इतिहास विरोधी चरित्र

Share:

– जीतेंद्र गुप्ता

जनमत उद्योग समाज की राजनीतिक चेतना, सामाजिक मूल्य और आर्थिक व्यवहार को केवल पूंजीपति और सत्ताधारी वर्ग के अनुकूल रूप में निर्धारित ही नहीं करते हैं, बल्कि सामान्य और लोकप्रिय इतिहासबोध को भी प्रभावित करते हैं।

 

पूंजीवादी समाजों में जनता के वैचारिक नियंत्रण का सबसे उपयोगी तंत्र फिल्में हैं। जनमत उद्योग का भी फिल्में एक लोकप्रिय माध्यम हैं और संकटग्रस्त समाजों में फिल्म और जनमत उद्योग के दूसरे अन्य साधनों की आक्रामकता तो बढ़ ही जाती है, बल्कि इसके साथ वे प्रतिक्रियावादी भूमिका भी निभाने लगते हैं। इस संदर्भ में भारत के अनुभव कोई भिन्न नहीं हैं। जनमत उद्योग समाज की राजनीतिक चेतना, सामाजिक मूल्य और आर्थिक व्यवहार को केवल पूंजीपति और सत्ताधारी वर्ग के अनुकूल रूप में निर्धारित ही नहीं करते हैं, बल्कि सामान्य और लोकप्रिय इतिहासबोध को भी प्रभावित करते हैं।

नई सदी के आरंभ से हिंदुस्तान में एक बहुत आकर्षक मुहावरा प्रचलन में आया है और इस राजनीतिक मुहावरे का संबंध भारत की सांस्कृतिक परंपरा से है। अंधराष्ट्रवाद में लिपटा और सांस्कृतिक अंतर्विरोधों की अज्ञानता से उपजा यह राजनीतिक मुहावरा है ‘साफ्ट पावर’। मोटे तौर पर जिसका अर्थ ज्ञान, कौशल या सांस्कृतिक स्तर पर हिंदुस्तान की उपलब्धि या वरीयता है और यह वरीयता इतनी विविध और विशिष्ट है कि दुनिया के ताकतवर देशों को भी इस क्षेत्र में दोयम दर्जे का साबित कर सकती है! इसी उन्माद का परिणाम ‘विश्वगुरू’ जैसी घोषणाएं होती हैं। सचाई यह है कि दुनिया में कोई भी देश ‘विश्वगुरू’ नहीं हो सकता है। दूसरी बात ‘साफ्ट पावर’ यानि कला, साहित्य, ज्ञान, कौशल में उत्कष्टता को अर्जित करना ठोस सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक बुनियादों पर निर्भर करता है। सहिष्णुता और समन्वय की भावना न होने पर समाज ‘साफ्ट पावर’ तो क्या, महज सामान्य सामाजिक प्रगति भी अर्जित नहीं कर सकता है। और प्राय: ठोस सामाजिक प्रगति यानि नागरिकों के बीच सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गैर-बराबरी की स्थिति में सत्ता पक्ष द्वारा सांस्कृतिक वरीयता की घोषणा केवल त्रुटि-पूर्ति का मानसिक कारोबार मात्र होती है, जिसका उद्देश्य सामाजिक अंतर्विरोध (यानि सामाजिक गैर-बराबरी) पर पर्दा डाले रखना होता है।

इस ‘साफ्ट पावरÓ के मुहावरे की शुरुआत कला के क्षेत्र में लगान नामक फिल्म से मान सकते हैं, जहां सात समंदर पार के एक खेल यानि क्रिकेट में प्रवीणता हासिल करके हिंदुस्तानियों ने उपनिवेशवादी प्रशासकों को अभिभूत कर दिया और ब्रितानी साम्राज्यवाद पर वैचारिक जीत हासिल की। बिल्कुल इसी तरह की बहस और विश्लेषण कोडूरी सिरिसेला श्री राजामौली द्वारा निर्मित आर.आर.आर. (क्रक्रक्र) के बारे में प्रचलित हो रही है। इस संदर्भित फिल्म के एक गीत को ‘बेहतरीन मौलिक गीत’ की श्रेणी में ऑस्कर पुरस्कार मिलने से बहस में ‘साफ्ट पावर’ का मुहावरा और अधिक प्रभावी हो गया है, बल्कि इस ऑस्कर ने भारत के मध्यवर्गीय जनमानस को राष्ट्र्रवाद की एक नई ऊर्जा से उत्तेजित कर दिया है। राइज, रोर, रिवोल्ट (क्रद्बह्यद्ग, क्रशड्डह्म्, क्रद्ग1शद्यह्ल- क्रक्रक्र यानी जागो, गरजो, बगावत करो आरआरआर) के इस संदर्भित गाने के बोल ‘नाटू-नाटू’ हैं जिसका ढीला-ढाला हिंदी अनुवाद ‘देशी-देशी’ होता है। इस गाने की मौलिकता को समझने के लिए जरूरी है कि उस संदर्भ को स्पष्ट किया जाए जहां यह गीत अपनी ‘मौलिक’ प्रसांगिकता को अर्जित करता है।

औपनिवेशिक शासकों की एक दावत (पार्टी) में ब्रिटिश युवती के बुलावे पर एक आदिवासी हिंदुस्तानी अपने दोस्त के साथ जाता है। इससे आहत होकर ब्रिटिश युवा अधिकारी इन दोनों हिंदुस्तानियों को अपमानित करने की कोशिश करते हैं और यह कोशिश शारीरिक संघर्ष के बजाए सांस्कृतिक चुनौती में तब्दील हो जाती है। युवा ब्रितानी अधिकारी विभिन्न किस्मों के नृत्यों की बानगी पेश करते हुए इन हिंदुस्तानियों के नृत्य कौशल को चुनौती देते हैं। ऐसे में दोनों हिंदुस्तानी अथाह ऊर्जा का प्रदर्शन करते हुए नृत्य करते हैं और चूंकि नृत्य का कोई नाम नहीं होता तो वे इसे ‘नाटू-नाटू’ कह कर ब्रितानी अधिकारियों के सामने पेश करते हैं। और स्वाभाविक-अपेक्षित रूप से इस चुनौती में आदिवासी हिंदुस्तानी सफल होता है। इस तरह से यह गीत-नृत्य भारत की सांस्कृतिक विजय (‘साफ्ट पावर’ की विजय) का पर्याय बन जाता है। और ‘जीत’ हर एक किस्म की अंधभक्ति और राष्ट्रवाद को उन्माद में बदलने के लिए पर्याप्त होती है।

लेकिन इस पूरे सुखबोध में यह प्रश्न सिरे से गायब है कि ‘विजय’ का पहला स्तर प्रतियोगिता होता है। अगर हिंदुस्तानी व्यक्ति सालसा या फ्लेमिंगो जैसी नृत्यशैलियों को जानता ही नहीं तो प्रतियोगिता का सवाल ही नहीं उठता, उसी तरह से अगर ब्रितानी युवा ‘नाटू’ को जानते ही नहीं, तब भी तो प्रतियोगिता संभव नहीं; और प्रतियोगिता के बिना जीत की घोषणा? लेकिन सुनहले पर्दे पर दिमाग के साथ ही सबसे बड़ा धोखा किया जाता है!

इस प्रसंग में दूसरा प्रश्न यह है कि हिंदुस्तानी युवक जब सालसा, फ्लेमिंगो के लिए चुनौती नहीं स्वीकार करता है, तब ब्रितानी युवक ‘नाटू’ की चुनौती क्यों करके स्वीकार कर सकता है?

वास्तविकता यह है कि आर.आर.आर. इस गाने के लिए महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह अपनी कहानी और उससे ज्ञापित होने वाले मूल्य के लिए महत्वपूर्ण है। इसके साथ यह सिनेमा अंतर्राष्ट्रीय जनमत उद्योग के राजनीतिक-आर्थिक हितों को भी गहरे रूप में व्यक्त करता है।

मूल रूप से तेलगू में राजामौली के निर्देशन में निर्मित इस फिल्म के पटकथा लेखक राजामौली के पिता कोडूरी विश्वविजय प्रसाद हैं। इन्होंने बाहुबली और मणिकर्णिका जैसी फिल्मों के लिए कहानी लिखी हैं, जो एक खास धार्मिक विचारधारा से प्रभावित हैं। विजय प्रसाद को कला, संस्कृति के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए 2022 में राष्ट्रपति ने राज्यसभा सदस्य के रूप में नामांकित किया था। अभी वह राज्यसभा सदस्य हैं। इस तरह से समकालीन राजनीति और संस्कृति के आपसी रिश्ते को आंशिक तौर पर समझा जा सकता है।

 

फिल्में और कल्पनाजन्य इतिहास

आर.आर.आर. भव्य और चकाचौंध से भरे सेट पर निर्मित की गई है। दृश्यों की चकाचौंध आधुनिक सिनेमा का पर्याय है और यह चकाचौंध जनमत उद्योग के आधे उद्देश्य यानि दर्शकों को दिग्भ्रमित करने के उद्देश्य को पूरा कर लेती है। आर.आर.आर. की कहानी राम और भीम नाम के दो किरदारों पर केंद्रित है, जिनका अतीत उनके वर्तमान को निर्धारित कर रहा है। भीम गोंड जनजाति से संबंध रखने वाला युवक है जो अपनी ही जनजाति की एक छोटी-सी लड़की को अंग्रेजों की कैद से छुड़ाने के लिए कोशिश कर रहा है। यह लड़की मेंहदी या शरीर पर रेखांकन का अद्भुत कौशल जानती है और अंग्रेज सेनानायक की पत्नी इसी कौशल के चलते उसे बालात् दिल्ली ले आती है। भीम इस लड़की की खोज के लिए दिल्ली आता है और अख्तर नाम के एक व्यक्ति के रूप में यहां रहते हुए गोंड लड़की की खोज अपने साथियों के जरिए से करता है।

वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी पुलिस में राम नाम का एक अफसर है जो अपनी क्रूरता और दमन के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन चूंकि अंग्रेजों को पता लग जाता है कि गोंड लोग दिल्ली आ गए हैं, इसलिए राम उन्हें खोजने की चुनौती उठाता है। समयचक्र में राम और भीम के बीच मित्रता हो जाती है।

वहीं दूसरी ओर राम को अपनी तहकीकात से पता चलता है कि भीम ही गोंड जाति का मुखिया है। भीषण दमन के बाद वह उसे गिरफ्तार कर लेता है और परिणामस्वरूप राम को ब्रितानी शस्त्रागार का प्रमुख बना दिया जाता है। और इसके बाद राम का किरदार एक दूसरी ही रोशनी में दिखाई देने लगता है। पूर्वदृश्यों के जरिए पता लगता है कि राम एक विद्रोही नेता का बेटा है। यह विद्रोही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करता है, लेकिन उसके पास केवल अपनी एक रायफल और गोलियों के सिवा कोई हथियार नहीं। यह विद्रोही भी अंग्रेजी पुलिस में ही काम करता था लेकिन असंतुष्ट होकर नौकर छोड़कर और अपनी रायफल और गोलियों को लेकर एक विद्रोही समूह को इकठ्ठा करता है। इस समूह पर एक बार पुलिस का हमला होता है और यह व्यक्ति कोई और रास्ता न देखकर मानव बम बनकर उस पूरे पुलिस दल को खतम कर देता है।

राम अपने पिता का बदला लेने और उनसे किए गए वायदे को पूरा करने के लिए पुलिस में भर्ती होता है और उसकी कोशिश हथियार पाने की है जिसे लाने का वायदा उसने अपने गांव वालों से कर रखा है। इसके बाद फिल्म की कहानी सुखांत की ओर बढ़ती है। भीम सीता के जरिए राम की असली पहचान से परिचित होता है। राम और भीम साथ मिलकर पूरी अंग्रेजी पुलिस, सेना के साथ निर्दयी अंग्रेज अफसर स्कॉट का भी सफाया कर देते हैं। अपने प्रियजनों से मिलने के साथ इस कहानी का अंत होता है। इस तरह यह सिनेमा मिथक, वर्तमान में इतिहास की रूमानी कल्पना, राष्ट्रवाद और आधुनिक राजनीतिक आकांक्षाओं का एक सुखद, लेकिन कल्पित, मनमोहक रूप है।

इस सिनेमा से मूल्य या ऐतिहासिक समझदारी के रूप में इस एक बात को स्थापित किया गया है कि औपनिवेशिक दौर में (और सामान्य समय में भी) किसी भी व्यक्ति की देशभक्ति का आधार उसका प्रत्यक्ष आचरण (यानि अंग्रेजों या दमनकारी सत्ता की ओर से हिंदुस्तानियों पर गोली चलाना, उनका दमन करना, प्रताडि़त करना) नहीं हो सकता है; इसके बजाए व्यक्ति की सच्ची भावनाएं (जो उसके दिल में छुपी हैं) देशभक्ति का आधार होनी चाहिए और ये भावनाएं वह व्यक्ति ‘सही समय’पर प्रकट करता है – भले ही यह ‘सही समयÓ अंग्रेजी ताकत के कमजोर पडऩे और हिंदुस्तानियों को सत्ता सौपने के समय से मेल खाता क्यों न हो। व्यक्ति की सचाई, ईमानदारी, नैतिकता, देशभक्ति और इस तरह के हर एक उद्दात्त मूल्य के मूल्यांकन का आधार उसका आचरण नहीं, बल्कि समय-विशेष पर स्वयं उस व्यक्ति (या उसके दल, संघ) द्वारा जाहिर (की गई अपनी) भावनाओं से करना चाहिए! आचरण में किया गया दोगलापन, धोखा, अपमान दिखावटी है और हृदय में छिपी देशप्रेम की भावना, जिससे केवल वह व्यक्ति ही स्वयं परिचित है, वही यथार्थ है!

यह दार्शनिक शब्दावली में भाववाद है और यदि थोड़ा अधिक दूर जाने की कोशिश करें तो यह वह भारतीय चिंतन पद्धति है जहां संसार माया है और सचाई आत्म (आत्मचिंतन) है।

 

इतिहास लिखने के लिए तैयार की जा रही जमीन

व्यवहारिक रूप से यह सिनेमा नया इतिहास लिखने के लिए तैयार की जा रही जमीन के एक हिस्से को थोड़ा और अधिक उर्वर करने का प्रयास है। यह सिनेमा कोशिश करती है कि जनमत इस बात को स्वीकारने के लिए अनुकूलित हो जाए कि आजादी के असली नायक वे नहीं हैं, जिन्होंने अपनी जिंदगी जेलों में गुजार दी, फांसी के फंदे पर लटक गए, अंग्रेजी दमन का सामना किया; इसके बजाए आजादी के नायक वे हैं जो अंग्रेजी दौर में अंग्रेजों की सरपरस्ती में हिंदुस्तानी आवाम का दमन कर रहे थे, बड़े पदों पर थे और सुख-सुविधाओं का उपभोग कर रहे थे, अंग्रेजों के लिए प्रशस्तियां लिख रहे थे और मौका मिलने पर माफीनामा भी लिख लेते थे, हिंदुतानी आवाम को जाति-धर्म-संप्रदाय के आधार पर विभाजित कर रहे थे।

अंग्रेजों की सरपरस्ती में  हिंदुस्तानी आवाम का दमन करने वाले लोग नायक इसलिए हैं क्योंकि उनके मन (आत्मा) में हिंदुस्तानी जनता के लिए सच्चा प्रेम था! अंग्रेजी राज में बड़े पदों पर बैठे और सुख-सुविधाओं का लाभ उठा रहे और बिना कुछ किए पेंशन पाने वाले लोग इसलिए सच्चे देशभक्त हैं क्योंकि वे ऐश्वर्यपूर्ण व सुरक्षित जीवन जीने के बावजूद अपने दिल में (आत्मा से) सन्यासी जैसा जीवन बिताते थे! अंग्रेजों के लिए प्रशस्तियां लिखने वाले लोग इसलिए नायक या देशभक्त हैं क्योंकि कि उन्होंने आजादी के बाद अपने सच्चे इरादों और ‘वीर’ भाव को व्यक्त किया!

लेकिन यह याद रखना चाहिए कि भाववाद का टाट बहुत पहले ही उलट चुका है। जनमत व्यक्ति के सच्चे व्यवहार को देखकर ही निर्मित होता है, झूठी और कल्पित मनोकल्पनाओं के आधार पर जनमत नहीं बनता है। ‘मनोकल्पनाएं’ या इरादे का विभ्रम ज्यादा देर नहीं टिकता है। राम का देशद्रोह (अंग्रेजों के साथ होना) अपनी सार्थकता नहीं साबित कर पाता क्योंकि वह जनविद्रोह के बिना ही केवल भगवान राम के धनुष-तीर से ही अंग्रेजों को नष्ट कर देता है! इस तरह यह फिल्म हमारे ऐतिहासिक नायकों के चरित्र को एक खास विचारधारा के अनुकूल ढालने का प्रयास करती है। यह फिल्म इन चरित्रों की वास्तविकता पर पर पर्दा डालती है।

 

कला माध्यमों का जनविरोधी चरित्र

फिल्म आर.आर.आर. भारतीय सिनेमा, साहित्य और कला के इतिहास में शर्मिंदगी का बाइस है। सिनेमा में राम नाम का किरदार आजादी के एक नायक अल्लूरी सीताराम राजू (1897-1924) पर आधारित है। गोदावरी नदी के इलाके में रंपा विद्रोह को जन्म देने वाले सीताराम राजू के बारे में मशहूर है कि वह ब्रितानियों पर समय और स्थान बताकर हमला करते थे। सीताराम राजू अपने उद्देश्यों को लेकर पूरी तरह से स्पष्ट थे और अपने उद्देश्यों का प्रचार करने के लिए समर्पित थे। उच्चजाति में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने खुद को आदिवासियों की जीवनशैली में ढाल लिया था और उन्हीं के हथियारों से ब्रितानियों की नींदे हराम कर दी थीं। उन्हें ‘मान्यम् विरूडू’ (जंगल का योद्धा) की संज्ञा इन्हीं हजारों-हजार आदिवासियों ने ही दी थी। इन्हीं सीताराम राजू को पकडऩे के लिए ब्रितानी अधिकारी जी. रदरफोर्ड ने आदिवासियों पर भयानक अत्याचार किए थे। इस तरह से सीताराम राजू भारत में नक्सली विद्रोह के आदिपुरुष थे।

यह सिनेमा इतिहास के मूल्य को लेकर ही विभ्रम नहीं रचता है, बल्कि मिथक के आधार पर भारतीय समाज की कुत्सित व्याख्या करता है। यह सिनेमा दर्शाता है कि आदिवासी भीम (मुसलमान अख्तर) की तुलना में राम के संघर्ष का मूल्य अधिक है। यह मूल्य इतना अधिक है कि दोनों की तुलना भी नहीं हो सकती है, इसीलिए अंत में भीम राम से ‘ज्ञान’ देने का अनुरोध करता है! यह भारतीय मिथकों का इस्तेमाल करके एक खास धार्मिक विचारधारा के अंतर्गत शोषित समूह पर वैचारिक वर्चस्व कायम करने की कोशिश है।

यह कोई संयोग नहीं कि पिछले साल भीमावरम् में अल्लूरी सीताराम राजू की तीस फीट ऊंची कांसे की मूर्ति का अनावरण किया गया था। लेकिन लोकप्रिय माध्यमों के जरिए सीताराम राजू की जो छवि निर्मित की जा रही है, उसके विपरीत उनका वास्तविक चरित्र इससे बिल्कुल भिन्न था। यदि सीताराम राजू के जीवन मूल्यों को समग्रता से समझेें तो उनके लिए राम नहीं सीता प्रथम थीं। सीता अल्लूरी का जन्म नाम नहीं था, बल्कि उस स्त्री का नाम था जिसे वे प्रेम करते थे। उस स्त्री की मृत्यु होने पर अल्लूरी राम राजू ने अपना नाम अल्लूरी सीताराम राजू कर लिया लिया था। यह प्रेम की अद्भुत मिसाल है, जहां पुरुष अहंकार तो है हीं नहीं, बल्कि प्रेम में अपने व्यक्तित्व को तिरोहित कर देना  सहज-संभाव्य है।

बिल्कुल इसी तरह से भीम का किरदार भी एक वास्तविक चरित्र पर आधारित है। कोमाराम भीम (1900-1940) आदिवासी नेता थे। सामंतवाद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष करने वाले कोमाराम भीम ने सामंती और औपनिवेशिक उत्पीडऩ को गहराई से देखा-समझा था। उन्होंने उस समय प्रतिबंधित हुई कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के साथ एक सहयोगी संगठन भी बनाया था। जल, जंगल, जमीन का नारा उनकी सामंत और उपनिवेशविरोधी विचारधारा का परिणाम था।

यह सिनेमा स्थापित करने की कोशिश करता है कि समुदाय, जाति या संप्रदाय के लिए किया जाने वाला संघर्ष संकीर्ण किस्म की देशभक्ति है, या ठीक से कहें तो देशभक्ति ही नहीं है। लेकिन इसके विपरीत ‘अपनी माटीÓ के लिए किया जाने वाला संघर्ष सच्चा देशप्रेम है और इस देशप्रेम के आगे आदिवासी (और मुसलमान) सभी नतमस्तक होते हैं। लेकिन कोई भी हमारे महान नेताओं की इस शिक्षा को नहीं भूल सकता है कि सच्चे देशप्रेम और भारतमाता का मतलब क्या होता है। सच्चे देशप्रेम का मतलब किसी काल्पनिक भूमि की आराधना, उसकी रक्षा की कल्पना या दावा करना नहीं होता है- भारतमाता का भी मतलब किसी भूमि या कल्पित भूमि की पूजा करना और उस पर नवैद्य चढ़ाना नहीं होता है। सच्चे देशप्रेम और भारतमाता की सच्ची सेवा का मतलब सारे देशवासियों की भलाई के लिए उद्यम करना होता है। यह फिल्म जिस तरह हर एक नारे, यानि सांप्रदायिकता से लेकर जल, जंगल, जमीन का सर्वसंग्रहवाद पेश करती है, वह बनावटी है।

इस सर्वसंग्रहवाद की धूर्तता का अंदाजा सिनेमा के अंत में ‘एत्तारा जेंदा’ (झंडा उठाओ) गाने में भारतीय स्वतंत्रता नायकों के स्मरण से भी मिल जाता है। इन स्वतंत्रता नायकों का चयन इस फिल्म के कहानी लेखक और निर्देशक की नीयत और उनके राजनीतिक उद्देश्यों में कोई विभ्रम नहीं रहने देता है। गुजरात के गर्व के रूप में वल्लभभाई पटेल का जिक्र तो है, लेकिन महात्मा गांधी का संदर्भ तक गायब है, ऐसे में जवाहरलाल नेहरु की उन नायकों में गिनती होना असंभव है। वीर शिवाजी मुगलों के विरुद्ध संघर्ष के प्रतीक है, लेकिन इसके बावजूद ब्रितानियों से संघर्ष की परंपरा में उनका उल्लेख है। भगत सिंह का भी उल्लेख है। यह शायद इसलिए कि सशस्त्र संघर्ष की परंपरा में वैचारिक छल आसान होता है क्योंकि सारा ध्यान ‘शस्त्रÓ पर केंद्रित  हो जाता है, विचार-पक्ष थोड़ा पीछे छूट जाता है। यह सिनेमा किसी भी तरह से भारतीय संस्कृति और प्रतिरोध की भारतीय परंपरा का प्रतिनिधित्व नहीं करता है, बल्कि उसे विकृत रूप में पेश करता है। प्रतिरोध की भारतीय परंपरा समन्वयवादी, जाति-धर्म-सांप्रदायिकता के विभेदों से परे शोषक-शोषित को पहचानने के मूलाधार पर निर्मित है और इस मूलाधार को जनमत उद्योग के विभिन्न माध्यम नष्ट करने की कोशिश में हैं।

Visits: 232

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*