब जब एक झटके में उस पप्पू ने नकाब उतार दी है तो घेरने का हथकंडा अपनाया गया। इसकी रूपरेखा यह है कि राहुल को कानूनी रूप से घेरो, फिर से छवि खराब करो, लगातार राहुल की छवि खराब रखने के लिए कोई न कोई शोशा छोड़ते रहो। मोदी और भाजपा को यह लग रहा है कि ऐसा करने से बाकी विपक्षी दल कांग्रेस को राहुल की वजह से अकेला छोड़ देंगे। विपक्षी एकता का सपना चकनाचूर हो जाएगा। कांग्रेस के कार्यकर्ता जब राहुल को बुरी स्थिति में फंसा हुआ पाएंगे तो वे भी उनका साथ छोड़ जाएंगे। यानी राहुल पर काबू पा सके तो आसन्न खतरा टल सकता है। मोदी और भाजपा का राहुल गांधी को गिरफ्तार करने का प्रयोग अभी बाकी है। लगता नहीं कि उस प्रयोग को किए बिना मोदी और भाजपा मानेंगे। राहुल पर इतने ज्यादा केस लाद दिए जाएंगे कि उन्हें आए दिन अदालतों में जाना पड़ेगा। यह भी छवि खराब करने और राहुल नामक खतरे से छुटकारा पाने का प्लान है।

 

 

क्या वोट के लिए थी भारत जोड़ो यात्रा?

राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कांग्रेस के लिए वोट मांगने नहीं निकले थे। उन्होंने जनता को उस डर और नफरत के बारे में बताया, जिसे मोदी, भाजपा और आरएसएस ने जनता की मानसिकता में बैठा दिया है। भाजपा को दरअसल यही बुरा लग रहा है। अगर राहुल गांधी अपनी पार्टी की बात करते या वोट मांगते तो भाजपा उनकी यात्रा से खुश होती। क्योंकि उसे पता था कि जनता फिलहाल कांग्रेस को जिंदा करने के मूड में नहीं हैं। भारत जोड़ो यात्रा की रूपरेखा जिसने भी तैयार की, उसकी समझदारी की तारीफ करनी होगी। उसने जनता के उस मनोविज्ञान को पकड़ा, जिसे भाजपाई मीडिया ने कुंद बना दिया है। भाजपा उत्तरी भारत के राज्यों में 38 से 40 फीसदी वोट लेकर ही सत्ता पर काबिज है और खुद को देश की आवाज बताती है। लेकिन सच तो यह है कि देश की 60 फीसदी जनता अभी भी उसे वोट नहीं दे रही है। भारत जोड़ो यात्रा उसी 60 फीसदी जनता की उम्मीदों को जगाने के लिए थी। बचे हुए 40 फीसदी में अगर 10 फीसदी वोट या जनता किसी भी कारण से भाजपा को छोड़ते हैं तो भाजपा के चारों खाने चित्त होने में देर नहीं लगेगी। भाजपा, मोदी, संघ राहुल गांधी की उसी कोशिश से डर गए हैं।

आरएसएस के सौ साल पूरे होने में अभी दो वर्ष बाकी हैं। उसने उत्सव की तैयारियां शुरू कर दी हैं। लेकिन सौ साल पूरे होने से पहले उनके राजनीतिक मुखौटे को ध्वस्त करने की लड़ाई शुरू हो चुकी है। और यह सब राहुल गांधी के कारण हुआ है। कल तक कहा जा रहा था कि भाजपा के मुकाबले कौन, लेकिन उस मुश्किल सवाल का हल तो निकल आया है। नतीजे जब भी आएं लेकिन उसकी जमीन तैयार हो चुकी है। लोगों को सोचने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि उन्हें वास्तविक मुद्दों से दूर कर धर्म के जाल में फंसा दिया गया है। आप किसी भी राज्य के विधानसभा चुनाव की भाजपाई तैयारी देख लीजिए। कर्नाटक उसका ताजा उदाहरण है।

कर्नाटक में एक महीने बाद चुनाव हैं। वहां भाजपा की सरकार है। कर्नाटक सरकार ने 24 मार्च को मुसलमानों का चार फीसदी आरक्षण खत्म करके उसे वोक्कालिगा और लिंगायत समुदाय में बांट दिया है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कर्नाटक में 26 मार्च, 2023 को मुसलमानों को आरक्षण देने के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया और कहा कि हमने अब उसे खत्म कर दिया है। अमित शाह ऐसा बयान इसलिए दे रहे हैं कि कर्नाटक की जनता के दिमाग में बारिश में भीगते राहुल गांधी का फोटो अंकित हो गया है। वह भाजपा के हिंदुत्व के चक्कर में नहीं पड़ रहा है। कर्नाटक में आए दिन स्वतंत्रता सेनानी टीपू सुल्तान पर भद्दी टिप्पणियां की जा रही हैं, ताकि मुसलमान प्रतिक्रिया दें। लेकिन कर्नाटक का माहौल शांत बना हुआ है। मात्र इस शांत माहौल से भाजपा और संघ बौखला गए हैं। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के आए दिन कर्नाटक के दौरे हो रहे हैं।

 

परिस्थितिजन्य साक्ष्य

राहुल गांधी को लेकर राजनीति का गहन विश्लेषण करने के साथ-साथ उन तथ्यों को जानना जरूरी है, जिनके आधार पर उनके खिलाफ सारा तानाबाना बुना गया। इसे दर्ज किया जाना इसलिए भी जरूरी है ताकि भविष्य में राजनीति को समझने में मदद मिल सके और आसानी रहे। इसे  परिस्थितिजन्य साक्ष्य इसलिए कहा जा रहा है कि कैसे किसी राजनेता को घेरा जाता है, उसका यह आदर्श उदाहरण है। राहुल गांधी ने 2019 में आम चुनाव के दौरान कर्नाटक की रैली में कहा था कि सारे चोर एक खास नाम वाले लोग ही क्यों होते हैं। गुजरात में सूरत के भाजपा विधायक पूर्णेश मोदी ने कोर्ट में मानहानि का केस कर दिया। अक्टूबर 2021 में नोटिस जाने पर राहुल गांधी ने सूरत की स्थानीय अदालत में जाकर बयान दर्ज करा दिया। राहुल ने उस बयान में साफ कहा कि उन्होंने चुनाव रैली में वह बयान दिया था, उनका इरादा किसी जाति या समुदाय को ठेस पहुंचाने का नहीं था। यही वाजिब बात भी थी कि नेता चुनावी रैलियों में कुछ भी अंट शंट बोल देते हैं। याचिकाकर्ता पूर्णेश मोदी 2022 में हाईकोर्ट पहुंचे और अपनी ही याचिका पर स्थगन आदेश (स्टे) यह कहकर मांगा कि पर्याप्त सबूत नहीं मिल पाए हैं, इसलिए उनकी याचिका पर स्टे दिया जाए। हाईकोर्ट ने स्टे दे दिया।

दरअसल, पूर्णेश मोदी सूरत कोर्ट के जज के तेवर देखकर हाईकोर्ट गए थे। कांग्रेस के नेताओं का आरोप है कि सूरत कोर्ट में जब जज बदला तो पूर्णेश मोदी फिर से सक्रिय हो गए। उन्होंने हाईकोर्ट की अपनी याचिका वापस ले ली और इस तरह सूरत कोर्ट में 16 फरवरी से फिर से अदालती कार्यवाही शुरू हो गई। उसके बाद अदालत ने बहुत तेजी से इस मामले की सुनवाई की। 27 फरवरी को सूरत कोर्ट में दोनों पक्षों के बीच बहस होती है। 17 मार्च सूरत की कोर्ट फैसला सुरक्षित रख लेती है। 23 मार्च को फैसला सुनाया जाता है और राहुल गांधी को मानहानि के इस मामले में दो साल की सजा सुनाई जाती है। 24 मार्च को राहुल को लोकसभा की सदस्यता से स्पीकर ओम बिड़ला अयोग्य घोषित कर देते हैं। इस तरह केरल के वायनाड से एक कांग्रेस सांसद पल भर में पूर्व सांसद बन जाता है।

27 फरवरी से लेकर 14 मार्च तक की गतिविधियां देखें तो आसानी से समझ में आ जाता है कि सत्ता पक्ष के इरादे क्या थे। हम इस बहस को यही पर छोड़ रहे हैं कि बीच में 6 फरवरी को राहुल ने लोकसभा में अडानी समूह का कच्चा चि_ा खोलते हुए जो भाषण दिया, उसके बाद बीजेपी ने राहुल के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया, जो बाद की स्थितियों ने साबित भी किया। राहुल के अडानी पर 6 फरवरी के भाषण के बाद ही उनके लंदन वाले भाषण को मुद्दा बनाया गया और राहुल से माफी को मुद्दा बनाया गया। फिर सूरत कोर्ट ने भी 23 मार्च को राहुल गांधी से माफी मांगने को कहा लेकिन अदालत में राहुल ने इनकार कर दिया। इससे पहले राहुल ने चौकीदार चोर है जुमले पर भी मुकदमे का सामना किया था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें चेतावनी जारी की थी।

 

क्या राहुल बयानों में दबंग हैं   

राहुल को उनके बयानों के आधार पर घेरा गया। राहुल पिछले एक साल से कुछ महत्वपूर्ण बयान दे रहे हैं। ऐसे बयान देने का साहस विपक्ष में किसी नेता ने नहीं किया था। राहुल ने अनगिनत बार कहा कि मोदी सरकार को अंबानी और अडाणी चला रहे हैं। यह छिपी बात नहीं है कि कांग्रेस समेत तमाम राजनीतिक दल देश के पूंजीपतियों से खुलकर चंदा लेते हैं और चुनाव लड़ते हैं। चुनाव जीतने के बाद उन्हीं पूंजीपतियों की नीतियों को पल्लवित-पुष्पित करते हैं। राहुल गांधी कांग्रेस के प्रमुख नेता हैं, उन्होंने अंबानी और अडाणी पर हमला करते हुए जरा भी किसी तरह के जोखिम की परवाह नहीं की। महंगे राफेल खरीदने का आरोप जब लगा तो प्रधानमंत्री मोदी ने खुद को देश का चौकीदार घोषित कर दिया। राहुल गांधी ने फौरन जुमला कसा – चौकीदार चोर है। फिर 2019 में नीरव मोदी, ललित मोदी… आदि मोदी नामों को गिनाते हुए राहुल ने कहा – मोदी नाम वाले ही क्यों चोर होते हैं। मोदी ने आरएसएस पर भी जमकर हमला बोला। माफीवीर सावरकर पर भी राहुल शुरू से हमलावर हैं। कांग्रेस के तमाम नेता जब संघ के खिलाफ बोलने से कतराए तो राहुल ने सीधा हमला किया। इस तरह राहुल जिन बयानों के दम पर खुद को बार-बार निडर बताते हैं, न डरने की बात कहते हैं, भाजपा ने उन्हें चुप कराने के लिए उनके बयान को ही आधार बनाया। अब सचमुच में राहुल के सामने चुनौती है या तो वह बयानों का दबंगपना छोड़ देंगे या फिर और भी खूंखार होकर आरएसएस और उसके राजनीतिक मुखौटे भाजपा पर बयानों से हमलों का नया सिलसिला शुरू करेंगे।

हालांकि इसी देश में कांग्रेस के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस की बुजुर्ग नेता सोनिया गांधी के लिए कई भद्दे शब्दों का इस्तेमाल किया। जिसमें कांग्रेस की विधवा और जर्सी नस्ल की गाय तक कहा गया। 23 मार्च 2023 को कांग्रेस सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री रेणुका चौधरी ने सूरत कोर्ट के फैसले के बाद ट्वीट किया कि ”इस क्लासलेस अहंकारी ने मुझे राज्यसभा में शूर्पणखा कहा था। मैं उसके खिलाफ मानहानि का केस करूंगी। अब देखेंगे कि अदालतें कितनी तेजी से एक्शन लेंगी।‘’ हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 7 फरवरी 2018 को रेणुका चौधरी के लिए शूर्पणखा शब्द का इस्तेमाल किया था। चूंकि मोदी ने संसद में यह बात कही थी तो भारत के अजीबोगरीब कानूनों के मुताबिक संसद में दिए गए बयान पर मानहानि का केस नहीं बनता है लेकिन चुनावी रैली या संसद के बाहर ऐसा बयान देने पर मानहानि बनती है। यहां यह बताना जरूरी है कि मोदी ने सोनिया गांधी के खिलाफ जिन शब्दों का प्रयोग किया वे चुनावी रैलियों में ही बोले गए थे। उन्होंने कांग्रेस सांसद शशि थरूर की पत्नी स्वर्गीय सुनंदा पुष्कर को ”50 करोड़ की गर्लफ्रेंड’’ जैसा बयान दिया था। अगर यहीं पर नरेंद्र मोदी के बयानों और राहुल के बयानों की तुलना कर ली जाए तो सामने जो तस्वीर आती है, उससे लगता है कि मोदी के बयानों में अहंकार और विपक्ष का मजाक उड़ाना मुख्य उद्देश्य है। उनके मुकाबले राहुल गांधी के बयान निर्भीकता से एक जिम्मेदार विपक्षी नेता के बयान होते हैं।

 

कांग्रेस और विपक्ष क्या करे

यह बहुत साफ है कि अगर राहुल गांधी को मोदी और भाजपा घेर नहीं पाए तो राहुल गांधी ने जनता के दिल-दिमाग में अडाणी को लेकर मोदी सरकार की जो छवि बैठा दी है, उसका असर देर-सवेर नजर आएगा। अब जरूरत है कि कांग्रेस और विपक्ष लामबंद होकर राहुल गांधी के साथ खड़े रहें। राहुल गांधी को बोलने से न रोका जाए। उनकी लाइन सही है। उनके निशाने पर धोखाधड़ी करने वाला धनकुबेर और उसे संरक्षण देने वाली पार्टी और उसका नेता है। विपक्ष भाजपा के मुकाबले शोशा छेडऩे में नाकाम है। जनता का साथ शोशागीरी वाले आंदोलनों से मिलेगा। अन्ना हजारे आंदोलन, जो भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर 2011 में आरएसएस से जुड़े प्रॉक्सी संगठनों ने खड़ा किया था, वह शोशागीरी आंदोलन का सबसे हाल का उदाहरण है। तकनीक के जमाने में जनता को अगर शोशागीरी पसंद आ रही है तो उसी मॉडल के हिसाब से आंदोलन की रूपरेखा बनाई जानी चाहिए।  विपक्ष और कांग्रेस को रोजाना एक नए शांतिपूर्ण अभियान के साथ मोदी सरकार को घेरना चाहिए। रोजाना लीक से हटकर आंदोलन हो। राहुल को सामने रखा जाए। इसका असर होगा। रूस में जारशाही को जनता ने खत्म किया था। लेनिन बस उस आंदोलन के अगुआ थे, जिनके सहारे 1917 में रूसी क्रांति सफल हुई। लेकिन जारशाही को उखाडऩे के मूल में जनता ही थी। हालांकि बोल्शेविक क्रांति और मौजूदा दौर के शोशागीरी आंदोलनों की कोई तुलना नहीं है लेकिन यहां उसका जिक्र सिर्फ जनता के संदर्भ में आया है।

हालांकि कांग्रेस ने राहुल गांधी को लोकसभा से अयोग्य करार दिए जाने के खिलाफ 26 मार्च को देशव्यापी सत्याग्रह करके अपनी ताकत का एहसास कराने की कोशिश की है। लेकिन यह नाकाफी है। कांग्रेस और विपक्ष को रोजाना शांतिपूर्ण विरोध के नए तरीके खोजने होंगे। जनता से संवाद बनाना होगा। तभी वह भाजपा के मुकाबले में आ पाएगी। बेशक इसमें मीडिया का एक बड़ा हिस्सा बाधा है। लेकिन मीडिया और सोशल मीडिया को भूलकर जमीन पर लडऩे का ज्यादा फायदा होगा। पर यक्ष प्रश्न यह है कि क्या राहुल गांधी चक्रव्यूह में घिरे अर्जुन का किरदार अदा कर पाएंगे। भारत जोड़ो यात्रा के बाद राहुल ने जिस तरह खुद को बदला है, उससे तो लगता है कि वह चक्रव्यूह को भेदने में सफल रहेंगे। उन्होंने मछली की आंख पर निशाना साध लिया है।

 

इजराइल में क्या हुआ

इजराइल का ताजा घटनाक्रम भारत में आने वाले खतरे की निशानी का संकेत है। इजराइल की दक्षिणपंथी बेंजामिन नेतन्याहू सरकार ने 23 मार्च, 2023 को एक कानून पास किया है, जिसके तहत अब प्रधानमंत्री नेतन्याहू जब तक जिंदा रहेंगे या जब तक वह और उनकी पार्टी चाहेगी, तब तक वह प्रधानमंत्री रहेंगे। इजराइली संसद के तीन चौथाई सांसद जब तक एक मत होकर नहीं तय करेंगे, तब तक नेतन्याहू को हटाया नहीं जा सकेगा। भारत को छोड़कर तमाम जगह इसकी आलोचना हो रही है। भारत में तो किसी का ध्यान भी इस खबर नहीं गया। लेकिन इजराइल की यह खबर भविष्य की चेतावनी है। इजराइल का विपक्ष जो इस कानून का विरोध कर रहा है और पूरे इजराइल में इसका सड़कों पर जवाब दिया जा रहा है, उसका कहना है कि नेतन्याहू भ्रष्टाचार के तमाम मामलों में लिप्त हैं और खुद को संरक्षण देने के लिए उन्होंने यह तानाशाही वाला कदम उठाया है। नेतन्याहू के भ्रष्टाचार के कुछ मामलों का संबंध तो भारतीय कंपनियों से है। वही नेतन्याहू जिनकी मदद से पूरी दुनिया में राजनीतिक जासूसी के लिए पेगासस को फैलाया गया।

नेतन्याहू पर इजराइल की कोर्ट में भ्रष्टाचार के तीन मुकदमे चल रहे हैं, जिनमें उन्हें सजा होना थी। लेकिन उससे पहले ही वहां यह कानून पास कर दिया गया। नेतन्याहू पर जो तीन आरोप हैं – उनमें मीडिया कंपनियों से डील कर सरकार के पक्ष में खबरें दिलाने, रिश्वत लेने और खास लोगों से महंगे तोहफे लेने का आरोप। इजराइल में भी चंद उद्योगपति ही फलफूल रहे हैं।

भारत के नरेंद्र मोदी और इजराइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू में बहुत छनती है। 24 जनवरी, 2023 को जब हिंडनबर्ग रिपोर्ट अडाणी समूह के खिलाफ आई तो भारत हिल गया। लेकिन फौरन एक योजना को अमली जामा पहनाया गया। दो दिन बाद गौतम अडाणी इजराइल में थे और 31 जनवरी, 2023 को वहां उन्होंने हैफा बंदरगाह को मुंद्रा पोर्ट की तर्ज पर बनाने का अनुबंध किया। यह अनुबंध इस बात का संकेत करने के लिए था कि किसी हिंडनबर्ग रिपोर्ट से अडाणी समूह को फर्क नहीं पड़ता और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसे पहचान हासिल है। लेकिन बाद में हिंडनबर्ग रिपोर्ट से अडाणी समूह के चार लाख करोड़ रुपए डूब गए।

भारत में न्यायपालिका और केंद्र सरकार के बीच रस्साकशी के मामले कभी-कभी सामने आ ही जाते हैं। कानून मंत्री किरण रिजिजू के बयान स्पष्ट बताते हैं कि सरकार न्यायपालिका से खुश नहीं है। न्यायपालिका को पूरी तरह साधने के लिए करतब चलते रहते हैं। कुछ जजों की रीढ़ बची हुई है। इसलिए इन जजों की रीढ़ सीधी करने के लिए भारत में देर सवेर जूडिशल रिफॉर्म (न्यायपालिका में सुधार) की बात छेड़ी जा सकती है या कानून लाया जा सकता है। 2024 में भाजपा अगर वापस आती है तो यह कानून उसके एजेंडे पर हो सकता है।

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