राजा महेंद्र प्रताप

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राष्ट्रवादी महापुरुष पर भगवा रंग

मोहम्मद सज्जाद

 

राजा महेंद्र प्रताप के महान स्वतन्त्रतासेनानी होने के पीछे एमओए कॉलेज में 1895 से 1907 के दौर में छात्र होने का बड़ा योगदान था। यह समय विद्यार्थियों के आंदोलनों के उभार  का था। 1899 में सैयद मसूद ( जिनके पुत्र रौस मसूद राजा महेंद्र प्रताप के अच्छे दोस्त थे) को प्रिंसिपल थियोडोर बेक द्वारा,कॉलेज में ब्रिटिश सत्ता के वफ़ादारों के उकसावे परजनवरी 1899 में कॉलेज के सेक्रेटरी के पद से हटा देने से असंतोष भड़का।

 

सन 2014 के आखिरी महीनों में अलीगढ़ (उ.प्र.) के भगवा संगठनों ने अलीगढ़ मुस्लिम  विश्वविद्यालय के प्रशासन के सामने, विश्वविद्यालय के पूर्व-छात्र राजा महेंद्र प्रताप की जयंती को अवकाश का दिन घोषित करने की मांग रख दी। उन्होंने यह झूठ फैलाना शुरू कर दिया कि राजा महेंद्र प्रताप द्वारा दान दी गई जमीन पर ही विश्वविद्यालय बना है।

सच यह है कि विश्वविद्यालय के आवासीय भवन के हर कमरे के दरवाजे पर पत्थर पर विश्वविद्यालय के निर्माण में 500 रुपए या उससे अधिक देने वाले हर व्यक्ति का नाम खुदा है। सबसे बड़ी नकद रकम देने वाले दानदाता थे उद्योगपति आदमजीपीरभाई, जिन्होंने 1875-76 में 1,10,000 रुपए दिए। राजा घनश्याम सिंह ने हॉस्टल के एक कमरे के लिए 250 रुपए दिए। इस समय यह विश्वविद्यालय के विक्टोरिया गेट के पूर्व में सर सैयद हॉल का कमरा नंबर 31 है।

2014 के अंत में, भाजपा नेताओं ने दावा किया कि मुसरान के जमींदार  ने विश्वविद्यालय के लिए कुछ जमीन दान की थी। यह भी झूठ  है। यह जमीन विश्वविद्यालय के मुख्य  परिसर से करीब चार किलोमीटर दूर है। पुराने अलीगढ़ शहर में ग्रांड ट्रंक रोड के किनारे स्थित सिटी हाई स्कूल के विद्यार्थी इसे खेल के मैदान के तौर पर इस्तेमाल करते थे। 1.22 एकड़ की यह तिकोनी जमीन 1929 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को 90 साल के पट्टे  पर दी गई थी। इसलिए 2019 में इसके मालिकाना हक फिर से महेंद्र प्रताप के वारिसों को वापस मिल गए।

मजेदार बात यह है कि अलीगढ़ से चार बार भाजपा से विधायक चुने गए कृष्ण कुमार नवमान ने दावा किया था कि यह जमीन मेरी है। उच्चतम न्यायालय ने 2003 में अन्तरिम आदेश दिया था कि लीज की अवधि समाप्त होने से पहले राजा महेंद्र प्रताप के वंशजों को छोड़ कर कोई अन्य व्यक्ति इस जमीन को नहीं ले सकता।

2019 के बाद, विश्वविद्यालय और राजा साहब के वंशज इस बात पर राजी हो गए कि सिटी हाई स्कूल और एक अन्य स्मारक भवन का नाम राजा महेंद्र प्रताप के नाम पर रखा जाए। इस आशय की विश्वविद्यालय की अनुसंशा अब भी केंद्र सरकार के पास विचाराधीन है। यह हाई स्कूल तुफ़ैल अहमद मंगलोरी (1868-1946) की प्रेरणा से बना। वह पाकिस्तान बनाए जाने के विचार के प्रबल विरोधी थे और उनकी 1945 की किताब मुसलमानों का रोशन मुश्तकबिलटूवर्ड्स कॉमनडेस्टिनी के अनेक संस्करण छप चुके हैं।

1957 में, राजा महेंद्र प्रताप निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मथुरा सीट से लोक सभा के लिए चुने गए। उन्होंने (तत्कालीन) जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को हराया जिनकी जमानत जब्त हो गई थी। 1967 में उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में अलीगढ़ से लोक सभा का चुनाव लड़ा और हिन्दू महासभा के शिव कुमार शास्त्री ( वह भी, महेंद्र प्रताप की तरह, जाट थे) से हार गए। अपने जीवन के अंतिम 35 वर्षों में राजा महेंद्र प्रताप बहुत अस्थिर प्रवृत्ति के रहे और ‘अटपटी आध्यात्मिकता’ की बातें करते थे। शहरी मतदाता, जो पहले उनके पक्ष में थे, उनके द्वारा खुद को ‘आर्य पेशवा’ घोषित करने से उखड़  गए। चुनाव में उनका मुख्य ज़ोर जनसंघ के विरोध पर था, जो आज की भाजपा की जन्मदाता पार्टी है। अलीगढ़ के जाट वोट भी बंट गए थे क्योंकि  उनके प्रतिद्वंद्वी शिव कुमार शास्त्री भी जाट थे और विद्वान व्यक्ति माने जाते थे। (वह हरिद्वार-स्थित गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके थे।) शास्त्री जी बाद में चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाले भारतीय क्रांति दल में शामिल हो गए थे। चौधरी साहब उन्हें ‘दिमागी बीमार’ कहते थे।

इस पृष्ठभूमि को दखते हुए यह आश्चर्यजनक है कि भाजपा राजा महेंद्र प्रताप की छवि को हड़पने में जुटी है। यह 2022 के विधान सभा चुनावों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट मतदाताओं को लुभाने की चाल लगती है। भाजपा को शायद अंदाजा हो गया है कि केंद्र सरकार द्वारा 2020 में आपा-धापी में संसद में पारित तीन किसान  क़ानूनों से जाट किसान उससे काफी नाराज हैं। शायद इसीलिए भाजपा राजा महेंद्र प्रताप के नाम पर राज्य सरकार द्वारा संचालित विश्वविद्यालय खोलने में जुटी है। इसकी योजना बीआरआंबेडकर आगरा विश्वविद्यालय के  बजट से 101 करोड़ रुपए निकाल कर नए विश्वविद्यालय के लिए रकम जुटाने की है। जिस तमाशे के साथ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने इस राज्य ( केंद्रीय नहीं!) विश्वविद्यालय की आधार शिला रखी, उससे साफ पता चलता है कि यह चुनाव राजनीति का एक हथकंडा है। हमें जानकारी नहीं कि अब तक किसी प्रधान मंत्री ने किसी राज्य विश्वविद्यालय की आधार शिला रखी हो।

राजा महेंद्र प्रताप

महेंद्र प्रताप मुसरान के राजा घनश्याम के तीसरे पुत्र थे। उन्हें हाथरस के राज ने गोद ले लिया था। जब वह मोहमडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज (एमओ ए कॉलेज) के छात्र थे , तभी उनका विवाह जींद की राजकुमारी से हो गया था। एमओए कॉलेज के संस्थापक सर सैयद अहमद खा महेंद्र प्रताप के पिता के घनिष्ठ मित्र थे। अपने 1947 में लिखे स्मृति-लेखों की पुस्तक माइ लाइफ स्टोरी ऑफ फिफ्टी फाइव इयर्स में , महेंद्र प्रताप ने 1896 से 1907 के दौरान एम ओ ए कॉलेज में बिताए समय को याद किया है। एमओए कॉलेज ही 1920 में आज का अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू)  बन गया।

महेंद्र प्रताप ने एमओए कॉलेज के अपने अध्यापक अशरफ अली को भी याद किया है, जो जन्माष्टमी पर वृत लेते थे और यमुना में स्नान करते थे।

राजा के कॉलेज में ब्रिटिशविरोधी आंदोलन

राजा महेंद्र प्रताप के महान स्वतन्त्रता-सेनानी होने के पीछे एमओए कॉलेज में 1895 से 1907 के दौर में छात्र होने का बड़ा योगदान था। यह समय विद्यार्थियों के आंदोलनों के उभार  का था। 1899 में सैयद मसूद ( जिनके पुत्र रौस मसूद राजा महेंद्र प्रताप के अच्छे दोस्त थे) को प्रिंसिपल थियोडोर बेक द्वारा,कॉलेज में ब्रिटिश सत्ता के वफ़ादारों के उकसावे पर,  जनवरी 1899 में कॉलेज के सेक्रेटरी के पद से हटा देने से असंतोष भड़का। 1893 में सर सैयद के पुत्र जस्टिस सैयद महमूद (1850-1903) ने नस्ली भेदभाव के विरोध में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का पद छोड़ दिया। ब्रिटिश नसली साम्राज्यवाद के खिलाफ इस कदम का खासा राष्ट्रीय प्रभाव पड़ा।

कॉलेज के एक अन्य विद्यार्थी: हसरत मोहानी ने 1903 में प्रखर उपनिवेशवाद-विरोधी पत्रिका उर्दू-ए-मुअल्ला निकाली। इसमें छपे एक लेख के लिए उन्हें जेल की सजा हुई। 1905 में,एमओए कॉलेज के विद्यार्थियों ने कांग्रेस पार्टी के बनारस अधिवेशन में भाग लिया। इस अधिवेशन की अध्यक्षता गोपाल कृष्ण गोखले ने की थी। मई  1906 में, अलीगढ़ स्टूडेंट यूनियन ने अंग्रेजों को भगाने  के लिए हिन्दू-मुस्लिम सहयोग का प्रस्ताव पास किया। 1907 में योरोपियों के खिलाफ छात्रों ने एक बड़ी हड़ताल की। पटना के सैयद महमूद (1889-1971) इस आंदोलन के एक प्रमुख नेता थे जो बाद में प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल में विदेश राज्य मंत्री बने। प्रखर लेखक और बाद में गांधीवादी बने सैयद हुसैन (1888-1949) 1907 में इस कॉलेज में दाखिल हुए।

विद्रोही, क्रांतिकारी मिज़ाज के विद्यार्थियों ने होस्टल में अपने कमरों में गोखले, जर्मन के क़ैसर और तुर्की के सुल्तान के चित्र लगाने शुरू कर दिए। अंग्रेजों की इन गतिविधियों पर कड़ी नजऱ थी। इस विद्रोही काल में, राजा महेंद्र प्रताप भी इसी कॉलेज में थे। 1907 में एमओ ए कॉलेज छोडऩे के बाद वह दुनिया भर में घूमे और अनेक देशों में  उन्होंने मित्र बनाए, व्याख्यान दिए, अखबारों में लेख लिखे, भारतीय क्रांतिकारियों के लिए धन जुटाया: और इस तरह भारत की आज़ादी की मांग को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर ले आए।  कॉलेज के दिनों में, 1904, 1905 और 1906 में 75 दिनों की छुट्टियों के दौरान उन्होंने देश भर का भ्रमण किया। इस तरह उनका राष्ट्रवादी और मानवीय व्यक्तित्व विकसित हुआ।

अलीगढ़ कॉलेज की पढ़ाई के दिनों में ही, उन्होंने गोखले को पत्र लिखा और दक्षिण अफ्रीका जाकर महात्मा  गांधी के आंदोलनों में शामिल होने की सलाह  मांगी। गोखले ने उन्हें वहाँ जाने से माना किया। तब राजा साहब ने दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के आंदोलन के लिए 1,000 रुपए ( तब के हिसाब से बहुत बड़ी रकम) दान की। सरकार की नाराजी की आशंका को देखते हुए अपने ससुर (जींद के राजा) द्वारा मना किए जाने के बावजूद, उन्होंने कांग्रेस के1906 के कलकत्ता (अब कोलकाता) अधिवेशन में भाग लिया।

सन1910 में, महेंद्र प्रताप कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन की स्वागत समिति के सदस्य थे। उनके संस्मरणों के अनुसार, उन्होंने ‘प्रेम धर्म’ का विचार रखा और मथुरा में ‘प्रेम महाविद्यालय’ ( नि:शुल्क औद्योगिक और कला महाविद्यालय – एक तरह से एक प्रारम्भिक पॉलीटेक्निक संस्थान) खोला। मालवीय जी, लाला हंसराज, मुंशीराम जैसे अनेक नेताओं-सामाजिक  कार्यकर्ताओं ने इस कार्य की सराहना  की। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा ने इस कॉलेज का स्तर बढ़ा कर इसे विश्वविद्यालय नहीं बनाया। इसकी बजाय, उसने बीआर आंबेडकर आगरा विश्वविद्यालय के  बजट को काट कर, उस रकम से राजा महेंद्र प्रताप विश्वविद्यालय की स्थापना की घोषणा  कर डाली।

राजा महेंद्र प्रताप ने उस जमाने में एक सफाई कर्मचारी के साथ भोजन करके सनसनी फैला दी। उन्होंने मानवता की सेवा पर बल दिया और गाँवों में कुछ स्कूलों के लिए धन दिया। दिसंबर 1914 में उन्होंने देहरादून से हिन्दी और उर्दू में प्रेम और निर्बल सेवक पत्रिकाएं निकलनी शुरू कीं।

मुरादाबाद के जिला प्रशासन को शक था कि उनका ‘प्रेम धर्म’ अभियान गौ-संरक्षण के लिए है। जब उन्हें इस अभियान को बंद करने को कहा गया तो उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा, ”मैं पशुओं से अधिक मनुष्यों को महत्व देता हूँ।‘’

भारतीय क्रांतिकारियों को महसूस होने लगा कि उन्हें भारत की आज़ादी के लिए वैश्विक समर्थन जुटाना होगा। 1 दिसंबर 1915 को, अपने जन्मदिन पर वह काबुल में  स्वेच्छा से निर्वासित भारत सरकार के अस्थायी राष्ट्र प्रमुख बन गए। मौलाना बरकतुल्लाह इस सरकार के प्रधान मंत्री और मौलाना ऊबैदुल्लाह गृह मंत्री बने। बाद में,  इसे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ ‘सिल्क लैटर कोंसपिरेसी’ नाम दिया गया।

उन्होंने भारत की आजादी के लिए एक ‘इन्टरनेशनल सोशलिस्ट आर्मी’ तैयार करने की योजना बनाई और इस मकसद से वह अनेक देशों में गए। उन्होंने जर्मनी के दो शहरों में दफ्तर खोले। अलीगढ़ में उनके सहपाठी हिदायत अहमद जर्मनी में उनके सेक्रेटरी थे। जापान में, वह रासबिहारी बॉस से मिले और उनके लिए मुख्यत: अफगानिस्तान और तुर्की से 500 डॉलर की रकम जुटाई। कॉलेज के दिनों के उनके एक मित्र सैयद हुसैन ने उन्हें ऐसे काम नहीं करने की सलाह दी लेकिन राजा महेंद्र प्रताप ने गदर पार्टी को भी मदद दी।

वह अफगानिस्तान के बादशाह अमानुल्लाह के भी दोस्त थे।  काबुल प्रवास के दौरान, उन्होंने प्रताप (कानपुर), जमींदार, मिलाप, बंदे मातरम, स्वराज (लाहौर) और अकाली (अमृतसर) आदि पत्र-पत्रिकाओं  में लेख लिखे।

सोवियत संघ की 1917 की बोल्शेविक क्रांति के बाद राजा महेंद्र प्रताप लेनिन से भी मिले। उनका इरादा ‘ब्रिटिश साम्राज्य की विरोधी और भारत-समर्थक ताकतों की मदद से ब्रिटिश भारत को घेरने’ का था। आकलन था कि जर्मनी और जापान क्रमश: पश्चिम और पूरब से ब्रिटिश सत्ता को नष्ट कर रहे हैं। उनका मानना था कि भारत के लोगों के सामने चुनौतियाँ बस गरीब-अमीर के बीच का अंतर कम करना और हिंदुओं तथा मुसलमानों के बीच सद्भाव बढ़ाने की हैं। उनकी राय में, भारत की आज़ादी के लिए ये दोनों अनिवार्य शर्तें  हैं।

विश्व शांति और कांग्रेस से संबंध

राजा महेंद्र प्रताप का कहना था, ”कांग्रेस देश के अंदर आज़ादी की लड़ाई लड़ रही है और हम बाहर से इस संघर्ष में तेजी ला रहे हैं।‘’ उन्होंने कहा, ”हमें लड़ाइयाँ फैलाने वालों से इंग्लैंड,जर्मनी, भारत और जापान को मुक्त करना है।‘’ वह विश्व-शांति के समर्थक थे। (भारत की आज़ादी के लिए) वह हिटलर,मुसोलिनी और सैन्यवादी जापान – सभी का स्वागत करने को तैयार थे। ”मैं उनकी आलोचना क्यों करूँ जिनके आपसी संघर्षों से कुल मिला कर ( ब्रिटिश) साम्राज्य पर ही चोट पहुँच रही है?’’ वह एक लोकतान्त्रिक विश्व व्यवस्था के स्वप्नदर्शी थे और योरोपीय संघ, एशियाई संघ तथा विश्व संघ बनाए जाने के पक्षधर थे। इसी वैचारिक पक्ष पर नेहरू और सुभाष बोस के बीच मतभेद थे। महेंद्र प्रताप के विचार भी सुभाष जैसे हैं, लेकिन अपने संस्मरणों में वह सुभाष का जिक्र नहीं करते। नेहरू ने भी प्रेम महाविद्यालय की सराहना  की थी और महेंद्र प्रताप से उनका 2-3 पत्रों का पत्र-व्यवहार भी हुआ था। लेकिन लगता है कि भारत की आज़ादी के बाद नेहरू का महेंद्र प्रताप से कोई संपर्क नहीं रहा। शायद यही वजह थी कि महेंद्र  प्रताप ने 1957 में और 1967 में अलीगढ़ से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा। इस पक्ष की ऐतिहासिक पड़ताल की जानी चाहिए।

अलीगढ़ विश्वविद्यालय के लिए सबक

यह सच है कि अलीगढ़ विश्वविद्यालय को अपने इतने विशिष्ट और सुचर्चित पूर्व-विद्यार्थी को बहुत पहले ही समुचित सम्मान के साथ याद कर लेना चाहिए था, इससे पहले कि  भाजपा को 2014 में अपनी अवसरवादी और संकीर्ण राजनीति चमकने का मौका मिलता। इससे पहले कि किसी अन्य चर्चित पूर्व-विद्यार्थी और बड़े दानदाता के बारे में कोई नई राजनीतिक अवसरवादी कहनी बुनी जाए, विश्वविद्यालय को अभी से अपने बड़े दान-दाताओं और पूर्व-विद्यार्थियों के योगदान को ससम्मान याद कर लेना चाहिए।

उदाहरण के तौर पर, दरभंगा नरेश रामेश्वर सिंह (1860-1929) ने जून 1912 में एमएओ कॉलेज को 20,000 रुपए दान में दिए थे और आग्रह किया था कि इस कॉलेज को एक विश्वविद्यालय बना दिया जाए।  उनका कहना था कि मुसलमानों को अपने धार्मिक-सांस्कृतिक मूल्य बनाए रखते हुए आधुनिक शिक्षा हासिल करनी चाहिए। उनके उत्तराधिकारी राजा कामेश्वर सिंह ( 1907-1962)  ने  विश्वविद्यालय को अक्तूबर 1945 में, मेडिकल कॉलेज खोलने के लिए 50,000 रुपए दान में दिए थे।

क्या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय क्षेत्रीय और सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों के चलते ऐसे योगदानों से मुंह चुराता रहा है? विश्वविद्यालय से जुड़ा होने के कारण, मैं ऐसे क्षेत्रीय पूर्वाग्रहों की संभावना से इनकार नहीं कर सकता। लेकिन अब यह बेहद ज़रूरी है कि  विश्वविद्यालय अपने दान दाताओं के योगदान को खुले मन से स्वीकार करे और तमाम संकीर्णताओं को छोड़ते  हुए, इस संस्था के निर्माण में ऐसे महापुरुषों के योगदान को याद करे।

अनु.: राजेंद्र भट्ट

लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग से जुड़े रहे हैं

धर्मनिरपेक्षता को यह सोच कर परिभाषित किया

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