मुंबई में पिछले पूरे महीने जो ड्रामा चलता रहा और लगता है आगे भी जारी रहने वाला है, वह वर्तमान सरकार ही नहीं बल्कि हर सरकार के लिए सबक है कि किसी भी विभाग का एक सीमा से आगे दुरुपयोग अंतत: किस तरह से ‘काउंटर प्रोडेक्टिव’ यानी आत्मघाती हो जाता है। वैसे, जिस गति से वर्तमान सरकार ने विभिन्न विभागों, विशेषकर निगरानी करने वाली संस्थाओं का दुरुपयोग किया है, उसने इस सरकार की मंशा पर तो स्थायी रूप से प्रश्नचिन्ह लगा ही रखा है, इन एजेंसियों की प्रमाणिकता को भी गंभीर धक्का पहुंचाया है। किसी भी चुनी हुई सरकार के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि देश की उन संस्थाओं का, जिन पर लोकतंत्र टिका है , सम्मान करना और उन्हें बचाए रखना तो है ही, उन्हें मजबूत करना भी कर्तव्य है। संस्थाओं को विकृत करना कितना आसान होता है उसके उदाहरणों से तीसरी दुनिया भरी पड़ी है। एक बार पटरी से उतरी व्यवस्था को वापस विश्वसनीयता दिलाना चुनौती बन जाता है। वैसे भी नई सरकारें इसलिए आती हैं कि वे पिछली सरकार की गलतियों को सुधारें, न कि उन्हें आड़ के रूप में इस्तेमाल करें। अगर ऐसा होता है, तो इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण किसी लोकतंत्र के लिए और क्या हो सकता है।
मुंबई के प्रसंग से एक और बात स्पष्ट होती है कि जो सरकारी कर्मचारी/अधिकारी व्यवस्था द्वारा निर्धारित दायित्व निभाने के लिए प्रदान किए गए अपने अधिकारों को, उनके साथ जुड़े दायित्वों को लांघकर तात्कालिक आकाओं के पक्ष में दुरुपयोग करते हैं, वे निजी स्वार्थों के लिए अपने देश और देशवासियों से विश्वासघात करते हैं।
समीर वानखेड़े, संभवत: इसका हाल का, सबसे अच्छा उदाहरण हैं। वह खुद तो डूब ही रहे हैं, उनके साथ उनके विभाग और वे राजनेता भी, जिनके वानखेड़े चहेते हैं, उसी कीचड़ से लतपथ नजर आने लगे हैं, जिससे यह अधिकारी संबंधित हैं। पर यहां भूलना नहीं चाहिए कि शासक जब किसी को विश्वस्त बनाता है, तो परख लेता है कि कौन कितनी दूर तक जा सकता है। बहुत संभव है कि वानखेड़े को इस काम के लिए चुनने से पहले सत्ताधारियों ने इस अधिकारी की पृष्ठभूमि को ठोक बजा लिया होगा।
अब सवाल है कि वानखेड़े सत्ता के लिए कैसे उपयोगी साबित हुआ?
जिस तरह से पिछले सवा साल में भाजपा भक्तों ने (जिसमें मीडिया भी शामिल है) उन्हें सर पर उठा रखा था और अक्टूबर के तीसरे हफ्ते तक सर पर चढ़ाए रखा, लगता है उन्हें सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के मामले में फिल्म उद्योग की कई हस्तियों को नाकों चने चबवाने का विकृत आनंद और इसे राष्ट्रीय स्तर का स्केंडल बनाने का जो गौरव मिला, उससे वह इस आत्मविश्वास से लबरेज हो गए कि आगे बढऩे का यह सबसे आसान रास्ता है: प्रशंसा की प्रशंसा, प्रसिद्धि की प्रसिद्धि और आम जनता द्वारा पूजे जाने वाले देवता रूपी अभिनेताओं को अपने सामने रोते-गिड़गिड़ाते देखने का परपीड़क आनंद।
सवाल यह भी है कि आखिर उन्होंने फिल्मी इंडस्ट्री को निशाना क्यों बनाया हुआ है, या कहिए, था?
अगर फिलहाल इसे भूल भी जाएं कि फिल्म उद्योग कई कारणों से दुधारु गाय है तो भी इसे दो तरह से देखा जा सकता है: पहला निजी कारण। उनकी पत्नी क्रांति रेडकर मराठी फिल्मों की अभिनेत्री हैं। उन्होंने एक-आध हिंदी फिल्मों में भी छोटी-मोटी भूमिका निभाई है। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं है कि देश की हर क्षेत्रीय भाषा की फिल्म के अभिनेता का अंतिम लक्ष्य बंबईया फिल्म में जगह बनाना होता है। दूसरे शब्दों में क्या वानखेड़े अपनी पत्नी के लिए बॉलीवुड में जगह बनाने के लिए अपने पद का इस्तेमाल कर रहे थे या करना चाहते थे?
यह तो हुआ निजी एंगल।
दूसरा, कारण जो इधर बाताया जाता है कि क्योंकि उत्तर प्रदेश सरकार इस जुगत में है कि नोएडा को फिल्म सिटी बनाया जाए, इसलिए भी यह राजनीतिक दबाव बनाने के तहत हो रहा है।
इसका एक तीसरा भी कोण है, जो ज्यादा बड़ा और समझ में आने वाला है। वह है, संघ परिवार की सांस्कृतिक अवधारणा और उद्देश्य। संघ परिवार कभी भी बंबईया फिल्म उद्योग से तालमेल नहीं बैठा पाया है। वह सदा उसके आदर्शों और लक्ष्यों के खिलाफ जाता है। जैसे कि हिंदी फिल्म उद्योग अंतर धार्मिक सौहार्द का ही उदाहरण नहीं है, बल्कि उस पर शुरू से ही, विभिन्न कारणों से, इस्लाम धर्म के अनुयायियों का दबदबा रहा है। सब कुछ के बावजूद ये फिल्में धार्मिक सहिष्णुता, बल्कि धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक सदभाव यानी प्रगतिशील विचारों का ही प्रतिनिधित्व करती रही हैं।
बंबईया फिल्म उद्योग के इस उदार चरित्र के कई कारण हैं, जो सामाजिक ज्यादा और राजनीतिक कम हैं। उदाहरण के लिए, इसके बहुसंख्यक दर्शक निम्न व निम्न मध्यवर्ग के तथा युवा हैं, जिनके सपने अपने संघर्षों में विजय होना हैं। और यह वर्ग देशव्यापी है। यह भी अचानक नहीं है कि तीसरी दुनिया के देशों में हिंदी फिल्में हॉलीवुड को मात देती हैं जहां के हालात और सामाजिक मूल्य भारतीय मूल्यों से बहुत दूर नहीं हैं। या कम से कम पश्चिमी मूल्यों से तो मेल नहीं ही खाते हैं। यानी ये फिल्में अपने सरलीकरण के कारण स्थानीयता ही नहीं बल्कि संस्कृति और परंपराओं को भी पार (ट्रांसेंड) कर जाती हैं।
संघ इन फिल्मों की व्यापकता का तो लाभ उठाना चाहता है, पर उनकी लोकप्रियता के कारणों को समझना नहीं चाहता या कहिए नजरंदाज करता है। जो भी हो, इस सद्भाव को खत्म करके वह इस ताकत का इस्तेमाल हिंदू सांप्रदायिकता को फैलाने में ही नहीं, बल्कि उस भारतीय इतिहास को, जो उसकी कल्पना और चाह के ताने-बाने को ध्वस्त कर देता है, बदलना चाहता है। अचानक नहीं है कि इस वर्ष के राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वालों में जिस तरह की फिल्में और अभिनेता शामिल हैं, वह सरकार की मंशा और उसके उद्देश्यों को स्पष्ट कर देते हैं।
फिलहाल एक बड़ा कारण जो संघ के उद्देश्यों और सरकार की जरूरत से जोड़ा जा रहा है वह है मुंद्रा बंदरगाह में तीन हजार करोड़ की हेरोइन का पकड़ा जाना। तो क्या फिल्मी दुनिया पर किया जाने वाला यह धावा उस तीन हजार करोड़ की हेरोइन से ध्यान हटाने के लिए किया गया है? गो कि, यह हास्यास्पद लग सकता है कि कहां पांच-छह ग्राम की गांजे की मात्रा और कहां तीन हजार करोड़ की हेरोइन। पर यह तब आश्चर्य की बात होती अगर यह किसी ऐरे गेरे आदमी के पास से पकड़ी गई होती। यहां जो व्यक्ति पकड़ा गया है वह हिंदी फिल्मों के सुपर स्टार का बेटा है और बंबईया फिल्म जगत आज भी देश की जनता के दिलो दिमाग को नियंत्रित करता है। ऊपर से वह मुस्लिम है और कड़वा करेला यह है कि उसकी पत्नी हिंदू है, संघ परिवार का एक और कांटा। दूसरे शब्दों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का एक और ऐच्छिक निशाना।
अब प्रश्न किया जा सकता है और किया जाना चाहिए कि आखिर जिस समय देश में इतनी बड़ी मात्रा में घातक किस्म का नशा पाया गया हो, उस समय एनबीसी, सरकार और मीडिया का ध्यान क्यों कर और कैसे इतने छोटे मसले पर अटक गया है? मुंद्रा बंदरगाह में पकड़े गए ‘माल’ पर बात क्यों नहीं हो रही है?
चरस का संदर्भ
खैर जो है सो है। फिलहाल प्रश्न यह है कि आखिर देश में, विशेषकर भांग और चरस पर, पाबंदी क्यों है? सन 1980 तक यह हमारे देश में कानूनी तौर पर बेची और खरीदी जाती थी। सवाल यह है कि जिस देश में 2012-2019 के बीच अनुमानत: 350 अरब से 450 अरब तक की ड्रग्स (नशीली दवाएं) आई हों और उसमें सबसे ज्यादा भांग और चरस रही हो तथा दूसरी ओर जिस देश के बारे में अनुमान हो कि वहां स्थानीय स्तर पर निर्मित अंग्रेजी शराब का बाजार तीन अरब 90 करोड़ रुपए का हो और यह बाजार, 2010-2017 के दौरान, 18.22 बढ़ा हो, यह क्या बतलाता है।
स्पष्ट है कि गांजे, भांग और अफीम पर पाबंदी लगाने के बाद से अंग्रेजी शराब के बाजार में जबर्दस्त उछाल आया है। यही नहीं अंग्रेज सरकार ने इसके बरक्स अफीम की खेती को बढ़ावा दिया जिसके व्यापार में वह लगी हुई थी। फिलहाल इससे हुआ यह है कि इसने प्रतिबंधित नशों के अवैध व्यापार में भी बेतहाशा वृद्धि की है।
चरस को कानूनी तौर पर अमेरिकी दबाव में प्रतिबंधित किया गया था। संभवत: इसलिए कि वहां साठ के दशक से बीटनिक/हिप्पी आंदोलन शुरू हुआ था जिसने गांजे को विशेष तौर पर अपनाया। यद्यपि अन्य ड्रगों एलएसडी, आदि का सेवन भी बढ़ा था।
सच यह है कि गांजे और इसके उत्पाद कभी भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं पाए गए हैं। औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार की एक जांच ने पहली बार 1893 में ही भांग को अहानिकारक बतला दिया था। वैसे भी यह किसी से छिपा नहीं है कि गांजा-चरस आदि का सेवन भारत में पिछले कम-से-कम तीन हजार साल से होता रहा है। हिंदुओं के देवता इसका सेवन करते हैं। आज भी देश के कई ऐसे राज्य हैं जहां भांग और इसके उत्पाद, दैनंदिन जीवन का हिस्सा हैं। विशेषकर कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड और उत्तर पूर्व आदि के इलाकों में भांग एक प्राकृतिक उत्पाद है जो स्वयं पैदा होता है। और इसके नशे से लेकर औषधिक व व्यावहारिक किस्म के विभिन्न उपयोग हैं।
इसलिए नशीले पदार्थों की तस्करी को रोकने के लिए संभवत: ज्यादा जरूरी है कि जो नशे हानिकारक नहीं हैं, या तुलनात्मक रूप से कम-से-कम हानिकारक हैं, सिंथैटिक नहीं हैं, उन्हें नियंत्रित तौर पर ही सही, तत्काल खोला जाए। चूंकि भांग देश में उपलब्ध है, इससे नशीली दवाओं की तस्करी तो कम होगी ही, साथ में उसकी बिक्री से होने वाली आय से सरकार को भी फायदा होगा। चूंकि यह सस्ती है और नहीं के बराबर हानिकारक है, इससे नशा पीकर होने वाली दुर्घटनाओं में भी कमी आएगी।
नशे के प्रति अगर समाज की दृष्टि सुधारात्मक न होकर दंडात्मक होगी, तो इसके वही परिणाम होंगे जो हमारे देश में नजर आ रहे हैं: आम जनता उत्पीडि़त होगी तथा नौकरशाही की मनमानी और भ्रष्टाचार बढ़ेगा, दूसरी तरफ तस्कर मौज करेंगे।
चरस और गांजे का बाजार: एक झलक
अंग्रेजी दैनिक द हिंदू के में प्रकाशित एक रिपोर्ट (ए हैवी काकटेल इन विशाखा ऐजेंसी, 10 नवंबर, 2021) के अनुसार सिर्फ आंध्रप्रदेश के विशाखापट्टनम जिले में ही प्रति वर्ष अनुमानतः सात हजार से दस हजार टन गांजे की अवैध रूप से खेती होती है। यह बाजार में सात हजार से 15 हजार रूपये प्रति किलो ग्राम की दर से बेची जाती है।
अनुमान लगाया जा सकता है कि सरकार को करों में रूप में हर वर्ष कितना नुकसान हो रहा है।
यह लेख 10 नवंबर 2021 को अद्यतन किया गया।
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