राजनीति, धर्म और प्रकृति

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भारतीय राजनीति जो रुख अपना रही है वह परेशान करने वाला तो है, पर उसके वास्तव में परिणाम क्या हो सकते हैं, ठीक-ठीक अनुमान थोड़ा मुश्किल है।

इतिहास में ऐसे दौर आते हैं जब छोटी-मोटी घटनाएं भी निर्णायक घटनाओं की पूर्व पीठिका साबित होती हैं। जैसे एक समाचार चैनल का यह आइटम कि इस दीपावली के दौर में कीमती चीजों की बिक्री में उछाल आया जबकि मध्य व निम्न मध्यवर्ग द्वारा खरीदे जाने वाले सामानों की बिक्री अपेक्षा से नीचे रही।

महंगी चीजों से क्या तात्पर्य है, बतलाना जरूरी है। दिल्ली के आलीशान यानी लक्जरी कारों के एक डीलर के अनुसार, वह त्यौहारों के इस मौसम में मर्सिडीज बैंज की 800 गाडिय़ां बेच और एक हजार गाडिय़ों की बुकिंग कर चुका था। उसी कार डीलर के एक अधिकारी ने जानकारी में इजाफा किया कि हमारे यहां तीन से नौ महीने तक की वेटिंग लिस्ट है।

अब जरा देखिये। इस ब्रांड की सबसे सस्ती गाड़ी सिर्फ 41.99 लाख की है। और सबसे मंहगी दो करोड़ 70 लाख की। इस गाड़ी या इस जैसी गाड़ी को कौन खरीदता है, बतलाने की जरूरत नहीं है। पर दिक्कत यह है कि दूसरी ओर दो पहिये वाले वाहनों की बिक्री में गिरावट रही। यह प्रवृत्ति सिर्फ स्कूटरों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि साइकिलों के मामले में ज्यादा मुखर थी। दूसरे शब्दों में अर्थव्यवस्था को लगातार बड़ी पूंजी के पक्ष में झुकाते जाने और सामान्य उपभोग की वस्तुओं पर टैक्स बढ़ाने से आम आदमी के उपभोग की वस्तुओं पर महंगाई खासा व्यापक रूप ले चुकी है। यानी पहले कोविड के दौर और फिर ‘सुधरती’ अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव को वास्तव में निम्न और निम्न वर्ग के लोगों ने झेला, अब योरोप में चल रहे युद्ध ने आम आदमी की रोटी मुहाल की हुई है।

इससे भी बड़ी चिंता का विषय यह है कि निम्न मध्य व निम्न वर्ग की आय में गिरावट थम नहीं रही है। यह रुपए के मूल्य में आ रही गिरावट से अतिरिक्त है। बेरोजगारी चरम पर पहुंच चुकी है, दैनिक मजदूरी करने वालों के लिए तो अस्तित्व का संकट मुंह बाए आ खड़ा हुआ है।

इस सब के बाद कहना जरूरी नहीं है कि देश प्रगति पथ पर है : अडाणी विश्व का दूसरा सबसे समृद्ध व्यक्ति एक बार तो बन ही चुका है, चाहे कुछ घंटों के लिए ही क्यों न हो। हिम्मत नहीं हारेगा और हवा का रुख, यानी जनता का वोट इसी तरह पड़ता रहा तो आज नहीं तो कल यह चमत्कार भी होकर रहेगा। यानी गरीब देश का एक बेचारा व्यापारी दुनिया का सबसे समृद्ध व्यक्ति होगा। आखिर यह भी तो देश के लिए गौरव की बात है!

पर मुश्किल यह है कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व यथार्थ से मुंह मोड़े हुए है या कहिए देश की जनता को भरमाने में लगा है। प्रधानमंत्री के सरोकार देखिये। उत्तराखंड के पहाड़ दरक रहे हैं। गांव के गांव उजड़ गए हैं और बचे-कुचे प्राकृतिक आपदा के साए में डरे-घबराए खैर मना रहे हैं। एक के बाद एक प्राकृतिक आपदा ने दशकों से इस क्षेत्र को हिला रखा है। पर कभी सुरक्षा, कभी विकास और अब धर्म के नाम पर पहाड़ दर पहाड़ बारूद के धमाकों के बाद के झटकों से कंपकपाए हुए हैं। सरकार ने इसका अचूक इलाज ढूंढ लिया है। राज्य को शुद्ध धार्मिक क्षेत्र में परिवर्तित करने में कहीं कोई कसर नहीं दिखलाई देती है। भगवान का आशीर्वाद जिसके पास होगा उसे डर कैसा और क्यों!

प्रधानमंत्री के केदारनाथ जाने से दो ही दिन पहले अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया ने खबर छापी कि वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जिओलॉजी के वैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र का सर्वेक्षण करने के बाद पाया कि केदारनाथ मंदिर से छह किमी ऊपर चोरबाड़ी ग्लेशियर के बगल के चैंपियन ग्लेशियर में बर्फीले तूफान (एवलांसेज) शुरू हो रहे हैं। पहला ऐसा तूफान 22 सितंबर को केदारनाथ से तीन चार किमी की दूरी पर आया, दूसरा पहली अक्टूबर को और तीसरा दो अक्टूबर को। पिछले दस वर्षों में इस तरह के बर्फीले तूफानों में 100 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं।

धार्मिक यात्राओं पर जाना मूलत: धार्मिक स्थल के पर्यावरण के प्रति आदर और कृतज्ञयता प्रकट करना तथा उससे तारतम्य स्थापित करना है। पर इससे भी बड़ी बात है, उसके प्रति संवेदनशीलता प्रकट करना है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि हिमालय का संबंध धर्म से कहीं अधिक उस क्षेत्र के जीवन से है, जो गंगा-यमुना के मैदान के नाम से जाना जाता है। हो न हो, इसी मैदान के कृतज्ञ लोगों ने सुदूर हिमालय में बद्रीनाथ और केदारनाथ जैसे मंदिरों की स्थापना की होगी। वे निश्चय ही कम जानकार लोग थे, पर कम लालची, कम अय्याश और ज्यादा व्यवहारिक और सहनशील लोग थे। जिस दिन हिमालय के पर्यावरण का तारतम्य बिगड़ेगा उसका सबसे बड़ा झटका इसी मैदान को झेलना होगा। वह क्या होगा और कैसा होगा, इसके अनुमान पर्यावरणविदों ने लगाए हुए हैं। इसलिए प्रधानमंत्री का केदारनाथ के मंदिर के बाहर किसी मध्य एशियाई आक्रामक की तरह विजय के दंभ में हवा में हाथ हिलाना, अश्रृद्धा न भी कहें तो भी शालीन तो किसी भी हालत में नहीं है।

 

चतुर व्यावसायिकता की विवेकहीनता

जानकार बताते हैं कि इस मौसम में इतनी बड़ी संख्या में श्रृद्धालु नहीं आया करते थे? फिर आखिर इस बार ऐसा क्या हुआ? और लोग गए कैसे हवाई मार्ग से? विशेषकर बद्रीनाथ व केदारनाथ जैसे दुर्गम स्थलों पर हेलीकॉप्टरों से जाना, चतुर व्यावसायिकता हो सकती है, पर व्यवहारिक यानी पर्यावरण की दृष्टि से यह निहायत विवेकहीन है। यहां तक कि सड़क मार्ग से भी एक सीमा से ज्यादा लोगों का जाना, मूलत: इन धार्मिक स्थलों का निरादर है। शांति के इन दैवीय स्थलों को लोहे के उडऩे वाले दानवों के अट्टहास से भर देना, जरा सोचिए कहां तक व्यवहारिक है। न यह शालीनता है, न ही सभ्यता। इस अर्थ में देखें तो, जिसने भी इन स्थलों को, फिर चाहे वह बद्रीनाथ हो या केदारनाथ, 7 वीं-8वीं सदी में इस निर्जन और दुर्गम स्थल को निर्माण के लिए चुना होगा तो यों ही तो नहीं चुना होगा?

आप उनकी श्रृद्धा, उनकी भक्ति, संवेदनशीलता, प्रकृति से लगाव, संवेदनशीलता, श्रम और दृढ़ प्रतिज्ञता की तुलना, आज की हर चीज को बिना किसी कष्ट के पा लेने की मंशा से करें, तो क्या देखते हैं? आधुनिक सुविधाओं और व्यावसायिकता ने इन स्थलों को धार्मिक श्रद्धा के छद्म की आड़ में पिकनिक स्पॉट में बदल दिया है। इन पवित्र स्थलों को कूड़े और गंदगी से पाट दिया है। 17 जून, 2013 में आई विपदा से इस मंदिर के आसपास हुई तबाही में अनुमानत: 6074 लोग मारे गए थे और एक लाख तीर्थयात्री रास्तों में फंस गए थे। इन सभी दुर्घटनाओं की जड़ में अत्यधिक तीर्थयात्रियों का आना और इससे बनने वाले होटल, आरामगाह, दुकानें, आदि के साथ ही साथ पूरे क्षेत्र में निमार्णाधीन जल विद्युत परियोजनाएं हैं।

इस दुर्घटना से सबक लेते हुए पर्यावरण को बचाने के लिए कड़े नियम बनाए जाने चाहिए थे। तीर्थ यात्रियों की संख्या को कड़ाई से नियंत्रित किया जाना चाहिए था और सिर्फ बेहद जरूरी निर्माण को अनुमति मिलनी चाहिए थी। पर हो उल्टा रहा है। प्रधानमंत्री ऐसे मौसम में वहां पहुंचे हैं जबकि मंदिरों के कपाट बंद होने वाले थे। क्या इसे इत्तेफाक कहा जाए कि उनके समानांतर लाखों लोग इस असह्य मौसम में वहां टूट पड़े? ठंड के इस मौसम में ऐन मंदिरों के कपाट बंद होने तक कुल 14 लाख 70 हजार भक्त केदारनाथ तथा बद्रीनाथ पहुंचे थे। स्पष्ट है कि इसके पीछे किसी न किसी का हाथ था और वह सोचा समझा था। यह एक तरह का ‘मोबिलाइजेशन’ था जो केदारनाथ से शुरू होकर सीधे अयोध्या पहुंचा। और इसी भव्यता तथा ‘फैशन परेड’ से ठीक तीन दिन पहले 19 अक्टूबर को वह दुर्घटना हुई थी जिसमें पायलट समेत सात लोग मारे गए थे। यह अकेली दुर्घटना नहीं थी, बल्कि इसके अलावा जोशीमठ के निकट भूस्खलन के चलते चार लोगों के मरने की खबर थी।

चकित करने वाली बात यह है कि इनमें से एक लाख 30 हजार भक्त 11 हजार फिट की ऊंचाई पर स्थित इस तीर्थ में हेलीकॉप्टर से पहुंचे। स्पष्ट है कि नवधनाढ्यों की बन आई है। औसतन यहां उडऩे वाले हेलीकॉप्टरों की यात्री क्षमता पांच और बहुत हुआ तो छह होती है। इस तरह इन एक लाख 30 हजार यात्रियों को ले जाने में ही हेलीकॉप्टरों ने लगभग एकतरफा 21 हजार छह सौ के करीब उड़ानें भरी होंगी। उन्हें वापस लाने में भी यह संख्या इतनी तो होगी ही।

 

हेलीकॉप्टरों का हल्ला

ध्यान देने कि बात यह है कि हेलीकॉप्टर अपनी उड़ान के दौरान जो शोर करते हैं वह सामान्य से बहुत ज्यादा होता है। अपने शक्तिशाली पंखों से, जो उन्हें आकाश में कम ऊंचाई पर उडऩे में मदद करते हैं, बेहद आवाज करने के साथ ही साथ पंखों से हवा को काटते हैं और छोटा-मोटा तूफान खड़ा कर देते हैं। तुलनात्मक रूप से कम ऊंचाई पर होने के कारण इन बर्फीली चोटियों में बर्फ कमजोर होती है और हेलीकॉप्टरों की इस आवाज से वह गिरने लगती है। इस प्रक्रिया का दूरगामी असर होता है जो दुर्घटनाओं के अलावा स्थानीय मौसम को भी प्रभावित करता है। वह दिन दूर नहीं लगता जब योरोपीय देशों के शीतकालीन खेलों की तरह इन स्थलों पर भी पर्यटक जाने लगेंगे। वैसे ओली में शीतकालीन खेल हो भी चुके हैं। बिजली और मशीनों के इस दौर में क्या संभव नहीं है?

सामान्यत: सितंबर के महीने में पितृविसर्जन के बाद इन मंदिरों में तीर्थयात्रियों की संख्या लगभग नहीं के बराबर रह जाती है, पर इस महीने बद्रीनाथ-केदारनाथ, दोनों जगह तीर्थ यात्रियों की भयंकर भीड़ थी। इस भीड़ का मुख्य कारण प्रधानमंत्री थे, जो जहां जाते हैं भीड़ जमा करना नहीं भूलते। इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि इसमें बड़ी संख्या भाजपा के कार्यकर्ताओं और मोदी के भक्तों की हो।

यह अचानक नहीं था। उनके जाने के पीछे के जो राजनीतिक निहितार्थ हैं वे स्पष्ट तौर पर गुजरात से जुड़े हैं जहां विगत 30 वर्ष से भाजपा का एक छत्र राज चल रहा है, पर इधर बढ़ रही चुनौतियों के कारण डगमगाता लग रहा है। प्रधानमंत्री व गृहमंत्री का गृह राज्य होने के कारण भाजपा इसे किसी भी हालत में गंवाना नहीं चाहती।

 

बरास्ता दिल्ली

मोदी जी केदारनाथ के ‘फैशन शूट’ से बरास्ता दिल्ली सीधे अयोध्या पहुंचे थे और वहां से गुजरात की राह पकड़ी जहां उन्होंने न जाने कितने उद्घाटन किए और कितने नींव के पत्थर। न महंगाई की बात कीजिए, न ही बेराजगारी की। 75 हजार नियुक्ति पत्र तैयार हैं जिन्हें प्रधानमंत्री के कर कमलों से सीधे करोड़ों बेरोजगारों में से सौभाग्यशालियों को बांटा जाएगा। आखिर कोई तो पूछे कि क्या ये रातों रात नवसर्जित नौकरियां हैं? अगर नहीं तो आखिर कितने वर्षों से इन्हें खाली रखा गया है? यही नहीं, यह भी पूछा जाना चाहिए क्या सरकार ने नियुक्ति पत्र देने का नया तरीका अपनाना शुरू कर दिया है। उसके जो चयन आयोग हैं, रोजगार दफ्तर हैं क्या उनके कर्मचारियों की छुट्टी कर दी गई है? गुजरात का चुनाव होने वाला है और इसके बाद कई और राज्यों के चुनावों की लाइन लगी हुई है। आशा करनी चाहिए कि अगर इसी गति से चुनाव दर चुनाव हजारों नौकरियां दी गईं तो भारत के नौजवानों का भविष्य उज्जवल है। इस गति से कम से कम मई 2024 में होने वाले आम चुनावों तक एक भी बंदा बेजरोगार नहीं रहेगा।

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