ताकि सनद रहे…

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– कृष्ण प्रताप सिंह

मुझे नहीं मालूम कि आप अगली बार अयोध्या आयेंगे तो इस ध्वंस को किस निगाह से देखेंगे? उस निगाह से, जिससे देखने पर किसी विशाल अट्टालिका के सामने बनी झोपडिय़ां अश्लील लगने लगती हैं या उस निगाह से, जिससे देखने पर लगता है कि अश्लील तो वास्तव में झोपडियों के सामने गर्वोन्मत्त खड़ी अट्टालिका ही होती है! यह भी हो सकता है कि आप इनमें से किसी भी निगाह को तकलीफ देना मंजूर न करें, ‘मूंदुहु आंखि कतइुं कछु नाहीं’ की राह पकड़ ले.

अयोध्या में इन दिनों अजब ‘समां’ है! भगवान राम का मंदिर बनाया जा रहा है और नागरिकों के घर, दुकान व प्रतिष्ठान ढहाये जा रहे हैं,  कुछ इस अंदाज में जैसे राममंदिर की भव्यता की कीमत चुकाने के लिए यह ध्वंस बहुत जरूरी हो! हां, 30 पुराने मंदिरों और 14 मस्जिदों की पहचान भी खतरे में पड़ी हुई है और वे भी ध्वस्तीकरण की अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं।

जब मैं यह पंक्तियां लिख रहा हूं, मुझे नहीं मालूम कि आप अगली बार अयोध्या आयेंगे तो इस ध्वंस को किस निगाह से देखेंगे? उस निगाह से, जिससे देखने पर किसी विशाल अट्टालिका के सामने बनी झोपडिय़ां अश्लील लगने लगती हैं या उस निगाह से, जिससे देखने पर लगता है कि अश्लील तो वास्तव में झोपडियों के सामने गर्वोन्मत्त खड़ी अट्टालिका ही होती है! यह भी हो सकता है कि आप इनमें से किसी भी निगाह को तकलीफ देना मंजूर न करें, ‘मूंदुहु आंखि कतइुं कछु नाहीं’ की राह पकड़ लें और यह तक देखना गवारा नहीं करें कि कैसे राममंदिर की ओर जाने वाली सड़कें चौड़ी करने के लिए लोगों को राजी-खुशी अपने-अपने घर व दुकानें वगैरह खुद अपने हाथों ढहा देने को ‘मना’ लिया गया है-माकूल मुआवजे व पुनर्वास के बगैर!

यकीनन, हिंदी के महत्वपूर्ण कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने ऐसे ही किसी मौके पर पूछा होगा-

यदि तुम्हारे घर के

एक कमरे में आग लगी हो

तो क्या तुम

दूसरे कमरे में सो सकते हो?

यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में

लाशें सड़ रही हों/तो क्या तुम

दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?

 

अपनी इसी कविता में आगे उन्होंने यह तक कह डाला था कि अगर आपका जवाब ‘हां’ है तो उन्हें आपसे कुछ नहीं कहना।

लेकिन मैं आपसे ऐसा कुछ भी पूछने या कहने नहीं जा रहा। क्योंकि जिन सवालों का जवाब पहले से पता हो या उसके मिलने की कतई उम्मीद न हो, वे पूछे नहीं जाते।

फिर आज की तारीख में किसे नहीं मालूम कि हमारे सत्ताधीशों को जो ‘नई अयोध्या’ अभीष्ट है, उसका अस्तित्व में आना इस अयोध्या के, जिसका ज्यादातर वैभव अवध के नवाबों के वक्त का है, ध्वंस के बगैर संभव ही नहीं है और वहीं मंदिर निर्माण की सारी बाधाएं दूर कर लेने के बाद वे अपने इस अभीष्ट की राह में आने वाली कोई भी बाधा बर्दाश्त नहीं करने वाले। अन्यथा उनसे बेहतर कौन जानता है कि इस अयोध्या का इतिहास, जिसे वे उसके वर्तमान के साथ ही समेट देना चाहते हैं, अवध के नवाबों के बगैर पूरा नहीं होता। यहां तक कि उनकी बेगमों के बगैर भी नहीं।

हां, बेगमों ये याद आया। जिस अनूठी तहजीब के कंधों पर इन नवाबों की पालकियां ढोई जाती थीं, उसमें उनकी बेगमें कहीं ज्यादा आन-बान व शान से मौजूद हैं। इस कदर कि उनसे जुड़े अनेक रोचक व रोमांचक और अच्छे व बुरे प्रसंग आज भी लोगों की जुबान पर रहते हैं।

इन बेगमों की बेरहम तुनुकमिजाजी के लिए अयोध्या में आज भी कोई उनको वानरों व चोरों के साथ अवध के तीन दुष्टों में गिनता है तो कोई तत्कालीन पुरुष प्रधान सामंती समाज की बहुपत्नी/उपपत्नी प्रथा के हाथों पीडि़त ठहराकर उन पर तरस खाता है। बकौल अकबर इलाहाबादी:

अकबर दबे नहीं किसी सुल्तां की फौज से,

लेकिन शहीद हो गए बेगम की नौज से !

इस सिलसिले में सबसे काबिलेगौर यह कि ये बेगमें किसी खास उम्र, ओहदे, हैसियत, कुल, खानदान, धर्म या वर्ग वगैरह से नहीं आती थीं। उनके बेगम बनने की सबसे बड़ी योग्यता बस इतनी थी कि वे किसी तरह नवाब की निगाहों में चढ़ जाएं। कई नवाबों ने तो दिल आने पर अपनी बेगमों की कनीजों, मुलाजिमों की ब्याहताओं और कई-कई बच्चों की मांओं को भी अपनी बेगम बनाने से गुरेज नहीं किया। इसीलिए बेगमों के बीच मानवीय चरित्र का प्राय: हर रूप व रंग नजर आता है। अवध की गंगाजमुनी तहजीब पर उनकी शोखी का ही असर है कि उनके रहने की जगहें हुस्नबाग बन गईं तो कब्रिस्तान ऐशबाग यानी आमोद-प्रमोद की जगहों की संज्ञा पाने लगे और श्मशान घाटों को ‘गुलेलाला’ कहा जाने लगा यानी वह स्थान जहां शोलों के फूल खिलते हंै।

इनकी चर्चा चले तो सबसे पहले बेगम हजरत महल का नाम याद आता है, जो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में देश की आन पर अंग्रेजों के लिए ‘आफत की परकाला’ बन गईं और ‘अवध के ओज तेज की लाली’ कहलाईं। कई लोग दावा करते हैं कि उन्होंने फैजाबाद के ही एक गरीब परिवार में जन्म पाया था और उनका माता-पिता का दिया नाम मोहम्मदी था। लेकिन ऐसा कहने वाले भी हैं कि उनके पिता मियां अंबर फर्रुखाबाद के थे जो नवाब अमजद अली शाह के वक्त लखनऊ आये। उनके साथ उनकी बीवी मेहर अफ्जा और बेटी मोहम्मदी भी थी। बाद में परिस्थितियों के उलट-पलट के बीच यही मोहम्मदी तत्कालीन युवराज वाजिद अली शाह की आंखों में चढ़कर उनके परीखाने में शामिल हुई। अनंतर, वह उनके हरम  में गईं तो अपने ससुर नवाब अमजदअली से बेगम इफ्तिखारउन्निसां का नाम और हजर तमहल का खिताब पाया।

 

नवाब बेगम

बेगम हजरत महल से पहले एक वक्त उन नवाब बेगम की बहादुरी व बुद्धिमत्ता के भी खूब चर्चे थे, जिन्होंने 1764 में अपने इकलौते बेटे नवाब शुजाउद्दौला को बक्सर के ऐतिहासिक युद्ध के लिए विदा करते हुए उनके बाजू पर इमामजामिन बांधा तो माथा चूमकर कहा था, ‘लड़ाई में फिरंगियों को चुन-चुनकर मारना लेकिन खुदा के वास्ते मेरी पीनस उठाने के लिए उनमें से 12 को जरूर बचा लेना।‘ यह और बात है कि उनकी उम्मीदों के विपरीत उस लड़ाई में शुजाउद्दौला को बेहद शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा।

नवाब बेगम का बचपन का नाम सदरुन्निसां था और वह अवध के पहले नवाब सआदत खां बुरहान-उल-मुल्क की बेटी थीं। बेगम बनने से पहले उनकी मां खादिजा खानम की हैसियत सिर्फ एक बांदी की थी, लेकिन पिता ने उनका निकाह, बांदी की बेटी होना छिपाकर, सफदरजंग से किया और बाद में दामाद को ही अपनी गद्दी सौंप दी। नवाब के तौर पर सफदरजंग ने 1739 से 1754 तक अवध की सत्ता संभाली और इस दौरान सदरुन्निसां, सदर-ए-जहां नाम से उनकी इकलौती बेगम बनी रहीं। बाद में उनके बेटे का राज आया तो उन्हें जनाब-ए-आलिया  यानी राजमाता का खिताब मिला।

नवाब बेगम ने कई अवसरों पर अपना बेहद अक्लमंद व होशियार होना प्रमाणित किया था। 1754 में शाह-ए-दिल्ली अहमदशाह के बुलावे पर वह नवाब सफदरजंग के साथ वहां गईं और लौट रही थीं तो सुल्तानपुर के पास घायल नवाब का अचानक निधन हो गया। लेकिन उन्होंने इस बात का तब तक किसी को पता नहीं चलने दिया, जब तक फैजाबाद पहुंचकर सफदरजंग के निधन से पैदा हुई बगावत की आशंका पर काबू नहीं पा लिया।

इतिहासकारों के अनुसार वह दरियादिल और गरीब परवर भी थीं और अपनी रियाया के हर दु:ख-दर्द में भागीदार हुआ करती थीं। कई बार अपनी सेविकाओं की बेईमानियों को भी यह कहकर माफ कर देती थीं कि लाचारी किसी के पास भी उसका ईमान नहीं रहने देती। इसका एक किस्सा यों है कि उनकी एक सेविका सीलन से बचाने के बहाने चांदी के सिक्के सुखाने का काम करती तो उनमें से कुछ चुरा लेती और पूछने पर कह देती कि सूख जाने के बाद सिक्के कम हो गए हंै। वह उसकी चोरी समझ जातीं, फिर भी उसे कुछ नहीं कहतीं।

उन्होंने फर्रुखाबाद की ऐतिहासिक जंग के लिए नवाब सफदरजंग को आड़े वक्त अपने पास से 11 लाख चार हजार अशरफियां दी थीं। लेकिन जब दोनों में अनबन हुई तो नवाब दिल्ली में और बेगम, बेटे शुजाउद्दौला के साथ, फैजाबाद में रहने लगी थीं। फैजाबाद में ही 4 जून, 1766 को नमाज पढ़ते वक्त उनका देहांत हो गया और उन्हें गुलाबबाड़ी में दफ्न कर दिया गया।

 

बहू बेगम

अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला की बेगम उम्मत-उल-जोहरा ने, जो बाद में बहू बेगम के नाम से प्रसिद्ध हुईं, नवाबों की बेगमों की कतार में सबसे ऊंचा दर्जा पाया। उनका जन्म 1733 में हुआ और 1745 में शुजाउद्दौला को ब्याही गईं तो महज 12 वर्ष की थीं। शहंशाह-ए-दिल्ली ने अपनी इस मुंहबोली बेटी के निकाह के लिए दिल्ली के दाराशिकोह महल में जो आयोजन किया, उस पर उन दिनों 46 लाख रुपए खर्च हुए थे।

रसिक मिजाज शुजाउद्दौला के बारे में कहा जाता है कि वह अपनी इस बेगम से बहुत डरते थे और तय शर्त के अनुसार जो रात उसके महल के बाहर गुजारते, उसके लिए उसे पांच हजार रुपयों का हरजाना देते थे। लेकिन यह हरजाना भी उनकी विलासिता को रोकने में कारगर नहीं हो पाया था और एक समय बेगम की हरजाने की आमदनी उनकी जागीरों की आमदनी से ज्यादा हो गई थी। इस आमदनी से ही उन्होंने अपने महल के सहन में चांदी का चबूतरा बनवाया था। 1748 में उन्होंने इसी महल में अपने बेटे आसफुद्दौला को जन्म भी दिया था।

बक्सर की लड़ाई में नवाब शुजाउद्दौला हारे और उनको एक लंगड़ी हथिनी पर बैठकर छुपकर भागना पड़ा तो अंग्रेजों ने उन पर 50 लाख रूपये का तावान-ए-जंग लगा दिया। इस तावान की अदायगी में नवाब का खजाना खाली हो गया तो 20 लाख रुपए उनकी बेगम उममत-उल-जोहरा ने अपने जेवर वगैरह बेचकर दिए। इसके लिए उन्हें अपने सुहाग की नथ तक बेच देनी पड़ी। फिर भी रुपए पूरे नहीं हुए और इलाहाबाद व चुनारगढ़ के इलाके अंग्रेजों के पास गिरवी रखने पड़े। बेईमान अंग्रेजों ने बाद में बकाया रकम अदा किए जाने पर भी ये इलाके खाली नहीं किया ।

उनके पुत्र आसफुद्दौला नवाब बने तो राजधानी फैजाबाद से लखनऊ उठा ले गए। इसका एक कारण बहूबेगम यानी अपनी मां से उनकी पटरी न बैठना भी था। तिस पर वजीरों की रोज-रोज की चख-चख से भी वह आजिज आ गए थे। राजधानी चली गई तो भी बहू बेगम फैजाबाद में अपनी सास नवाब बेगम के साथ रहकर अलहदा हुकूमत करती रहीं। कभी-कभार लखनऊ जातीं तो अपने खासमहल सुनहरा बुर्ज में रहतीं जो रूमी दरवाजे के निकट (किलाकोठी, राजघाट, गोमती के किनारे) स्थित था। वारेन हेस्टिंग्ज भारत आया तो नवाब बेगम की शुजाउद्दौला से कही बात कि बारह फिरंगियों को मेरी पीनस उठाने के लिए बचा लेना, उसके कलेजे में सालती रहती थी। बहूबेगम ने बनारस के राजा चेत सिंह को, जो अंग्रेजों के विरुद्ध झंडा उठाये हुए थे, अपना भाई बना लिया तो हेस्टिंग्ज और जल-भुन उठा। उसने बहूबेगम व आसफुद्दौला की अनबन का लाभ उठाकर उन्हें लुटवा लिया। इतिहास ने इस लूट को बेगमों की लूट के रूप में दर्ज किया, जिसके लिए ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने हेस्टिंग्ज पर महाभियोग भी चलाया।

इस लूट में आसफउद्दौला की भूमिका भी हेस्टिंग्ज से कुछ कम नहीं थी। इसलिए अवध में इसे, बेटे द्वारा अपनी मां की लूट के रूप में भी याद किया जाता है। इसे लेकर आसफउद्दौला पर लगाई जाने वाली कालिख इस तथ्य से और गहरी हो जाती है कि उसकी तंगहाली के दिनों में इस मां ने उसकी फौज की दो बरस की तनखाह अपने पास से दी थी। यह रकम भी उसने अपने बचपन में अपनी गुडिय़ा की शादी के दहेज से इक_ा की थी। इस अभागी मां को 21 सितंबर, 1797 को अपने इस बेटे की मौत भी देखनी पड़ी। जिस दिन आसफुद्दौला का देहांत हुआ तो बहू बेगम लखनऊ के सुनहरे बुर्ज में ही थीं।

बहूबेगम का देहांत गाजीउद्दीन हैदर की नवाबी के दौरान 1816 में हुआ और उन्हें फैजाबाद में जवाहरबाग स्थित उनके मकबरे में दफन किया गया। यह खस्ताहाल मकबरा अभी भी विद्यमान है।

नवाब शुजाउद्दौला की एक और बेगम थीं छत्तर कुंअरि। वे बहराइच के पास स्थित बौड़ी रियासत के एक रैकवार ठाकुर की बेटी थीं। बहूबेगम से सौतिया डाह के चलते विधवा होने के बाद वह बनारस चली गईं और वहीं दुर्गाकुण्ड में रहने लगीं। लेकिन बाद में उनके पुत्र सआदतअली खां अवध के नवाब बने तो वह फिर लखनऊ आयीं और जनाब-ए-आलिया का पद ग्रहण किया। नवाब ने लखनऊ में उनके नाम से छत्तरमंजिल बनवायी तो खुद छत्तर कुंअरि ने अलीगंज का प्रसिद्ध हनुमान मंदिर और गोलागंज की मस्जिद।

बहूबेगम के बाद जिस बेगम का नाम इतिहासकार प्रमुखता से लेते हैं, उनका नाम शम्सुन्निसा बेगम उर्फ दुल्हन बेगम है। शम्सुन्निसा 1769 में फैजाबाद में आसफुद्दौला से शादी रचाकर दुल्हन बेगम बनीं। उनकी शादी में दिल्ली से शाह-ए-आलम व बेगम शोलापुरी भी आई थीं और खूब जश्न मना था। आसफुद्दौला की नवाबी (1775-1797) के दौरान दुल्हन बेगम की तूती बोलती थी। लेकिन वे देशकाल से कितनी परे थीं, इसे इस वाकये से समझा जा सकता है कि 1774 में अकाल पड़ा और रियाया मदद की गुहार लगाती हुई उनकी ड्यौढ़ी पर आई तो उन का भोला सा प्रश्न था-क्या तुम लोगों को पेट भरने के लिए हलवा पूड़ी भी नसीब नहीं होता?

एक बार होली के दिन आसफुद्दौला शीशमहल में दौलतसराय सुल्तानी पर रंग खेल रहे थे तो रियाया ने बेगम पर भी रंग डालने की ख्वाहिश जाहिर की। इस पर बेगम ने ख्वाहिश का मान रखते हुए एक कनीज के हाथों अपने उजले कपड़े बाहर भेज दिए और रंग वालों से उन कपड़ों पर जी भर रंग छिड़का, रंग सने कपड़े महल में ले जाए गए तो बेगम उन्हें पहनकर खूब उल्लसित हुई और दिनभर उन्हें ही पहने घूमती रहीं। वे दुल्हन फैजाबादी नाम से शायरी भी करती थीं।

 

बाद की पीढिय़ां

बेगमों की इसके बाद की पीढिय़ों के किस्से लखनऊ के हिस्से आते हैं क्योंकि फैजाबाद से उनका कोई खास वास्ता नहीं रह गया। सिवा इसके कि उनके इतिहास में समा जाने के बावजूद लोग उन्हें वानरों और चोरों के साथ अवध के तीन ‘दुष्टों’ में ही गिनते रहे। जहां तक वानरों और चोरों की बात है, वे अयोध्या-फैजाबाद के लोगों को कम या ज्यादा, आज भी सताते आ रहे हैं।

इसीलिए आज की अयोध्या में यह बताने वाले ‘ज्ञानी’ भी हैं कि जैसे किसी समाज में घटित होने वाली हर घटना का एक समाजशास्त्र होता है, वैसे ही चोरियों का अर्थशास्त्र भी है, क्योंकि वे भी अंतत: घटनाएं ही होती हैं – दुर्घटनाओं के रूप में ही सही। कदाचित आप प्रतिवाद पर उतरे तो ये ‘ज्ञानी पूछने लगेंगे कि चोरियों का शास्त्र नहीं होता तो कभी माखन और कभी दिल चुराने वाले हमारे इतने अजीज क्यों होते? यह विवेक कहां से आता कि ककड़ी के चोर को तलवार से नहीं मारते या किसी खेत से चोरी से खीरे तोड़ लेने और किसी तिजोरी को तोड़कर हीरे चुरा लेने की सजा एक नहीं हो सकती?

ऐसे ही एक ‘ज्ञानी’ ने एक बार बताया था कि एक समय अवध में चोरियों को चौंसठ कलाओं में शामिल किया जाता था और उनकी बड़ी मान्यता थी। मैंने न उस वक्त उस ‘ज्ञानी’ के दावे का प्रतिवाद किया, न ही कभी उसकी पड़ताल ही की। लेकिन चोरी तो चोरी, अपने बचपन में सुल्ताना जैसे डाकुओं की मान्यता की बाबत मैंने भी बहुत कुछ सुन रखा है। बड़े बुजुर्ग बताते थे कि वह बड़ा ‘दयालु’ व ‘धर्मात्मा’ था और अमीरों को लूटकर गरीबों की मदद करता था। पारसी थियेटर या नौटंकी की कम्पनियां ऐसे ही उसे अपने ‘संगीत’ का नायक थोड़े ही बनाती थीं।

याद आता है, प्रतिवाद न करने से ‘ज्ञानी’ बहुत खुश हुआ था और बोनस के रूप में मुझे यह ‘ज्ञान’ भी दिया था: चोरी-डकैती में फर्क की तमीज अयोध्या के उस सामाजिक विवेक का हिस्सा है, जिसके तहत हम किसी को सड़क पर केले के छिलके से फिसलकर गिरते देखकर तो हंसते हैं, लेकिन कोई ऐसा गिरे कि उठ ही न पाये तो उस पर नहीं हंसते। अयोध्या में डकैती कभी भी चोरी जैसी ‘कला’ नहीं बन पायी क्योंकि वह किसी को केले के छिलके की तरह नहीं फिसलाती, कि वह थोड़ी चोट खाकर उठे और लंगड़ाते-लडख़ड़ाते अपने घर चले जाने में सफल हो जाए, ऐसे गिराती है बेदर्द कि उठा ही न जाए!

इसके बाद तो मैं चुपचाप सुनता और ‘ज्ञानीÓ ज्ञान देता रहा था: वैसे भी चोरी और डकैती का क्या मुकाबला? कोई डकैत क्या खाकर उस चोर जैसी दरियादिली दिखाएगा कि गृहस्वामी प्रतिरोध करने लगे तो उस पर गोलियां चलाने के बजाय उसे चकमा देकर भाग जाए! चोरी के सेब यों ही ज्यादा मीठे नहीं लगते। आदम और हव्वा ने वर्जित फल यों ही नहीं खा लिये थे!

फिर न डकैतियों का इतिहास चोरियों जितना पुराना या समृद्ध है, न ही परंपरा या अनुशासन। जहां तक चोरियों की बात है, उनमें चोरी को चोरी की तरह न कर पाने, हेराफेरी करने या सीनाजोरी पर उतर आने वाले चोरों को कतई ‘कलाकार’ नहीं माना जाता। तब माना जाता है, जब वे देखते-देखते अपने शिकारों की आंखों से काजल निकाल लें और जिनकी आंख से निकालें, उन्हें भनक तक न लगे।

हां, ज्ञानी ने मुझे चोरी के दो गुणी ‘कलाकारों’ का किस्सा सुनाया था। लीजिए, आप भी सुन लीजिए:

जाड़े की एक रात दो चोरों को एक घर में अन्य वस्तुओं के साथ चांदी की एक अद्भुत तश्तरी हाथ लगी। माल बंटा तो जिसे तश्तरी नहीं मिली, काफी मन मसोसने के बाद उसने तय किया कि वह अगली रात उसे, जिसे मिली है, उसके घर से भी उड़ा लायेगा। लेकिन साथी उसकी बदनीयती ताड़ गया! अगली रात सोने से पहले उसने अपनी चारपाई के ऊपर ‘सिकहर’ लटकाया और तश्तरी उस पर रखकर लबालब पानी से भर दी। ताकि कोई उसे जरा भी हिलाये तो पानी छलककर उसके बदन पर गिरे, वह जाग जाए और हिलाने वाले को दबोच ले।

उसके सोते ही बदनीयत साथी दबे पांव उसके घर में घुसा। माहिर था, सो तश्तरी पानी से भरी देख दिमाग दौड़ाया। पास ही बुझे पड़े अलाव से कंडे की राख उठायी और उसके पानी में छुआ दी। राख ने पानी सोख लिया, तो मजे से तश्तरी उतारी और लेकर चलता बना। सोने वाला जागा तो पाया कि ‘खेल’ हो चुका है। वह तुरंत बदनीयत साथी के घर भागा, जो अपने घर के बाहर इत्मीनान से अलाव तापता मिल गया।

पूछा-कैसे आये, तो जवाब देने के बजाय ठंड का अंदाजा लगाने के बहाने उसके हाथ-पैर छुए और इधर-उधर की बात करता रहा। वापसी में गांव के उत्तर तरफ के तालाब में निश्चित गहराई तक घुसकर थोड़ी देर तलाशने के बाद उसने तश्तरी पा ली।

दरअस्ल, उसने अलाव के पास साथी के पैरों को छुआ तो वे एक खास ऊंचाई तक कुछ ज्यादा ही ठंडे लगे थे और उसने समझ लिया था कि वह तश्तरी घर नहीं लाया है। जितनी ऊंचाई तक उसके पैर ठंडे हैं, कहीं उतने ही गहरे पानी में घुसकर ‘दबा’ आया है। फिर तो उसकी पहुंच वाले तालाब का अंदाजा लगाकर तश्तरी ढूंढ़ लेना कोई कठिन काम न था।

एक और रात दोनों अभियान पर निकले ही थे कि सावधान ग्रामीणों ने उन्हें खदेड़ दिया। भागते-भागते उनमें से एक कुएं में जा गिरा, लेकिन ग्रामीणों ने कुएं में रस्सी लटकाई तो उसने उसे पकड़कर निकलने से साफ मना कर दिया। अंदेशा जताया कि वे आधी ऊंचाई तक उठायेंगे, फिर रस्सी छोड़ देंगे और उसकी ‘और’ दुर्गति हो जाएगी। निकाल भी लेंगे तो मार-पीट कर अधमरा कर देंगे। नानी याद दिला देंगे।

तभी भाग जाने में सफल रहा उसका साथी ‘कलाकार’ वेश बदल कर ग्रामीणों में आ शामिल हुआ और यह कहकर ग्रामीणों को लटकायी गई रस्सी कुएं की ‘धरन’ से बांध देने को राजी कर लिया कि उनके पास चोर को निकालने का कोई और तरीका है ही नहीं। रस्सी बंध गई तो दोनों ने आंखों-आंखों में बात की। ग्रामीणों़ में शामिल ‘कलाकार’ एक महिला की नाक से सोने की नथ नोंचकर भागा। ग्रामीणों ने आव देखा न ताव, सबके सब उसके ही पीछे दौड़ पड़े। लेकिन कलाकार था कि हवा से बातें करता हुआ भाग निकला।

बेचारे ग्रामीण उसको पकडऩे में नाकाम होकर लौटे तो कुएं में गिरा ‘कलाकार’ भी ‘धरन’ से बंधी रस्सी के सहारे निकल भागा था।

किस्सा खत्मकर ‘ज्ञानी’ ने निर्णायक टिप्पणी की थी: लेकिन अब ये कलाकार अपनी कला का पहले जैसा प्रदर्शन नहीं करते। करें भी क्यों? जब किसी को रिवाल्वर की नोक पर लेने या उसका घोड़ा दबाने भर से चंद पलों में लाखों के वारे-न्यारे किए जा सकते हों तो उन्हें ठिठुराकर रख देने वाले जाड़े में रात-रात भर जागकर कलाकारी दिखाने की क्या जरूरत?

 

जो खुशकिस्मत हैं!

बेगमों और चोरों के मुकाबले वानर खुशकिस्मत हैं क्योंकि न सिर्फ उनका राज कायम है, बल्कि ‘राम जी की सेना’ और ‘बजरंगबली’ वाली प्रतिष्ठा भी बरकरार है। 1986 में एक फरवरी को फैजाबाद के तत्कालीन जिला जज कृष्णमोहन पांडे ने एक वकील की अर्जी पर बाबरी मस्जिद में बंद ताले खोल देने का आदेश दिया तो धार्मिक-साम्प्रदायिक हलकों में जोर-शोर से प्रचारित किया गया था कि एक वानर उनके न्यायालय में आकर आसन ग्रहण करने के पहले से ही उसकी इमारत की छत पर जा बैठा था और तभी वहां से हटा था, जब ताले खोलने का उनका आदेश ‘सुन’ लिया था। तब कई आस्थावानों के पास इसकी कई चमत्कारिक व्याख्याएं हुआ करती थीं।

अभी भी बाहर से आये श्रद्धालु, पर्यटक और पुण्यार्थी तो वानरों को श्रद्धाभाव से चने व अमरूद वगैरह खिलाते ही हैं, स्थानीय लोग भी उनसे पीछे नहीं रहते। कोई वानरों को वानर  के बजाय बंदर कह दे तो बुरा मानते हैं, सो अलग। लेकिन इस सबके बीच संभवत: उनकी आस्था उन्हें देखने नहीं देती कि कंक्रीट के जंगलों के फैलाव के बीच वानरों का पुराना स्वभाव, जो उनके और अयोध्यावासियों के बीच सामंजस्य का बायस हुआ करता था, तेजी से बदल रहा और उन्हें हिंसा व बरजोरी पर उतरना सिखा रहा है। इसके चलते आम लोग उनसे बुरी तरह ‘डिस्टर्ब’ हैं और अपनी सारी आस्थाओं के बावजूद चाहते हैं कि उनके दैनंदिन जीवन में इनकी बढ़ती दखलंदाजी किसी तरह घटे।

अलबत्ता, वे कोई ऐसा निदान चाहते हैं, जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। यानी आस्थाओं की भी रक्षा हो जाए और वानरों से पीछा भी छूट जाए। लेकिन ऐसा कैसे संभव हो, पूछने पर चुप रह जाते हैं।

अयोध्या में वानरों की जो प्रजाति बहुतायत में पाई जाती है, वैज्ञानिक उसे अपनी भाषा में ‘रीसस मकाकू’ कहते और बताते हैं कि इस प्रजाति के वानर स्वभाव से ही उग्र होते हैं और अपनी जीवनशैली में जरा-सा भी विघ्न पडऩे पर आक्रामक हो उठते हैं। अयोध्या में पहले ऐसे विघ्न बहुत सीमित थे, इसलिए उसके निवासियों को इनकी उग्रता नहीं झेलनी पड़ रही थी। लेकिन अब बढ़ती जनसंख्या के दबाव में नगर के अनियंत्रित व अनियोजित विस्तार ने इन वानरों की जगहों को सिकोड़ डाला है।

अमरूद के वे बाग भी अब कम ही रह गए हैं, जो कभी अयोध्या-फैजाबाद की पहचान और वानरों का अघोषित अभयारण्य हुआ करते थे। ऐसे कितने ही बागों की जगह रिहायशी कालोनियां खड़ी हो गई हैं और वानर बेदखल। अब उनमें से ज्यादातर दिन भर इधर से उधर भगाये जाते रहते हैं, जिससे चिढ़कर कई बार वे ढिठाई और बरजोरी वगैरह पर उतर आते हैं। महिलाएं और बच्चे तो उनकी इस बरजोरी के शिकार होते ही हैं, श्रद्धालु और पर्यटक भी होते हैं, जिनके हाथ से वे उनका प्रसाद व खाने-पीने की चीजें बरबस छीन लेते हैं। कई बार इस चक्कर में खून-खच्चर भी कर डालते हैं।

दूसरी ओर ढीठ वानरों के अलग-अलग झुंडों ने अपना-अपना राज इस तरह बांट रखा है कि उसकी सीमा कहिए या नियंत्रण रेखा का, दूसरे झुंड द्वारा उल्लंघन किए जाने पर उनमें शत्रुओं जैसे टकराव होते हैं। जब भी ऐसा होता है, रास्ते बंद हो जाते हैं, ट्रैफिक जाम हो जाता है और ‘युद्धविराम’ के बाद ही हालात काबू में आते हैं। इन वानरों के डर से, कितनी भी सर्दी क्यों न हो, महिलाएं और बच्चे धूप के सेवन के लिए खुली छतों पर नहीं जा पाते।  महिलाओं के लिए वहां कपड़े, अनाज, सब्जियां व अचार वगैरह सुखा पाना भी मुश्किल होता हैं। शहर के जिन नागरिकों के पास खेती की भूमि या किचन गार्डेन जैसा कुछ है, उनके लिए उनमें सब्जियां आदि उगाना किसी सपने जैसा हो गया है।

उनसे भी ज्यादा दुर्दशा फूलों की खेती करने वाले समुदाय, मालियों की है। अनेक माली, जो अपनी फुलवारियों की बाड़बंदी या निरंतर रखवाली में सक्षम नहीं हैं, फूलों की खेती नहीं कर पा रहे। वे बाहर से फूल खरीदकर लाते हैं और बेचकर जैसे-तैसे पुश्तैनी धंधा बचा रहे हैं। रेल यात्रियों, खोमचे वालों, हलवाइयों, सब्जी व फल विक्रेताओं का अलग ही दर्द है। शायद ही कोई दिन हो जब अयोध्या के विझुत व संचार सेवाओं के उपभोक्ताओं को वानरों के उत्पातों से पैदा हुए व्यवधान व असुविधाएं न झेलनी पड़ती हों।

बेशक, यह समस्या विकास के उस मॉडल की पैदा की हुई है, जिसने हाल के दशकों में शहर में मानव-वानर संबन्धों का संतुलन बिगाड़ डाला है, लेकिन कोढ़ में खाज की स्थिति समस्या की लगातार अनदेखी ने पैदा की है। यह अनदेखी इस तथ्य के बावजूद अब तक बदस्तूर है कि नागरिक चौदह साल पहले से इसकी ओर सरकारों व स्थानीय निकायों का ध्यान आकर्षित करते आ रहे हैं।

शहर के वरिष्ठ मानवाधिकार कार्यकर्ता गोपालकृष्ण वर्मा और उनकी समाजसेवी व लेखिका पत्नी शारदा दुबे ने वर्ष 2008 में अपनी ओर से पहलकर एक ‘सहृदय समिति’ बनाई और उसके बैनर पर ‘आपरेशन वानर’ का आगाज किया था। यह ऑपरेशन मुख्यत: दो बिंदुओं पर केंद्रित था। पहला यह कि ऐसी नागरिक समितियां गठित की जाएं, जो मनुष्यों व वानरों दोनों के प्रति एक जैसी उदारता से समस्या की भयावहता और समाधान के उपायों पर विचार करें। इन उपायों में वानरों को भगाने पर नहीं, उनके लिए अभयारण्य जैसी जगहों के विकास और संभव हो तो उनकी वंशवृद्धि की रफ्तार को नियोजित यानी कम करने पर जोर हो।

दूसरे, नागरिकों को ऐसी प्रजाति के लंगूर पालने के लिए प्रोत्साहित किया जाए जो हिंसक नहीं होती और जिनसे डरकर रीसस मकाकू प्रजाति के वानर दूर चले जाते हैं। बताते हैं कि एक समय लखनऊ में रेलवे का इस तरह का एक प्रयोग बहुत सफल रहा था।

उन दिनों सहृदय समिति ने समस्या से जुड़े पचास प्रश्न भी बनाये थे, जिन्हें लेकर वह नागरिकों तक जा रही थी और उनसे उसके समाधान के उपायों पर सहमति-पत्र भी भरा रही थी। सहमतिपत्र भराने के पीछे यह पता लगाने का उद्देश्य था कि समस्या के समाधान के लिए कोई प्रशासनिक पहलकदमी हाथ में ली जाए तो उसे नागरिकों का कितना सहयोग मिलेगा? समिति ने ऐसी किसी पहलकदमी के लिए धर्माधीशों का समर्थन जुटाने के प्रयत्न और वानरों से होने वाले नुकसानों व उनसे बचाव के उपायों पर नागरिकों द्वारा किए जाने वाले खर्च को लेकर एक सर्वे भी आरम्भ किया था।

शारदा दुबे का कहना था कि वानरों को दुष्ट या अनेक आस्थावानों के इष्ट कहकर समस्या को यों ही छोड़ देने से काम नहीं चलेगा। इसलिए उनकी समिति उसे लेकर नागरिकों, धर्माधीशों व प्रशासनिक अमले के बीच समन्वयक की भूमिका निभायेगी।

लेकिन आगे के वर्षों में बढ़ते साम्प्रदायिक फितूरों के कारण समिति की एक भी पहल या योजना फलीभूत नहीं हो सकी और हाल के वर्षों में आवारा कुत्तों व छुुट्टा मवेशियों के साथ मिलकर वानरों की समस्या और जटिल हो गई। अब हालत यह है कि आर्थिक रूप से संपन्न तबके तो बड़ी धनराशि खर्च करके लोहे की छड़ों या जालियों से अपने घरों की किलेबंदी कर उन्हें वानरों के लिए अभेद्य बना ले रहे हैं, जबकि रोज कुंआ खोदने व पानी पीने वाले विपन्न व अल्प आय वाले तबकों को वानरों के उत्पात भी झेलने पड़ रहे हैं और आवारा कुत्तों व मवेशियों के भी। लेकिन न प्रदेश सरकार उनकी फिक्र कर रही है और न स्थानीय निकाय। क्योंकि उन दोनों को डर सताता है कि समस्या से निजात के प्रयत्नों में कहीं उनकी हालत होम करते हाथ जला बैठने वाली न हो जाए। उन्होंने इतने भर से अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली है कि गोवंश के संरक्षण व संवर्धन के लिए ‘कान्हा उपवनÓ  संचालित किया जा रहा है और वानरों का अभयारण्य व एनीमल जोन बनाने की कागजी कार्रवाइयां जारी हैं।

हां, आप पूछ सकते हैं कि यहां मेरे आपको इतना सब बताने का क्या तुक है? एक ही तुक है भाई, कि जब यह अयोध्या उनकी शिकार हो जाएगी तो ये सब बातें बहुत याद आयेंगी। बता रहा हूं ताकि सनद रहे और…

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