आगे जो रास्ता है

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आखिर ऐसा क्यों है कि वामपंथी ऐसे दौर में, जब देश में बरोजगारी, किसानों में बढ़ता असंतोष, मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के लिए जीना  मुश्किल होता जा रहा है, विरोधी दल जनता को एकजुट करने में असमर्थ हैं?

इसमें शंका नहीं कि राहुल गांधी ने देश के राजनीतिक माहौल को गर्मा दिया है।  संभवत: यह मजबूरी है कि सब कुछ के बावजूद कांग्रेस ही वह राजनीतिक पार्टी नजर आ रही है जो विपक्षी दलों को एकजुट कर सके और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को राष्ट्रीय स्तर पर टक्कर दे। यह अचानक नहीं है कि देश की वे सभी पार्टियां जो भाजपा की सांप्रदायिक नीतियों और वर्चस्ववादी तौर तरीकों से असहमत और पीडि़त हैं, स्वत: ही कांग्रेस के ईर्द-गिर्द जमा होती नजर आ रही हैं। यह किस तरह की आवश्यकता है, इसका ज्वलंत उदाहरण ममता बनर्जी हैं, जो खासी व्यक्तिवादी और महत्वाकांक्षी हैं। वह बंगाल में एकछत्र वर्चस्व चाहती हैं और कांग्रेस व माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के गठबंधन से प्रसन्न नहीं हैं। देखने की बात यह है कि वह भी राज्य में भाजपा के  खतरे को बड़ा मानती हुईं राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए और राज्य में अपने चरम विरोधी माकपा, को सहन करने को मजबूर हैं। पर यह खतरा मात्र बंगाल के लिए ही नहीं है, बल्कि जैसा कि राजनीतिक विश्लेषक भानुप्रताप मेहता का कहना है, ”भारतीय राजनीतिक व्यवस्था संपूर्ण तानाशाही की ओर बढ़ रही है।‘’ यह उनके लेख ‘नो रिएक्शन’, इंडियनय एक्सप्रेस, 28 मार्च, 2023, का पहला ही वाक्य है।

विडंबना यही नहीं है कि ये दोनों चिर विरोधी दल एक ही साथ कांग्रेसी झंडे तले जमा हो रहे हैं, बल्कि यह भी है कि माकपा सहित पूरा वामपंथी खेमा, केंद्रीय स्तर पर लगातार सिमटता जा रहा है। पश्चिम बंगाल को गंवाने के बाद माकपा के त्रिपुरा में भी सत्ता से बाहर हो जाने का दूसरा चक्र शुरू हो चुका है। बल्कि राजनीतिक रूप से वह वहां हाशिये पर जाने के नजदीक है। केरल में भी उस पर जिस तरह से दबाव बन रहे हैं, अगले राज्य चुनावों तक वहां क्या होगा निश्चित तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता। भाजपा वहां आक्रामक है और मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार व परिवारवाद के आरोपों से जूझ रहे हैं। कम्युनिस्ट पार्टी माक्र्सिस्ट लेनिनिस्ट (माले) कभी भी क्षेत्रीयता से बाहर नहीं आ पाई है। वह केंद्र में मुश्किल से अब तक सिर्फ एक सांसद भेज पाई है। बिहार में यह आज उस संगठन में शामिल है, जिसका नेतृत्व चरम अवसरवादी नीतीश कुमार कर रहे हैं, जो वर्षों से, बहुमत न होने के बावजूद, घोर प्रतिक्रियावादी और सांप्रदायिक भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री पद पर जमे थे।

आखिर ऐसा क्यों है कि वामपंथी ऐसे दौर में, जब कि देश में बरोजगारी, किसानों में बढ़ता असंतोष, मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के लिए मुश्किल होते जाते जीवन के साथ ही शिक्षा, विशेषकर उच्चशिक्षा के निजीकरण, चिकित्सा के निजीकरण, सार्वजनिक यातायात, हथियारों के उत्पादन के निजीकरण और नौकरियों और उससे जुड़ी सुरक्षा, जैसे कि पेंशन के पूरी तरह से असुरक्षित कर दिए जाने, सेना में नियमित सिपाहियों की भर्ती खत्म कर अनुबंध पर रखने के बावजूद, कहीं कुछ नहीं है? क्या वामपंथियों का, रणनीतिगत असहमतियों के बावजूद, जनता से संपर्क लगातार  सिमिटता जा रहा है? एक ओर संसदीय राजनीति करनेवाले वाम दल अपना आधार खो रहे हैं तो दूसरी ओर क्रांतिकारी धड़ों का सरकार ने लगभग सफाया कर दिया है।  उनके कई वरिष्ठ नेता मारे जा चुके हैं और बाकी जेलों में बंद हैं। ऐसा क्यों हो रहा है, बतलाना उतना आसान नहीं है जितना यह कहना कि वामपथियों का जनाधार लगातार और हर स्तर पर सिमिट चुका है। इसलिए भी कि वे दल जो संसदीय राजनीति में विश्वास करते हैं, किसी भी ऐसे आंदोलन का नेतृत्व करने में सफल नहीं हो सके हैं जो आजीविका से जुड़े तथा सांप्रदायिकता विरोधी राष्ट्रव्यापी आंदोलन हों। यह एक हद तक नेतृत्व की अक्षमता से तो जुड़ा है ही, पर इसके जो गहरे ऐतिहासिक और सामाजिक कारण हैं, इन दलों के पास उनका न कोई समाधान है, बल्कि इच्छा शक्ति भी नहीं है। दूसरे शब्दों में इन का नेतृत्व समाज के ऐसे वर्ग के हाथों में है जो मूलत: इस व्यवस्था से लाभान्वित होता आ रहा है। इसलिए यह कोई अजूबा नहीं है कि इन के कार्यकर्ता/नेता अपने संगठनों को सीढ़ी बनाकर निजी स्थितियों को मजबूत करने के लिए इस्तेमाल करने से चूकते नहीं हैं।

इसके साथ यह भी सत्य है कि ऐसा कोई भी आंदोलन तभी संभव है जब जातीय हितों से संचालित राजनीति से पार पाया जा सके और समाज के उन हिस्सों को, जो इस व्याधि से हजारों साल से पीडि़त हैं, मुक्ति के रास्ते पर आगे बढ़ाने में सहायक हो सकें।  इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि समाज के जिन वंचित वर्गों ने विगत आठ दशकों में जो चेतना हासिल की है उसे सही दिशा में ले जाने का जिम्मा कम से कम उन राजनीतिक दलों का तो था ही जो समानता की बात करते नहीं थकते हैं। पर ऐसा हुआ नहीं। जो हुआ वह यह कि बुर्जुआ राजनीतिक दलों ने इन्हें वोट की राजनीति का हथियार बनाया और अब यही काम धर्म और सत्ता में भागीदारी के लड्डू दिखलाकर सांप्रदायिक दल कर रहे हैं।  उन वामपंथी दलों में भी, जो संसदीय राजनीति करती हैं, आज भी दलितों की भागीदारी प्रतीकात्मकता से आगे नहीं बढ़ सकी है। बिहार में जहां एक कम्युनिस्ट पार्टी सत्ताधारी गठबंधन के साथ है उसका आधार न कहें तो भी उस पर दबदबा ऐसी जातियों के लोगों का है जो भूमिपति, समृद्ध  किसानों की पृष्ठभूमि से आते हैं।

यह इसलिए भी है कि वामपंथी, जाति जैसे जटिल और मजबूत जड़ों वाले विषवृक्ष की भयावहता का, न तो कभी सही आकलन कर पाए, न उसका विरोध और न ही स्वयं उससे मुक्त हो पाए। दुष्परिणाम सामने है, क्रांति का धंधे में बदल जाना। इसका बड़ा कारण स्वयं इन ‘क्रांतिकारियों’ का उन जातियों से आना रहा है जो भारतीय समाज में अनंतकाल से सभी संसाधनों पर नियंत्रण करती चली आ रही हैं।

वामपंथियों के नेतृत्व की शुरुआती पीढिय़ां तो यह कह कर इस संकट का सामना करने से बचती रहीं, कि क्रांति हो जाने दीजिए उसके साथ ही सारी समस्या का समाधन हो जाएगा। आज क्रांति की बात तो छोड़, जो राजनीतिक माहौल 75 वर्ष पूर्व था, वही दिवा स्वप्न हो गया है, और यह कहने की हिम्मत जुटा पाना कि ”जब क्रांति हो जाएगी’’ भी मुश्किल हो चुका है। वामपंथी नेतृत्व के पास कथित बुर्जुआ और सांप्रदायिक/ जातिवादी इन्हीं तत्वों के सहारे चुनावों की अपनी नैया पार लगाने के अलावा कोई रास्ता नहीं रहा है।

दिक्कत और भी है। स्वयं इन दलों का नेतृत्व, ‘टोकनिज्म’ को छोड़  दें  तो, इस हद तक उच्च जातियों के कब्जे में है कि कहीं ब्राह्मणों, कहीं भूमिहारों और कहीं राजपूतों के गिरोहों द्वारा पार्टियां चलाई जा रही हैं। उनके दफ्तरों से लेकर, उनकी पत्रिकाओं के संपादकों तक के पदों को वही लोग संभाले हैं। इतना ही नहीं इसी नेटवर्क का, इन पार्टियों के पदाधिकारी अपने बेटे-बेटियों को सरकारी अनुदान दिलवाने, उनके एनजीओ चलाने से लेकर लेक्चरर-प्रोफेसर के पदों पर चिपकवाने में ‘लिवर’ की तरह इस्तेमाल करते हैं। कहानियां तो और भी निम्नकोटि की हैं, जैसे कि पार्टी बॉसों को लेखक बनाने के लिए ‘कामरेड प्रोफेसर’ पकी पकाई पांडुलिपियों उपलब्ध करवाने तक में झिझकते नहीं हैं। वे सब कुछ सार्वजनिक हो जाने पर भी निधड़क हैं। इतने निडर कि उसे आपस में ही मुद्रित, प्रकाशित करने का इंतजाम भी कर लेते हैं और इस अवैध रचना को किसी ट्राफी की तरह पार्टी को समर्पित कर देते हैं। इसके बाद आप क्या करेंगे? उस रहस्यमय चुप्पी के टूटने की प्रतीक्षा जो माहौल को सुन्न किए हुए है?

सवाल है, क्या नेतृत्व नहीं जानता कि उनके पीठ पीछे हो क्या रहा है? कल तक के ‘क्रांतिकारी’ नाटककार/लेखक रातोंरात गोडसे के जीवन को महिमा मंडित कर रहे हैं तो उतने ही क्रांतिकारी समाज विज्ञानी ‘सोशल डाइनेमिक्सÓ की दलितों के संदर्भ में बारीकियां को समझाते हुए ‘वाममार्गी’ भटकन को धिक्कारते-धिक्कारते कवि शिरोमणि के खिताब से राष्ट्रीय स्तर पर विभूषित हो रहे हैं। अब भारतीय संस्कृति के गुण गाये जा रहे हैं। तब वे जाति व्यवस्था की खुदाई कर रहे थे। निश्चय ही जिन्हें दूर जाना है वे कब तक खुदाई-नराई करेंगे?

शायद अब कामरेडों के कोटों की जेबें खंगालने की जरूरत नहीं  रही है। उन्होंने जेबें उलट दी हैं जिन्हें दूर से ही देखा जा सकता है, अगर देखना चाहें!

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