‘झूलता पुल’ और भविष्य के संकेत

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लगता है उच्च न्यायालय ने गुजरात सरकार को  अंतत: ऐसा बहाना दे दिया है जिससे वह छह माह पहले मोरबी के  ‘झूलतो पुल’ उर्फ  झूलता पुल के टूटने का जो भयावह हादसा हुआ था उसकी जिम्मेवारी से भाजपा के मित्र जयसुख पटेल को मुक्त कर दे या कम से कम उसकी अपराधिकता को घटा तो दे ही। और सरकार ने वह करने में देर नहीं लगाई है। अपने तरह की इस भयावहतम दुर्घटना में आधिकारिक तौर पर कम से कम 135 लोगों की जानें गईं, जिसमें बच्चे ज्यादा थे। ये डूबकर मरे थे। मानवीय लालच का विकृततम और गैरजिम्मेदारी का ऐसा रौंगटे खड़े करनेवाला उदाहरण सामान्यत: देखने को नहीं मिलता है जिसमें उस आदमी ने जिसके पास यह जिम्मेदारी थी कि वह 132 साल पुराने उस पुल की पहले मरम्मत करे, जिसके लिए उसने पैसे लिए; फिर, चूंकि उसके पास दर्शकों से उस पुल पर पैर रखने के लिए टिकट के माध्यम से पैसे कमाने का ठेका था, पुल की कमजोरियों, पुराना होने और जर्जर होने को देखते हुए, उसकी कम से कम यह तो जिम्मेदारी बनती ही थी कि वह एक सीमा से ज्यादा दर्शकों को प्रवेश न करने दे। पर उसके लालच में हर नियम को ही ताक पर नहीं रखा बल्कि कई परिवारों को शेष जीवन की दीपावलियों अंधकार और शोक के ऐसे दिन में बदल दिया है जिसे वे याद नहीं करना चाहेंगे।

दुर्घटना कितनी व्यापक थी, इसका चरम उदाहरण यह है कि भाजपा के ही एक सांसद मोहन कंडारिया के परिवार के 12 सदस्यों की इसमें जान गई। अगर खुदा न ख्वास्ता राज्य या केंद्र में आप या कांग्रेस की सरकार होती तो निश्चित था कि कंडारिया जी और उनके साथी सांसदों ने संसद की ईंट से ईंट बजा देनी थी। पर जिस हद तक गम खाकर वह अपना दुख टीवी पर प्रकट करते नजर आए वह उनकी वफादारी का तो चरम है ही, पर सांसदों के लिए, विशेष कर भाजपा के, विचारणीय भी है कि वे अपने मतदाताओं, अपने समर्थकों और अपने समाज के लिए जो उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं, वह अंतत: देश, इसके जनतंत्र और संविधान को कहां ले जाएगा।

पहले पुल की ठीक से मरम्मत नहीं की गई, फिर त्यौहार का मौका देख, उसे जल्दीबाजी में खोला, क्यों कि कमाई का अवसर गंवाना नहीं चाहते थे, अंत में जितने संभव हो सके दर्शकों को प्रवेश करवाया गया। दुर्घटना के बाद अब कहा जा रहा है कि  नगर पालिका ने यह सब होने क्यों दिया। इसलिए राज्य सरकार ने नगर पालिका को भंग कर दिया है और उसका काम अपने हाथ में ले लिया है। ध्यान देने की बात यह है कि नगर पालिका पर भाजपा का शासन था। इंडियन एक्सप्रेस  की रिपोर्ट के अनुसार राज्य सरकार ने नगरपालिका के इस तर्क को पूरी तरह नकार दिया कि पुल की देखभाल और उसका संचालन का काम 800 करोड़  सालाना कमाई वाली अजंता मैन्यूफैक्चरिंग प्रा.लि. (एएमपीएल) के  पास था और इस बाहुबली ने बिना पूछे, बिना मरम्मत पास करवाये, अपनी मर्जी से पुल खोल दिया था। त्यौहार का हर संभव लाभ उठाने के लिए, जितने संभव थे टिकट बेचे। यही नहीं भीड़ को देखते हुए 15 रुपये के टिकट 17 में बेचे गये। इन बातों की ताकीद उस दौर की मीडिया की रिपोर्टों से की जा सकती है। राज्य सरकार के आदेश में यह भी कहा गया है कि 133 वर्ष से पुराना यह पुल पिछले पांच साल से जयसुख पटेल के नियंत्रण में था। हद यह थी कि पुल के रिपेयर का काम भी, जो सिर्फ कुछ लाख का था, वह खुद की कर रहा था, जबकि उसे इस तरह के काम का कोई अनुभव नहीं था। आखिर ऐसा क्यों था कि इतना बड़ा कारोबारी, पुल की मरम्मत के काम को करने से भी नहीं चूका।

इस व्यक्ति के अंदाज में जो दादागिरी है क्या वह अचानक आ गई होगी? उसके पास पिछले पांच वर्ष से पुल का ठेका था और इस बार यह ठेका 15 साल के लिए कर दिया गया था। दूसरे शब्दों में जो आज हुआ उसने कल होना था, पर होना जरूर था। क्यों? पुल की मरम्मत के अपने कारनामे के बाद उसने बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस में घोषणा की कि पुल कल से, यानी कि गुजराती नए साल के अवसर पर 30 अक्टूबर को, खोला जा रहा है। जनता ज्यादा से ज्यादा संख्या में आए।

इस पर भी नगरपालिका ने देखने की कोशिश नहीं की या कहिए हिम्मत नहीं की कि देखे आखिर मरम्मत और रंगाई-पोताई के नाम पर क्या हुआ है। सवाल है, नगर पालिका के सारे 50 सदस्य, जो भाजपा के थे, जयसुख भाई पटेल की जगह अगर कोई और होता तो क्या उसे छोड़ देते? इससे भी बड़ी बात शायद यह है कि क्या वे सब, जिन्हें शहर की जनता ने चुना था, प्रचार के ऐसे मौके पर, उपस्थित नहीं होना चाहते होंगे? क्या यह अजूबा बेमतलब ही हो गया था?

 

अदालत की राय

पर अदालत तो अदालत है। उसने जो भी कहा, सोच समझ कर ही कहा होगा। और उसका कहना है कि सब कुछ के बावजूद जिम्मेदारी नगरपालिका की थी। उसने क्यों इस बात की जांच नहीं की कि पुल की मरम्मत सही हुई है या नहीं। कानूनी और तार्किक दृष्टि से यह बात सतप्रतिशत सही भी है कि नगर पालिका को इस तथ्य की जांच करनी चाहिए थी कि पुल की मरम्मत सही हुई भी है या नहीं। चूंकि अदालत की नजर में, और वास्तव में भी, नगरपालिका ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई, इसलिए उसे कैसे अपने उत्तरदायित्व से मुक्त किया जा सकता है! तो क्या अदालत का कहना यह नहीं है की आप नेता क्यों हैं, क्यों जन प्रतिनिधि के तौर पर अपना कर्तव्य निभाने से चूके? दूसरे शब्दों में आखिर 50 जन प्रतिनिधियों की रीढ़ की हड्डी को किसने तोड़ दिया है या उसे निकाल अपनी जेब में लिए-लिए घूम रहा है?

पर जो आदेश मोरवी के जन प्रतिनिधियों के लिए हताशा और अफसोस का कारण है, वह राज्य सरकार (यानी नेता) के लिए किसी अवसर की तरह आकाश से टपका है। उसने इसी प्रथम दृष्टया टिप्पणी को आदेश मानते हुए उस नागरिक संस्थान को, जो दूर से ही बंधक नजर आती है, गंभीर लापरवाही का दोषी करारते हुए, जो कि है भी, क्योंकि 135 लोग के मारे जाने की आधिकारिक पुष्टि तो की ही जा चुकी है, मोरबी नगरपालिका को बर्खास्त कर दिया। देखा आपने, इसे कहते हैं प्रशासन। अपनी पार्टी को भी नहीं बख्शा गया! पर रिपोर्ट से यह पता नहीं चला कि भाजपा के करीबी ओरेवा के मालिक पटेल का क्या हुआ? आशा की जानी चाहिए कि अब पटेल साहब को जल्दी ही न्याय मिलेगा।

चुने हुए प्रतिनिधियों का तर्क था कि  नगर पालिका के तत्कालीन मुख्य अधिकारी संदीप सिंह झाला ने हम से अनुमति लिए बिना ही, नए अनुबंध के तहत, ओरेवा को 15 वर्ष के लिए पुल सुपुर्द कर दिया था। पर राज्य सरकार का कहना था कि झाला चूंकि नगर निगम के मातहत काम करता है इसलिए उसके गलत निर्णय के लिए भी नगरपालिका की चुनी कार्यकारिणी ही जिम्मेदार है।

पर कुल मिला कर मोरवी कांड भारतीय जनता पार्टी और उसके नेताओं के नादिरशाही तौर तरीकों का एक और उदाहरण है। यह तरीका है, अपने आदमियों को अपराधिकता की हद तक जाकर बचाना। गुजरात दंगों के दौरान सामूहिक दुष्कर्म और हत्याओं के 11 अपराधियों को समय से पहले रिहा करने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी को याद किया जा सकता है, जो लगभग उसी दौरान आई जब कि गुजरात सरकार ने मोरवी नगरपालिका को बर्खास्त किया था। स्पष्टत: वहां वह ‘भाजपा मित्रÓ पटेल को बचाने में लगी है।

 

ब्रजभूषण शरण से आनंद मोहन तक

इधर दिल्ली में भी इसी के समानांतर सत्ताधारी दल से संबंधित एक और मामला सामने आया हुआ है। वह है, जंतर मंतर में अंतरराष्ट्रीय स्तर के पहलवानों  द्वारा 23 अप्रैल से किया जा रहा प्रदर्शन। इन में मुख्यत: महिला पहलवान शामिल हैं जिनका आरोप है कि भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष ब्रजभूषण शरण सिंह द्वारा उनका यौन शोषण किया जाता है। मामले की गंभीरता इस हद तक है कि इन में एक पहलवान नाबालिग है। पहलवानों, जो मुख्यत: महिला हैं, का कहना है कि जब हमने पदक हासिल किए तो प्रधानमंत्री ने हमें चाय पर बुलाया था और अब वह हम से फोन तक से बात करने को तैयार नहीं हैं। पर सरकार है कि टस्स से मस्स नहीं हो रही है। यह बात और है की पहलवानों को समर्थन  में लगातार वृद्धि हो रही है। पर इससे समझा जा सकता है कि गुजरात के दंगों के कंधे पर चढ़कर दिल्ली पहुंची भाजपा सरकार किस तरह और किस हद तक देश का ध्रुवीकरण करने में कामयाब हुई है।

आखिरी बात इस संदर्भ में बिहार सरकार द्वारा आजीवन कारावास की सजा काट रहे दंडितों के कारावास के समय को यदि उनका आचरण सही रहा है तो, घटा कर 14 वर्ष कर देने का है। राज्य सरकार ने साथ में इसमें उन अपराधियों को भी शामिल कर लिया है जिन्होंने किसी सरकारी कर्मचारी की उसकी ड्यूटी के दौरान हत्या की हो। इससे हुआ यह कि गोपालगंज के तत्कालीन डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट जी. कृष्णया, जो कि दलित थे, की हत्या के आरोपी महाबली से राजनेता बने आनंद मोहन छूट गए हैं। स्पष्टत: यह काम नीतीश कुमार की सरकार ने ताकतवर राजपूत जाति को ध्यान में रखकर किया है। यह बात और है कि मारे गए अधिकारी की पत्नी उमा कृष्णया ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है।

देखने की बात यह है कि एक ओर मुसलमान बाहूबलियों को सरेआम गोली मारी जा रही है और जनता, धार्मिक ध्रुवीकरण के चलते, वाह वाही कर रही है तो दूसरी ओर, जो नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक मूल्यों का क्षरण हो रहा है, वह देश और समाज को कहां ले जाएगा, संभवत: इसका एक संकेत हमें मोरबी की माच्छू नदी के उस झूलते पुल से मिलता है जिसमें वयस्क और बूढ़े ही नहीं थे। बल्कि मरनेवालों में लगभग आधे बच्चे (55) थे। सबसे छोटा बच्चा सिर्फ डेढ़ साल का था। उन माता-की जिनके वे बच्चे थे, पीड़ा को कौन समझ सकता है?

पर बड़ा सवाल है, किसी देश या समाज का भविष्य और क्या होता है?

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