मेरी टाइलर का जेलनामा

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– प्रकाश चंद्रायन

यह अध्ययन का विषय है कि उन डायरियों को जेल साहित्य का हिस्सा क्यों नहीं माना जाए और इसे एक स्वतंत्र विधा के तौर पर क्यों नहीं स्थापित किया जाए? विशेषकर इसलिए कि इन का सरोकार मानवाधिकार, सामाजिक अन्याय, राजनीतिक दमन और न्याय व्यवस्था के साथ ही साथ जेल व्यवस्था से भी है।

 

भारतीय जेलों में पांच साल : मेरी टाइलर, अनु. आनंद स्वरूप वर्मा, मूल्य: रु. 300; पृष्ठ संख्या: 189, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली (पहला संस्करण 1977)

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (8मार्च) के अवसर पर प्रस्तुत मेरी टाइलर का पंचसाला जेलनामा भारतीय सत्ता-समाज, दंड-न्याय, जातिभेद-लिंगभेद और दमन-हिंसा का अनुभवजनित -प्रमाणित साक्ष्य है, जो एक जन आयोग की जिंदा रपट से कमतर नहीं है।

मार्च 1977। जनादेश आपातकाल के विरुद्ध आया था। प्रसार माध्यमों और पुस्तक प्रकाशकों में आपातकाल की ज्यादतियों को छापने की होड़ थी। इसमें हकीकत थी तो सनसनी भी। मुनाफा था तो अभिव्यक्ति की मुक्ति का भाव भी। अनेक जेल डायरियां धड़ाधड़ बाजार में आ रहीं थीं। आज उनकी याद भी नहीं है। यह अध्ययन का विषय है कि उन डायरियों को जेल साहित्य का हिस्सा क्यों नहीं माना जाए और इसे एक स्वतंत्र विधा के तौर पर क्यों नहीं स्थापित किया जाए? विशेषकर इसलिए कि इन का सरोकार मानवाधिकार, सामाजिक अन्याय, राजनीतिक दमन और न्याय व्यवस्था के साथ ही साथ जेल व्यवस्था से भी है।

यह नागरिक समाज के साथ, अकादमिक जिम्मेदारी भी है। उच्चतम शोध संस्थानों और संसाधन संपन्न प्रकाशन केंद्रों को यह दायित्व लेना चाहिए कि जेल डायरियों, कैदियों की रचनाओं, साक्षात्कारों, रिपोर्ताजों, जांच समितियों और आयोगों की रिपोर्टों, जेल के इतिहासों आदि को एकत्र कर एक अद्यतन ज्ञानशाखा का सृजन करे ताकि एक अनदेखा पक्ष सामने आए। अमृतकाल में भी भारतीय जेलों में कुछ करोड़ की आबादी तिल-तिल मर रही है। यह कैद आबादी एक छोटा देश ही है। शलाखों के भीतर इस अंधेरे राज्य की साभ्यतिक शिनाख्त मानवीय मांग है।

 

छियालिस साल पहले

इसकी गहन और विस्तृत शिनाख्त का एक दुर्लभ उदाहरण बजरिए अनुवाद हिंदी में आया था। 1977 के मार्च महीने में ही एक ऐसी जेल डायरी सामने आई, जो लीक से अलग थी और आज छियालिस साल बाद भी वह नायाब है। लेखिका हैं ब्रिटिश नागरिक मेरी टाइलर। उनकी यह किताब अंग्रेजी में माय ईयर्स इन एन इंडियन प्रिजन (प्रकाशक: विक्टर गोलांज लिमिटेड, लंदन) नाम से छपी। इसका हिंदी अनुवाद भारतीय जेलों में पांच साल नाम से तत्कालीन राधाकृष्ण प्रकाशन के ओमप्रकाश ने प्रकाशित किया और अनुवादक थे समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक और लेखक आनंदस्वरूप वर्मा। आनंद स्वरूप वर्मा का कहना है कि इस किताब का अनुवाद उनके जीवन का सबसे बड़ा पदक है। उनके अनुसार 1977 में ही इसके तीन संस्करण हो गए थे और नेपाल के बौद्धिक क्षेत्र में भी बहुपठित थी। इसका दूसरा संस्करण 2012 में आया था।

 

मेरीअमलेंदु

लेखकीय संदेश और भूमिका के अलावा चौदह अध्यायों में लिखित अपनी पुस्तक को मेरी टाइलर ने उन सहबंदियों को समर्पित किया है, जो भारतीय जेलों में महान उद्देश्य के लिए बंद थे, खासकर उन बच्चों को जो उज्जवल भविष्य के आकांक्षी हैं। भारतीय जेलों में पांच साल की कथा जर्मनी से लौट रही मेरी की ट्रेन में भारतीय प्रशिक्षु इंजीनियर अमलेंदु सेन से भेंट और धीरे-धीरे मैत्री में बदलने से शुरू होती है। दोनों का समान राजनीतिक-सामाजिक नजरिया रिश्ते को मजबूती देता है।1967की हलचलों से प्रभावित अमलेंदु देश के परिवर्तन में हाथ बंटाने भारत लौटता है और मेरी भी चंद माह बाद भारत को जानने-समझने और मित्र से मिलने भारत आती है।

जब मेरी भारत पहुंचती है तो उसका सामना उद्वेलित बंगाल से होता है। नक्सलाड़ी में किसान विद्रोह की चिंगारी भड़क उठी थी। मेरी के शब्दों में,”भारी संख्या में शिक्षित नौजवान गांव में चले गए ताकि वे कृषि क्रांति की राजनीति का प्रचार कर सकें और किसानों के संघर्ष में हिस्सा ले सकें। अमलेंदु के भाई के साथ मैं एक विश्वविद्यालय देखने गई। मुझे विश्वविद्यालय की दीवारें नारों से भरी दिखाई दी और विश्वविद्यालय एक भुतहे इमारत जैसा सुनसान खड़ा था।… मैंने देखा कि लोगों के बीच नक्सलवादियों के प्रति बेहद हमदर्दी है और इस हमदर्दी का कारण उनके अंदर परिवर्तन की जबरदस्त इच्छा का होना तथा मौजूदा सभी संसदीय पार्टियों के प्रति उनका मोहभंग होना है’ (पृष्ठ 21)।

 

विवाह और गिरफ्तारी

आगे दो महीने तक पर्यटक की दृष्टि से अलग श्रीलंका-नेपाल सहित भारत के विभिन्न क्षेत्रों की जमीनी सच्चाई को स्तब्ध हो देखते हुए कई दिनों तक मेरी ऊहापोह में रहतीं हैं कि ब्रिटेन लौट जाएं, लेकिन अमलेंदु की परिवर्तनकामी दृढ़ता को महसूस करते हुए फिलहाल भारत में ही रुकने का फैसला करती हैं और 10 अप्रैल 1970 को दोनों विवाह कर लेते हैं। इसके बाद वह गांवों को देखने-जानने के लिए अमलेंदु के साथ तत्कालीन बिहार के औद्योगिक नगर जमशेदपुर से थोड़ी दूर एक बदहाल गांव में गिरफ्तार कर लिए जाते हैं। जादूगोड़ा थाने से उन्हें चाइबासा जेल लाया गया, जहां अन्य कैदियों को अमानवीय यातनाएं दी जा रही थीं। वहां से हजारीबाग जेल में अलग-अलग सेल में दोनों बंद किए जाते हैं और सब एक-दूसरे से विदा लेते हैं।

मेरी को जनाना किता में जगह मिलती है,जहां कल्पना नामक सहबंदिनी भी है। कल्पना हर प्रसंग और घटना अंग्रेजी में मेरी को बताती है। तमाम अमानवीय स्थितियों का कल्पना के सहयोग से ही मेरी सामना करती है। चूंकि मेरी की गिरफ्तारी सिंहभूम जिले में होती है और मुकदमा भी जमशेदपुर की अदालत में ही दर्ज है, इसलिए उसे अनेक बार जमशेदपुर जेल में लाया जाता है। उसकी जेलयात्रा हजारीबाग-जमशेदपुर के बीच चलती रहती है। इस तरह निर्दोष मेरी का एक भुक्तभोगी के बतौर यातनादायक जेल जीवन और एक जिज्ञासु अध्येता के तौर पर भारतीय राजसत्ता और जनता के भीषण अंतर्विरोधों से सामना करते हुए शुरू होता है।

 

कैदतनहाई

जून 1970 में हजारीबाग जेल में बंद किए जाने के कुछ देर बाद पूछताछ करते सादी वर्दीधारी अधिकारी मेरी पर आरोपों की बौछार करते हैं, जिससे मेरी इंकार करती हुुईं कहती हैं,

” ‘क्या मैं अपने पति से मिल सकती हूं?’

‘तुम्हारा पति कौन है? तुम्हारी शादी नहीं हुई है। तुम सारे नक्सलवादियों की रखैल हो।Ó

‘और तुम निहायत घिनौने हो, जो ऐसा कह सकते हो। मेरी कहने से नहीं चूकतीं।

‘दूसरे दिन अखबारों में खबर छपी कि मैंने जेल में अपने फर्जी पति के साथ रहने की मांग की है। पांच वर्ष बाद भारत से रवाना होने के समय तक मैंने फिर कभी अमलेंदु को नहीं देखा। (पृष्ठ 17)।

हजारीबाग सेंट्रल जेल के महिला वार्ड में तमाम शासकीय खानापूरी और अखाद्य जलपान के बाद मेरी और कल्पना को कैद-तनहाई दिया गया, जो पंद्रह वर्ग फीट का एक बदबूदार कमरा था। वहां भी दोनों से पूछताछ का क्रम जारी रहा।

”अखबारों में खबर छपी कि मैं छापामार लड़की हूं और किसी यूरेनियम कारखाने को बारुद से उड़ाने की कोशिश में लगी थी,कि जंगल में पुलिस के साथ मुठभेड़ में लगी थी और एक पुलिस स्टेशन पर बमबारी की थी।‘’ (पृष्ठ 32)

बाहरी दुनिया से कटा जेल और जेल में भी कटी-कटी सीखचों में बंद कोठरी और तंग कोठरी में तन्हा मेरी को जेल जीवन का अभ्यस्त पात्र बनना था और वह बन रही थी। पल-पल पाबंदियां और न्यूनतम में भी न्यून ही विकल्प था। महिला वार्ड की मेटिन मैमून (कैदियों में से बनाई गई वार्डन) बंदिनियों के राशन से कुछ हिस्सा चुरा कर बेच लेती थी। खामोशी के सिवा कोई चारा नहीं था क्योंकि मेटिनें चीफ हैड वार्डर का मोहरा होती थीं और यह पदानुक्रम ऊपर जेल सुपरिटेंडेंट तक जाता था। कल्पना के साथ रहने की मांग पर जेल अधीक्षक का तर्क था कि ”तुमलोग नक्सलवादी नेता हो। एक साथ रहना चाहती हो ताकि भाग निकलने की योजना बना सको और सरकार के खिलाफ षड्यंत्र कर सकोÓÓ (पृष्ठ 36)। फिर भी सन्नाटे के विरुद्ध जितनी कविताएं याद आतीं उसका पाठ करतीं, गाने गातीं और सीखचों से सटकर कल्पना से जोर-जोर से बात करतीं और थककर शांत-निर्मल चांद को निहारती। ”मैं इस बात के लिए कृतज्ञ थी कि जेल का जीवन मुझे प्रकृति से पूरी तरह अलग नहीं कर सका था।‘’ (पृष्ठ 37)

 

मेरीकल्पना

सांस्थानिक यंत्रणा की निरंतरता में भी मेरी-कल्पना ने वार्ड की खुली जगह में फूल-तरकारी रोप कर हरियाली से मौन संवाद किया, लेकिन सुरक्षा-सतर्कता के नाम पर जेल प्रशासन ने सब उजाड़ कर मदांध ध्वंस से दोनों को चेतावनी दे दी कि कैदियो! सीखचों में रहो घुट-घुट मरो! पथरीला सेल गर्मी में तपता, आंधी में धूल से पटता, बारिश में बौछारें भिगातीं,जाड़े में बर्फ की तरह ठंडातीं यानी हर मौसम जिंदगी से लडऩे के लिए खड़ा हो जाता। अदालतों में तारीख-दर-तारीख पेशी होती। अभियोग बताए जाते। हर प्रकार के आरोप किए जाते। बताया जाता कि मुकदमे की सुनवाई शुरू होने वाली है, लेकिन वह दिन कभी नहीं आया। जेल में राजबंदी के साथ मानक व्यवहार की मांग पर ”सुपरिंटेंडेंट ने साफ-साफ कह दिया कि हमलोग अपराधियों की श्रेणी में आते हैं और हमें जो दर्जा मिला है वह जारी रहेगा।‘’ (पृष्ठ 41)। कभी-कभी कलकत्ता स्थित उप उच्चायुक्त कार्यालय से ब्रिटिश अधिकारी मिलने आते।

”उसने बताया कि अंत:वस्त्र के लिए राजधानी पटना से अनुमति लेनी होगी… मुझे हंसी आ गई कि अपने कपड़े बदलने के लिए मुझे बिहार सरकार के मुख्य सचिव के नाम अर्जी लिखनी पड़ेगी’’ (पृष्ठ 41)। अचानक सितंबर में मुआयना करते हुए सुपरिटेंडेंट ने मेरी-कल्पना को दिन भर साथ रहने की छूट दे दी। ”अगले दिन सवेरे हमारी कोठरियों के ताले खोल दिए गए और हमें दिन की रोशनी में तथा ‘आजादी’ के नए युग में विचरण की छूट दे दी गई ‘’  (पृष्ठ 43)। उसी दिन धौंसबाज मैमून भी रिहा होकर जेल से चली गई और उसकी जगह नागो तैनात हो गई।‘’

यह विडंबना ही है कि जिस निर्मम दंड संहिता, अपराध प्रक्रिया संहिता और जेल मैनुअल का सामना ब्रिटिश नागरिक मेरी टाइलर को करना पड़ रहा था, वह ब्रिटिश उपनिवेश की ही निर्मिति है।

 

महिला वार्ड की नागरिकाएं

जेल का जिस विलक्षण अंतर्दृष्टि और धैर्य से मेरी सामना करती रहीं,वह उदाहरणीय है। महिला वार्ड में आने वाली बंदिनीयों के वर्ग-वर्ण चरित्र से वह समझ लेतीं कि भारतीय समाज और सत्ता की बुनियाद सबलों के हितरक्षण में कार्यरत है। मेरी की आकलन क्षमता की परिपक्वता में जेलखाने ने समाजशास्त्र जैसी पीठिका बना दी थी। महिला किता में आने वाली आरोपियों का जैसा वर्णन-विवरण मेरी ने अपनी पुस्तक में गहराई से दर्ज किया है,वह शोधकार्य से कमतर नहीं है। एक-एक महिला आरोपियों का नाम सव्याख्या प्रस्तुत कर वह पाठकों को चकित कर देतीं हैं। उनकी नामावली लंबी हैऔर वह स्त्री विमर्शकारों को सिखातीं हैं कि भारतीय तलछट की इन नागरिकाओं को केंद्रित किए बिना कोई भी दावा अधूरा है। कल्पना,मैमून,नागो,सैबुनिसा, रोहिणी, सुकरी,लेउनी,बिशनी,बुलकानी, मोहिनी, पन्नो, बैंगिया, बिल्किश, राजकुमारी, सोमरी,भक्तिन, बुधनी,बीना, हीरा, गुलाबी,दुलाली,कोरमी,बाल्को,गुरुवाड़ी, अलमोनी,बशीरन, सावित्री, शांति, राधामोनी, विरसी, मोती,सत्या और कुछ अनाम संथाल लड़कियों की जीवन कथाएं और घटनाएं जगजाहिर करतीं हैं कि भारत में न्यायपूर्ण मानवीय जीवन को असंभव बनाने का दुष्चक्र चल रहा है।

मेरी की सूक्ष्म दृष्टि एक ओर भारतमाता की सदावंचित बेटियों को देखती है तो दूसरी ओर विशेषाधिकारप्राप्त राजनेत्रियों को भी नहीं बख्शतीं। नवंबर 1970की एक रात मेरी से कोठरी खाली करायी गई और मय साजो सामान एक महिला ‘राजनीतिक बंदीÓ ने प्रवेश किया। वह खनिक यूनियन की सेक्रेटरी थी और केदला खान मैनेजर की हत्या के मामले में गिरफ्तार हुई थी। वह दिन में कार्यालय में गप्पें मारती थी।महंगा खाना खाती थी। उसकी हर फरमाइश पूरी होती थी। कई महिला कैदियों को नौकर बना लिया था और उनसे मासिक स्राव के कपड़े धुलवाती थी।

तीन सप्ताह में ही उसे जमानत मिल गई और जेल में मिला भरपूर सामान लेकर विदा हो गई। बाद में वह विधायिका भी हो गई। हिंदी साहित्य समाज सहज अनुमान लगा सकता है कि यह महिला कौन रही होगी क्योंकि राजनीति के साथ वह साहित्य में भी दखल रखती थी और उसकी दो आत्मकथाएं खूब चर्चित हुईं। पता नहीं उन आत्मकथाओं में जेल प्रसंग को याद किया गया है या नहीं!

कुछ दिन बाद भाकपा की एक विधायिका भी सरकारी मेहमान होकर आई। वह अपने विधायक पति की हत्या के बाद सहानुभूति के कारण विधायिका बनी थी, लेकिन वह माक्र्स-लेनिन को नहीं जानती थी। वह रोजा-नमाज भी रखती थी। कहती थी कि वह विधानसभा की कार्यवाही नहीं समझती हैं। अंग्रेजी खाने और बुनाई में रुचि लेती थी। बिहार आंदोलन में शामिल एक प्रोफेसर, एक प्रधानाध्यापिका और एक पूर्व संसद सदस्या भी जेल में तशरीफ लाईं। सभी साधन संपन्न थीं और राजनीति में सत्ता संपन्न होना चाहतीं थीं। जेल प्रशासन इन्हें हर सुविधाएं तत्परता से मुहैया करता था। एक ओर जेल प्रशासन साधारण कैदियों की वैध सुविधाएं छीनता था तो दूसरी ओर प्रभावशाली कैदियों की जरूरत से ज्यादा खिदमत करता था। इस आपराधिक विभेद को मेरी ने सविस्तार उजागर किया है।

 

पुरुष वार्ड के हालात

कैद तन्हाई झेलते हुए भी मेरी पुरुष वार्डों में चल रही गतिविधियों को भांप लेती थी। सिर्फ इसलिए नहीं कि उसका पति अमलेंदु बंदी था बल्कि उच्च विचारोंं से लैस अन्य सहकैदियों का भी ख्याल उसे हर क्षण रहता था। इसके साथ ही वर्णक्रम में सबसे नीचे धकेली गई जाति के प्रताडि़त कैदियों के प्रति भी वह गहरी सहानुभूति जताती थी। जादूगोड़ा थाने के उस अमानवीय दृश्य ने मेरी को हिला दिया, ”मैंने फर्श पर एक लड़के को बैठे देखा। हाथों में हथकड़ी और कमर में रस्सी बंधी थी। उसकी एक आंख सूजकर लाल हो रही थी। खून टपक कर गाल पर बह रहा था। वह केवल जांघिया पहने था और बुखार से कांप रहा था… दूसरे कमरे में अमलेंदु,उसका भाई तथा लगभग पंद्रह लोग एक -दूसरे से रस्सी से बंधे फर्श पर बैठे थे…सूजी आंखों वाला लड़का फिर बुखार से कांपने लगा। उसने अपने कपड़े मांगे पर अफसर तिरस्कारपूर्ण मुद्रा में हंसकर रह गया। मैंने उस लड़के के कंधे पर वह कपड़ा रख दिया जो सिपाही ने मुझे दिया था। उसे रायफल के कुंदे से काफी मारा था (पृष्ठ25)।‘’

”हजारीबाग जेल में जब कैदियों को अलग-अलग वार्ड में भेजा जाने लगा तो चलते समय मैंने फर्श पर झुके अमलेंदु के सर को सहला दिया और उसके भाई की ओर देख कर मुस्कुरा पड़ी’’ (पृष्ठ 27)। यहां भी पूछताछों का सिलसिला जारी रहा। पूछताछ अधिकारी ने बताया कि,”अमलेंदु मुझसे कहीं बुरी हालत में है’’।

जेलों की पूरी व्यवस्था पुरुषसत्तात्मक थी डर,दमन और लूटपाट आधारित। जेल की नौकरी ने कर्मचारियों की क्रूर प्रवृत्ति को उभार दिया था। मु_ी भर वार्डर ऐसे मिले जो सहानुभूति रखते और हमें खबरें देते। नियमावली नाम की थी। ”मुझे बताया गया कि जेल मैनुअल की केवल एक प्रति है, उसे किसी को नहीं दिया जा सकता… कार्यालय में भी जेल मैनुअल नहीं देख सकती। अंतत: जेलर ने साफ-साफ शब्दों में जवाब दिया कि जेल मैनुअल है ही नहीं’’ (पृष्ठ 38) ‘’। नकारात्मकता का माहौल था। सकारात्मकता और सुधार का दूर-दूर तक पता नहीं। मुलाकाती में सिर्फ ब्रिटिश अधिकारी ही कभी-कभार मिलने आते थे। एक दिन अमलेंदु के माता-पिता मिलने आए। बिहार सरकार ने अनुमति दे दी थी। वे पांच सौ मील की यात्रा कर आए थे। दस मिनट बातचीत की इजाजत थी। वे अमलेंदु और उसके भाई से मिल चुके थे। साथ मिलने की अनुमति नहीं थी।अमलेंदु को न देख पाने का मुझे दुख था।‘’ (पृष्ठ 58)।

 

योजनाबद्ध गोलीबारी

अचानक एक रात दस बजे जेल सुपरिटेंडेंट और जेलर तलाशी लेने आ गए। सेलों में हर सामान उल्टे-पल्टे गए। जामातलाशी ली गई। सुबह ताले नहीं खोले। अहाते में बागीचा खोद डाला। सख्ती बढ़ायी गई। हमें लगा कि बड़ी भूमिका तैयार की जा रही है। वार्ड की सुकरी हर पंद्रह दिन पर कैदी पति से मिलने कचहरी जाती थी। उसका पति नक्सलवादी सेल में जमादार था, लेकिन नक्सलवादियों का हमदर्द माने जाने वाले अन्य कैदियों की तरह उसे भी डंडा-बेड़ी दी गई थी। पति से प्राप्त सूचना के अनुसार सुकरी ने बताया कि अगली बार हर माह खतरे की घंटी के रिहर्सल के दौरान नक्सलवादियों पर व्यापक प्रहार की योजना बनी है। इसके बाद एक रविवार मूसलाधार वर्षा के दौरान खतरे की घंटी और सीटियां बजीं। फिर गोलियां दगने की आवाज आई। गोलीकांड 25जुलाई 1971को हुआ था और अगस्त के उत्तरार्ध में लंदन टाइम्स में पढ़ा कि उस घटना में सोलह नक्सलवादी मारे गए थे। उप उच्चायुक्त ने मुझे लंदन टाइम्स भेजना शुरू किया था, जिसे जेल अधिकारियों ने सेंसर करने की जरूरत नहीं समझी थी। टाइम्स आफ इंडिया के अनुसार बारह नक्सलवादी मारे गए थे। जांचकर्ता अवकाश प्राप्त जज ने गोलीकांड को उचित ठहराया था। (पृष्ठ 64-65)। ”जेल में ही बनी अस्थायी अदालत में मैंने तीन साल में पहली बार 30जून 1973 को पैंतीस सह-अभियुक्तों को देखा था’’ (पृष्ठ 122)।

जमशेदपुर में पेशी के बाद हजारीबाग जेल लौटने के लिए बस में बैठने के दौरान लेखिका मेरी ने एक दृश्य देखा कि कलकत्ता से आई एक बूढ़ी मां अपने बेटे से मिलना चाहती थी। जब उसका बेटा भी बस में बैठने लगा तो दो-चार शब्द कहने की इजाजत मिली। मां बेटे के पैरों में बेडिय़ां देख रोने लगी तो बेटे ने पास बुला कर कहा,मां, तुम्हारे हाथ में भी तो चूडिय़ां हैं, फिर मेरे पैरों में बेड़ी है तो तुम क्यों दुखित हो रही हो।‘’ (पृष्ठ 176)।

पुस्तक की भूमिका दो शब्द में मेरी ने लिखा है,”भारत में, लोगों का ऐसा कोई भी गुट नहीं है जो अपने आपको नक्सलवादी कहता हो। इस शब्द का इस्तेमाल आंदोलन के समर्थकों को अपमानजनक ढंग से चित्रित करने के लिए विरोधियों द्वारा किया जाता था… मैं इस बात पर फिर जोर देना चाहूंगी कि इस पुस्तक में प्रयुक्त नक्सलवादी शब्द को किसी भी रूप में अपमानजनक अर्थ से न जोड़ा जाए।‘’ (पृष्ठ 11-12)।

 

आंदोलनों के कैदी

सिर्फ नक्सलवादियों को ही नहीं, बल्कि जेल में आने वाले अन्य आंदोलनकारियों से मेरी आंदोलनों का चरित्र समझ लेती थी। ”शिक्षा के सरकारीकरण की मांग करते हड़ताली अध्यापकों का एक जत्था जेल में आया था। उन्हें उच्च श्रेणी मिली थी। अच्छा खाना और काफी कपड़े दिए गए थे। जाते हुए वे कपड़े ले गए थे, जबकि कुछ कैदियों के पास ब्लाउज तक नहीं थे। सहायक जेलर की दलील थी कि वे गरीब हैं और जेल के बाहर चिथड़े ही लपेटती हैं। उन्हें आशा नहीं करनी चाहिए कि समृद्ध होने के लिए जेल में रखा गया है। लेकिन कांग्रेस सरकार ने चुनाव जीत लिया था और इसके लिए जिस नारे का इस्तेमाल किया गया था, वह था गरीबी हटाओ।‘’ (पृष्ठ 93)। उत्तर प्रदेश में पीएसी विद्रोह,असम में भाषा आंदोलन, पंजाब के छात्र आंदोलन,डाक कर्मियों की हड़ताल, कांग्रेस के संकट औरआंध्र प्रदेश के दंगों की भी चर्चा इस पुस्तक में है।

1972 के क्रिसमस से थोड़ा पहले आंदोलनकारी अराजपत्रित कर्मचारीयों से जेल भर गया। वेतन वृद्धि,चिकित्सा और आवास सुविधा की मांग कर रहे थे और जेल में भी बेहतर सुविधा का हक छोड़ते नहीं थे। अंतत: हड़ताल वापस ली गई और उन्हें भौतिक उपलब्धि नहीं हुई। बहुतों को नौकरी से निकाल दिया गया था और कुछ के वेतन काटे गए थे। मई1974में रेलकर्मियों की देशव्यापी हड़ताल हुई। बीस दिनों की हड़ताल में पचास हजार रेलकर्मी गिरफ्तार किए गए। ये सभी आंदोलन विभागीय और सिर्फ अर्थवादी थे, इसलिए अल्पकालिक शक्ति दिखा कर निरस्त हो गए या सरकार ने सेना की मदद से सख्ती से कुचल दिए।

 

जेपी आंदोलन और आपातकाल

इस किताब में दो ऐसे आंदोलनों का जिक्र है,जिसे छात्रों ने शुरू किया था और उनका दूरगामी सियासी असर पड़ा। जनवरी 1974में गुजरात में विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हुआ। सेना तैनात की गई। 73नगरों में कफ्र्यू लगे। 40 लोग मारे गए।बिहार में भी 21जनवरी को आम हड़ताल हुई और मार्च में ही छात्र आंदोलन शुरू हो गया था। मीसा और डीआईआर में गिरफ्तारियों के कारण जेल भर गए थे। गोलीबारी, आगजनी, निषेधाज्ञा, कफ्य,फौजी परेड के बावजूद आंदोलन रुक नहीं रहा था। तीन सप्ताह बाद आंदोलन का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण के हाथ में आ गया था। वह पुराने गांधीवादी और कम्युनिस्ट विरोधी थे, हालांकि किसी जमाने में सोशलिस्ट पार्टी में रह चुके थे। जैसे-जैसे आंदोलन तेज होता गया, नेतृत्व अधिकाधिक दक्षिणपंथी दलों के हाथ में जाने लगा। इन दलों का सारा ध्यान विधानसभा भंग कराने और संसद के नए चुनाव कराने की मांग पर टिका था, जिसके बारे में मुझे पक्का यकीन था कि इससे दूसरी भ्रष्ट सरकार के सत्तारूढ़ होने के सिवा कोई नतीजा नहीं निकलेगा।…. संपूर्ण क्रांति और वर्गविहीन जनतंत्र की जो धारणा जयप्रकाश नारायण ने पेश की थी, वह स्वयं उन्हें भी अव्यवहार्य लग रही थी।… मैंने साफ शब्दों में कह दिया कि स्पष्ट राजनीतिक विचारधारा के बिना स्वत:स्फूर्त ढंग से चलने वाला आंदोलन भारत की समस्याओं का अंतिम तौर पर समाधान ढूंढ सकता है, इसमें संदेह है (पृष्ठ 171-154)।

महिला वार्ड जेपी आंदोलन की महिला समर्थकों से भर गया था। दिन के तीसरे पहर वे अमशीनीकृत ग्रामीण जीवन की प्रशंसा में गीत गातीं-नाचतीं और समझतीं कि अमशीनीकरण से ही भारत की समस्याओं का हल निकलेगा (पृष्ठ171)। असंतोष और संकट गहराता जा रहा था। 3 जनवरी 1975 को समस्तीपुर स्टेशन पर सात सौ पुलिसकर्मियों की तैनाती के बावजूद रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या हो गई थी। जयप्रकाश आंदोलन भी शांत हो गया था।

”हमारा मुकदमा शुरू होने के कुछ ही दिन पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनाव में भ्रष्ट तरीके अपनाने के लिए दोषी ठहराया था। सरकार के लिए यह जबरदस्त आघात था। विपक्ष ने श्रीमती गांधी से इस्तीफे की मांग की। जवाबी कार्रवाई में प्रधानमंत्री ने आपातस्थिति की घोषणा की। नागरिक अधिकार स्थगित किए गए। सेंसरशिप लागू हुई। विरोधियों की गिरफ्तारियां हुईं। 26जून की रात ट्रकों में लादकर सरकार के नए विरोधियों को लाया गया। आपातस्थिति की घोषणा से स्पष्ट था कि सरकार कितनी कमजोर हो गई थी। सबसे ज्यादा हैरानी मुझे तब हुई जब सोवियत संघ, जिससे दुनिया की पीडि़त जनता की खुशहाली के लिए काम करने की अपेक्षा की जाती है, पहले के अनेक अवसरों की तरह इस बार भी भारत सरकार की कार्रवाई का पूरा-पूरा समर्थन दिया’’ (पृष्ठ 196)। वही हुआ, जैसा मेरी ने आकलन किया था। गुजरात और बिहार का छात्र आंदोलन सत्ता के शतरंज का मोहरा बनकर इस्तेमाल हो गया। कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं ला सका।

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