घबराए नेतृत्व की हड़बड़ी

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घबराहट चौतरफा है। ऐसा डिगा हुआ आत्मविश्वास पिछले सात वर्षों में शायद ही देखने में आया हो।

धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल केंद्र में सत्ताधारियों का अभिन्न अंग हो चुका है। सच तो यह है कि हिंदुत्ववादी विचारधारा और उसके अनुषांगिक संगठन, जिनमें राजनीतिक दल सबसे बड़ा है, इनका इस्तेमाल इनके अस्तित्व के सवाल से जुड़ा रहा है। इधर जो भी हो रहा है उसमें किस तरह से धार्मिकता और उसके प्रतीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है वह देखने लायक है।

पर संकट यह है कि इस घिसे सिक्के पर कलई चढ़ाकर भाई लोग (फिलहाल) उत्तर प्रदेश की जनता को इस बार विकास जमा मंदिर मंत्र से सम्मोहित करने की कोशिश में सड़क, रेल और हवाई अड्डों की शृंखला से घेर कर कमल खिलाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। प्रधानमंत्री जिस नाटकीय अंदाज के लिए जाने जाते हैं उससे देश अपरिचित नहीं है। आखिर विमुद्रीकरण, जीएसटी और लॉकडाउन के झटकों को देश आज तक यूं ही नहीं भुगत रहा है। खैर, उसी नाटकीय ढंग से कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर उन्होंने यह सिद्ध कर दिया है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव पांडुचेरी या त्रिपुरा के चुनाव नहीं हैं।

सत्य वैसे यह भी है कि देश के भविष्य के लिए ये चुनाव जैसे भी हों, भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए निर्णायक साबित होने जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश लोकसभा में 80 यानी सबसे ज्यादा प्रतिनिधि भेजता है और वर्तमान संसद में भी इन यूपीवालों में सबसे ज्यादा 62 भाजपा के हैं। स्वयं प्रधानमंत्री उनमें से एक हैं।

प्रदेश की और भी कई खासियतें हैं। जैसे कि नवंबर माह के अंत में आए आंकड़े बतला रहे हैं कि यह प्रदेश देश के सबसे पिछड़े राज्यों में है। दुर्योग यह भी है कि उत्तर भारत का यह सबसे घना बसा प्रदेश अपने अलावा आर्थिक रूप से पिछड़े कई राज्यों के पड़ोस में है। इसी माह नीति आयोग द्वारा जारी बहुआयामी गरीबी संकेतक (एमआइपी) के अनुसार इस सूची में नंबर एक पर बिहार है जहां गरीबी का प्रतिशत 51.91 है। दूसरे नंबर पर झारखंड है जहां यह प्रतिशत 42.16 है और तीसरे नंबर पर 36.95 प्रतिशत वाला उत्तर प्रदेश है। थोड़ा और नजदीक से देखें तो इसी रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश के तीन जिलों में गरीबी 70 प्रतिशत पर पहुंची हुई है। देश के सबसे गरीब दस जिले हिंदी पट्टी के तीन राज्यों – उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश में ही हैं। विडंबना यह है कि आजाद भारत के इतिहास में यह राज्य अपने पिछड़ेपन के बावजूद दिल्ली की सत्ता पर हावी रहा है। जो स्थिति है लगता नहीं कि है कि ऐसा कोई संकेत हो जो बतलाता हो कि विगत पांच-सात वर्षों में इन राज्यों की दशा में कोई सुधार हुआ हो। सच तो यह है कि वह चाहे डिमोनोटाइजेशन हो या फिर कोविड, यह प्रदेश बल्कि क्षेत्र, कुल मिलाकर बदहाल रहा है। रंगीन विज्ञापन जितने रंगीन और संख्या में जितने ज्यादा नजर आ रहे हैं वे बता रहे हैं कि यथार्थ को छिपाने की कोशिश किस दर्जे तक हो रही है।

उत्तर प्रदेश के तीन सबसे गरीब जिले श्रावस्ती, बहराइच और बलरामपुर पूर्वांचल ही में हैं और खरबों की योजना को अंजाम दिया जा रहा है गौतमबुद्ध नगर में जहां गरीबी सिर्फ 17.47 प्रतिशत है। अगर हवाई अड्डे बनाने से विकास होता है, जो गला फाड़-फाड़ कर कहा जा रहा है तो एक हवाई अड्डा श्रावस्ती में भी बना दिया जाना चाहिए था जिससे पूरा पूर्वी उत्तर प्रदेश लाभांवित होता। और प्रधानमंत्री को अपना विमान सड़क पर नहीं उतरवाना पड़ता। ऐसा नहीं है कि लोग जानते न हों कि हवाई अड्डे किनके लिए जरूरी हैं। जिन लोगों को अभी डेढ़ साल पहले ही दिल्ली, हरियाणा और पंजाब-जैसे प्रांतों से लॉकडाउन के कारण साइकिल और पैदल तक भागना पड़ा हो वे जन्नत की हकीकत से अपरिचित हों क्या ऐसा हो सकता है। यह वही सरकार है जिसने उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया था।

पर आज चुनाव की हड़बड़ी या (घबराहट?) में जो हो रहा है वह स्तब्ध करने वाला है। उठाईगिरी की घटनाएं रह रह कर जनता के सामने आ रही हैं। कोई विज्ञापन कहीं से उठाया जा रहा है तो कहीं का मॉडल कहीं और थोपा जा रहा है। स्तब्ध करने वाली बात यह है कि इसका शिकार केंद्र की सरकारी एजेंसियां ही नहीं बल्कि लखनऊ से दिल्ली तक के मंत्री हो रहे हैं। शर्मनाक यह है कि जेवर हवाई अड्डे के जो चित्र दिखलाए जा रहे हैं वे दक्षिणी कोरिया के ही नहीं बल्कि बींजिंग के नए दाशिंग हवाई अड्डे के भी हैं और इस चित्र को केंद्रीय सरकार की ओर से जारी किया गया है जिसे सूचना व प्रसारण मंत्री समेत कई मंत्रियों ने अपने संदेशों में लगा दिया था। चीनी भारत की जम कर मजाक उड़ा रहे हैं। दिल्ली में सन्नाटा है। किसी के मुंह से एक शब्द नहीं निकल रहा है। सरकारी तंत्र इस हद तक जड़वत हो गया है कि कोई तार्किक और ठोस बलि का बकरा तक ढूंढ पाने में असमर्थ है।

पर जैसा कि सभी जानते हैं मामला उत्तर प्रदेश के चुनाव मात्र का नहीं है। ये चुनाव प्रदेश के राजनीतिक भविष्य में ही नहीं बल्कि केंद्र के भविष्य को लेकर भी निर्णायक साबित होंगे, इसलिए विकास के अलावा राम जी के महत्त्व को भी नहीं भुलाया जा रहा है। ‘रामायण एक्सप्रेसÓ जो रेल मंत्रालय ने सात नवंबर से चलाई है उसका अंदाज कुछ अलग ही है। यानी वह राजधानियों और शताब्दियों जैसी आराम दायक है। उत्तर प्रदेश के चुनावों की बढ़ती छाया और देशभर के राम से जुड़े सारे स्थलों में सबसे ज्यादा, सबसे महत्त्वपूर्ण और सबसे चर्चित स्थल भी, इसी प्रदेश में केंद्रित होने के कारण, ‘राम आसरे’ दल के लिए इस अवतार का महत्त्व उसके अस्तित्व से किस हद तक जुड़ा हुआ है बतलाने की जरूरत नहीं है। इसलिए रेल विभाग ने एक नई गाड़ी चलाई है। देशभर में, चारों दिशाओं में फैले, राम से जुड़े विभिन्न स्थलों की यात्रा के लिए इस सेवा की पहली गाड़ी गत सात नवंबर को निकल कर 24 नवंबर को वापस दिल्ली लौट चुकी है।

वैसे वरिष्ठ नागरिकों को मुफ्त में तीर्थयात्राएं करवाने की पहल भाजपा शासित मध्यप्रदेश सरकार ने एक अर्से पहले की थी। नरेंद्र मोदी के नेतृत्ववाली गुजरात की भाजपा सरकार उसमें नया अध्याय जोड़ा। उसने मानसरोवर जाने वाले तीर्थ यात्रियों को सब्सिडी देने की शुरुआत की, जिसे फिलहाल दिल्ली के केजरीवाल ने चरम पर पहुंचा दिया है। पर रेखांकित करने की बात यह है कि केंद्र में आने के बाद मोदी सरकार ने 2018 में हज के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को खत्म कर दिया था। यह किसी से छिपा नहीं है कि नरेंद्र मोदी का मुस्लिम विरोध लगभग ट्रेडमार्क है। असल में धार्मिक, विशेषकर हिंदू, यात्राओं के लिए यह अनुदान या सुविधा मूलत: हज के प्रावधान के समानांतर शुरू हुई थी, जबकि हज की सब्सिडी औपनिवेशिक काल से चल रही थी। मक्का का जैसा महत्त्व इस्लाम में है संभवत: वैसा महत्त्व किसी एक स्थान का हिंदू धर्म में या अन्य किसी भारतीय धर्म में नहीं है। हिंदुओं के लिए देखा जाए तो चार धाम हैं जहां जाना एक धार्मिक-सामाजिक कृत्य रहा है पर वह भी मन चंगा तो कठौती में गंगा का मामला है। भारत भूमि के चारों छोरों पर धाम बनाने वाले शंकराचार्य ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि उनके हजार साल बाद भी हिंदुओं के नए-नए तीर्थों के विकसित होने का सिलसिला थमेगा नहीं। जैसे उत्तर में वैष्णव देवी या अमरनाथ, दक्षिण में तिरुपति या सबरीमाला आदि जिनके महत्त्व से भारतीय जनता बहुत हुआ तो पिछली आधी सदी में परिचित हुई है।

पर मामला यहीं नहीं रुका है। अवतारों का सिलसिला जारी है। शिरडी के साईं बाबा के संप्रदाय ने अपना जो स्थान बनाया है वह भी नहीं भुलाया जा सकता। इन नए तीर्थों के उदय का क्या कारण है यह तो समाज विज्ञानी ही बता पाएंगे पर इससे जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण कारण आजादी के बाद निम्न व मध्यवर्ग में आई अप्रत्याशित संपन्नता और यातायात के संसाधनों आदि का विकास है, जिसने आवाजाही को आसान बना दिया है। इसने उसकी पहचान की ललक को भड़काया है। अब तीर्थों, विशेषकर हिमालयीय क्षेत्र के तीर्थों के साथ, वह खतरा नहीं रहा है जब उस ओर सामान्यत: लोग चौथी अवस्था में जाते थे और यात्रा की बीहड़ता व असुरक्षा के चलते पारिवारिकजन उन्हें लगभग अंतिम प्रणाम कर देते थे।

पर विगत में अटके रहने को तो अब वे भी तैयार नहीं हैं जो भारतीय संस्कृति और धर्म की वापसी चाहते हैं। भक्ति के रंग में सराबोर रामायण एक्सप्रेस की हो लें, जो इस संपादकीय के लिखे जाने तक दिल्ली लौट आई थी। इस सफल यात्रा में जो ‘…भंग’ हुआ वह आश्चर्यजनक रूप से आया भी तो संतों की ओर से आया। एक अंग्रेजी अखबार की तर्जुमा भाषा में कहें तो उज्जैन के संतों ने रेल मंत्रालय को धमकी दी कि अगर रामायण एक्सप्रेस में तुरंत बदलाव नहीं किया गया तो वे इसे चलने नहीं देंगे। आपत्ति का कारण कोई भोजन-भजन को लेकर नहीं था कि इसमें कंदमूल फल या अन्य किस्म का वैश्वण भोजन मिलना चाहिए बल्कि बैरों की पोशाक से संबंधित था, जिसे किसी कल्पनाशील डिजाइनर ने शुद्ध सनातनी परंपरा में डिजाइन कर दिया था। यह संतों की पोशाक की तरह भगवा ही नहीं किया था बल्कि बेचारे बैरों के सर पर संतों की पगड़ी और गले में रुद्राक्ष की माला भी डलवा दी गई थी। धमकी का असर हुआ, जो कि होना ही था और इस बार केंद्र की महाबली सरकार ने, संक्षेप में कहें तो, साल भर अड़े रहने की गलती नहीं की, बल्कि चौबीस घंटे के अंदर ही घुटने टेक दिए।

संयोग देखिए भाजपा का झंडा भी तीन चौथाई भगवा है और एक चौथाई के करीब हरा। कृपया भूलें नहीं यह इस्लाम वाला हरा नहीं है। हां, हरा जरूर है। चाहें तो इसे हरित कह सकते हैं। अखबारों ने हाथ जोड़े लाइन लगाए बैरों का जो चित्र छापा है उसमें उनकी सिर्फ पगड़ी ही गेरुए रंग की नजर नहीं आ रही है बल्कि उसमें, हमारे मिजान में जो पट्टी नजर आ रही है, वह स्पष्ट तौर पर हरी है। दूसरे शब्दों में देखा जाए तो रेल मंत्रालय ने संतों की पगड़ी भर की ही नकल नहीं की थी रंगों के संयोजन की भी नकल कर मारी जो ‘संयोग’ से भाजपा के झंडे की है। अब आप इसे चाहें तो भूल कहें या चतुराई, यह आप की समझ पर निर्भर है।

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