राष्ट्रीय आय में वृद्धि लेकिन जन कल्याण में गिरावट

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– अरुण कुमार

औसत आंकड़ों के साथ दिक्कत यह है कि भारत में विभिन्न क्षेत्रों और तबकों के बीच की आय में अत्यधिक विषमता को यह छुपा लेता है। इसी तरह, एक ही काम के बदले पुरुषों और महिलाओं तथा युवाओं और वृद्धों द्वारा अर्जित मजदूरी में भी अंतर होता है। असंगठित क्षेत्र का एक श्रमिक एक लाख रुपए तक कमा सकता है, जबकि एक कंपनी का मालिक 100 करोड़ रुपए से ज्यादा कमा सकता है।

भारत की प्रति व्यक्ति आय, जो एक  भारतीय नागरिक की औसत आय का प्रतिनिधित्व करती है, 2013-14 में 79,000 रुपए से बढ़कर 2022-23 में 1,71,000 रुपए हो गई है। यह 116 प्रतिशत की वृद्धि है। इस आंकड़े के सहारे कुछ लोग दावा कर रहे हैं कि मौजूदा सरकार के आने के बाद से भारत में आय दोगुने से ज्यादा हो गई है। इसमें पेंच यह है कि (क) इस बढ़ोतरी में में इसी अवधि के दौरान हुई मूल्य वृद्धि भी शामिल है, इसलिए यह आय में वास्तविक वृद्धि को नहीं दर्शाती है, और ख) 2022-23 और उसके पहले के दो वर्षों के आंकड़े अनंतिम हैं और संशोधन के अधीन हैं।

उपर्युक्त दो बिंदुओं को संज्ञान में लेने के बाद उक्त अवधि के दौरान प्रति व्यक्ति आय में वास्तविक वृद्धि 68,600 रुपए से केवल 96,500 रुपए तक निकल कर आती है, जो 40.8 प्रतिशत है। यह भी बुरा नहीं है। इन दिनों चूंकि हर चीज की तुलना 2004-05 से 2013-14 तक सत्ता में रही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार की अवधि से की जाती है, उस लिहाज से ये आंकड़े उतने भी सराहनीय नहीं हैं। महंगाई को जोड़ लें, तो यूपीए के वर्षों के दौरान आय में वृद्धि 204.5 प्रतिशत थी, जबकि वास्तविक आय वृद्धि 50.3 प्रतिशत थी। ये आर्थिक सर्वेक्षण से लिए गए आधिकारिक आंकड़े हैं, जो सरकारी एजेंसी राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी आंकड़ों पर आधारित हैं।

 

औसत विषमताओं को छुपाता है

औसत आंकड़ों के साथ दिक्कत यह है कि भारत में विभिन्न क्षेत्रों और तबकों के बीच की आय में अत्यधिक विषमता को यह छुपा लेता है। इसी तरह, एक ही काम के बदले पुरुषों और महिलाओं तथा युवाओं और वृद्धों द्वारा अर्जित मजदूरी में भी अंतर होता है। असंगठित क्षेत्र का एक श्रमिक एक लाख रुपए तक कमा सकता है, जबकि एक कंपनी का मालिक 100 करोड़ रुपए से ज्यादा कमा सकता है। महामारी से पहले 2019-20 में बिहार की औसत आय लगभग 44,000 रुपए थी, जबकि हरियाणा में यह 2,27,000 रुपए के करीब थी, यानी पांच गुना से ज्यादा (5.15)। गोवा जैसे छोटे राज्यों को तो हम गिन ही नहीं रहे जहां औसत आय लगभग 4,68,000 रुपए थी।

पारिवारिक आय के संदर्भ में मापी जाने वाली असमानता, प्रति व्यक्ति आय द्वारा दी गई व्यक्तिगत आय से अधिक है।

यदि किसी व्यक्ति  की आय उसके कल्याण का सूचक होती है, तो औसत आय कमाई के सोपान में सबसे निचले स्तर पर स्थित जनसमूह के कल्याण को नहीं दिखाती, खासकर इसलिए क्योंकि इस स्तर पर जीने वाले लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है। तमाम अनुमानों के अनुसार, असंगठित क्षेत्र में 90 प्रतिशत से अधिक श्रमिक कम मजदूरी पर रोजगाररत हैं। ई-श्रम पोर्टल के आंकड़ों से पता चलता है कि असंगठित क्षेत्र के 94 प्रतिशत श्रमिक प्रतिमाह 10,000 रुपए से कम कमाते हैं।

आधिकारिक आंकड़ों में वह काली कमाई भी शामिल नहीं है जो सबसे ज्यादा आय वाले कुछ लोगों के पास केंद्रित है। पारिभाषिक रूप से देखें, तो गरीब आदमी चूंकि कर लगाए जाने लायक आय सीमा से नीचे होता है इसलिए वह काली कमाई पैदा नहीं करता। इस लिहाज से असंगठित क्षेत्र में शीर्ष कमाई करने वाले और एक औसत श्रमिक के बीच की आय का फर्क 10,000 गुना से ज्यादा हो सकता है।

फिलहाल, इस विश्लेषण में हम काली कमाई को छोड़ दें और सरकार द्वारा घोषित सफेद कमाई पर ही ध्यान केंद्रित करें।

व्यक्तिगत आय की तुलना में पारिवारिक आय अधिक महत्वपूर्ण है। संपन्न लोगों के यहां कर बचाने के लिए आय को परिवार के सदस्यों के बीच बांट दिया जाता है। इसके अलावा, उनके पास जमीन-जायदाद भी होती है जो ‘रिटर्नÓ(लाभ) देती है। यह ‘रिटर्नÓ काम से होने वाली आय में पूरक की भूमिका निभाता है।

असंगठित क्षेत्र के लोगों के बीच बड़े पैमाने पर बेरोजगारी और अल्परोजगार व्याप्त  है, उनकी आय कम है और जमीन-जायदाद भी बमुश्किल है। हर कमाने वाले सदस्य को परिवार के दो-तीन अन्य सदस्यों का पेट भरना होता है। इसका परिणाम यह है कि भले ही एक व्यक्ति की आय गरीबी रेखा से ऊपर हो, लेकिन बंटने के बाद प्रति व्यक्ति यह कम हो जाती है और कुल मिलाकर परिवार गरीबी रेखा से नीचे आ जाता है। इस प्रकार, परिवार की आय के संदर्भ में मापी गई असमानता, प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से निकाली गई व्यक्तिगत आय वाली असमानता की तुलना में कहीं अधिक होती है।

आय, कल्याण और सामाजिक बरबादी

आय व्यक्ति और परिवार के कल्याण का संकेत देती है। इससे यह निष्करर्ष निकाला जाता है कि आय जितनी अधिक होगी, कल्याण भी उतना अधिक होगा। ऐसा तब सही होता है जब बाकी सारे कारक समान हों। उदाहरण के लिए, झुग्गी में रहने वाले एक गरीब व्यक्ति के परिवार में कहीं अधिक बीमारियां होंगी क्योंकि वह अस्वेच्छ से परिस्थितियों में रहने को मजबूर है। यह पोषण की कमी और अस्वास्थ्यकर भोजन खाने से बढ़ जाता है। वे जो भोजन खरीदते हैं वह भी खराब गुणवत्ता का हो सकता है और अक्सर मिलावटी होता है। वे जो पानी पीते हैं वह भी हो सकता है पीने योग्य न हो और उनके वातावरण में हवा भी दूषित हो सकती है। यह सब उन्हें बीमारी के प्रति अधिक कमजोर बनाता है, बावजूद इसके कि उनकी शारीरिक बनावट कहीं ज्यादा ठोस हो।

इस तरह हम पाते हैं कि परिवार में लगातार लगी हारी-बीमारी उस कमाई पर असर डालती है जो अन्यथा उनके कल्याण में काम आ सकती थी। किसी गंभीर बीमारी की स्थिति में परिवार गरीबी के गर्त में जा गिरता है क्योंकि इलाज के लिए उसे कर्ज लेना पड़ता है और उस पर भारी मासिक ब्याज चुकाना पड़ सकता है। इसके अलावा, उत्पादन के क्षेत्र में लगे लोग अक्सर अनौपचारिक मुद्रा बाजारों से कर्ज उठाते हैं जहां ब्याज दर ज्यादा होती है। अपना धंधा जारी रखने के लिए उन्हें अक्सर रिश्वत भी देनी पड़ती है। ये दोनों स्थितियां उनकी कमाई पर असर डालती हैं और यह चीज आधिकारिक प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों में संज्ञान में नहीं ली जाती। गरीबों के बीच शराब और नशे की खपत भी बढ़ रही है। इससे भी परिवार की आय घटती है जिसका सीधा असर भोजन और शिक्षा पर पड़ता है।

कई ऐसे काम-धंधे होते हैं जिनसे व्यक्ति का कोई कल्याण नहीं होता बल्कि वे ‘सामाजिक बरबादीÓ को जन्म  देते हैं। यह गड्ढा खोदने और पाटने जैसे काम हैं। वे रोजगार और आय तो पैदा करते हैं लेकिन भविष्य में समाज की उत्पादक क्षमता को नहीं बढ़ा पाते जिससे सबका कल्याण हो। ऐसी गतिविधियां उत्पादन के मूल्य में गिरावट पैदा करती हैं और शुद्ध उत्पादन में कमी लाती हैं। इसी तरह, सामाजिक बरबादी कल्याण को प्रभावित करती है। सार्वजनिक वस्तुएं कल्याण में इजाफा करती हैं लेकिन भारत में गरीबों की जरूरतों की तुलना में वे अपर्याप्त हैं। इसलिए, सामाजिक बरबादी और प्रदूषण इत्यादि के चलते होने वाले नुक्सान की तुलना में सार्वजनिक वस्तुणओं का असर मामूली है।

 

जीडीपी के गलत आंकड़े

उपरोक्त चर्चा इस धारणा पर आधारित है कि प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े सही हैं। अर्थव्यवस्था की शुद्ध आय को आबादी से भाग देकर यह आंकड़ा प्राप्त किया जाता है। चूंकि अर्थव्यवस्था की शुद्ध आय केवल एक मोटा अनुमान है, जबकि वास्तविक आय संभवत: उससे कम है इसलिए प्रति व्यक्ति आय भी सरकारी आंकड़े के मुकाबले कम होनी चाहिए। लिहाजा, जन कल्याण भी कम होगा।

प्रति व्यक्ति आय का वास्तविक से अधिक आकलन इसलिए है क्यों कि इसकी गणना में असंगठित क्षेत्र के आंकड़ों का स्वतंत्र रूप से अनुमान नहीं लगाया जाता। मोटे तौर पर यह मान लिया जाता है कि यह क्षेत्र संगठित क्षेत्र की समान दर से ही बढ़ रहा है। हो सकता है 2016 की नोटबंदी से पहले यह सच रहा हो लेकिन उसके बाद ऐसा नहीं है।

बीते वर्षों में असंगठित क्षेत्र को सिलसिलेवार कई झटके लगे हैं – संरचनात्मक रूप से दोषपूर्ण वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), गैरबैंकिंग वित्तीय कंपनियों का संकट, जबरन डिजिटलीकरण और औपचारिक रूप देने के प्रयास और अंतत: 2020 में अचानक लगाए गए राष्ट्रीय लॉकडाउन ने इस क्षेत्र को नष्ट कर दिया है। रिपोर्टों से पता चलता है कि संगठित क्षेत्र पिछले सात वर्षों में असंगठित क्षेत्र की कीमत पर बढ़ा है। खुदरा व्यापार, तेजी से बिकने वाली  उपभोगता सामग्री, चमड़े क ा सामान, कपड़ा, लगेज इंडस्ट्री, प्रेशर कुकर आदि के मामले में मांग असंगठित से संगठित क्षेत्र की ओर मुड़ गई है। दूसरे शब्दों में, अर्थव्यवस्था में लगभग 31 प्रतिशत जगह घेरने वाले एक गिरते हुए क्षेत्र को एक चढ़ते हुए क्षेत्र ने घेर लिया है।

आधिकारिक आय के आंकड़े बड़े पैमाने पर संगठित क्षेत्र और कृषि की नुमाइंदगी करते हैं। इसलिए, अर्थव्यवस्था का आकार आधिकारिक तस्वीर के मुकाबले बहुत छोटा है और प्रति व्यक्ति आय भी कम है। इसके अलावा, चूंकि गरीबों की आय बहुत कम है, तो असमानता आधिकारिक आंकड़ों की तुलना में बहुत ज्यादा है।

संक्षेप में कहें तो अर्थव्यवस्था दोगुनी नहीं हुई है, बल्कि असंगठित क्षेत्र में गिरावट के कारण 2016 के बाद से इसमें या तो ठहराव आया है या गिरावट आई है। आधिकारिक आंकड़ों में यह तथ्य नदारद है। इसके अलावा, भारी असमानताओं के कारण प्रति व्यक्ति आय गरीबों का कल्याण कर पाने में सक्षम नहीं है। इतना ही नहीं, सामाजिक बरबादी जिस कदर बढ़ रही है वह भी कल्याण की गुंजाइश को कम कर देती है। इस प्रकार, गरीबों को सरकार से जो भी मामूली सहयोग मिल रहा है, उसके मुकाबले वे कहीं ज्यादा गंवा दे रहे हैं। द्द

अनु.: अभिषेक श्रीवास्तव

अंग्रेजी में लिखा गया यह लेख वेबसाइट   लीफ लेट में प्रकाशित हुआ है।

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