मनुस्मृति की वापसी

Share:

 – सुभाष गाताडे

 

अभी बहस जारी ही थी और यह मसला बहसतलब था कि ऐसी रचनाओं को आधुनिक युग की संवेदनाओं के मददेनजर किस तरह देखा जाए। क्या ऐसी रचनाओं का संपादन किया जाए या उन्हें बिल्कुल त्याग दिया जाए, उस पृष्ठभूमि में देश के अग्रणी केंद्रीय विश्वविद्यालय में शुमार काशी हिंदू विश्वविद्यालय का धर्मशास्त्र मीमांसा विभाग ऐसा प्रस्ताव लेकर उपस्थित हुआ, जिससे इस विवाद के थमने के बजाय और बढऩे के ही आसार लग रहे हैं।

 

समय की निहाई अक्सर बेहद निर्मम मालूम पड़ती है।

विश्व की वे क्लासिकीय रचनाएं – जिन्होंने ज्ञान के मोती  बिखेरे हैं और जिन पर अक्सर बात होती रहती है-कब जबरदस्त विवाद का सबब भी बन जाएं, कहा नहीं जा सकता। ऐसे ही कल के अग्रणी विचारक, क्रांतिकारी, जिन्होंने युग को प्रभावित किया, कुछ मामलों में कब अपने ही समय की सीमाओं में कैद नजर आएं, इसकी भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।

वरना ऐसा कहां संभव था कि दुनिया के महानतम नाटककारों में शुमार अंग्रेजी लेखक विलियम शेक्सपीयर, जो आज भी विश्व भर में सराहे जाते हैं और लोग उनके कलाम से ताकत हासिल करते हैं, अपने कथित ‘यहूदी विरोध के लिए’ (सामीवाद विरोध) आलोचना का शिकार बन जाएं। विशेषकर अपने बहुचर्चित नाटक मर्चेंट आफ वेनिस  के ‘खलनायक’ शायलॉक के चित्रण को लेकर, या फ्रांसिसी क्रांति (1789) के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक समूह के तौर पर जाने जाने वाले जैकोबिन, स्त्रियों के प्रति अपने संकीर्ण नजरिये के लिए आलोचना के घेरे में आएं या गौतम बुद्ध, जिन्होंने राजपाट त्याग दिया और जो सत्य की तलाश में निकल पड़े थे, उन्हें भी महिलाओं को लेकर अपने उदगारों या रूख के लिए आज भी आलोचना झेलनी पड़े।1

पिछले दिनों ऐसा की प्रसंग भारत में तारी हुआ जब तुलसी दास द्वारा रचित रामचरित मानस -जिसमें स्त्रियों और उत्पीडि़त जातियों के कथित तौर पर अपमानजनक चित्रण को लेकर बहस चल पड़ी; एक खेमा जहां इस बात को सिरे से खारिज कर रहा था, वहीं दूसरा खेमा उन सबूतों को एक के बाद तर्क पेश कर रहा था कि उसकी बात किस तरह सही है ।

अभी बहस जारी ही थी और यह मसला बहसतलब था कि ऐसी रचनाओं को आधुनिक युग की संवेदनाओं के मददेनजर किस तरह देखा जाए।2 क्या ऐसी रचनाओं का संपादन किया जाए या उन्हें बिल्कुल त्याग दिया जाए, उस पृष्ठभूमि में देश के अग्रणी केंद्रीय विश्वविद्यालय में शुमार काशी हिंदू विश्वविद्यालय का धर्मशास्त्र मीमांसा विभाग ऐसा प्रस्ताव लेकर उपस्थित हुआ, जिससे इस विवाद के थमने के बजाय और बढऩे के ही आसार लग रहे हैं।

प्रस्ताव था उस किताब की उपयोगिता / प्रयोज्यता को लेकर अनुसंधान करने का, जो मध्यकाल के पहले से रचित बताई जाती है और जो विगत एक सदी से अधिक समय से लगातार विवादों के केंद्र में रही है, यह किताब किस तरह ‘दलितों एवं स्त्रियों को अपमानित ढंग से पेश करती है,’ उसे रेखांकित करते हुए आंदोलन भी चले हैं।

‘भारतीय समाज में मनुस्मृति की प्रयोज्यता’3 – इस विषय पर अनुसंधान की योजना का यह प्रस्ताव, इस संस्थान के धर्मशास्त्र मीमांसा विभाग से पेश हुआ है, जहां पहले से ही प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अध्ययन के तहत मनुस्मृति की पढ़ाई होती है। इस संबंध में जारी अधिसूचना के मुताबिक इसके लिए केंद्र सरकार द्वारा इंस्टिट्यूशन आफ ऐमिनंस स्कीम के तहत प्रदत्त फंड का इस्तेमाल किया जाएगा। मालूम इस योजना के तहत देश के दस अग्रणी सार्वजनिक संस्थानों को एक हजार करोड़ रूपए तक की राशि रिसर्च और डेवलपमेंट के लिए दी जाने वाली है।

यह प्रस्ताव दो वजहों से सर्वथा अनुचित दिख रहा है: एक, ऐसे वक्त में जब तमाम सार्वजनिक विश्वविद्यालयों के अनुदानों में कटौती हो रही है और उन्हें अपने जरूरी खर्चे भी पूरे करने में जबरदस्त दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, उस समय ऐसे वायवीय मसले पर फंड दिया जा रहा है, जिस पर पहले भी काफी अध्ययन हो चुके हैं।

दूसरा, याद किया जा सकता है कि लगभग एक सदी पहले डा. आंबेडकर की अगुआई में आधुनिक समय में हुए पहले दलित विद्रोह में मनुस्मृति का बाकायदा एक सार्वजनिक समारोह में दहन किया गया था (25 दिसंबर 1927), जब डा आंबेडकर ने उसे ”प्रतिक्रांति का सुसमाचार’’;3 घोषित किया था, तत्कालीन मुंबई प्रांत के महाड में संपन्न इस सत्याग्रह में सूबे के विभिन्न भागों से वहां पहुंचे हजारों दलितों और अन्य न्याय प्रेमियों ने हिस्सा लिया था। इस अवसर पर हुए सम्मेलन में इस संबंध में जिस प्रस्ताव को पढ़ा गया वह ध्यान देने योग्य है। इसे गंगाधर सहस्त्राबुद्धे नामक सामाजिक कार्यकर्ता ने पढ़ा था, इसमें कहा गया था:

”..इस सम्मेलन का यह स्पष्ट मत है कि मनुस्मृति, अगर हम उन श्लोकों पर गौर करें जिसमें शूद्र जातियों को अपमानित किया गया है, उसने उनकी प्रगति को बाधित किया है, उनकी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गुलामी को स्थायी बनाया है…. वह किसी भी रूप में धार्मिक या पवित्र किताब कहलाने लायक नहीं है। और इसी बात को जुबां देने के लिए, यह सम्मेलन ऐसी धार्मिक किताब का अंतिम संस्कार कर रहा है जिसने लोगों को विभाजित किया है और जिसने मानवता को नष्ट किया है।‘’4

इस सत्याग्रह के 23 साल बाद जब भारत के संविधान को देश की जनता को सौंपा जा रहा था, तब संविधान की मसविदा समिति के प्रमुख डा आंबेडकर ने ऐलान किया था कि इसे अपनाने के साथ  ”मनु का शासन समाप्त हो गया है’’।  मराठी के अग्रणी विद्वान, लेखक और सार्वजनिक बुद्धिजीवी प्रोफेसर नरहर कुरूंदकर /(1932-1982) ने मनुस्मृति को लेकर अपनी किताब में (जिसका अंग्रेजी  अनुवाद मधुकर देशपांडे ने किया है,  प्रकाशक, देशमुख एंड कंपनी, पुणे, 1993) में इसका विश्लेषण करते हुए एक महत्वपूर्ण बात जोड़ी थी।

उनके मुताबिक: अभी पिछले साल की बात है जब दिल्ली उच्च अदालत की न्यायाधीश प्रतिभा सिंह ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मनुस्मृति की तारीफ करके विवाद को जन्म दिया था। ‘जातिवाद और वर्गवाद’ को बढ़ावा देने के लिए उनकी तीखी आलोचना हुई थी, दरअसल फिक्की द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि मनुस्मृति ”महिलाओं को सम्मानजनक दर्जा देती है”।6

यह सोचना मासूमियत की पराकाष्ठा होगी कि बनारस के इस अग्रणी विश्वविद्यालय – जिसकी स्थापना आजादी के आंदोलन के दौरान हुई थी – से जुड़े अकादमिक मनुस्मृति की अंतर्वस्तु या उससे जुड़े असंख्य विवाद आदि को लेकर परिचित नहीं होंगे, वे इस बात को लेकर स्मृतिलोप का शिकार हो गए होंगे कि संविधान मसविदा समिति के अध्यक्ष डा. आंबेडकर ने इस किताब का सार्वजनिक दहन क्यों किया था या क्या कहा था? और 21 वीं सदी की तीसरी दहाई में जबकि दुनिया भर में शोषित उत्पीडि़तों में एक नई रैडिकल चेतना का संचार हुआ है, जबकि ‘ब्लैक लाइव्स मैटरÓ जैसे आंदोलनों ने विकसित मुल्कों के सामाजिक ताने बाने में एक नई सरगर्मी पैदा की है, उस वक्त अतीत के स्याह दौर की याद दिलाती इस किताब की प्रयोज्यता अर्थात एप्लीकेबिलिटी की बात करना, दुनिया में भारत की क्या छवि बनाएगा? निस्संदेह, मनुस्मृति क ी प्रयोज्यता की खोज का यह प्रयास एक तरह से न केवल भारत में सामाजिक समानता एवं उत्पीडऩ विरोध के लिए जारी तमाम आंदोलनों को एक तरह से अवैध साबित करता है, उनको निरर्थक साबित करता है तथा साथ ही मनुस्मृति को नए सिरेसे सैनिटाइज्ड/साफसुथरे ढंग से पेश करने की कवायद को नई वैधता प्रदान करता है।

निश्चित ही यह पूरी योजना संघ परिवार के हिंदुत्व वर्चस्ववाद के व्यापक चिंतन से मेल खाती है, आजादी के बाद जब संविधान का मसविदा बन रहा था तब इन्हीं ताकतों ने हर कदम पर उसका विरोध किया था। गोलवलकर और सावरकर, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा के शीर्षस्थ नेतृत्व में थे, उनके वक्तव्य इस बात की बार-बार ताईद करते हैं। अगर हम संविधान निर्माण के दिनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र कहे जाने वाले आर्गनाइजर को पलटें तो इसके कई प्रमाण मिलते हैं। पचास के दशक के मध्य में जब हिंदू कोड बिल के जरिये हिंदू महिलाओं को संपत्ति और उत्तराधिकार में सीमित अधिकार देने की नये सिरे से कोशिश चली, उस वक्त दिया गया उनका वक्तव्य इस संबन्ध में इनमें व्याप्त गहरी घृणा को साफ उजागर करता है। वे लिखते हैं: &ह्नह्वशह्ल; जनता को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए तथा इस संतोष में भी नहीं रहना चाहिये कि हिंदू कोड बिल का खतरा समाप्त हो गया है। वह खतरा अभी ज्यों का त्यों बना हुआ है, जो पिछले द्वार से उनके जीवन में प्रवेश कर उनकी जीवन की शक्ति को खा जाएगा। यह खतरा उस भयानक सर्प के सदृश है, जो अपने विषैले दांत से दंश करने के लिए अंधेरे में ताक लगाए बैठा हो। (श्री गुरूजी समग्र: खंड 6,पेज 64, युगाब्द 5106)

अपनी मौत के कुछ साल पहले नवा काल नामक मराठी अखबार में (दिनांक 1 जनवरी, 1969) छपे संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर के विवादास्पद साक्षात्कार को देख सकते हैं जिसमें उन्होंने ‘बौद्धिक’ अंदाज में मनुस्मृति को सही ठहराया था और शुद्धता-प्रदूषण पर टिकी वर्ण-जाति व्यवस्था को ईश्वरप्रदत्त घोषित किया था।

अपने इस साक्षात्कार में गोलवलकर ने साफ-साफ कहा था कि ‘..स्मृति ईश्वर निर्मित है और उसमें बताई गई चातुर्वण्र्य व्यवस्था भी ईश्वर निर्मित है। किंबहुना वह ईश्वरनिर्मित होने के कारण ही उसमें तोड़ मरोड़ हो जाती है, तब भी हम चिंता नहीं करते। क्योंकि मनुष्य आज तोड़ मरोड़ करता भी है, तब भी जो ईश्वरनिर्मित योजना है, वह पुन:-पुन: ‘प्रस्थापित होकर ही रहेगी।‘ (पृ. 163 श्री गुरूजी समग्र: खंड 9)।

अपने इस साक्षात्कार में गोलवलकर ने जाति-वर्णप्रथा की हिमायत करते हुए चंद बातें भी कही थीं जैसे ”..अपने धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था सहकारी पद्धति ही तो है। किंबहुना आज की भाषा में जिसे ‘गिल्ड’ कहा जाता है और पहले किस ‘जाति’ कहा गया उनका स्वरूप एक ही है। ..जन्म से प्राप्त होने वाली चातुर्वण्र्य व्यवस्था में अनुचित कुछ भी नहीं है, किंतु उसमें लचीलापन रखना ही चाहिए और वैसा लचीलापन था भी। लचीलेपन से युक्त जन्म पर आधारित चातुर्वण्र्य व्यवस्था उचित ही है।‘’

संघ से संबद्ध के आर मलकानी ने अपनी एक किताब आरएसएस स्टोरी (इम्पेक्स इंडिया, दिल्ली, 1980) में इस बात का विशेष उल्लेख करते हैं कि गोलवलकर ”इसके पीछे दिए कारणों से सहमत नहीं थे कि हिंदू कानून को मनुस्मृति के साथ अपने पुराने रिश्ते को खतम कर देने चाहिए।‘’ (पृ. 73) इस बात में कोई आश्चर्य नहीं प्रतीत होता कि गोलवलकर ने कभी भी अनुसूचित जाति और जनजातियों के कल्याण एवम् सशक्तिकरण हेतु नवस्वाधीन मुल्क के कर्णधारों ने विशेष अवसर प्रदान करने की जो योजना बनायीं, उनका कभी भी तहेदिल से समर्थन नहीं किया। आरक्षण के बारे में उनका कहना था कि यह हिंदुओं की सामाजिक एकता पर कुठाराघात है और उससे आपस में सद्भाव पर टिके सदियों पुराने रिश्ते तार-तार होंगे। इस बात से इंकार करते हुए कि निम्न जातियों की दुर्दशा के लिए हिंदू समाज व्यवस्था जिम्मेदार रही है, उन्होंने दावा किया कि उनके लिए संवैधानिक सुरक्षा प्रदान करने से आपसी दुर्भावना बढऩे का खतरा है। (गोलवलकर, बंच आफ थाट्स, पृ. 363, बंगलौर, साहित्य सिंधु, 1996) और सावरकर भी इस मामले में कहीं पीछे नहीं हैं। वह भी मनुस्मृति पर बुरी तरह आसक्त थे। संघ अग्रणियों की तरह उन्होंने भी नया संविधान बनाने का विरोध किया था और उसके स्थान पर मनुस्मृति को ही लागू करने की बात कही थी। ‘हिंदुत्व’ की संकल्पना को हिंदू धर्म से साफ अलग करने वाले सावरकर ने उन दिनों कहा था:

मनुस्मृति वह ग्रंथ है जिसे हमारे हिंदू राष्ट्र’’ में वेदों के बाद सबसे अधिक पूजनीय समझा जाता है और जो प्राचीन समय से हमारी संस्कृति, हमारे रिवाजों, चिंतन और आचरण का आधार रहा है। इसी ग्रंथ ने सदियों से हमारे राष्ट की आध्यात्मिक और दैवी कूच को संहिताबद्ध किया है। आज भी करोड़ों हिंदुओं द्वारा अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का अनुकरण किया जाता है वह मनुस्मृति  पर आधारित हैं। आज मनुस्मृति ही हिंदू कानून है।‘’

प्रश्न है आखिर मनुस्मृति के प्रति समूचे हिंदुत्व ब्रिगेड में इस किस्म का सम्मोहन क्यों दिखता है?

समझा जा सकता है कि मनुस्मृति का महिमामंडन जो ‘परिवार’ के दायरों में निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है उससे दोहरा मकसद पूरा होता है: एक, वह मनुस्मृति को उन तमाम ‘दोषारोपणों से मुक्त’ कर देती है जिसके चलते वह रैडिकल दलितों से लेकर तर्कशीलों के निशाने पर हमेशा रहती आई है। दूसरा, इससे संघ परिवारी जमातों की एक दूसरी चालाकी भरे कदम के लिए जमीन तैयार होती है जिसके तहत वह दलितों के ‘असली दुश्मनों को चिह्नित करते हैं’ और इस कवायद में ‘मुसलमानों’ को निशाने पर लेते हैं। वह यही कहते फिरते हैं कि मुसलमान शासकों के आने के पहले जाति प्रथा का अस्तित्व नहीं था और उनका जिन्होंने जमकर विरोध किया, उनका इन शासकों द्वारा जबरदस्ती धर्मांतरण किया गया और जो लोग धर्मांतरण के लिए तैयार नहीं थे, उन्हें उन्होंने गंदे कामों में धकेल दिया।

आज ऐसे आलेख, पुस्तिकाएं यहां तक कि किताबें भी मिलती हैं जो मनुस्मृति के महिमामंडन के काम में मुब्तिला दिखती हैं ।

प्रोफेसर के वी पालीवाल की एक किताब, मनुस्मृति और आंबेडकर  इसका एक दिलचस्प उदाहरण पेश करती है। किन्हीं ‘हिंदू रायटर्स फोरम’ द्वारा प्रकाशित (मार्च 2007, नई दिल्ली) इस किताब के लेखक की हिंदुत्व वर्चस्ववादी फलसफे के साथ नजदीकी साफ दिखती है। प्रस्तुत फोरम द्वारा प्रकाशित किताबों में से 20 से अधिक किताबें इन्हीं प्रोफेसरसाहब की लिखी हैं। इतना ही नहीं राष्टीय स्वयंसेवक संघ से प्रत्यक्ष/अपरोक्ष जुड़े समझे जाने वाले सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली, से भी इनकी कई किताबें प्रकाशित हुई हैं। यहां ‘ मनुस्मृति और आंबेडकर’  शीर्षक प्रस्तुत किताब की प्रस्तावना का एक हिस्सा उद्धृत किया जा सकता है जिसका शीर्षक है ‘ये पुस्तक क्यों?’  पृ. 3, जिसमें लिखा गया है: ‘’यह पुस्तक उन लोगों के लिए लिखी गई है जिन्हें यह भ्रम है कि स्वायंभुव मनु की मनुस्मृति हिंदू समाज में आज व्याप्त जात पांत, ऊंचनीच और छुआछूत का समर्थन करती है। इसका दूसरा उद्देश्य इस भ्रम को भी दूर करना है कि मनु, शूद्रों और स्त्रियों के विरोधी और ब्राह्मणवाद के समर्थक हैं। इसका तीसरा उद्देश्य आधुनिक युग के समाज सुधारक और दलित नेता डा भीमराव आंबेडकर द्वारा मनुस्मृति के संबंध में फैलाई गई भ्रांतियों को भी सप्रमाण दूर करना है।‘’

प्रस्तावना में यह भी बताया गया है कि किस तरह डॉ. आंबेडकर ने ”मनुस्मृति के विषय में वेद विरोधी मैक्समूलर द्वारा संपादित और जार्ज बुहलर द्वारा अंग्रेजी में अनूदित मनुस्मृति  के आधार पर लिखा जिसके कारण उन्हें अनेक भ्रांतियां हुईं।‘ प्रस्तावना के मुताबिक मनुस्मृति  के कुल 2,865 श्लोकों में से लगभग 56 फीसदी श्लोक मिलावटी हैं और किन्हीं डा सुरेंद्र कुमार के हवाले से बताया गया है कि उन्होंने इन ”मिलावटों’’ को ध्यान में रखते हुए 1985 में एक ”विशुद्ध मनुस्मृति ‘’ तैयार की है। डा. के डी पालीवाल के मुताबिक ”यदि यह विशुद्ध मनुस्मृति, डा आंबेडकर के लेखन से पहले, 1935 तक, अंग्रेजी में संपादित हो गई होती, और वर्णों की भिन्नता को आंबेडकर स्वाभाविक मान लेते, तो मनुस्मृति  विरोध न होता। देखें, ”क्या यह कहना सही होगा कि डा. आंबेडकर ने मनुस्मृति का गलत अर्थ लगाया था क्योंकि वह कथित तौर पर संस्कृत भाषा के विद्वान नहीं थे, जैसा कि डॉ. पालीवाल कहते हैं। निश्चित ही नहीं।‘’

ऐसी बेबुनियाद बातें उस महान विद्वान तथा लेखक के बारे में कहना – जिसकी अपने निजी पुस्तकालय में हजारों किताबें थीं, जिन्होंने कानून के साथ साथ अर्थशास्त्र की भी पढ़ाई की थी तथा जिन्होंने विभिन्न किस्म के विषयों पर ग्रंथनुमा लेखन किया – एक तरह से उनका अपमान करना है।

अगर हम महज उनके द्वारा रची गई विपुल ग्रंथसंपदा को देखें तो पता चलता है कि वह 17 अलग-अलग खंडों में बंटी है,  जिसका प्रकाशन सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय की तरफ से किया गया है। मनुस्मृति के बारे में डा आंबेडकर की अपनी समझदारी उनकी अधूरी रचना रेवोल्यूशन एंड काउंटर रेवोल्यूशन इन ऐंशिएंट इंडिया  (प्राचीन भारत में क्रंति और प्रतिक्रंति) में मिलती है। यहां इस बात का उल्लेख करना समीचीन होगा कि बुनियादी तौर पर उन्होंने इस मसले पर सात अलग अलग किताबों की रचना करना तय किया था, मगर उस काम को वह पूरा नहीं कर सके थे। यह ग्रंथमाला डा आंबेडकर के इस बुनियादी तर्क के इर्द गिर्द केंद्रित होने वाली थी जिसके तहत उन्होंने बौद्ध धर्म के उभार को क्रांति माना था और उनका साफ मानना था कि ब्राह्मणों द्वारा संचालित प्रतिक्रांति के चलते अंतत: बौद्ध धर्म की अवनति हुई।

डॉ. आंबेडकर के मुताबिक मनुस्मृति एक तरह से ” हिंदू समाज जिस भारी सामाजिक उथल पुथल से गुजरा है, उसका रिकॉर्ड है।“ वह उसे महज कानून की किताब के तौर पर नहीं देखते हैं बल्कि आंशिक तौर पर नीतिशास्त्र और आंशिक तौर पर धर्म के तौर पर भी देखते हैं। अब प्रबुद्ध समुदाय के एक हिस्से की मनुस्मृति के बारे में राय बदल रही हो, मालूम नहीं, लेकिन डा आंबेडकर इसके लक्ष्यों के बारे में स्पष्ट हैं और इसी वजह से मनुस्मृति को वह ”प्रतिक्रांति का दस्तावेज” कहते हैं।

इस बात की अधिक चर्चा नहीं हुई है कि किस तरह डॉ. आंबेडकर ने – मनु जिसने नीत्शे को प्रेरित किया, उसने फिर हिटलर को प्रेरित किया – इनके बीच के विचारधारात्मक अपवित्र लिंक को उजागर किया था। और यह बात भी आम है कि हिटलर और मुसोलिनी ने संघ और हिुदू महासभा के मनुवादियों को प्रेरित किया – फिर चाहे सावरकर हों या मुंजे हों या हेडगेवार हों या गोलवलकर हों।

कम्युनैलिजम काम्बेट, मई 2000 का अंक, जिसे निम्न लिंक पर देखा जा सकता है,10 : पृ. 72-87 चुनिंदा अंश निकाल कर उजागर किया है कि किस तरह नीत्शे को हिंदू धर्म के दर्शन से प्रेरणा मिली थी।

डा आंबेडकर के मुताबिक अपनी किताब एंटी क्राइस्ट में नीत्शे ने मनुस्मृति की भूरी भूरी प्रशंसा की है और यह भी कहा है कि वह तो महज मनु के रास्ते पर चल रहे हैं,  ”जब मैं मनु की कानून की किताब पढ़ता हूं, जो अतुलनीय बौद्धिक और बेहतर रचना है, यह आत्मा के खिलाफ पाप होगा अगर उसका उल्लेख बाइबिल के साथ किया जाए। आप तुरंत अंदाजा लगाएंगे कि उसके पीछे एक सच्चा दर्शन है, हर तरफ शैतान को संघने वाले यहूदी आचार्यों और अंधश्रद्धा का घालमेल नहीं है – वह किसी तुनकमिजाज मनोविज्ञानी को भी सोचने के लिए कुछ सामग्री अवश्य देता है।”

आंबेडकर ने इस बात पर जोर दिया था कि किस तरह नात्सी ”अपनी वंश परंपरा नीत्शे से ग्रहण करते हैं और उसे अपना आध्यात्मिक पिता मानते हैं। नीत्शे की एक मूर्ति के साथ खुद हिटलर ने अपनी तस्वीर खिंचवाई थी; वह इस उस्ताद की पांडुलिपियां अपने खास संरक्षकत्व में रखता है; नीत्शे के लेखन के चुने हुए उद्धरणों को – नई जर्मन आस्था के तौर पर – नात्सी समारोहों में उद्धृत किया जाता है।”

इन तमाम विवरणों के बाद अब शायद मनु, नीत्शे, हिटलर और हिंदुत्व वर्चस्ववादी फलसफे के बीच के रिश्तों को ढूंढना आसान हो जाए।

मनु ने नीत्शे को प्रेरित किया, नीत्शे ने आगे चलकर हिटलर और मुसोलिनी को प्रेरित किया। हिटलर और मुसोलिनी के विचारों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा को प्रेरित किया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा ने मनुस्मृति के साथ अपने नाभिनालबद्ध रिश्ते को बरकरार रखा।

Visits: 292

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*