चिकित्सकीय शिक्षाः विकेंद्रीकरण जरूरी क्यों है?

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नेशनल एलिजिबिलिटी कम एंट्रेंस टेस्ट (नीट) जो हिंदी में ‘राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा’ कहलाती है, मूलत: देश के सभी मेडिकल कॉलेजों में, चाहे वे सरकारी हों या निजी क्षेत्र के, प्रवेश के लिए एक साथ परीक्षा आयोजित करती है। इसको लेकर इधर जो विवाद है वह मात्र राज्य बनाम केंद्र के अधिकारों तक ही सीमित नहीं है बल्कि चिकित्सकीय शिक्षा से कहीं अधिक इस बात से संबंधित है कि यह व्यवस्था देश के महानगरों में ही नहीं बल्कि दूर-दराज के ग्रामीण और दुर्गम क्षेत्रों में किस तरह से उपलब्ध हो सकती है।  इस महत्वपूर्ण विवाद को वृहत्तर संदर्भों में जांचे बगैर समझा नहीं जा सकता। यह सिर्फ शिक्षा व्यवस्था का नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीति से गहरे जुड़ा सवाल है।

शिक्षा मूलत: सामाजिक समानता का मसला है, जिसके माध्यम से मानव संचित-अर्जित ज्ञान का व्यवस्थित तरीके से प्रचार-प्रसार होता है, इसलिए वह समरसता और समानता का मापदंड है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि भारतीय समाज अपनी पूरी अवधारणा और संरचना में असमानता से भरा है। हर वह संस्था जो समाज के विकास और सशक्तीकरण के लिए विकसित हुई या बनाई गई है, उस पर समाज के छोटे से ऐसे हिस्से का वर्चस्व है, जो अनंत काल से जातीय आधार पर अधिसंख्य लोगों को इन संस्थाओं में प्रवेश करने से वंचित करता आ रहा है।

यह अचानक नहीं है कि आजादी के बाद और देश के समतावादी विचारधारा के प्रति समर्पित होने के बावजूद हमारे समाज में असमानता व्यापक रूप से उपस्थित है। बल्कि सुविधा संपन्न वर्ग सामाजिक-आर्थिक संसाधनों और सत्ता पर नियंत्रण के बल पर अपने वर्चस्व को संरक्षित करने के लिए नए-नए रास्ते तलाशता रहा है। जन्मजात प्रतिभा  के गुणों और प्रतिद्वंद्विता के हथियारों का इस्तेमाल फिलहाल सबसे घातक साबित हो रहा है।

इसी के साथ इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि सत्ता और व्यवस्था पर वही नियंत्रण रख सकता है जो इस बात से परिचत हो कि व्यवस्था कैसे काम करती है और यह बात शिक्षा के माध्यम से ही जानी जा सकती है।  आज राज्य व्यवस्था कई गुना जटिल और सर्वव्यापी है। इस आधारभूत सत्य को सिवाय उनके, जो पहले से ही शिक्षा से लैस हैं, कौन बेहतर समझ सकता है! नतीजा यह है कि भारतीय समाज में वह वर्ग जो जातीय व्यवस्था के कारण पहले से ही ज्ञान के महत्व से परिचित और लाभान्वित रहा है, उसने शिक्षा पर अपने नियंत्रण को कभी कमजोर नहीं होने दिया।

भाषा का सवाल

शिक्षा पर नियंत्रण का सबसे प्रभावशाली माध्यम भारतीय समाज में भाषा रहा है। कभी यह संस्कृत के माध्यम से रहा – धार्मिक एकाधिकार के लिए आज भी यह वही भूमिका निभा रहा है, तो कभी फारसी (सत्ता से जुड़े रहने के लिए) और पिछले कम-से-कम डेढ़ सौ वर्षों से अंग्रेजी के माध्यम से यह दोनों काम एक साथ कर रहा है। इधर इसका उपयोग घटने की जगह बढ़ रहा है, विशेषकर शिक्षा और बौद्धिक गतिविधियों के क्षेत्र में। भाषा का इस्तेमाल समाज के विशाल तबके को आसानी से प्रतिद्वंद्विता से बाहर कर देता है।

देश के उत्कृष्ट संस्थानों, जैसे कि आइआइटी, आइआइएम और एम्स, आदि  में तथाकथित चुनी हुई प्रतिभाओं की जो भर्ती होती है वह एक ऐसी प्रक्रिया से जुड़ी है जिसमें प्रतिभा कम और प्रशिक्षण का अधिकतम कमाल रहता है। लगभग यही हाल डॉक्टरी शिक्षा का है, जिसके लिए पिछले कुछ वर्षों से नीट-जैसी परीक्षा ली जाती है। इसका परिणाम यह हुआ है कि पूरी उच्च और व्यावसायिक शिक्षा प्रतिभा से कहीं ज्यादा रणनीति और पूंजी नियोजन के खेल में बदल गई है। पिछले कम-से-कम तीन दशकों में ट्यूशन और कोचिंग के धंधे का निजी  और अंतरिक उद्यम से कॉरपोरेटिकरण यूं ही नहीं हुआ है। कोटा, दिल्ली, इलाहाबाद, आदि शहरों की बात जाने दें, जो इस धंधे की सबसे बड़ी मंडियों में तब्दील हो चुके हैं, देश के हर बड़े शहर से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक यह व्यवसाय उछाल पर है।

प्रौद्योगिकी में बढ़ते ऑटोमेशन ने जिस तरह से इंजीनियरों की मांग को घटाया है उसके बाद सरकारी नौकरियों (जिन में इधर जबरदस्त कटौती की जा रही है) के अलावा डॉक्टरी ही ऐसा पेशा बचा है जो मध्य और उच्च मध्य वर्ग को सबसे आकर्षक लग रहा है। यह अचानक नहीं है कि निजी क्षेत्र के कॉलेजों में पोस्ट ग्रेजुएशन में दाखिले की फीस एक करोड़ रुपए तक आम बात हो गई है। यह फीस कितने लोग दे सकते हैं? और जो देते हैं वह पैसा कहां से लाते हैं? फिर ये डॉक्टर क्या करते हैं? ऐसे डॉक्टरों से मरीज और समाज क्या उम्मीद कर सकता है? वे क्यों ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में काम करेंगे, क्यों गरीबों को देखेंगे? क्या उनके माता-पिता ने उन्हें डॉक्टर इसीलिए बनाया कि वे अंतत: एक सरकारी बाबू की हैसियत से रहें?

क्या यह अचानक है कि देश के बड़े-बड़े निजी अस्पतालों के बारे में अक्सर खबरें आती हैं कि वे मानव अंगों के व्यापार का अड्डा बन गए हैं। बद्दतर यह है कि कोविड-19 की महामारी के चरम के दौर में छोटे अस्पतालों की बात तो छोडि़ए, जहां सुविधाएं ही नहीं हैं, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) का जो हाल हुआ, क्या उसे भुलाया जा सकता है? सारे डॉक्टर भाग खड़े हुए और मरीजों को राम भरोसे छोड़ दिया गया। इसका सबसे भयावह वृत्तांत पूर्व आईएएस अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर से सुना जा सकता है, जो कोविड- 19 से पीडि़त होने पर वहां भर्ती हुए थे। वह इसलिए बच पाए कि उनकी पत्नी उन्हें समय रहते वहां से बिना डॉक्टरों की सलाह के ही ले गईं।

यह हृदयहीनता और व्यावसायिक अनैतिकता जिस तरह से सामने आई, वह हिला देने वाली है। पर यहां तात्पर्य यह भी नहीं है कि यह सब कुछ सिर्फ डॉक्टरों की वजह से हुआ। इसमें व्यवस्था और दृष्टिहीन सरकार की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता।

डाक्टर कहां जाते हैं?

आगे बढऩे से पहले यह जान लेना भी लाभप्रद होगा कि भारतीय डॉक्टर आखिर जाते कहां हैं और देश में डॉक्टरों की जो असंतुलित कमी नजर आती है क्या उसका संबंध सिर्फ मेडिकल कॉलेजों की क्षमता से संबद्ध है?

अंग्रेजी माध्यम के कारण भारतीय डॉक्टरों की मांग विशेषकर अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया में रहती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के लगभग दस साल पहले के एक आंकड़े के अनुसार, तब  विदेशों में लगभग एक लाख भारत में प्रशिक्षित डॉक्टर काम कर रहे थे। इनमें से आधे अमेरिका में थे। देश से डॉक्टरों के पलायन की विकटता को इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि सन 1989 से 2000 तक एआईआईएमएस यानी एम्स से 428 छात्रों ने एमबीबीएस किया, इनमें से 241 यानी आधे से ज्यादा, देश छोड़कर चले गए।  जो बचे, अनुसूचित जाति और जनजातियों के  डॉक्टर थे। इनका 70 प्रतिशत देश में ही रहा।

उदारीकरण के बाद देश में मेडिकल कॉलेजों की बाढ़ आ गई है। 1965 में जहां देश में कुल मेडिकल कॉलेज 86 थे, वहीं 2019 में वे बढ़कर 539 हो गए थे। इनमें बड़ी संख्या में निजी मेडिकल कॉलेज हैं। यानी जो निजी पूंजी से लाभ के लिए चलाए जाते हैं। इनका लक्ष्य यह है कि ये कॉलेज ऐसी शिक्षा दें जिससे कि विदेशी जरूरतों के अनुरूप डॉक्टर तैयार हों। इन कॉलेजों में बड़ी मात्रा में विदेशी पैसा लगा हुआ है। वैसे अब यह कोई नई बात नहीं रह गई है। सार्वजनिक स्वास्थ्य के निजीकरण को कई दशक हो चुके हैं। सरकारें लगातार सार्वजनिक स्वास्थ्य से अपना हाथ खिंचती जा रही हैं।

इस पृष्ठभूमि में तामिलनाडु की सरकार का नीट की जगह बारहवीं की परीक्षाओं को मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के लिए आधार बनाने की मांग करने से बेहतर कुछ नहीं हो सकता। मेडिकल शिक्षा को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाए जाने के संदर्भ में एक सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि आखिर ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जहां अधिसंख्य भारतीय डॉक्टर जाते हैं, इन लोगों की एमबीबीएस की परीक्षाओं में दिखाई प्रतिभा से पहले अंग्रेजी भाषा की परीक्षा क्यों लेता है? क्योंकि आप जिस मरीज का इलाज करेंगे वह अंग्रेजी भाषा का होगा। क्या भारतीयों पर यह बात नहीं लागू होनी चाहिए? आखिर चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा भारतीय भाषाओं में क्यों नहीं दी जा सकती, अगर वह चीनी में दी जा सकती है, रूसी में दी जा सकती है, यूक्रेनी में या फिर योरोप के छोटे-से- छोटे देश की भाषा में दी जा सकती है तो? क्या इसलिए कि तीसरी दुनिया के गरीब देशों में से एक हमारे देश के डॉक्टर संपन्न पश्चिमी देशों में नौकरी पा सकें? देश की जनता की कीमत पर डॉक्टरों का पश्चिमी देशों में जाना आजादी के दिनों से चला आ रहा है। याद कीजिए तब देश की हालत क्या थी?

तमिलनाडु : आपत्ति क्या और क्यों  है?

अब सवाल है तमिलनाडु  सरकार की नीट को लेकर क्या आपत्तियां हैं?

सबसे बड़ी और आधारभूत आपत्ति यह है कि यह नियम संविधान में दिए राज्यों के अधिकार का हनन करता है। सरकार ने अपने बर्बर बहुमत का लाभ उठाते हुए बिना किसी को अपनी बात कहने का अधिकार दिए राज्यों को संविधान प्रदत्त अधिकार से वंचित कर दिया। संविधान में शिक्षा का अधिकार, कुछ अपवादों के, राज्यों को दिया गया था। इस में संख्या नंबर 25 के अंतर्गत राज्यों को व्यावसायिक श्रमिकों के प्रशिक्षण का भी अधिकार था। जैसा कि पूर्व वित्त मंत्री पी.चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस के अपने साप्ताहिक स्तंभ में लिखा है कि ऐतिहासक तौर पर राज्य ही मेडिकल कॉलेज खोला करते थे और निजी क्षेत्र में मेडिकल कॉलेज खोलने की इजाजत दिया करते थे। इस तरह से छात्रों और प्रशिक्षुओं की भर्ती का भी अधिकार उनका ही था।

केंद्र द्वारा उनके अधिकार को हड़प लिए जाने पर राज्य इस मसले पर न्याय की उम्मीद में सर्वोच्च न्यायालय गए। पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जहां तक उच्च शिक्षा का सवाल है, और वह भी व्यवसायगत, वहां पर प्रतिभा (मैरिट) सर्वोपरी है।

अब सवाल है ‘मैरिट’ क्या है और उसको मापने का मापदंड क्या है या क्या होना चाहिए? वह जो महानगरीय पश्चिममुखी समाज का मापदंड  होना चाहिए या फिर वह जो स्थानीयता और दैनंदिन जीवन से संबंध रखता है? ज्ञान का कोई एक मादंड नहीं हो सकता और न ही वह किसी एक भौगोलिक क्षेत्र तक सीमित हो सकता है। अगर ऐसा होता है तो निश्चित है कि वह समाज में विकृति पैदा करेगा।  और यही नीट की परीक्षाओं से हुआ है। उसने जो प्रतिभाओं को खोजा वे कुल मिलाकर महानगरीय ज्ञान से लदी हुई थीं। वह भाषा के स्तर पर भी अंग्रेजी के पक्ष में और प्रकारांतर से परंपरागत रूप से साधन संपन्न अंग्रेजीदां लोगों के ही ज्ञान को प्रतिभा का मानदंड मान रही थी। यही कारण है कि तमिलनाडु में ही कुछ नहीं तो तीन बच्चों ने नीट परीक्षाओं से ऐन पहले ही तनाव में आत्महत्या कर ली। नतीजा यह है कि राज्य सरकार ने न्यायाधीश एके राजन की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई जिसकी जांच के नतीजे उन बातों का समर्थन कर रहे थे जिनकी शंका थी।

इस रिपोर्ट में जो उदाहरण दिए गए हैं उनके अनुसार तमिलनाडु में नीट से पूर्व राज्य के बोर्ड की परीक्षाओं से आए छात्रों की राज्य के मेडिकल कॉलेजों में दाखिला पाने का प्रतिशत 98.23 हुआ करता था जो गत वर्ष गिरकर 59.41 प्रतिशत हो गया। यानी इसमें लगभग 39 प्रतिशत की गिरावट आई। जहां तमिल माध्यम के स्कूलों से आए छात्रों का मेडिकल में दाखिले का प्रतिशत तब 14.88 था, वह नीट के कारण गिर कर 1.99 हो गया।  दूसरी ओर सीबीएससी के छात्रों का प्रतिशत जो नीट से पूर्व सिर्फ 0.97 प्रतिशत था वह बढ़कर 38.84 हो गया।

स्पष्ट है कि अगर हम देश में बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाना चाहते हैं तो जितनी जल्दी हो सके मेडिकल की पढ़ाई भारतीय भाषाओं में की जानी चाहिए। जहां तक मेडिकल कॉलेजों में निजी पूंजी लगी है वे चाहे जिस भाषा को पढ़ाई का माध्यम बनाएं बना सकते हैं।

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